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कहानी- मैंने कुछ खो दिया है… (Short Story- Maine Kuch Kho Diya Hai…)

आजकल कविता को अपनी दोनों बेटियों के साथ चहकते देख उनका मन भारी हो जाता है. उन्हें लगता है उन्होंने कुछ खो दिया है. उनसे कुछ टूट गया है. उन्होने अपनी दोनों बेटियों रेखा और कविता पर ऐसा स्नेह क्यों नहीं लुटाया कभी? पहले रेखा, दो साल बाद कविता और फिर तीन साल बाद उन्होंने विनय को जन्म दिया था. लड़कियां उन्हें हमेशा बोझ और ज़िम्मेदारी लगीं. हमेशा पराई अमानत!

राधिका प्रत्यक्षः तो पेपर पढ़ रही थीं, पर उनका पूरा ध्यान अपनी बेटी कविता और बाइस वर्षीया नातिन तन्वी की तरफ़ था. दामाद अनिल ऑफिस जा चुके थे. कविता ने क़रीब दसवीं बार कहा होगा, “तनु, अब उठ जाओ, बहुत हो गया.”
बिस्तर में दुबकी तन्वी की बस आवाज़ें ही आ रही थीं, “मां, बस पांच मिनट.”
कविता कह रही थी, “आधे घंटे से पांच मिनट बोल रही हो तनु, सुबह-सुबह तुम्हें आवाज़ देने के अलावा मुझे और भी काम है.”
“नहीं मां, आपको यही ज़रूरी काम है बस.”
कविता हंस पड़ी, “तनु, अब आ जाओ, बहुत हो गया,” कहकर कविता अपनी मां राधिका के पास आकर बैठ गई. राधिका ने बेटी का चेहरा देखा, ख़ुश और संतुष्ट चेहरा. यह कविता और तन्वी का रोज़ का प्रोग्राम होता था. राधिका ने कहा,“कविता, मुझे बता दो कोई काम, खाली ही तो बैठी हूं.”
“नहीं मां, आप आराम करो, काम तो हो ही जाएगा.”
इतने में तन्वी उठकर कविता के पास चिपटकर बैठ गई. कविता उसे दुलारने लगी, “उठ गया मेरा बच्चा, चलो तुम नहाओ अब. मैं तुम्हारा नाश्ता, टिफिन तैयार करती हूं.”
“मां, मेरा टॉप प्रेस कर दोगी? मूड नहीं है ख़ुद करने का.”
“हां, निकाल दो.”
कविता के कंधे पर अपना टॉप रखकर, कविता के गाल पर किस करके तन्वी बाथरूम में चली गई. तन्वी से तीन साल छोटी रिया सुबह जल्दी ही स्कूल चली जाती थी. तन्वी आठ बजे उठती थी, उसे आवाज़ देने का सिलसिला पौने आठ से शुरू होकर सवा आठ बजे ख़त्म होता था और फिर उसे जाने की जल्दी रहती थी. समय पर निकलने की भागदौड़ शुरू होती थी. तन्वी तैयार होती रहती, कविता उसके पीछे प्लेट लेकर उसके मुंह में नाश्ते के निवाले डालती रहती. राधिका कुछ न कहतीं, बस अपनी बेटी के चेहरे पर छाए संतोष को निहारती.
रात-दिन अपनी दोनों बेटियों पर स्नेह की वर्षा करती अपनी बेटी को ख़ुश देख उनके दिल में हुक सी उठती रहती. तन्वी तैयार होते-होते नानी से भी बात करती जा रही थी और फिर अपना टिफिन और बैग लेकर स्कूटी स्टार्ट कर शाम तक के लिए निकल गई. कविता अपने फ्लैट की बालकनी से तन्वी को तब तक देखती रही, जब तक वह आंखों से ओझल नहीं हो गई.


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कविता बेटियों का बिखरा कमरा संवारकर उनकी पसंद को ध्यान में रखते हुए रोज़ की तरह किचन में व्यस्त हो गई. राधिका सोच रही थी अब कविता किचन में व्यस्त हो गई, राधिका सोच रही थी अब कविता दिनभर कुछ न कुछ करती ही रहेगी. शाम को अनिल ऑफिस से आएंगे, तो दोनों रिया और तन्वी के साथ हंसी-ख़ुशी समय बिताएंगे. अनिल जब टूर पर होते है, तो कविता रिया और तन्वी के साथ ख़ूब मस्ती करती, पिक्चर जाती, शॉपिंग करती, बाहर खाती-पीती, हंसती-मुस्कुराती लौट आती, आजकल इनमें राधिका भी शामिल थी.
तन्वी के जाने के बाद मेड भी आ गई थी. कविता उसके साथ मिलकर घर के काम निपटाने में व्यस्त थी. राधिका ने कहा, “मैं ज़रा गार्डन में सैर करके आती हूं.”
“हां, ठीक है मां, पर नाश्ता?
“आकर करती हूं.”
“ठीक है मां.”
सोसायटी के गार्डन के चक्कर लगाती हुई राधिका आज अपने विचारों में गुम थीं. लखनऊ से बेटी के पास मुंबई आए उन्हें पंद्रह दिन हो गए थे, अब तो जाने में पांच दिन ही बचे थे. साल में एक बार वे कविता के पास आती थीं. उनके पति का स्वर्गवास तो सालों पहले हो गया था. वे टीचर थीं, अब रिटायर हो चुकी थीं. आजकल कविता को अपनी दोनों बेटियों के साथ चहकते देख उनका मन भारी हो जाता है. उन्हें लगता है उन्होंने कुछ खो दिया है. उनसे कुछ टूट गया है. उन्होने अपनी दोनों बेटियों रेखा और कविता पर ऐसा स्नेह क्यों नहीं लुटाया कभी? पहले रेखा, दो साल बाद कविता और फिर तीन साल बाद उन्होंने विनय को जन्म दिया था. लड़कियां उन्हें हमेशा बोझ और ज़िम्मेदारी लगीं. हमेशा पराई अमानत!
विनय के जन्म के बाद तो उनकी सारी दुनिया ही विनय के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गई थी. उनके पति महेश भी टीचर थे, आज उन्हें याद आता है कि वे तो स्कूल चली जाती थीं रेखा और कविता पर सारी ज़िम्मेदारी छोड़कर कैसे उनकी बेटियों ने घर के सारे कामकाज के साथ पढ़ाई भी की होगी. विनय की भी देखभाल की होगी. उन्होंने अपनी किसी भी बेटी के लाड़ नहीं उठाए, अध्यापिका होने का सारा रौब और सख़्ती बेटियों पर ही हावी रहती, वहीं विनय उनका लाड़ प्यार पाता रहा.
वही विनय उनके प्रति अपनी सारी ज़िम्मेदारी भुलाकर कनाडा में सपरिवार सेटल हो चुका है. कभी-कभार फोन कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेता है. रेखा बैंगलोर में है, मुंबई से वे रेखा के पास जाती हैं, वहां पंद्रह दिन बिताकर वापस लखनऊ. लखनऊ में वे अकेली रहती हैं, बेटियां उन्हें रोज़ फोन करती हैं और अपने पास ही रहने का आग्रह करती है. रेखा का एक ही बेटा है विपुल. वे हैरान हो जाती हैं जब रेखा कहती है कि उसे बेटी को पालने-पोसने की इच्छा थी.
राधिका जब भी दोनों बेटियों के प्रति अपना व्यवहार याद करती हैं, तो उनका मन अपराधबोध से भर उठता है. आंखें भर आई उनकी, थोड़ी देर बेंच पर बैठी रहीं. दिल भारी होता जा रहा था. घर आ गईं. कविता ने उनका चेहरा देख, घबराकर पूछा, “मां, क्या हुआ? तबीयत ठीक है न?”
“हां ठीक हूं, बेटा”, कहती हुई वह चुपचाप सोफे पर बैठ गई, कविता ने उन्हें पानी लाकर पिलाया. फिर अपना और उनका नाश्ता साथ ले आई. राधिका हाथ-मुंह धोकर आई. स्नेहपूर्वक कविता के सिर पर हाथ रख पूछा, “तू कभी इन कामों से थकती नहीं, तेरा कभी मन नहीं किया नौकरी करने का?”
“नहीं मां, मैंने हमेशा एक हाउसवाइफ बनने की ही इच्छा की थी.”
“सच?”
“हां मां, मेरा यही मन था कि मैं अपने बच्चों को बहुत लाड़-प्यार से पालूंगी. उनके सारे नखरे हंसी-ख़ुशी उठाऊंगी. सच कहती हूं मां, इन दोनों के साथ मैं जी उठती हूं, मुझे जीवन में कुछ नहीं चाहिए. अपनी दोनों बेटियों को स्नेहपूर्ण माहौल में किसी भी जिम्मेदारी की चिंताओं से दूर रखकर ही उन्हें पालना चाहती थी. मैं बहुत ख़ुश हूं. मैं इसमें सफल हुई हूं. इनके आगे-पीछे स्नेह लुटाते घूम-घूमकर मैं थकने के बाद भी नहीं थकती मां.”
कविता का एक-एक शब्द उन्हें और अपराधबोध से भर गया. वे क्यों नहीं ऐसे दुलार पाई बेटियों को… क्या उनकी बेटी अपनी बेटियों पर स्नेहवर्षा करके अपने जीवन में अपनी मां से मिली उपेक्षा को भूलने की कोशिश करती रही है? वे क्यों नहीं कविता की तरह अपनी दोनों बेटियों को अगल-बगल लिटाकर उनके स्कूल, सहेलियों की बातें सुन पाईं.
आज जैसे तन्वी और रिया अपनी क्लास के लड़के-लड़कियों की बातें कविता से शेयर करती हैं. तीनों उनकी सहेलियों के हंसी मज़ाक और लड़कों की बातों पर कितना हंसती हैं. ये हंसी तो उनके आंगन में कभी सुनाई ही नहीं दी. उनकी कठोरमुद्रा देखकर रेखा और कविता की ज़ुबान पर ताला ही लगा रह जाता था.
उनकी सारी गंभीरता सिर्फ़ बेटियों के हिस्से में आई थी. विनय पर ही उन्होंने जी भर कर स्नेह उंडेला. आज वे बेटियां अपने घर-परिवार में कितनी सुखी हैं. उनके पास मायके की एक भी सुखद याद नहीं होगी. आह! उनके मुंह से एक ठंडी आह निकली, तो नाश्ता करती हुई कविता चौंकी, “क्या हुआ मां?”
राधिका ने उसका हाथ पकड़ लिया, “बेटा तू भी कभी आराम कर लिया कर, हमेशा तू ही अपनी बेटियों की पसंद का खाना बनाती है न! चल, आज तू आराम कर, आज मैं अपनी बेटी की पसंद का खाना बनाऊंगी.”


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कविता उनका मुंह देखती रह गई. अपने कानों पर विश्‍वास ही नहीं हुआ. बेख़्याली में पूछ बैठी, “मां मेरी पसंद आपको पता भी है?” राधिका का मुंह खुला का खुला रह गया.
हां, सच ही तो कह रही है उनकी बेटी. वे सचमुच नहीं जानती कविता को खाने में क्या अच्छा लगता है, शायद नहीं. यक़ीनन वे एक असफल मां है. कविता को पलभर में उनकी मनोदशा का अंदाज़ा हो गया. बात संभालते हुए बोली, “ठीक है मां, मैं बताती हूं आप विनय के लिए जो दही वड़े और छोले बनाती थीं, बहुत अच्छे लगते थे मुझे. वैसे मैंने कभी कहीं नहीं खाए. आज शाम को वही बना दो. मेरी बेटियां भी तो नानी के हाथ का कमाल देखें.” कहकर कविता हंस दी.
राधिका भी ख़ुद को संभालकर मुस्कुरा दी, “ठीक है, मैं तैयारी करती हूं.” कहकर राधिका किचन में चली गई.
अब मन में यही ख़्याल था बहुत कुछ खो दिया है मैंने अब जीवन की सांझ बेला में ही सही, मुझे अपनी बेटयिों को वहीं स्नेह देना है जिसकी वे हक़दार हैं. मेरे न रहने पर उनके पास मां के स्नेह के कम से कम कुछ पल तो याद करने के लिए हों? आंखों से बहती चली जा रही अश्रुधारा को पोंछकर वे अपनी बेटी की पसंद के खाने की तैयारी में लग गई. बहुत कुछ खोए हुए पाने के प्रयास में.

पूनम अहमद

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