"ठीक है पारूल, तुझे ठीक लगता है तो तू जा… बस मेरी एक बात मान ले, मेरा फोन नंबर स्पीड डायल पर सेव कर ले और अगर भगवान ना करे मेरा शक सही निकला, तो बस एक मिस कॉल दे देना…"
"मुझे पूरा विश्वास है कि उसकी ज़रूरत नहीं पडेगी. फिर भी तेरी ख़ुशी के लिए तेरी बात मान लेती हूं."
"अरे तू कब आई, तेरी कज़िन की शादी कैसी रही?" हफ़्ते भर की छुट्टी से आज ही वापस लौटी पारूल को अपने केबिन में मुग्धा चहकते हुए बोली.
"अरे यार, तुझे वापस देख दिल ख़ुश हो गया. तेरे बगैर ऑफिस बहुत बोर लग रहा था. ना काम में मन लग रहा था ना कैंटीन में."
"अच्छा चल बातें बाद में करना. देख, तेरे लिए क्या लाई हूं. मेरे ननिहाल की स्पेशल बालूशाई. चल मुंह खोल. ऑफ़िस वालों से मुश्किल से ये दो पीस बचा कर रखें हैं तेरे लिए." पारूल मुग्धा के मुंह में बालूशाई ठूंसते हुए बोली.
जब से पारूल ने वो अकाउंटेसी फर्म ज्वॉइन की थी, तभी अपनी कलीग मुग्धा से ऐसी पटने लगी जैसे दोनों बचपन की अतरंग सहेलियां हो. यद्यपि दोनों में काफ़ी असमानताएं थी. मुग्धा मेट्रो बम्बइया माहौल में पढ़ी बढ़ी मॉडर्न लुक वाली, स्ट्रेटफार्वड लड़की थी, वहीं छोटे शहर से दिल्ली नौकरी करने आई पारूल, सीधी सादी थ्योरिटिकल लड़की थी, जो भावनाओं, संवेदनाओं में जीती थी. उसके भोलेपन के कारण मुग्धा कभी-कभी उसे लेकर ओवर प्रोटेक्टिव हो जाती, तो पारूल उसे मज़ाक में 'बड़े भइया' कह देती.
"अच्छा चल पूरी रिपोर्ट दे. शादी कैसी रही, कोई ख़ास टकराया क्या?" पारूल ने उसे घूरा.
"अरे भई शादियों में ऐसी टक्कर के ज़्यादा चांस रहते हैं, बस इसीलिए पूछा." मुग्धा मस्ती के मूड में थी.
"शादी बहुत अच्छी रही. मामाजी अपनी बेटी के लिए जैसा लड़का चाहते थे, वैसा ही मिला. मम्मी की साइड के सभी रिलेटिव्स से मिलना हो गया. पता है मुग्धा जब भी ननिहाल जाती हूं, तो ये बड़ा शहर उस छोटे कस्बे के सामने बहुत छोटा ऩज़र आने लगता है. यहां लगता है जैसे तमाम लेटेस्ट सुख-सुविधाओं के बीच ज़िंदगी सूखी-सी, मुरझायी-सी, बेजान खड़ी है और वहां जाते ही रिश्तों की गरमाहट से हरी-भरी होकर खिलखिला उठती है. पता है, मामा घर में अकेले काम करने वाले थे, मगर आस-पड़ोस, मोहल्ले वालों ने पूरी शादी ऐसी संभाली जैसे उनके घर की शादी हो. यहां बड़े शहर में भरी-पूरी रिश्तेदारी में भी काम के व़क़्त इंसान अकेला पड़ जाता है और वहां पूरा कस्बा ही क़रीबी रिश्तेदार हो चला था."
"पारूल मैडम, आपको माथुर सर बुला रहे हैं." चपरासी ने उनकी बातों में व्यवधान डाला.
"हां आती हूं, चल बाकी बातें लंच पर करेंगे. अभी काम करने दे. बहुत सारा काम पेंडिंग पड़ा होगा…" कह कर पारूल उठ खड़ी हुई.
आज पारूल का लंच भी स्पेशल था, आलू की ढलवा सब्ज़ी के साथ कचौरियां.
"वाव, क्या बात है…" मुग्धा के मुंह में पानी आ गया.
"बॉस ने क्यूं बुलाया था, कुछ ज़्यादा ही काम दे दिया क्या?" लंच करते हुए मुग्धा ने पूछा
"नहीं यार, काम के लिए नहीं, उन्होंने तो यूं ही बुलाया था पूछने को कि छुट्टियां कैसी रही. कह रहे थे काम की टेंशन मत लो, उन्होंने मेरे पीछे मेरे असाइनमेंट बाकी लोगों में डिस्ट्रब्यूट कर पूरे करा लिए. सो नो पेंडिग वर्क फॉर मी." पारूल रिलैक्स थी, मगर उसके जवाब से मुग्धा सोच में पड़ गई.
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"पारूल, तुझे नहीं लगता पिछले दो-तीन महीने से माथुर सर तेरा कुछ ज़्यादा फेवर कर रहे हैं."
"क्या मतलब?"
"मतलब ये कि पहले तो उन्होंने तेरी हफ़्ते भर की लीव आराम से सेंसशन कर दी… जबकि बाकि लोगों को तो एक दिन की छुट्टी मांगने पर भी काटने को दौड़ते हैं. तेरे असाइनमेंट्स को लेकर भी लीनिऐंट हो रहे हैं…"
"तू कहना क्या चाहती है, सीधे-सीधे पॉइंट पर आ."
"तो सुन मैं कहना चाहती हूं कि मेरे तेज़ कानों को ख़तरे की घंटियां सुनाई दे रही हैं, बॉस से ज़रा बच कर रह."
"क्या बकवास कर रही है…" पारूल खाना छोड़ ताव में आ गई.
"बकवास नहीं कर रही हूं. तेरे से ज़्यादा दुनिया मैंने देखी है. ऐसे लोगों की रग-रग से वाकिफ़ हूं… दरअसल वो तेरे सीधेपन को ताड़ गए हैं. इसलिए तुझे टार्गेट कर रहे हैं…"
"तुझे ज़रा भी शर्म नहीं आती मुग्धा, सर उम्र में कितने बड़े हैं."
"तू नहीं जानती इन बड़ी उम्र वालों को."
"बस कर… मैं जानती हूं वो मेरा ध्यान रखते हैं, मुझे सर्पोट करते हैं, मेरी हेल्प करते हैं, मगर इसलिए नहीं कि जैसा तुझे लगता है… मुझे तो उनके व्यवहार में एक पिता जैसी, एक बड़े भाई जैसी केयर नज़र आती है. फिर फैमिली वालै हैं. वो कह भी रहे थे कि एक दिन अपनी पत्नी से मिलवाएंगे. और एक अच्छे नेक दिल इंसान हैं."
"माई डियर फ्रेंड, जो इंसान अच्छा होता है ना, वो सभी के लिए अच्छा होता है. उसका व्यवहार इंसान देखकर ही नहीं बदलता… आजकल उनकी अच्छाइयां सिर्फ़ तुझ पर बरस रही हैं. देख, मैं इसी माहौल में बड़ी हुई हूं… उड़ती चिड़िया के पर गिन लेती हूं."
पारूल मुग्धा की बातों से बुरी तरह झल्ला गई.
"पता है मुग्धा, ये तेरी नहीं इस शहर की प्रॉब्लम है. तुम लोगों को ये बात हजम ही नहीं होती कि कोई इंसान बिना किसी पर्सनल इंट्रेस्ट के, किसी के साथ अच्छा हो सकता है, किसी की मदद कर सकता है. यदि ऐसा होता है, तो तुम्हारा शैतानी दिमाग़ उस पर संदेह करने लगता है. अगर तू मेरे साथ मेरी बहन की शादी में गई होती, तो तुझे पूरा गांव ही मतलब परस्त नज़र आता."
"अच्छा छोड़ इस बात को. मुझे जो लगा मैंने कह दिया. भगवान करे जैसा तू सोचती है वैसा ही हो, मगर फिर भी… ये तेरे मामा का गांव नहीं शहर है. जस्ट बी केयरफुल." बात खिंचती देख अंततः मुग्धा ने हथियार डाल दिए.
दिन गुज़र रहे थे. माथुर सर की पारूल पर मेहरबानियां बरक़रार थी. छोटी-छोटी बातों के लिए भी बॉस उसे अपने केबिन में बुलाते, हंसते, बतियाते. इस बढ़ती बेतकल्लुफ़ी ने मुग्धा को परेशान किया हुआ था. वह किसी भी क़ीमत पर नहीं चाहती थी कि उसकी भोली सहेली किसी छलावे की शिकार हो.
आज माथुर सर छुट्टी पर थे, तो पूरा ऑफ़िस रिलैक्स नज़र आ रहा था.
"पारूल, चल आज लंच टाइम के बाद ऑफ़िस बंक कर पिक्चर चलते हैं." मुग्धा एक्साइटेड होते हुए बोली.
"नहीं यार, आज कुछ काम पूरा करके सर को दिखाने जाना है."
"मगर सर तो छुट्टी पर हैं…"
"हां, उन्होंने शाम को घर पर बुलाया है. कह रहे थे कि तबीयत ख़राब है, ऑफिस नही आ सकता, मगर ये काम आज ही फिनिश करना है, सो तुम घर पर आ जाओ." पारूल की बातें सुनकर मुग्धा के दिमाग़ में वापस ख़तरे की घंटी बजने लगी.
"देख पारूल, मैं भी पैरलल काम करती हूं. मुझे तो ऐसी अर्जेंट डेडलाइन के बारे में नहीं पता, जो आज ही पूरी होनी हो. मुझे नहीं लगता की तुझे उनके घर जाना चाहिए."
"यार वो अकेले तो रहते नहीं कि मैं डरूं. उनकी पत्नी बच्चे हैं. घर में दो नौकर हैं, वो कह रहे थे कि इसी बहाने मैं उनके परिवार से भी मिल लूंगी."
"ठीक है पारूल, तुझे ठीक लगता है तो तू जा… बस मेरी एक बात मान ले, मेरा फोन नंबर स्पीड डायल पर सेव कर ले और अगर भगवान ना करे मेरा शक सही निकला, तो बस एक मिस कॉल दे देना…"
"मुझे पूरा विश्वास है कि उसकी ज़रूरत नहीं पडेगी. फिर भी तेरी ख़ुशी के लिए तेरी बात मान लेती हूं."
पारूल काम खत्म करके सात बजे के आसपास माथुर सर के घर पहुंच गई. उसके डोरबेल बजाने पर मिस्टर माथुर ने ही दरवाज़ा खोला. उन्हें देखकर पल भर के लिए पारूल अवाक् रह गई. वो कहीं से भी बीमार नहीं लग रहे थे, बल्कि एकदम तरोताज़ा, वैल ड्रेस्ड थे. "कम इनसाइड."
पारूल सधे कदमों से अंदर आ गई.
"आओ बैठो, फील कम्फर्टेबल…" मिस्टर माथुर के चेहरे पर अजीब-सी चमक थी. उनकी नज़रें पारूल को असहज कर गईं. तभी लैंड लाइन पर फोन बजा,
"मैं अभी आया." वो फोन अटेंड करने अंदर चले गए. पारूल सरसरी-सी नज़रें इधर-उधर दौड़ा रही थी. लिविंग रूम में हल्की रोशनी थी, धीमा संगीत बज रहा था… एक तरफ़ बार बना था, जिसकी डेस्क पर एक खाली गिलास रखा हुआ था, पारूल को ध्यान आया बात करते हुए सर की आवाज़ कुछ बहक रही थी… कहीं उन्होंने ड्रिंक तो नहीं की हुई थी. घर एकदम सुनसान था. ना कोई इंसान ना कोई आहट…
"पता नही क्यों ये बैंक वाले शाम को भी लोन स्कीम समझाने फोन घुमा देते हैं. ख़ैर छोड़ो, घर ढूंढ़ने में कोई परेशानी तो नहीं हुई."
"नहीं-नहीं… सर घर पर कोई दिखाई नहीं दे रहा है. मैडम नही हैं क्या?" पारूल ने सकुचाते हुए पुछा.
"दरअसल उनके मायके में कुछ ज़रूरी काम निकल आया, सो बच्चों को लेकर वहीं गई हुई हैं…" मिस्टर माथुर कुछ चोर नज़र से झेंपते हुए से बोले.
"ओह… सर ये फाइलें..'' पारूल बैग से फाइलें निकालने लगी.
"अरे छोड़ो काम को. पहले ये बताओ क्या लोगी…?" मिस्टर माथुर उसके थोड़ा नज़दीक आते हुए बोले. पारूल हड़बड़ा गई… आज पारूल को पहली बार अपने आदरणीय माथुर सर की आंखें कुछ और बोलती नज़र आ रही थी.
"सर अभी आपकी तबियत कैसी है?" पारूल ने एक नियत दूरी स्थापित की.
"तुम्हारे आने से बिल्कुल ठीक हो गई…" एक द्वीअर्थी मुस्कान पारूल को भीतर तक कंपा गई.
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फोन फिर घनघनाया, "उफ् ये फोन… इस बार इसे डिस्कनेक्ट करके आता हूं."
मिस्टर माथुर झल्लाए हुए तेज़ी से भीतर गए. तभी मौक़ा पा कर पारूल ने मुग्धा को मिस कॉल दे दी. माथुर सर वापस आए, तो एक मिनट के भीतर ही डोरबेल बजी. अब तो उनकी झल्लाहट की कोई सीमा नहीं रही.
"कौन आ गया इस वक़्त? चैन नहीं है लोगों को."
"सर आप बैठिए, मैं देखती हूं." पारूल उठ खड़ी हुई.
"नहीं नहीं तुम रहने दो… जो भी है, अभी चलता करता हूं उसे."
दरवाज़ा खोला, तो सामने हाथ में फ्लॉवर बुके लेकर मुग्धा एक लंबे डीलडौल वाले आदमी के साथ खड़ी थी.
"गुड इवनिंग सर, मैं अपने भाई के साथ कहीं जा रही थी, तो आपका घर बीच में पड़ा. सोचा आपके हालचाल पूछ लूं." मुग्धा को देखते ही मिस्टर माथुर की शक्ल पर बारह बज गए, उन्हें अपने अरमान पानी में मिलते नज़र आ रहे थे
"कैसी है आपकी तबीयत अब…"
"मैं ठीक हूं. तुमने बेकार ही तकलीफ़ की. दरअसल, मैं अभी थोड़ा बिज़ी हूं. कुछ अर्जेंट काम…"
"आई नो सर, पारूल ने बताया था आपके अर्जेंट काम के बारे में…" बातों-बातों में मुग्धा उन्हें किनारे करते हुए सीधे घर के अंदर घुस गई. "हाय पारूल… अगर तुम्हारा काम हो गया तो कैन ड्रॉप यू."
"काम… अ…ह… " पारूल निरूत्तर थी.
"नहीं हुआ काम तो कोई बात नहीं, हम वेट कर लेंगे…" कहकर मुग्धा सोफे पर बैठ गई.
"पारूल तुम जाओ, काम मैं देख लूंगा… वैसे भी मैं अब ठीक हूं." इस अप्रत्याशित स्थिति से घबराए मिस्टर माथुर का माथा पसीने से सराबोर हो गया.
"ठीक है सर…" कहकर पारूल तेज़ी से उठ खड़ी हुई और मुग्धा के साथ जाने लगी, तभी मुग्धा रूकी और पलट कर माथुर सर को बुके देते हुए बोली, "गेट वेल सून सर, भगवान आपको अच्छी सेहत औत नीयत दें." कहकर वो मुस्कुराते हुए चली गई… उसकी मुस्कुराहट कोई और समझे या न समझे मिस्टर माथुर तो समझ ही गए थे.
बाहर आते ही पारूल मुग्धा से लिपट पड़ी.
"बचा लिया आज तूने… भगवान तेरा भला करे और उनका भी जिन्होंने दो फोन किए… उनकी वजह से मुझे कुछ सोचने-समझने का मौक़ा मिला."
"वो दो कॉल मैंने ही किए थे मेरी जान…"
"क्या… और ये तेरे साथ कौन हैं?"
"हमारी सोसायटी के जिम इंस्ट्रक्टर, फॉर द सेफर साइड इन्हें भी साथ ले आई थी."
"पर तू इतनी जल्दी कैसे आ गई." पारूल अचरज में थी.
"मैं तो तेरे भीतर जाने के बाद से ही बाहर खड़ी थी… मुझे मालूम था तेरा मिस कॉल ज़रूर आएगा… कहा था ना तुझे… उड़ती चिड़ियों के पंख गिन लेती हूं."
"आई नो… आई नो… चल तेरी इसी ख़ूबी के लिए तुझे डिनर कराती हूं." और फिर दो हंसती आवाज़ें सड़क पर बढ़ चली.
- दीप्ति मित्तल
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