धरती की तरह ज़िंदगी भी करवट बदलती है. पतझड़ के बाद बसंत आता ही है. उसे कोई रोक नहीं सकता. उसी तरह मेरे जीवन में भी ख़ुशियां आईं, प्यार आया. तुम्हारी सतर्कता, तुम्हारी जासूस नज़र मुझ पर पहरेदारी बिठा सकती थी, मेरे दिल पर नहीं. प्रथम मेरी ज़िंदगी में बहार बनकर आया, पर ये बहार तुम्हें कैसे भा सकती थी? बड़ा कहती थीं कि तुम मेरी दोस्त हो, पर जब दोस्ती निभाने का समय आया, तो दोस्त तो छोड़ो मां भी नहीं रहीं. जेलर बन गईं थी उन दिनों.
आज मैं तुम्हारी जेल से छूट रही हूं. मेरी पैकिंग हो गई है. तुमसे दूर जा रही हूं. बहुत ख़ुश हूं. मुझे मेरा मनपसंद कॉलेज मिल गया है. तुमने कहा था कि मैं कुछ नहीं कर सकती. तुम हार गईं. अब लैपटॉप और मोबाइल लेकर दिया है, क्या फ़ायदा? इतनी उच्च शिक्षा के दौरान समय ही कब मिलेगा. जब खेलने-कूदने की उम्र थी, तब तो ज़िंदगी जहन्नुम बना दी मेरी टोक-टोककर. मेरा मनोरंजन न हुआ, कौन बनेगा करोड़पति का गेम हो गया. मोबाइल या लैपटॉप मेरे हाथ में आया और घड़ी की टिकटिक शुरू. हर समय रिंग मास्टर की तरह चाबुक लेकर मेरे सिर पर सवार रहने को नहीं मिलेगा अब.
‘अपना कमरा ठीक रखो, पौष्टिक खाओ, अपना काम ख़ुद करो, समय पर करो...’ मेरी ज़िंदगी को टाइम टेबल बनाकर रख दिया था. मेरे दिल पर कब क्या बीतती है, तुम्हें क्या पता? अब कैसे देखोगी कि मैं गैजेट्स का सही इस्तेमाल कर रही हूं या नहीं? कैसे कपड़े पहने हैं? किसके साथ घूम रही हूं? पढ़ रही हूं या नहीं? पौष्टिक खा रही हूं या नहीं? पर तुम इतनी उदास क्यों हो? मेरी आज़ाद पंछी सी ज़िंदगी देखकर चिढ़ रही हो न? एक हारे हुए खिलाड़ी की तरह गुमसुम हो, क्योंकि ‘नालायक’ ‘औसत’ ‘नाक़ाबिल’, ज़माने की ज़ुबान से निकलकर तुम्हारा तकियाकलाम बन गए ये सारे विशेषण ग़लत साबित हो गए.
याद है सबसे पहले ये संबोधन अपनी अध्यापिकाओं के मुंह से सुने थे. वाद-विवाद, भाषण, कविता पाठ हर चीज़ का कितना शौक था मुझे. तुमने हर बार मुझे लिखवाया, सिखाया, तो क्या तुरंत अच्छा याद करके सुनाया नहीं मैंने? ऐसे ही अध्यापिकाओं को भी सुनाती थी, लेकिन चुनाव किया जाता उस बच्चे का, जिनके अंक अच्छे आते थे. मॉनीटर बनना हो, तो अधिक अंक लानेवाले बच्चे, प्रतियोगिता में बाहर जाना हो, तो वही मैम के प्यारे गिने-चुने बच्चे. श्रेष्ठ होने का पुरस्कार पाना हो, तो वही बच्चे. हर बार मेरा नन्हा मन बुझकर रह जाता, पर जब भी तुमसे शिकायत की, तुमने मुझमें ही कमी निकाली. अध्यापिकाएं पक्षपाती हो सकती थीं, लेकिन तुम तो मां थीं. तुम्हें भी कभी मेरी प्रतिभाएं नज़र नहीं आईं... क्यों?
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जब कभी किसी प्रतियोगिता के लिए चयनित न होने पर तुम्हारे आंचल में छिपकर रोना चाहा, तो सुनी तुम्हारी कहानियां, जिसमें श्रम की निरंतरता को ही ज़िंदगी का मूलमंत्र बनानेवाले की जीत होकर ही रहती थी. बचपन में तो नायक की जगह ख़ुद को सोचकर ख़ुश हो लिया करती थी, लेकिन जैसे-जैसे बड़ी होती गई, समझ में आता गया ज़िंदगी पंचतंत्र की कहानी नहीं है. मुझे चिढ़ हो गई थी तुम्हारी कहानियों से, तुम्हारे हौसला देनेवाले वाक्यों से, तुम्हारे समय-नियोजन और योजनाबद्ध ढंग से मेहनत करने के उपदेशों से. ‘औसत’ अध्यापिकाओं का दिया ये विशेषण वो चोट थी, जिस पर तुमने कभी मरहम नहीं लगाया. क्या औसत बच्चे को कभी कोई पुरस्कार पाकर तालियों की गड़गड़ाहट सुनने का, कभी किसी शाम का सितारा होने का हक़ नहीं? क्यों पढ़ती मैं दिन-रात, जब मेहनत करके भी किसी की नज़रों में विशिष्ट हो जाने की कोई उम्मीद नहीं? क्यों करती मैं किसी भी क्षेत्र में योजनाबद्ध मेहनत, जब मुझे पता था कि मैं कभी अध्यापिकाओं के फेवरेट बच्चों की जगह नहीं ले पाऊंगी? मैं इतनी छोटी होकर जिन बातों को समझ चुकी थी, वो तुम्हें कभी समझ नहीं आईं. तुम्हारी कहानियां पंचतंत्र से बदलकर पौराणिक हो गईं, जिनमें बताया जाता कि उम्रभर संघर्ष झेलनेवाले कैसे ख़ुश रह लेते थे और सब कुछ पाने वाले क्यों दुखी. तुम मुझे भी एक पौराणिक पात्र बना देना चाहती थीं, इसीलिए रोज़ कोई न कोई हॉबी क्लास जॉइन कराने में लगी रहतीं. मेरी दिनचर्या इतनी संघर्षपूर्ण बना दी तुमने कि किसी मनोरंजन के लिए समय ही न बचे. जब मेरी रुचि प्रतियोगिताओं में भाग लेने की नहीं रही, तब तक मेरा ये शौक तुम में स्थानांतरित हो चुका था. तुम स्कूल ही नहीं, सोसाइटी, हॉबी क्लासेस और शहर में होनेवाली जाने किन-किन प्रतियोगिताओं को खोजने के लिए जागरूक रहने लगीं, उनमें मुझे जबरन हिस्सा दिलाने लगीं. यही नहीं उनके लिए मेहनत करने को भी मेरे सिर पर डंडा लेकर सवार रहने लगीं. उनमें मुझे पुरस्कार भी मिले, मगर वे मुझे क्षणिक ख़ुशी ही दे पाए. मैं हर पुरस्कार बड़ी उम्मीद से स्कूल ले गई कि अब तो अध्यापिकाएं इन्हें देखकर पछताएंगी कि उन्होंने ऐसी प्रतिभा का मोल नहीं समझा, लेकिन जब इससे भी उन पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा, तो मुझे उनसे चिढ़ हो गई. पर तुम्हें उनकी उदासीनता, उनका पक्षपात कभी नज़र नहीं आया. तुम्हें मेरे दर्द से वास्ता ही कब था. जब अध्यापिकाएं मेरी शिकायत करतीं, तो उनसे स्कूल के पक्षपाती वातावरण के लिए लड़ने की बजाय तुम बड़ी विनम्रता से उन्हें आश्वासन देतीं कि मुझे समझाओगी.
धरती की तरह ज़िंदगी भी करवट बदलती है. पतझड़ के बाद बसंत आता ही है. उसे कोई रोक नहीं सकता. उसी तरह मेरे जीवन में भी ख़ुशियां आईं, प्यार आया. तुम्हारी सतर्कता, तुम्हारी जासूस नज़र मुझ पर पहरेदारी बिठा सकती थी, मेरे दिल पर नहीं. प्रथम मेरी ज़िंदगी में बहार बनकर आया, पर ये बहार तुम्हें कैसे भा सकती थी? बड़ा कहती थीं कि तुम मेरी दोस्त हो, पर जब दोस्ती निभाने का समय आया, तो दोस्त तो छोड़ो मां भी नहीं रहीं. जेलर बन गईं थी उन दिनों. हर जगह, हर समय, हर मोड़ पर बस पहरा ही पहरा. तुम्हारी पीढ़ी की ये ही सबसे बड़ी समस्या है. पहले तो आधुनिक बनोगे. कहोगे कि जो चाहो कर सकती हो, आज़ाद हो, पर जैसे ही हम आज़ादी की अपनी परिभाषा बताएंगे, गले में फंदा कस दोगे. तुम्हारी बद्दुआ रंग लाई. प्रथम की बेवफ़ाई ने मेरे जीवन को बेरंग कर दिया.
तुम अपनी जीत पर ख़ुश थीं. मुझे हर समय दुलराती रहतीं, मुझसे बात करने की कोशिश करती रहतीं. पर मुझे बात करने से, अपना दर्द बांटने से एलर्जी हो गई थी. और तब शुरू हुए तुम्हारे ताने. मेरे अंकों में अप्रत्याशित गिरावट पर तुमने कोई हौसला नहीं दिया. तुम्हारे दिल की बात ज़ुबां पर आ ही गई. तुमने साफ़ कह ही दिया कि मैं किसी भी क़ाबिल नहीं हूं. वो नश्तर दिल में जा धंसा और लहूलुहान आत्मा का एक ही संकल्प बन गया कि तुम्हें ग़लत साबित करके दिखाना है और देखो मैंने कर दिखाया. मैं आगे और सक्षम होकर दिखाऊंगी और तुम्हें ग़लत साबित करती रहूंगी. बस, एक इच्छा बची है, एक दिन तुम अपनी सारी नाइंसाफ़ियों के लिए सफ़ाई दो.
तुम्हारी सफल बेटी आकांक्षा
मेल में बचपन से आज तक का सारा ग़ुस्सा उतार तो दिया आकांक्षा ने, लेकिन बिदा के समय मां की सूजी आंखें देखकर सेंड पर क्लिक नहीं किया गया. एक तो वैसे ही मां की ख़ुद को संभालने की हर कोशिश बेकार हो रही थी. उस पर दिल दुखानेवाला ये ख़त कैसे भेज देती. प्यार भी तो मां से उतना ही है, जितना ग़ुस्सा है मन में. सोचा, जब मां का क्षणिक प्यार ख़त्म हो जाएगा और वो डांट लगाएंगी, तो भेजेगी. कमरे पर पहुंचकर सारा सामान सेट करते-करते भूख लग गई थी. मुंह में मां के बनाए लड्डू भरकर लैपटॉप खोला, तो मां का मेल आया हुआ था.
मेरे जिगर का टुकड़ा, मेरी दिली आकांक्षा, सदा ख़ुश रहो... तुमने उड़ान भरने के लिए इतना ऊंचा आकाश जीता है. मेरी बरसों की तपस्या सफल हुई है. तुम सोच रही होगी कि इतना बड़ा वरदान पाकर भी मैं इतनी उदास क्यों हूं? क्या बताऊं, लग रहा है जैसे अपने शरीर का एक अंग काटकर कहीं और रखने जा रही हूं. ऐसा सूनापन, ऐसी कचोट तब महसूस की थी, जब पहली बार तुझे प्लेस्कूल छोड़कर आई थी. इतने सुरक्षित वातावरण में, सिर्फ़ दो घंटे के लिए तुझे छोड़ने पर दिल संभलने नहीं आ रहा था तो आज! आज तो मन में हज़ार चिंताएं हैं. गिनी-चुनी सब्ज़ियां अच्छी लगती हैं तुझे. दूध, फल, मेवे कुछ भी तो ख़ुद से खाने की आदत नहीं डाल पाई तेरी. ठीक से रज़ाई ओढ़ना तक नहीं सिखा पाई. तू बात-बात पर चिढ़ जाती है और जल्दी निराश हो जाती है. कैसे ध्यान रख पाएगी अपने शरीर और मन का! दिल को किसी करवट चैन नहीं है. मां का दिल अपने बच्चे को दुनिया की हर ख़ुशी दे देना चाहता है, उसे हर ख़तरे से, हर दर्द से दूर रखना चाहता है, इसीलिए उसे अपनी नज़रों से दूर करने में डरता है, पर संभालना होगा मुझे अपने दिल को. जानती हूं, तेरी भलाई के लिए ज़रूरी है. अगर हम पौधे को गमले से निकालकर यथार्थ की क्रूर ज़मीन में रोपने का जोख़िम नहीं उठाएंगे, तो वो अपने संपूर्ण विकास को कभी नहीं पाएगा. और ये तो प्यार नहीं है. जानती हूं, तू पिंजरे से आज़ाद हुए पंछी की तरह उत्साहित है. तुझे तेरे प्रिय खिलौने बिना किसी रोकटोक के मिले हैं. ख़ुश है न! ईश्वर करे, हमेशा ऐसे ही ख़ुश रहे, पर बेटा, पिंजरे के पंछी के पास एक ही ग़म है, ग़ुलामी. दाने-पानी की खोज की परेशानी, धूप-घाम की तकली़फें, शिकारियों के ख़तरे का तनाव तो आज़ादी पाने के बाद ही समझ आता है. पता नहीं इन सारे संघर्षों के लिए तैयार करने की कोशिश कितनी सफल रही है. जानती हूं, तुझे मुझसे बहुत शिकायतें हैं. ये शिकायतें मेरी इन्हीं कोशिशों के कारण हैं. तू चाहती थी न कि मां कभी तो सारी नाइंसाफ़ियों के लिए दुखी हो, सफ़ाई दे. ख़ुश हो ले, आज जब तू मां की देखभाल से दूर हो रही है, तो तेरी उन सारी शिकायतों का जवाब देना चाहती हूं. तेरी ज़रूरत की सारी चीज़ें पैक कर दी हैं. कुछ आंसू छिपा कर रखे थे. ख़त के साथ भेज रही हूं, इस उम्मीद के साथ कि ये संवादहीनता की उस दीवार को पिघला देंगे, जो तूने कैशोर्य से हमारे बीच खींच दी है. याद है मुझे तू बहुत छोटी थी, तो तू भी हर बच्चे की तरह अध्यापिकाओं के मुंह से चंद प्रशंसा के वाक्यों के लिए तरसती थी. प्रतियोगिताओं में भाग लेने का बहुत शौक था तुझे. एक बार तूने मुझसे अपने नाम का मतलब पूछा. मैंने बताया कि जब कोई चाह बहुत गहरी हो जाती है, तो उसे आकांक्षा कहते हैं. फिर तुझसे तेरी आकांक्षा पूछने पर तूने कहा, मुझे प्रिंसिपल मैम कोई पुरस्कार दें और सारा स्कूल मेरे लिए ताली बजाए, मैं बहुत भावुक होकर तुझे देखती रह गई. बेटा, तेरा व्यक्तित्व मस्तमौला था. जो लोग आराम पसंद भी होते हैं और महत्वाकांक्षी भी, उन्हें अगर सही दिशा न मिले, तो कुंठित या आपराधिक होने की संभावना सबसे अधिक होती है. तू उनमें से ही थी. तब तक हमने तेरी हर इच्छा पूरी की थी, पर उस दिन मुझे उन सच्चाइयों का एहसास हुआ जिन्हें मेरी मां अक्सर दोहराया करती थीं. सफलता या उपलब्धियां मां बच्चे को दिला नहीं सकती, स़िर्फ उन्हें अर्जित करना सिखा सकती है. मैं तुझमें वो श्रम-निष्ठा विकसित करने में लग गई, जिससे तेरी आकांक्षाएं पूरी हो सकें.
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जब तेरा चुनाव किसी प्रतियोगिता के लिए न होता, तो तेरे मन की मासूम चोटें मां की सहानुभूति का मरहम चाहती थीं, लेकिन मैं जानती थी कि ये मरहम तुझे और आलसी व अपनी कमियों को दूसरों या क़िस्मत के सिर मढ़ने का आदी बना देंगे. तुझे मरहम नहीं, उपलब्धि अर्जित करने के लिए ज़रूरी श्रम की प्रेरणा की ज़रूरत थी. हर प्रकार से समझाकर भी जब कोई असर नहीं हुआ, तो मैंने बच्चों में नैतिक मूल्यों की स्थापना का सबसे पुराना तरीक़ा चुना- कहानियां. इस तरी़के ने कुछ असर दिखाया और तू कम से कम किसी प्रतियोगिता की बात आने पर नियोजित श्रम में रुचि दिखाने लगी.
मेरा उत्साह बढ़ा और मैं तुझे नई कहानियों में गढ़कर ये समझाने में लग गई कि स्पर्धा के लिए अतिरिक्त मेहनत की ज़रूरत होती है, इसलिए अध्यापिकाएं उन बच्चों का चुनाव करती हैं, जो अच्छे अंकों द्वारा श्रम के प्रति अपनी संजीदगी प्रमाणित कर चुके होते हैं. आह! लेकिन बच्चा वो पौधा होता है, जिसे कब कितना खाद-पानी चाहिए, अभिभावकों को पता नहीं होता. बस, प्रयोग करके ही सीखा जा सकता है. मेरा ये प्रयोग भी असफल होने लगा. तूने कुछ समय तक तो मेहनत की, पर अपेक्षित फल न मिलने पर तू ज़्यादा निराश हो गई. तुझे अध्ययन से ही नहीं, मेरी कहानियों से, मेरे समझाने से भी चिढ़ हो गई और तूने कहीं चुनाव के लिए असफल होने पर अपना दर्द मेरे साथ बांटना बंद कर दिया. अब तेरा दर्द मुझे तेरे चिड़चिड़े बोलों या सोते समय तेरे गालों पर सूखे आंसुओं से पता चलता. तेरी सहेलियों से अपने अनुमानों के सच होने का पता चलता, तो मैं भीतर तक आहत हो जाती. शिक्षा व्यवस्था के दिए विशेषण ‘औसत’ के तीर ने तेरे मासूम दिल की श्रम की इच्छाशक्ति को, तेरे आत्मविश्वास को कुचल दिया था, जानती थी. तालियों की गड़गड़ाहट में खो जाने का, किसी शाम का सितारा होने का तेरा अरमान पूरा करने के मेरे पास दो ही सही रास्ते बचे थे. तेरे लिए स्वस्थ स्पर्धाओं के अधिक से अधिक अवसर खोजना और तेरे भीतर की अभिरुचि का पता लगाना, इसीलिए मैंने तेरे लिए तरह-तरह के हॉबी कोर्स जॉइन कराना और स्कूल से इतर प्रतियोगिताओं के अवसर ढू़ंढना शुरू किया, लेकिन जब वो उपलब्धियां भी तेरे भीतर श्रम की निरंतरता की प्रेरणा न जगा पाईं, तो मेरी ममता की चिंता बढ़ गई. तूने उन्हें स्कूल में दिखाकर अध्यापिकाओं का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश की. मैं तेरे स्कूल में महत्व पाने के प्यासे अबोध मन को समझा नहीं पा रही थी कि इससे उन्हें क्या और क्यों फ़र्क़ पड़ता. यदि किसी बच्चे ने स्कूल के बाहर कोई पुरस्कार जीता है, तो वे उसे देखकर शाबाशी देने के अलावा और कह या कर भी क्या सकती थीं. एक बात और तुझे बताना ज़रूरी है कि बिना तेरी जानकारी में आने दिए मैंने तेरे स्कूल जाकर, दूसरे अभिभावकों से बात करके, स्कूल काउंसलर से मिलकर ये पक्का किया था कि स्कूल के पक्षपाती वातावरण को लेकर तेरी शिकायतों में सच्चाई तो नहीं है या तुझे कोई वास्तविक समस्या तो नहीं है, जिससे तेरा मन अध्ययन में नहीं लगता. जब मैं आश्वस्त हो गई, तब मैंने तुझमें असफलताओं पर कुंठित होने की बजाय उन्हें प्रेरणा बनाने और छोटी उपलब्धियों पर ख़ुश रहने का नज़रिया विकसित करने के लिए पौराणिक कथाओं का सहारा लिया.
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किशोर वय की आंधी, तथाकथित प्यार ने इस उम्र की दहलीज़ पर कदम रखते ही तेरे जीवन में भी दस्तक दी. मैं भी इस आंधी के ख़तरों से परिचित मां की तरह चौकन्नी हो गई. ये वो कठिन घड़ी है, जो हर पीढ़ी के अभिभावकों के सामने सबसे बड़ी चुनौती रही. वो किशोरवय के शारीरिक और भावनात्मक आकर्षण की अनिवार्यता को पहचानते हैं, इसीलिए दोस्ताना माहौल बनाकर उसे सही मार्गदर्शन देने की कोशिश करते हैं, लेकिन जैसे ही किशोर आज़ादी की अपनी परिभाषा बताते हैं, उनकी आंखों में पहाड़ की चोटी पर खड़े उस अबोध इंसान का बिंब उभरने लगता है, जिसे अंदाज़ा नहीं है कि एक कदम फिसला और कितनी गहरी घाटी में गिर सकता है. हम जानते हैं कि न तो बच्चा इतना छोटा है कि उसे गोद में उठाकर वापस ले आया जाए और न इतना बड़ा कि उसे इन ख़तरों के बारे में समझाया जा सके. तो बस इतना चाहने लगते हैं कि एक रस्सी उसकी कमर में बांधकर पकड़ लें, ताकि वो फिसले तो उसे संभाल सकें. वो रस्सी है सतर्कता की, हर समय उसकी हर हरकत पर नज़र रखने की और इन सबसे बढ़कर संवाद की. और इन्हीं चीज़ों से किशोर सबसे ज़्यादा चिढ़ते हैं. मैं कतई नहीं कहती कि मैंने उस दौरान जो किया, वो पूरी तरह सही था. पर बेटा, इतना ज़रूर यकीन दिलाना चाहूंगी कि मक़सद केवल तुझे गिरने पर संभाल लेना था, लेकिन प्यार में चोट खाने पर भी तूने संवाद की रस्सी को नहीं थामा. तूने उसे चिढ़ाने के लिए किसी और का साथ लिया, वो कोई और तुझे ब्लैकमेल करने लगा. तूने मुझे कुछ नहीं बताया, तो मेरे पास केवल सतर्कता की रस्सी बची, जिसने तेरी नज़र में मुझे जेलर बना दिया. कोई बड़ी उपलब्धि पाने के लिए ज़रूरी योजनाबद्ध परिश्रम की चाह विकसित करने का अंतिम उपाय है प्रताड़ना. ईश्वर का लाख-लाख धन्यवाद है कि दिल पर पत्थर रखकर डरते-डरते अपनाया ये उपाय कामयाब हो गया. लेकिन बेटा, ये तो एक नई यात्रा की, नए संघर्षों की शुरुआत है. दुनिया में कदम-कदम पर नाइंसाफ़ियां हैं, नाकामियां हैं. तू मेरी सफल बेटी है. मन की प्रतिरोधक क्षमता को इतना बढ़ाने की कोशिश करना कि नाकामियां तेरे विकास की प्रेरणा बन जाएं और हो सके तो अब संवाद की इस रस्सी को थाम लेना और फिर कभी न छोड़ना. ज़िंदगी में कभी भी कोई भी समस्या आए तो सबसे पहले अपनी मां को बताना. मैं तुझे यक़ीन दिलाती हूं कि तुझे उपदेश नहीं दूंगी. जब तेरी गढ़ने की उम्र थी, तब तुझे तेरी ग़लतियां बताती थी. अब तेरी बढ़ने की उम्र है, तो मां तेरा सहारा बनेगी. यक़ीन रखना कि मां तुझे बहुत प्यार करती है और हमेशा करती रहेगी. चाहे तू सारी दुनिया की नज़र में निरर्थक हो जाए, सारी अध्यापिकाओं की नज़र में नाक़ाबिल हो जाए, सारे समाज की नज़रों में ग़लत हो जाए, पर मां के लिए हमेशा अनमोल रहेगी. वो तुझे संवारने की कोशिश कभी नहीं छोड़ेगी. जब डॉक्टर ने पहली बार तुझे मेरी गोद में दिया था और मैंने तुझे बड़ी सावधानी से पकड़कर सीने से लगाया था, मन से मां तुझे वैसे ही पकड़े रहेगी. तेरी हंसी पर निछावर होती रहेगी, तेरे दर्द से परेशान, तेरी सुरक्षा को लेकर चिंतित होती रहेगी...
कुछ ही पलों में झर-झर बहते आंसुओं को संभालती आकांक्षा वीडियो कॉल करके कैमरे पर मां के आंसू पोछे जा रही थी - अब रोने के नहीं, गर्वित होने के दिन हैं, मेरी सफल मां!
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