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कहानी- महादान (Short Story- Mahadan)

meenu usha kiran
          मीनू ‘उषा किरण’
आंखें ईश्वर का हमें दिया गया एक अनमोल उपहार हैं. यदि हमारे इस दुनिया से जाने के बाद वे किसी की अंधेरी ज़िंदगी में रोशनी भर सकें, तो इससे बड़ा महादान और क्या होगा? जीते जी तो हम सभी शायद पुण्य कमाने की मंशा से दान-धर्म करते हैं, पर मरणोपरांत किया गया नेत्रदान महादान है, जो सचमुच निस्वार्थ होता है. 
Hindi Short Story आज हमारे नए मकान ‘आशीर्वाद’ के गृहप्रवेश का कार्यक्रम था. सुबह से ही मेहमानों का, बधाइयों का तांता लगा हुआ था. पूजा-कथा, भोजन आदि सभी अच्छी तरह संपन्न हो गया. एक-एक करके सभी मेहमान शाम तक विदा हो गए. अगले दो दिनों तक बेटा-बहू ने दौड़-दौड़कर घर व्यवस्थित करवाने में हमारी मदद की, पर मकान को घर बनने में व़क्त तो लगता ही है. वे दोनों ठहरे नौकरीवाले. “मम्मी, अब सब धीरे-धीरे कर लेना, ज़्यादा छुट्टी ले नहीं सकते ना...” दोनों बच्चों को मायूस होते देख मैं बोली, “अरे बेटा, तुमने इतना तो कर दिया है, बाकी भी सब हो ही जाएगा. तुम लोग जाने की तैयारी करो.” मुझे आश्वस्त देख दोनों मुस्कुरा दिए. अगले दिन वे लोग भी चले गए. बच्चों के जाने से घर एकदम सूना-सूना हो गया, रह गए हम तीन प्राणी- मैं, मेरे पति अखिल और मांजी यानी मेरी सासू मां. मेरे पति माध्यमिक विद्यालय के प्रिंसिपल के पद से रिटायर हुए थे और अब सारी जमा-पूंजी के रूप में हमने यह मकान बनवाया था. जीवन के कई वर्ष किराए के मकान में ही गुज़ारा किया, सबसे ज़्यादा संतुष्टि तो मांजी को थी कि आख़िर उनके बेटे का ‘अपना मकान’ बन गया. अखिल ने एक कोचिंग संस्थान जॉइन कर वहां अपनी सेवाएं देनी शुरू कर दीं. घर में खाली बैठना उन्हें मंज़ूर न था. बेकार बैठने से दिमाग़ और शरीर दोनों में ज़ंग लग जाता है. शायद उनकी सोच सही भी थी. अब घरेलू कार्य में मदद के लिए एक महरी की ज़रूरत महसूस हो रही थी, पर यहां इस नई कॉलोनी में मिलना थोड़ा मुश्किल था. अभी चारों ओर नए भवनों का निर्माण हो रहा था. कुछ अधूरे थे, तो कुछ पूर्णता की ओर थे. शाम के समय मांजी कुछ दूर तक घूम आती थीं. कुछ क़दम के फ़ासले पर ही मकान में रंग-रोगन चल रहा था. वहां हमेशा वे एक बुज़ुर्ग महिला को एक 4-5 वर्षीय बच्चे के साथ बैठा देखतीं. एक दिन उन्होंने पूछ ही लिया, “तुम यहां क्या करती हो?” “जी मांजी, हम यहां चौकीदारी करते हैं. ” “क्या नाम है तुम्हारा?” “जी तुलसा और ये हमारा बेटा है सांवरा.” उसने बच्चे के दोनों हाथ जोड़कर कहा, “बोलो प्रणाम.” बच्चा कुछ नहीं बोला. मांजी को लगा शायद वो देख नहीं सकता, पर वे उसे अपना वहम मानकर वापस चली आईं. अब मांजी जब भी उधर जातीं, तुलसा ‘प्रणाम मांजी’ कहकर बातें करने लगती. एक दिन मांजी ने पूछ ही लिया, “ये तेरा बेटा देख नहीं सकता क्या?” तुलसा ने एक गहरी सांस लेकर कहा, “हां मांजी, ये जन्म से ही अंधा है. ईश्‍वर ने मुझे शादी के 15 सालों बाद औलाद का सुख दिया, लेकिन इसे ना जाने किस कर्म की सज़ा दी.” “और तेरा पति?” “शराबी था, पिछले साल ज़हरीली शराब पीकर मर गया.” तुलसा ने कसैला मुंह बनाया, उसकी बात सुन आंखों में नमी उतर आई. “तो तू अकेली ही इसे संभालती है.” “हां मांजी, वो तो इस मकान का ठेकेदार भला आदमी है, मुझे यहां चौकीदार रख दिया. सांवरा को छोड़कर कहीं जा भी नहीं सकती.” “अब ये मकान भी पूरा हो गया. मकान मालिक आ जाएंगे, तो तू कहां जाएगी?” “जहां रामजी ले जाएं.” “तू घर का चौका-बर्तन कर सके, तो हमारे यहां काम कर सकती है.” “पर मांजी मैं... सांवरा भी साथ है हमारे.” “कोई बात नहीं. कल सुबह आकर मिल लेना.” रात को खाना खाते समय मांजी ने तुलसा के बारे में बताया. “पर मां, यूं ही किसी अनजान महिला को काम पर रखना सही रहेगा? क्या पता ईमानदार है भी कि नहीं.” अखिल थोड़े आशंकित होकर बोले. “नहीं बेटा, वो मेहनतकश महिला है. अच्छे-बुरे इंसान की पहचान है मुझे. तुम चाहो तो उसका फोटो व नाम-पता लिखवाकर थाने में जमा करवा देना.” मांजी बोलीं. “ठीक है कल मिल लेते हैं.” अखिल हाथ धोते हुए बोले. सुबह तुलसा अपने बेटे सांवरा का हाथ पकड़े हमारे घर आ पहुंची. अखिल ने उससे थोड़ी पूछताछ की. वो बोली “ठेकेदार से भी हमारे बारे में पता कर लेना साब.” “अच्छा, तेरी जानकारी थाने में जमा करवाएं, तो तुझे कोई ऐतराज़ तो नहीं है ना?” “नहीं मांजी, आप तो बड़े आदमी हैं. जैसा ठीक लगे कर लेना.” “तो कल से काम पर आ जाना.” मैंने राहत महसूस करते हुए कहा. दूसरे दिन तुलसा सवेरे ही आ गई. मैंने उसे घर का काम समझाया. “तू इसे सांवरा को, यही नाम है ना इसका.” “हां जी.” “मांजी के कमरे में बैठा दिया करना.” वो उसे मांजी के कमरे में बैठा आई. एक-दो दिन में तुलसा सारा काम बख़ूबी करने लगी, पर उसकी नज़रें हमेशा चौकन्नी हिरणी की तरह सांवरा पर टिकी रहतीं. धीरे-धीरे सांवरा को मांजी के कमरे का अंदाज़ा हो गया. वो सधे क़दमों से पूरे घर में घूमता. ‘कितना मासूम और प्यारा बच्चा है.’ उसे देख मैं हमेशा सोचती, ‘काश! इसकी आंखें होतीं, तो ये रंगीन दुनिया को भी देख पाता.’ मांजी सांवरा को कभी कहानी सुनातीं, तो कभी भजन. फिर उसे दोहराने को कहतीं. सांवरा बड़ी तीक्ष्ण बुद्धि का बच्चा था, उसे एक बार में ही सब कंठस्थ हो जाता. तुलसा भी बड़ी आश्‍वस्त रहती. मैंने उसे साफ़-सफ़ाई से रहना व काम करना सिखा दिया था. हमारे कार गैरेज में दोनों मां-बेटे के रहने की व्यवस्था भी कर दी गई. “आजकल तो विज्ञान ने कितनी तऱक्क़ी कर ली है, क्या इस बच्चे की आंखों का कोई इलाज नहीं हो सकता?” एक दिन मैंने अखिल से सांवरा के बारे में बात की. “मेरे एक मित्र हैं डॉ. मित्रा. वे ‘दृष्टि’ नामक एक संस्था चलाते हैं, जो आंखों के डोनेशन पर कार्य करती है, मैं उनसे इस बारे में बात करूंगा.” डॉ. मित्रा को जब सांवरा के बारे में बताया, तो वे बोले, “हम कई दृष्टिहीन व्यक्तियों को आंखें लगा चुके हैं. दरअसल, नेत्रदान के बारे में समाज में जागरूकता की कमी है. मरणोपरांत दान की गई एक व्यक्ति की दो आंखों से दो लोगों का जीवन रोशन होता है. इसके लिए बस एक फॉर्म भरा जाता है. अगर फॉर्म ना भी भरा हो, तो मृत व्यक्ति के परिवारवालों की सहमति से भी ‘नेत्रदान’ किया जा सकता है. इच्छुक व्यक्ति के परिवारवाले हमें फोन पर सूचना दे देते हैं. हम लोग तुरंत ही वहां पहुंचकर मृत व्यक्ति की आंखें ले लेते हैं और उन्हें ज़रूरतमंद व्यक्तियों को लगा देते हैं. आप उस बच्चे का नाम व एक फोटो मुझे दे दें, जैसे ही आंखें उपलब्ध होंगी, मैं आपको फोन कर दूंगा.” “धन्यवाद डॉ. मित्रा.” अखिल ने सांवरा का नाम व हमारा फोन नंबर उन्हें नोट करा दिया. घर आकर उन्होंने ये बात जब हम सबको बतार्ई, तो मांजी व मेरे साथ-साथ तुलसा भी बहुत ख़ुश हो गई. वो तो बार-बार हाथ जोड़कर कहने लगी, “साब, मेरा सांवरा अगर देखने लगा, तो मैं सात जनम तक आपकी कर्ज़दार रहूंगी.” इसे संयोग कहें या ईश्‍वरीय इच्छा कि दो महीने बाद ही एक सुबह छह-साढ़े छह बजे के आसपास फोन की घंटी बजी. इतनी सुबह कौन फोन कर सकता है? मैंने थोड़ा घबराते हुए फोन उठाया, “हैलो, जी मैं डॉ. मित्रा बोल रहा हूं, वो सर ने एक ब्लाइंड बच्चे का नाम नोट कराया था.” “जी-जी हां, मैं उनकी पत्नी बोल रही हूं, वो हमारी नौकरानी का बच्चा है.” इतनी देर में अखिल भी आ गए. मैंने रिसीवर उन्हें देते हुए कहा, “डॉ. मित्रा का फोन है.” “जी डॉ. साहब कहिए.” “सर, हमारे पास आंखें उपलब्ध हैं. कल रात ही डोनेट हुई हैं. आप उस बच्चे को लेकर हमारे यहां आ जाएं.” “धन्यवाद डॉ. साहब. मैं अभी उपस्थित होता हूं.” फोन रखकर पतिदेव ने सारी बातें बताते हुए हमें जल्द तैयार होने को कहा. अगले एक घंटे में हम सभी तुलसा व सांवरा को लेकर दृष्टि अस्पताल में मौजूद थे. सांवरा को अंदर ले जाया गया. तुलसा फफक-फफककर रोने लगी. मैंने व मांजी ने उसे धीरज बंधाया. मां का दिल था, बातों से भला कैसे बहलता. कुछ घंटों के इंतज़ार के बाद डॉ. मित्रा ने ख़ुशख़बरी दी, “ऑपरेशन सफल रहा. अब कुछ ही दिनों में पट्टी खुल जाएगी. तुम्हारा बच्चा तुम्हें व इस दुनिया को देख सकेगा.” तुलसा ने कृतज्ञ आंखों से हाथ जोड़ दिए. आंखें ईश्वर का हमें दिया गया एक अनमोल उपहार हैं. यदि हमारे इस दुनिया से जाने के बाद वे किसी की अंधेरी ज़िंदगी में रोशनी भर सकें, तो इससे बड़ा महादान और क्या होगा? जीते जी तो हम सभी शायद पुण्य कमाने की मंशा से दान-धर्म करते हैं, पर मरणोपरांत किया गया नेत्रदान महादान है, जो सचमुच निस्वार्थ होता है. हम सभी ने दृष्टि के नेत्रदान के फॉर्म को भरा और नेत्रदान का संकल्प लिया. सांवरा के ऑपरेशन को छह महीने बीत चुके हैं, अब वो स्पष्ट देख सकता है. पहली बार मां को देखकर वो कितना ख़ुश था. वो दृश्य मेरे स्मृति पटल पर अमिट रहेगा. हमने उसका नाम एक स्कूल में लिखा दिया. अब वो पढ़ने-लिखने लगा है. समाज के सभी लोग यदि महादान अभियान में शामिल होकर नेत्रदान में पहल करें, तो कई दृष्टिहीन पुनः अंधेरे से उजाले की दुनिया में शामिल हो सकेंगे और ईश्‍वर की बनाई इस सतरंगी दुनिया का आनंद ले सकेंगे.

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