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कहानी- मधुयामिनी‌ (Short Story- Madhuyamini)

उत्साह से भर उठे दोनों. लगा नव यौवन लौट आया है और पचास वर्ष के पुराने दो प्रेमी घर से भाग रहे हैं.

आख़िर फ़ैसला हो ही गया. दोनों पक्ष संतुष्ट हो गए. यदि न होते तो संभव है, फ़ैसला अभी नहीं हो पाता. झगड़ा चलता ही रहता और युगों पहले जन्मे एक वृद्ध दम्पति जान हथेली पर ले चिंताग्रस्त बैठे रहते. बेटे के जन्म पर मां-पिता का मुख गर्व से भर उठता है. और जब वह योग्य बन जाता है, तो फिर अभिभावक की आखों में सुख-सम्मान भरे सुरक्षित भविष्य के सुनहरे सपने लहराने लगते है. रामबाबू के दोनों बेटे इतने योग्य हैं कि कोई भी मां-पिता उन पर गर्व करें. शत्रु ईष्यों में जल मरे और दूसरे बच्चे उनकी योग्यता को अपना आदर्श माने.

रामबाबू और पत्नी विमला के पैर धरती पर नहीं पड़ते थे पुत्रों के गर्व से. दिनरात सपने झिलमिलाते थे जीवन संघर्ष से धकी-थकी पलकों में. वही दोनों योग्य पुत्र फ़ैसले से संतुष्ट, होकर उठ गए अपनी-अपनी पत्लियों के पीछे. आपस में कुछ हल्की-फुल्की बातें भी करते हुए गए तनावमुक्त मन को लेकर.

दुर्बल बेसहारा मां-बाप बैठे रह गए, बेटों के फ़ैसले ने तो मानों उनके प्राण ही निचोड़ लिए, रामबाबू की आयु सत्तर और विमला पैसठ की और दोनों के विवाहित जीवन की आयु पचास वर्ष. पचास के ,सुख-दुख, आशा-निराशा, आंसू-मुस्कान और प्यार-मनुहार भरे परिपक्व विवाहित जीवन को अतियोग्य बेटों ने पलभर में तोड़कर फेंक दिया और अपनी पत्नियों के आंचल पकड़ हंसते-हंसते कमरों घुस गए.

विमला की आंखों से झर-झर आंसू निकल कर उम्र और संघर्ष के खरोंच भरे गालों पर निरंतर बहे जा रहे थे. दिखाई कम देता है और हाथ के पास चश्मा नहीं है. फिर भी अर्द्धशताब्दी से साथ-साथ चलने वाली पत्नी की अश्रुधारा को स्पष्ट देख रहे थे राम बाबू, और अपने अंतर्मन में उठते हाहाकार को नियंत्रण में रखने का प्राणपण से प्रयास करते-करते अपने को ही अंदर से टूटता पा रहे थे.

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असंतोष की अग्नि कई वर्षों से सुलग रही थी. दोनों बेटे योग्य हैं और प्रतिष्ठापूर्ण जीवन के अधिकारी भी है. समाज में उच्च स्तर के प्राणी हैं. मान-सम्मान का मूल्य बहुत है उनका. यह बूढ़े और गरीब मां-बाप उनके जीवन के अभिशाप बन गए हैं. उनसे उनकी प्रतिष्ठा व सम्मान को ठेस लगती है. दो बेटे हैं उनके, छोटा मेरठ, बड़ा मुंबई, पहले अमेरिका था, अब मुंबई चला आया है. दोनो भाइयों के बीच तनाव चल रहा था मां-बाप को लेकर. छोटे बेटे के साथ दोनों मेरठ में रह

रहे थे. बड़ा बेटा अमेरिका में था. वहां तो उन लोगों का जाना संभव नहीं था, पर जब से बड़ा मुंबई गया है, तब से दोनों भाइयों के बीच कलह की लपटें उठ रही हैं और ये बेचारे उन लपटों में झुलस रहे हैं.

छोटे का कहना है कि मां-बाप तो वे दोनों के हैं, फिर वह अकेला क्यों भार उठाए? उसकी बात भी ठीक है. उधर बड़े का कहना है कि मुंबई के फ्लैट में न तो दोनों को रखने का स्थान है और न ये लोग उस उच्च अभिजात समाज के फ्लैटों में रहने योग्य है. छोटे के पास सरकारी लंबी-चौड़ी कोठी है. उसके आउट हाऊस में इनको आराम से छिपा कर रखा है उसने, यह सुविधा उसके पास नहीं है. उसकी बात भी न्यायोचित है. मर्माहत् रामबाबू की समझ में नहीं आता कि वृद्ध मां-बाप कितने बड़े बोझ हैं भला, जिनका भार ये संपन्न बेटे नहीं उठा पा रहे.

रामबाबू अपने जीवन को टटोलने लगे हैं. वे भी तीन भाई थे. तीनों में आर्थिक दृष्टि से वे ही दुर्बल थे. उनके माता-पिता भी एकदम निर्धन थे. ऊपर से मां गठिया और पिता दमा के रोगी.

अभावग्रस्त परिवार होते हुए भी रामबाबू ने मां-बाप का भार सदा अपने ऊपर लिया. वह उनके साथ रहा करते थे. क्योंकि दोनों बड़ी बहुओं से मां की बनती नहीं थी, यहां विमला के मृदुल स्वभाव और सेवा से संतुष्ट वह जीवनभर उनके साथ रहे. पर कभी भी उनके मन में प्रश्न क्यों नहीं उठा कि वह अकेले उनकी ज़िम्मेदारी क्यों लेंगे. असल में मां-बाप भार भी हो सकते हैं, इस बात का ज्ञान भी ही उनके दोनों योग्य बेटों ने कराया.

विमला अथक परिश्रम करती थी, अभावग्रस्त परिवार की गाड़ी चलाने के लिए और सास-ससुर के सुख-आराम की व्यवस्था करने के लिए खटते वे ख़ुद भी थे. पाठशाला की छु‌ट्टी के बाद दो घर के बच्चे पढ़ाने जाते थे. थकी-हारी विमला और आंत-क्लांत वे रात में जब मिलते थे तो बस एक छोटा सा सपना देखा करते थे, जो आज भी पूरा नहीं हुआ कि पहाड़ देखने चलेंगे. पर इतना पैसा कभी न जुटा कि पहाड़ पर जा सकें. उनके माता-पिता के पास धन-दौलत नहीं सौ गज पर बना एक घर था बस.

विमला की सेवा से प्रसन्न हो वह घर वे उसको दे गए. अब अवाक होकर सोचते हैं कि भाई-भाई में किसी प्रकार का विवाद क्यों नहीं खड़ा हुआ? उन्होंने मकान का हिस्सा क्यों नहीं मांगा और उन्होंने क्यों नहीं समझा कि माता-पिता बोझ हैं? इस बोझ को दूसरे भाइयों को भी उठाना चाहिए, पर अब लगता है कि सबके सब मूर्ख थे.

बेचारी विमला! तब भी खटती थी, अब भी खट रही है. योग्य बेटा और उसकी बहू को प्रसन्न रखने के लिए भोर में पांच बजे से रात दस बजे तक दो पल बैठ कर आराम नहीं कर पाती और‌ वे ख़ुद भी. भोर में दूध लेने जाना होता है. उसके बाद रात गए तक बहू के हर छोटे-बड़े आदेशों को पूरा करना होता है. उसमें उसके पालतू कुत्तों की सेवा भी है. इतना होने पर भी वे दोनों बोझ ही बने हुए थे बेटे के परिवार में.

तभी देबू और रघू में लड़ाई छिड़ गई कि इस बोझ की बांट कर उठाना चाहिए. बहुत विचार-विमर्श के बाद दिवाली बाद रघू मेरठ आया और दो दिन बहस लड़ाई के बाद यह फ़ैसला हुआ कि मां को रघु मुंबई ले जाएगा और बाप मेरठ में देबू के साथ रहेंगे. बूढ़े दम्पति की आत्मा कांप उठी उनके फैसले को सुनकर.

यहां सम्मान नहीं था, सुख-आराम नहीं था. धके शरीर को खींच-खींच कर काम करवाते और रोटी के साथ जली-कटी सुनते, फिर भी एक तृप्ति थी, एक संतोष था. पति-पत्नी के साथ रहने का सुख ही था. मन की व्यथा एक-दूसरे से कहकर हल्के हो लेते थे, यही एक छोटा-सा उपहार भाग्य ने दिया था उनको. पर निष्ठुर बेटों ने अब उसको भी छीन लिया, जो दंपति पचास वर्षों में एक दिन के लिए अलग नहीं रहे, उन को निर्दयी हाथों के झटके से अलग कर दिया. विमला मान-सम्मान खो, रो पड़ी थी.

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"हमको अलग न करो. कोने में पड़े रहने दो ऐसे ही."

"मेरे पास दोनों को खिलाने के लिए कुबेर का ख़ज़ाना नहीं है."

"तो बेटा थोड़ा-थोड़ा दोनों देना. हम तीर्थ स्थान में जाकर रह लेंगे."

देबू की पत्नी क्रूरता से घूरकर बोली, "चालाक तो ख़ूब हो. हम अपना पेट काट डलिया भर रुपया भेजें और तुम मस्ती मारो."

"क्या मस्ती मारेंगे इस उम्र में? यह कोई मस्ती की उम्र है? बस दो रोटी खाकर जीवन के दिन पूरे करने हैं."

"घर में रह कर पूरे करो."

रघू ने कड़वे स्वर में कहा, "रोटी के बदले घर की रखवाली तो हो कम से कम."

रामबाबू ने सोचा संभव है, बेटे बात माने उसकी, "बेटा, इस उम्र में देखभाल की ज़रूरत पड़ती है, हम एक-दूसरे की देखभाल कर लेते हैं. तुम छह-छह माह रख लो हम दोनों को तो..."

देबू ने मुंह सिकोड़ा, "बड़ा साफ़ हिसाब बता दिया. मुंबई से मेरठ और मेरठ से मुंबई का किराया हर छठे महीने कौन भरेगा दो जनों का?"

रघू की बहू खड़ी हो गई. कमीज़ का कॉलर ठीक किया (विलायत में पली है. साड़ी पहनना पसंद नहीं उसको. जीन्स-शर्ट पहने थी) और बोली, "आह, मैं तो थक गई, तुम लोगों की झिकझिक से, जो फ़ैसला हो चुका वह बदलेगा नहीं. चलो डार्लिंग."

रामबाबू अवाक रह गए. मां को रोते-कलपते देख कर भी बेटों को दया न आई. पत्नियों के आंचल पकड़े कमरे में चले गए. यह याद भी न रहा कि इसी मां के आंचल की छाया में पल कर इतने बड़े हुए हैं.

"अब और मत रो. कुछ आंसू बचा ले आगे के लिए." पर विमला और ज़ोर से रो उठी.

"सुन जाड़ा आ रहा है, तेरे जोड़ों का दर्द बढ़ जाता है. वैद्यजी वाला तेल कितना है शीशी में?"

सुबक उठी वह, "आग लगे शरीर को. अरे भगवान आज रात. को ही उठा ले मुझे."

पत्नी को तड़पते देख रामबाबू का मन तो भर आया, पर पचास वयों से पति की भूमिका निभा रहे हैं. अब इस मार्मिक परिस्थिति को संभाल लेना ही उचित समझा.

"हमारा भाग्य ही ऐसा है. रोकर क्या करेगी?" इस बार आंसू नहीं आग सुलग उठी विमला की आंखों में, "भाग्य को क्यों दोष देते हो? दोष दो अपनी बुद्धि को. हज़ार बार मना नहीं किया था मैंने तुम को कि बेटों के पीछे सर्वस्व न लुटाओ. मेरे ज़ेवर, घर मत बेचो. बेटों ने बुढ़ापे में साथ न दिया तो क्या करोगे भला? पर माने थे तब तुम? तब तो मैं बेटों की दुश्मन लग रही थी. अरे आज घर भी बचा रहता, तो आधे में रहते, आधे को किराए पर उठाते. आराम और इज्ज़त से रहते. लात मारती बेटों की कमाई पर. पर तुम... तुमने सब फूंक डाला बेटों पर." अपराधी से सिर झुका लिया रामबाबू ने.

"हां री, तू ठीक कहती थी. मेरी बुद्धि ही भ्रष्ट हो गई थी उस समय." सदा दृढ़ता से खड़े रहने वाले पति को अनायास पराजय स्वीकारते देख विमला का हृदय फट-सा गया.

"तुम भी क्या करते? दुश्मनों को पढ़ाना जो था." रामबाबू को सहारा मिल गया सफ़ाई पेश करने के लिए, "अब तू ही बता? रघू को अमेरिका की पढ़ाई की मंजूरी मिल गई. इधर देबू का डॉक्टरी में नाम आ गया. पैसे चाहिए और हम घर-जेवर छाती पर धरे बैठे रहते तो लोग नहीं थूकते हम पर?"

"और अब वही बेटे हमारे भाग्य पर थूक रहे हैं. हाय रे भाग्य... कितने सपने देखे थे हमने बेटों को लेकर..." "बड़े सपने हमें नहीं देखने चाहिए थे. अब सुन तो, अपना ख़्याल रखना. नई जगह, नया पानी, समन्दर की हवा, बीमार न पड़ना."

विमला फिर सुबक उठी, "तुम... तुम्हारा क्या होगा जी, कौन रात को गरम तेल मलेगा? भोर में तुलसी-अदरक को चाय बना कर कौन देगा, कौन देखेगा तुमको..?" पति के घुटनों पर सिर टेक रोती रही विमला अभी तक तो रामबाबू अपने को संभाले थे, अब वे‌ भी बच्चों की तरह रो उठे.

"अरी, मैं तो कुछ भी नहीं जानता कि मुझे कब क्या चाहिए. मैं क्या करूंगा तेरे बिना."

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"भगवान! हम दोनों को आज रात ही उठा लें."

पर भगवान ने कब-किस असहाय की बात सुनी है भला? कुछ नहीं हुआ उनको, बस रात गहराती चली गई. आज रात घर में उत्सव जैसा खाना बना था, क्योंकि एक वर्ष से जो तनाव दोनों भाइयों में चल रहा था, वह समाप्त हो गया. समस्या का हल भी मिल गया. वैसे देबू की बहू सास को रखना चाहती थी, क्योंकि उसको शरीर हिलाने की आदत नहीं है. सास चाय प्याला भी पलंग पर पहुंचाती है. पर रघू मां को ही ले जाना चाहता था. उसने तर्क दिया कि उसकी पत्नी नौकरी करतो है, अतः बच्चों की देखभाल के लिए मां की ज़रूरत है. उसके तर्क में बल था. देबू को मान लेना पड़ा. अधिक ज़ोर देते भी न बना कि कहीं खीझ कर किसी को भी न ले गया तो मुसीबत. पूरा खाना विमला ने बनाया था, पर दोनों ने दांतों से एक तिनका भी नहीं काटा. बस इस एक रात का साथ भर ही तो था जीवनसाथी के साथ रहने का.

सुबह नौ बजे की गाड़ी से रघू मुंबई रवाना होगा विमला को साथ लेकर. फिर कभी नहीं मिल पाएंगे ये. सच तो यह है कि दोनों ही जीवनभर अभावग्रस्त रहे, उसका कारण भी यही बेटे हैं, जिनको विमला दुश्मन कह रही है. दोनों इतने मेधावी थे कि अच्छे स्कूल में अनायास दाखिला हो गया. गली, मुहल्ले में उनके बेटों की चर्चा होती और वे गर्व से फूल कर कुप्पा हो जाते.

स्वयं तो गिर-मर कर दसवीं पास करके संस्कृत पड़े और पाठशाला में पढ़ाने लगे. बेटे अंग्रेज़ी स्कूल में बड़े-बड़े लोगों के बच्चों को पीछे ढकेल फर्स्ट आते, तो वह फूले न समाते. रघू ने इंजिनियरिंग का कोर्स कर लिया. वे सोच रहे थे. अब नौकरी पर लग जाएगा, पर वह तो जाने और क्या पढ़ने अमेरिका जाने की तैयारी करने लगा. पाठशाला में जो पिता संस्कृत पढ़ाते थे, वे क्या समझें यह सब बड़ी-बड़ी पढ़ाई. इसलिए रघू ने, बताया कुछ नहीं, बस एक मोटी रकम तैयार रखने को कह कर दिल्ली चला गया अपने काग़ज़ पत्तर तैयार कराने.

तभी नतीज़ा निकला कि देबू ने डॉक्टरी की पढ़ाई में भर्ती होने की परीक्षा पास कर ली है. अब वह डॉक्टरी पढ़ेगा, डॉक्टरी महंगी पढ़ाई है और पढ़ाई पूरी होने में कई साल लगते हैं, इतना रामबाबू जानते थे. पर लोगों ने बधाई दे-देकर जादू सा कर दिया. ख़ूब मिठाइयां बंटी और फिर घर-जेवर सब झोंक दिया बच्चों के भविष्यकुंड में.

अपना खुला हवादार घर बेच जब छोटी अंधेरी कोठरी में जिस दिन रहने आए, उस दिन साथ में रघू-देबू दोनों ही थे. और अंधकार को दूर करने के लिए एक जगमगाता सा आशा का दीपक थमा दिया मां-बाप के हाथ में दोनों ने कि पढ़ाई पूरी करके बड़ी-बड़ी नौकरी करेंगे. दोनों नाती-पोते व नौकरों से भरे घर में राज करेंगे,

उस दीपक की ज्योति तब आधी ही रह गई, जब रघु ने अमेरिका में रहने वाली कायस्थ परिवार की बेटी से प्रेम-विवाह कर लिया. अब उनके भविष्य के सपने देबू से जुड़ गए. डॉक्टर बनते ही सरकारी नौकरी मिली, कोठी भी मिली. अंधेरी कोठरी का काल समाप्त हुआ. और फल-फूल के बगीचे से घिरी देबू की सरकारी कोठी में आकर उनको लगा अब सपने साकार हो चले. एक देबू ही दस बेटों का सुख देगा. बड़े-बड़े घरों से देबू के रिश्ते आते और रामबाबू खिल उठते.

फिर एक दिन एक बहुत ही बड़े घर में देबू का विवाह हो गया. चांद सी बहू घर में आई. रघू भाई के विवाह में आया था, उसकी वहू को भी देखा था. तब बुराई करने को कुछ नहीं था उसमें, जाते समय बाप के हाथ पर रुपए रखा गया था रघू.

पहले कुछ समझ नहीं पाए, फिर धीर-धीरे यह स्पष्ट हो गया कि बहू उनको नौकरों के स्तर का ही समझती है. साथ ही साथ देबू भी बदलने लगा है.

बहू के मायके से लोग आते तो उनको इन लोगों से बात भी न करने दिया जाता. बहू उनसे या विमला से जो भी काम कहती, उसमें आदेश का स्वर होता. धीरे-धीरे उन दोनों को नौकरों के लिए बने आउट हाउस में भेज दिया.

गैराज के पीछे पास के गिरजाघर में आधे-आधे घंटे में ढलती रात को सूचना गूंज उठती, तो यह चौंक उठते और विमला की सिसकियां तेज हो जाती. विच्छेद के पल पास आते जा रहे हैं और वो दोनों वहीं आसुंओं में डूबे बैठे हैं. बाकी सारा प

घर सो रहा है. मां-बाप का बंटवारा कर बड़ी शांति की नींद सो रहे हैं सब अपनी-अपनी पत्नियों के साथ.

कोठरी में दो दरवाज़े है, एक तो कोठी के अंदर जाता है व दूसरा सड़क की ओर खुलता है. सड़क की ओर के दरवाज़े का एक पल्ला खुला था. रामबाबू ने देखा सड़क पर अब इक्का-दुक्का लोग ही आ-जा रहे थे. एकाध मोटर-स्कूटर भी गुज़र जाता. उनके मन में विचित्र घबराहट फैल गई. इसी सड़क की तरह ही क्या उनका जीवन सूना नहीं हो जाएगा? अपने शरीर को भी कब-क्या चाहिए यह उनको नहीं मालूम पचास वर्ष से विमला जो संभाल रही है उन्हें. अब क्या उसके बिना वह चल पाएंगे? घड़ी में एक बजा. चौंक उठे वे. समय पास आता जा रहा था. बस पांच घंटे का साथ और है, फिर उनके हार सुख-दुख, आशा-निराशा की साथी छिन जाएगी उनसे. कितना भयानक कष्ट है यह?

मरते समय न तो विमला पास होगी, न उसका स्पर्श मिलेगा, विमला के प्राण निकलेंगे, तो वह उसके माथे पर अपना हाथ भी नहीं रख पाएंगे. सुन लेंगे कि विमला मर गई. जीवनभर तो उसे कुछ न दिया और अब तो शांतिपूर्ण मृत्यु भी नहीं दे पाऊंगा. विमला ठीक कहती थी कि बेटों पर सर्वस्व न लुटाओ, आज समझ रहे हैं, कितनी भयानक भूल हुई. दो बजा समय और सिमट गया. विमला उनसे लिपट गई, "मेरा जी घबरा रहा है, कुछ करो जी, मैं मुंबई नहीं जाऊंगी."

"पंख टूटा बूढ़ा पक्षी हूं. क्या करूं? निर्धन हूं..."

"बूढ़े हैं, निर्धन है पर अपंग तो नहीं, रोगी नहीं."

विमला के मुख पर दृढ़ता छा गई. रामबाबू अवाक.

"हम अपनी दो‌ रोटी कमा लेंगे."

"तू... तू... क्या कह रही है?"

"हमको किसी की ज़रूरत नहीं. बेटा, नाती-पोता सबका सुख भोग लिया, अब अकेले रहेंगे. इन लोगों से सारे नाते तोड़ लेंगे."

"पर जाएंगे कहां..?"

"इतने बड़े संसार में जगह की कमी है?"

"अकेले... अनजान जगह..."

"अकेले क्यों? दोनों साथ जो हैं. अनजान जगह में जो अनजान लोग मिलेंगे वे इन अपनों से अच्छे होंगे."

"पर ये जाने न देगें."

"ये हमारे कौन हैं, जो रोकेंगे, हम अभी जाएंगे. भगवान की धरती बहुत बड़ी है. उसमें दया, ममता, सच्चाई, भलाई ने अभी दम नहीं तोड़ा, यहां से निकले तो हज़ारों अपने मिलेंगे."

"विमला, जीवन की हर कठिनाई में तूने ही रास्ता दिखाया. पचास वर्ष में एक बार तेरा कहा न माना सो, उसका नतीजा भुगत रहा हूं. अब तो जो तू कहेगी वही करूंगा."

"तो फिर देर नहीं, अभी चलते हैं. फिर से नया घर बसाएंगें, बेटों पर बोझ बनना भूल की."

उत्साह से भर उठे दोनों. लगा नव यौवन लौट आया है और पचास वर्ष के पुराने दो प्रेमी घर से भाग रहे हैं. चादर बिछा अपने कुछ कपड़े, एक-दो बर्तन व रामायण रख गठरी बांध ली और कंबल उठा दोनों चलने को तैयार हो गए.

"पैसे सुनो जी. बस किराए भर को..."

"तू चिंता न कर, पूरे दो हज़ार है."

गुप्त स्थान से सौ-सौ के पूरे बीस नोट निकाल कर अपने पास रख बाकी के विमला के ब्लाउज़ में रख पिन से अटका दिया, फिर गठरी उठाई. "भारी तो नहीं?"

"इससे भारी तो आटे का कनस्तर होता है, जो मैं पिसवा कर लाता हूं."

उनके शरीर में गज़ब की फुर्ती आ गई. दोनों सड़क पर आ गए. आधी रात सड़क पर तेज चलते हुए विमला की सांस तेज चल रही थी मानो, बेटे पीछा कर रहे हों.

रात्रि सेवा की बसें तैयार खड़ी थीं. यात्री भी कम नहीं थे.

कंडक्टर ने पूछा, "अम्मा हरिद्वार चल रही हो."

"हां बेटा."

"आओ बस तैयार खड़ी है."

"सुनो जी."

"क्या है? चाय पीएगी?"

"नहीं जी... मैं कह रही थी... हम पहली बार साथ निकले हैं न..."

रामबाबू चौंके, वह ठीक कह रही थी.

"क्या करें गृहस्थों की चक्की में पिसते रहे. कहीं नहीं जा पाए, न कुछ देखा न सुना."

"देबू के ब्याह के बाद बहू को लेकर गया था, अरे क्या कहते हैं उसे?"

रामबाबू हंसे, "अंग्रेज़ी में 'हनीमून' और हिंदी में 'मधुयामिनी' कहते हैं."

- बेला मुखर्जी

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