ननद जा चुकी थी. घर का वातावरण पूर्ववत् हो गया. किंतु अब मुझे किसी से शिकायत न थी. यह बेगानापन भी प्राकृतिक है. वृद्धावस्था में मृत्यु-वरण सुखदायक है, किंतु वृद्ध जब बीमारी से घिसटने लगते हैं, तो उनके प्रति लोगों की संवेदना के स्रोत सूखने लगते हैं. घर के सदस्यों से हुआ मोह-भंग ही मरते हुए व्यक्ति को सांसारिक मोह-माया से विरक्त करके शांति से मृत्यु-वरण को प्रेरित करता है.
शायद सुबह हो गई थी, क्योंकि चिड़ियों की चहचहाहट मेरे कानों में पड़ रही थी. पूर्व दिशा अवश्य सूर्य देव के आगमन के कारण अरुणिम हो रही होगी. काश! मैं उन्हें प्रणाम कर पाती. सूर्य नमस्कार मेरी नित्यक्रिया में सम्मिलित था. मैं उठते ही भास्करागमन स्वागत हेतु सिरोधार्य हो जाती, किंतु अब तो शरीर क्या, हाथ तक बेहद कष्ट से उठते थे. मैं स्वयं उठकर बिस्तर पर बैठ ही नहीं पाती थी. सिर पर लगी चोट से ब्रेन हैमरेज के इलाज के दौरान ही बाएं हिस्से के पक्षाघात ने मुुझे एक स्थान का कर दिया था.
शुरू में तो छड़ी की टेक लगाकर मैं शौचादि कर आती थी, यह दवाओं का असर था. किंतु बाद में मेरे शरीर ने मेरा साथ छोड़ना शुरू कर दिया. मेरे तीन शिक्षित, सभ्य, आज्ञाकारी पुत्र थे. तीनों ही मेरे दिवंगत पति द्वारा स्थापित वस्त्र उद्योग को सफलतापूर्वक चलानेवाले व्यापारी थे. घर में उनकी रसोई अलग थी, किंतु व्यवसाय एक था, जिसका मुनाफ़ा वे आपस में बांट लेते. किंतु मूलधन पुनः उसमें लगा देते.
मेरे सज्जाशाई होने के बाद वे तनिक तनावग्रस्त रहते थे. इसके पूर्व आर्थिक समस्याओं को लेकर उनमें कभी मनमुटाव नहीं हुआ था. मेरी बीमारी पर बहुत ख़र्च हो रहा था. महीनों मैं अस्पताल में रही. घर आने पर भी डॉक्टर विज़िट और चौबीस घंटे के लिए एक नर्स तथा दवाओं का ख़र्चा हज़ारों रुपए थे.
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घर में तीन बहुएं और छह पोता-पोती थे. वे सभी मेरा पूरा ख़्याल रखते. मेरी सास ने मुझसे चाबियां अपने हाथ में रखने को कहा था, सो मैं अभी भी उन्हें तकिये के नीचे ही रखती थी. मेरी सास का कहना था कि जीते जी यदि सब कुछ बहू-बेटे के हवाले कर दिया, तो वे दुर्व्यवहार करेंगे. मुझे उनकी मानसिकता पर हंसी आती. मेरे बच्चे वैसे नहीं थे. वे मेरी पूरी सेवा करते. नर्स के होते हुए भी बड़ी बहू मेरे पूरे शरीर का स्पंज करती, मंझली जूस- फल खिलाती, छोटी समय से दवा लेने की हिदायत देती. बच्चे भी जब-तब कमरे में आकर मेरा दिल बहलाते.
लड़के शाम को मेरे कमरे में ही बैठे रहते, किंतु मेरी अस्वस्थता कुछ लंबी खिंच गई, सो बहुओं ने मुझे नर्स और आया के हाथों सौंप दिया, किंतु वे बराबर आस-पास बनी रहतीं. बाएं भाग के लकवाग्रस्त होने के कारण वह हिस्सा मेरे नियंत्रण में नहीं रह गया था. बाएं मुख से लार बहने लगता, चेहरा विकृत हो गया था. कुछ कहना चाहती, तो बड़ी मुश्किल से लोगों को समझ में आता. मैं विवशता से मन मसोस कर रह जाती. मैं तो बहुत सफ़ाई पसंद और टिप-टॉप रहना पसंद करती थी. साफ़-सुंदर कपड़े, बढ़िया जूड़ा, ज़ेवर आदि मेरी कमज़ोरी थे. मेरी अस्वस्थता से पूर्व बहुओं ने मुझे कभी असंतुष्ट नहीं किया. बढ़िया खिलातीं, मेरे बाल संवार देतीं, मेरे ज़ेवर बदल देतीं. किंतु इस रुग्णता ने धीरे-धीरे सब ख़त्म कर दिया था.
आज अपनी स्थिति पर रोना आता है. पता नहीं, किस पाप की सज़ा मिल रही थी मुझे. शरीर दिन-प्रतिदिन क्षीण हो रहा था, किंतु इच्छाएं असीमित थीं. पुनः स्वस्थ होकर सज-धज कर बैठने का मन करता. तीर्थयात्रा पर जाने का मन करता. शादी-पार्टी में शिरकत करने की इच्छा होती. किंतु शरीर मन का साथ छोड़ने लगा.
पहले मैं शौचादि के लिए कह देती थी, किंतु अब बेख़्याली में सब हो जाता. नर्स बड़बड़ाते हुए आया को पुकारती. उसके न रहने पर मैं वैसे ही गंदगी में पड़ी रहती. मेरे कमरे में अक्सर मल-मूत्र और तीव्र गंध वाली दवाओं की बदबू आती. लड़के-बहुओं के न आने पर मुझे दुख होता, किंतु फिर मैं स्वयं को धिक्कारती कि संभवतः व्यस्तता के कारण वे न आ पाते हों. वे तीनों ही प्री-मेच्योर बेबी थे. ठंड में पैदा हुए थे. बड़े और मंझले के तो लीवर ही कमज़ोर थे. उनकी गंदगी साफ़ करते-करते मैं बेहाल हो जाती, किंतु मैंने कभी उनके प्रति लापरवाही नहीं बरती. ऐसे विचारों से भी मुझे शर्मिंदगी होती. क्या मैं उनके पालन-पोषण का मुवाअज़ा चाहती थी? वे अपने व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद मेरा पूरा ध्यान रखते.
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एक दिन मैं आंखें बंद किए पड़ी थी. बहुओं ने सोचा, मैं सो रही हूं. मेरे कमरे के बाहर ही बड़ी बहू ने कहा, “मम्मी की तो ऐसी हालत है कि घर के लोगों को इंफेक्शन का ख़तरा पैदा हो गया है. बच्चों को इसलिए उनके कमरे में जाने से मना कर दिया है.”
“मैं तो उनके बगलवाले कमरे में रहती हूं. वे सांस लेने के साथ कराहती हैं. हर वक़्त ऐसी आवाज़ से पप्पू को इतना इरिटेशन होता है कि वह पढ़-लिख नहीं पाता. मुझे तो नींद में भी वही सब सुनाई देता है.”
मंझली बहू बोली, “इन सबका एक ही उपाय है कि उन्हें अस्पताल या नर्सिंग होम में भेज दिया जाए. वहां इनकी बेहतर चिकित्सा होगी.”
छोटी बहू का विचार था, “अब वे ठीक तो होने से रहीं. पैर मुड़ गए हैं. न बैठ पाती हैं, न उठ पाती हैं.”
बड़ी बहू ने कहा, “उनके रहने से कमरे में बहुत गंदगी होती है. आना-जाना तो लगा रहता है. हममें से किसी को इंफेक्शन हो गया तो...”
मंझली बहू ने बुद्धिमत्तापूर्ण विचार व्यक्त किए, “मेरी तो नाक में उस गंदगी और दवाओं की दुर्गंध बस गई है. खाना-पीना हराम है.” बड़ी बहू ने समस्याएं बतानी शुरू कीं.
“लेकिन अस्पताल का ख़र्चा कौन उठाएगा? प्राइवेट नर्सिंग होम में पच्चीस से तीस हज़ार का ख़र्चा आएगा.” मंझली ने दूसरी समस्या बताई.
“उनकी बीमारी में क्या पहले ही कम ख़र्चा हो रहा है, पूरा बजट बिगड़ गया है.” छोटी ने कहा.
“तुम दोनों के बच्चे तो छोटे हैं, मेरे बच्चे तो कॉम्पटीशन की तैयारी में व्यस्त हैं. हर महीने, ग्यारह-बारह सौ के फॉर्म भरने पड़ते हैं.”
“अरे तो क्या हमारे ख़र्चे नहीं हैं?” छोटी व मंझली एक साथ गरजीं. इससे अधिक सच्चाई मुझसे बर्दाश्त नहीं हुई और मैंने कराहकर करवट बदली, तो तीनों बहुए सतर्क हो गईं.
उस दिन मैंने नर्स से पूछा, “क्या मैं अब कभी ठीक नहीं हो पाऊंगी?” मेरी अस्पष्ट वाणी की नर्स अब अभ्यस्त हो चली थी. सो यंत्रवत बोली, “गॉड नोज़”
“जब ठीक नहीं हो पाऊंगी तो इतना श्रम-धन क्यों ख़र्च किया जाए? इच्छा-मृत्यु क्यों न दे दी जाए?”
“हमारे देश में इच्छा-मृत्यु का लीगल प्रोसेस बहुत लंबा है. पैसा-धन तो इंसान अच्छे परिणाम के लिए ख़र्च करता है. आपको निराश नहीं होना चाहिए.” नर्स ने समझाया.
वह मुझे स्पंज करके दवा आदि दे चुकी थी. अतः कुर्सी पर बैठकर मैं पुनः एक रोमांटिक नॉवेल में खो गई.उस दिन शाम को अलग-अलग मैंने अपने तीनों ही पुत्रों से कहा कि मैं अस्पताल नहीं जाना चाहती, न किसी प्राइवेट नर्सिंग होम में जाऊंगी.
मुझे लगता था वहां मैं एक कोने में फेंक दी जाऊंगी. अपने बच्चों को देखने को तरस जाऊंगी. हो सकता है, मृत्यु हो जाने पर लावारिस लाश की तरह जला दी जाऊं. नहीं-नहीं, मैंने पुनः स्वयं को कोसा. बहुएं स्वार्थी हो सकती हैं, किंतु मेरे राम-लक्ष्मण सरीखे पुत्र ऐसा नहीं होने देंगे.
अस्पताल स्थानांतरण स्थगित होने पर बहुओं ने ख़र्च को लेकर घर में ख़ूब कलह किया. बच्चों पर बहुत ख़र्च हो जाने और अपने-अपने अभावों का ज़िक्र किया, आपस में लड़-झगड़ कर वे शांत हो गए. इधर मेरी अवस्था में निरंतर गिरावट आ रही थी. मैं कुछ बोलने का प्रयास करती, तो केवल ‘गों-गों’ की आवाज़ निकलती. ठोस पदार्थ महीनों पहले छूट गया था. अब तो पेय पदार्थ भी कठिनाई से गले उतरता. मैं अपनी मृत्यु को साक्षात् देख रही थी, किंतु स्वीकार नहीं कर पा रही थी. अपने ही हाड़-मज्जे से निर्मित बच्चों के नित नए रूप देखने को मिल जाते. मेरे तकिये के नीचे से चाबी ग़ायब हो गई. वह तो ठीक था, लेकिन मुझ निष्प्राण, गूंगी बेहरकत जिसके कोने-अतरे में कहीं ज़रा-सी जान अटकी थी, के सामने मेरी सुसंस्कृत बहुएं मेरी ही साड़ियों-ज़ेवरों में सज-धजकर मुझे देखने आनेवालों के सामने सिर ढंके घड़ियाली आंसू बहातीं और बतातीं कि वे दिन-रात मेरी कितनी सेवा करती हैं.
अतिथियों के जाते ही वे आपस में बतियातीं, “बिल्कुल नरक-सृष्टि हो रही है. पता नहीं कब इनकी जान निकलेगी. न इन्हें चैन है, न हमें.” मैं बाह्य रूप से केवल हड्डियों का ढांचा रह गई थी, किंतु मेरी अंतः चेतना अभी भी सशक्त थी. मेरी संवेदनशीलता अभी भी सक्रिय थी. मैं बंद आंखें लिए पड़ी रहती और मेरे बच्चे मुझे चेतनाहीन जान कर मेरे सामने ही मुझ असहाय वृद्धा की मृत्यु-कामना करके मुझे रोज़ एक मौत देते रहते.
एक दिन मेरी वृद्ध हो चली एकमात्र ननद मुझे देखने आई. उसे देखकर मैं रोना चाह रही थी, किंतु मेरे शरीर में तरल जैसा कुछ था ही नहीं, केवल ठूंठ रह गया था. अब मेरे जीवन का कोई अर्थ नहीं रह गया था. कोई हानि या लाभ नहीं. मेरी मृत्यु से कोई शोकपूर्ण वातावरण नहीं बननेवाला था. तब भी मैं ज़िंदा थी, क्योंकि अभी मेरा मृत्यु-समय नहीं आया था.
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ननद के सामने ही मैंने एकाध चम्मच तरल पदार्थ, जो मैं लेती थी, उसका और दवा का त्याग कर दिया था. उनके सामने मेरे बच्चों ने पुनः आदर्श पुत्र व पुत्रवधुओं का चोला ओढ़ लिया था. बंद आंखों के बीच एक बेहद चेतनापूर्ण मस्तिष्क ने एक दिन ननद की उन बातों को सुना, जो वे मेरे बेटों को बता रही थीं. वे बातें मुझे पैंतालीस वर्ष पूर्व के समय में ले गई, जब मैंने नई बहू बनकर इस घर में पदार्पण किया था.
मुझे ज़ेवरों से लाद दिया गया था, जो आज मेरी बहुएं धारण किए हुए थीं. बाद में तीन पुत्रों के जन्म से मेरा सम्मान द्विगुणित हो गया था. मेरे पुत्र मेमनों-सा मुझे घेरे रहते, खिलाने पर खाते, नहाने पर नहाते, रात में चिपक कर सो जाते. एक क्षण आंखों से ओझल होती तो रो-रोकर हलकान हो जाते. उनकी ही क्यों, मैंने तो उनके बच्चों की भी मालिश, स्नान, साज-संभाल स्वयं की थी, किंतु आज मैं क्यों ये सब सोच रही थी? क्या मैं अपनी ममता का प्रतिदान मांग रही थी? नहीं... नहीं... मैंने स्वयं को कोसा.
ननद जा चुकी थी. घर का वातावरण पूर्ववत् हो गया. किंतु अब मुझे किसी से शिकायत न थी. यह बेगानापन भी प्राकृतिक है. वृद्धावस्था में मृत्यु-वरण सुखदायक है, किंतु वृद्ध जब बीमारी से घिसटने लगते हैं, तो उनके प्रति लोगों की संवेदना के स्रोत सूखने लगते हैं. घर के सदस्यों से हुआ मोह-भंग ही मरते हुए व्यक्ति को सांसारिक मोह-माया से विरक्त करके शांति से मृत्यु-वरण को प्रेरित करता है.
उस शाम मेरे कमरे के सामने मेरे बेटे और बहुएं मेरी उस एलआईसी की चर्चा कर रहे थे, जो तीन वर्ष बाद मेच्योर होनी थी, जिससे उन्हें बीस लाख रुपया मिलता. किसी ने कहा, “यह जीना तो अर्थहीन है, अम्मा की मृत्यु ही इस समय हमें आर्थिक संकट से उबार सकती है.”
“तो?” किसी ने पूछा. उसके बाद सन्नाटा व्याप्त हो गया. मैं सब सुन रही थी, किंतु अब मैं क्रोध, क्षोभ, दुख-सुख जैसी अनुभूतियों से परे थी. एक बेहद ठंडा एहसास मेरे पैरों की राह प्रवेश करके धीरे-धीरे ऊपर बढ़ रहा था, पहले मेेरे दोनों पैर बेजान हुए, फिर नितंब और कटि प्रदेश, तदंतर श्वास थमने लगी और फिर मेरे चौहत्तर वर्षीय हृदय ने पूर्ण विश्राम लिया. मेरी खाट के इर्द-गिर्द खड़े लोग उत्सुकता, शंका और शायद दुख से मुझ पर झुक कर देख रहे थे. विधि ने उनके साथ ही मेरी भी इच्छा पूर्ति की. उस शीतलता ने मेरे पूरे वजूद को ढंक दिया. मेरी आंखों के सामने एक काला पर्दा खिंच गया और मैं एक रहस्यपूर्ण अंधेरे में खो गई.
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