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कहानी- मूर्ति (Short Story- Murti)

निहारिका की गाथा जानकर मैं ख़ुद सकते में आ गई थी. इतनी-सी उम्र में क्या कुछ झेलकर आई है यह बच्ची. उसके निर्दोष चेहरे की निर्मलता, शांत मासूम आंखों की पवित्रता बार-बार मुझे किसी अलौकिक मूर्ति का-सा आभास दे रही थी. किसी ने ठीक ही कहा है पत्थर को सहलाने से मूर्ति नहीं बनती, उस पर चोट करनी पड़ती है. ज़िंदगी रूपी कठोर हथौड़े ने चोट पहुंचा-पहुंचाकर ही उसे यह निर्मल मूर्तिमय स्वरूप प्रदान किया है.

चयनित उम्मीदवारों की सूची में निहारिका का नाम देखते ही मैं ख़ुशी से उछल पड़ी. किसी इंसान को उसकी योग्यता का प्रतिसाद मिले तो प्रसन्नता होना स्वाभाविक है. फिर निहारिका का केस तो अब वैसे भी मेरे लिए विशिष्ट हो गया था. अपने सिद्धांतों के विपरीत मैंने आगे बढ़कर निहारिका को फोन लगाया और उसको उसके चयन की सूचना दी. उसे और उसके माता-पिता को बधाई देकर मैं स्वयं को काफ़ी हल्का और उत्फुल्ल महसूस कर रही थी. जिस आत्मीयता से उन्होंने मुझसे बात की लग ही नहीं रहा था कि कुछ दिन पूर्व मैं उनसे नितांत अजनबी की भांति मिली थी.
उस दिन मैं जल्दी खाना खाकर सोने के मूड में थी. दिनभर चले इंटरव्यू के कार्यक्रम ने मुझे बहुत थका दिया था. तभी बाई ने आकर सूचित किया कि बाहर कोई मिलने आए हैं. बैठक में बैठे प्रौढ़ आयुवर्ग के दंपति को मैं पहचान नहीं पाई, लेकिन साथ आई लड़की का चेहरा पहचाना-सा लगा. औपचारिक अभिवादन के बाद उसी ने बातचीत का सिलसिला आरंभ किया.
“जी… मैं… निहारिका वर्मा… आज इंटरव्यू देने…”
ओह हां मुझे याद आ गया. दिनभर चले मैराथन इंटरव्यू का यह लड़की भी तो एक हिस्सा थी. पलक झपकते मैंने अनुमान लगा लिया कि वह सिफारिश लेकर आई है.
“देखिए इंटरव्यू समाप्त हो चुके हैं. प्रिंसीपल होने के नाते मैं इंटरव्यू बोर्ड का एक हिस्सा अवश्य थी, पर चूंकि यह एक प्राइवेट कॉलेज है, तो अंतिम निर्णय कॉलेज संचालकों का ही होता है. और वैसे भी मैं इन सिफारिश वगैरह के लफड़ों में नहीं पड़ती. मेरा मानना है जिसमें कैलिबर है उससे उसका हक़ कोई नहीं छीन सकता.”
“आप बिल्कुल सही फरमा रही हैं. हम ऐसी कोई उम्मीद लेकर आपके पास नहीं आए हैं. हम तो बस आपको धन्यवाद देने आए हैं. आपने सही समय पर हमारा, हमारी बच्ची का मार्गदर्शन किया. उसके लिए हम आपके बहुत आभारी हैं.”
“लड़की के पिता ने कृतज्ञता से हाथ जोड़ दिए तो मैं सकुचा-सी गई. मेरे लिए सारा घटनाक्रम एक पहेली की भांति ही चल रहा था. आख़िर ये लोग हैं कौन और इन लोगों का यहां आने का मंतव्य क्या है? मुझे किस बात का धन्यवाद दिया जा रहा है? लड़की की मां अब तक मेरी असमंजस भांप चुकी थी.
“आपने शायद हमें पहचाना नहीं? दो बरस पूर्व निहारिका की शादी में आपसे मुलाज्ञशत हुई थी. तब भरत भाई साहब ने आपसे परिचय करवाया था.”

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अब चौंकने की बारी मेरी थी. भरत भाईसाहब… यानी भरत वर्माजी? मेरे पति मनोज के दोस्त? जो दिल्ली चले गए थे? मैंने दिमाग़ पर ज़ोर दिया. हां-हां, वे ही.
"ये उनके बड़े भाई रंजन वर्मा और मैं उनकी भाभी."
“ओह! आई एम सो सॉरी मैं आपको पहचान नहीं पाई. दरअसल तब यह… मतलब निहारिका वधू के वेश में थी और आप सब भी तो कितना सजे-धजे थे.” मैं वाक़ई बहुत शर्मिंदगी महसूस कर रही थी और यह सब मेरे चेहरे से झलक रहा था.
“नहीं… नहीं आप शर्मिंदा मत होइए. हम समझ सकते हैं. ख़ुद हमें ही कहां मालूम था कि आप उसका इंटरव्यू लेंगी. वो तो इसी ने आपको पहचान लिया था और बाहर निकलते ही हमें बताया था. हमने इसके चाचा को फोन भी लगाना चाहा पर इसी ने रोक लिया.”
मेरी निगाहें अब तक मूर्तिवत बनी बैठी निहारिका की ओर उठ गईं. मुंह बंद होते हुए भी उसकी बड़ी-बड़ी आंखें उसके दिल का सारा हाल बयां कर रही थीं. मैं उसकी मासूमियत, उसकी खुद्दारी से प्रभावित हुए बिना न रह सकी. मुझे अब तक सब कुछ याद आ गया था.
“इंटरव्यू तो अच्छा हुआ था इसका. काफ़ी आत्मविश्‍वास से जवाब दे रही थी, पर क्या है कि यहां पदों की संख्या तो है बहुत कम और
उम्मीदवार आ गए थे उम्मीद से कहीं ज़्यादा. अब पता नहीं मालिक लोग किसे चुनते हैं? वैसे मैं बता दूं बिना पहचाने भी मैंने इसे इसकी योग्यता के आधार पर अच्छे रिमार्क्स दिए थे.” मेरे चेहरे पर अब मुस्कुराहट आ गई थी, लेकिन एक संशय अभी भी बना हुआ था. इन्होंने न मुझसे सिफारिशी फोन करवाया और न अब किसी फेवर की उम्मीद रखते हैं, तो फिर ये मेरे प्रति किस बात का आभार प्रकट करने आए हैं? निहारिका शायद मेरी मनःस्थिति भांप गई थी, लेकिन अब भी शांत बैठी थी. उसकी मां ने ही बात आगे बढ़ाई. “आपको याद है नववधू के वेश में लजाती, सकुचाती निहारिका से जब उसके चाचा ने आपका परिचय करवाया था तब गर्व के साथ यह भी बताया था कि हमारी बिन्नी यानी कि निहारिका बहुत लकी है. बहुत समृद्ध घर-परिवार में इसका रिश्ता हो रहा है. भाई साहब भी खूब दिल खोलकर ख़चर्र् कर रहे हैं. गहनों, कपड़ों से लादने के अलावा उसे एक बड़ी-सी कार भी दे रहे हैं. वे शादी की भव्यता का बखान किए जा रहे थे कि अचानक आपने पूछ लिया था कि दूल्हा क्या करता है?”
तब तो नहीं पर इस समय इस आक्षेप पर मैं सकपका-सी गई. “अं….हां… वो ऐसे ही. दरअसल, मेरी सोच का पैमाना कुछ अलग है. मुझे इंसान की धन-संपत्ति से ज़्यादा उसकी योग्यता आकर्षित करती है. आप लोगों को शायद बुरा लगा हो तो मैं माफ़ी चाहती हूं.”
“नहीं-नहीं, आपका सवाल बिल्कुल उचित था, क्योंकि आपकी सोच बिल्कुल सही और सटीक है. मैंने बताया था कि लड़का इंजीनियर है और एक प्राइवेट कंपनी में कार्यरत है. आप संतुष्ट नज़र आई थीं.” निहारिका के पिता ने याद दिलाया. “लेकिन फिर उसके तुरंत बाद आपने बिन्नी के लिए पूछ लिया था कि वह क्या कर रही है?” निहारिका की मां ने बात आगे बढ़ाई तो मुझे सब कुछ याद आ गया. “हां-हां, वह फाइन आर्ट्स में डिप्लोमा कर रही थी.” मेरे सामने अतीत का सारा दृश्य साकार होने लगा था. शादी के अगले दिन ही उसका पेपर था. घरवाले चाह रहे थे वह अब इन झंझटों में न पड़े. ब्याह तो हो ही रहा है. शादी के अगले ही दिन लड़की परीक्षा देने निकलेगी तो लोग क्या कहेंगे? ससुरालवाले नाराज़ हो गए तो? अभी तो सारी रस्में भी पूरी नहीं हुई हैं. फिर भरा पूरा खानदानी
व्यवसायी परिवार है. इसे कौन-सी नौकरी करनी है?
मुझे उनकी बातें नागवार गुज़र रही थीं और अपनी आदत के मुताबिक मैं तुरंत बोल भी पड़ी थी, तो क्या रस्मो-रिवाज़, लोक-लाज के पीछे वह अपना करियर दांव पर लगा ले? पास खड़े मनोज ने मुझे घूरकर देखा था, लेकिन मैं उनका इशारा समझकर भी निर्विकार बनी रही थी, पर मूर्तिवत अब तक सब सुन रही निहारिका तब यकायक ही एकदम उत्साहित हो उठी थी. “मेरा मनोबल बढ़ाने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद आंटी! मैं भी अपनी सालभर की मेहनत को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहती थी. दो ही पेपर तो बचे हैं. अब तो मैं अवश्य दूंगी.”
मनोज सहित आसपास खड़े सभी नाते-रिश्तेदारों के मुंह पर ताला लग गया था. मैंने बात को आगे बढ़ाना उचित नहीं समझा और वहीं विराम लगा दिया था, फिर भी जाते-जाते निहारिका को शुभकामनाएं देना नहीं भूली थी.
“यह शादी के लिए भी है और शेष दोनों परीक्षाओं के लिए भी.” मुझे थैंक्यू कहते हुए निहारिका की आंखें ख़ुशी से चमक उठी थीं. आश्‍चर्य है मैं कैसे उसे नहीं पहचान पाई? एक तो 2 वर्ष का अंतराल और फिर सबसे बड़ी बात एकदम परिवर्तित वेशभूषा. कहां वह सोलह श्रृंगार में लिपटी, लजाती नववधू और कहां यह सूती लिबास में एकदम सादा सा चेहरा. मैं एकदम वर्तमान में लौट आई थी.
“और वैवाहिक जीवन कैसा चल रहा है?” मेरे इस प्रश्‍न पर यकायक ही मानो सारे बल्ब बुझ गए हों. कमरे में सुईपटक सन्नाटा पसर गया था. अब भी थोड़े अंतराल के बाद निहारिका की मां ने ही मुंह खोला, “हमारे साथ धोखा हो गया. शादी के सालभर बाद लड़का अचानक घर छोड़कर चला गया. उसके घरवालों, कंपनीवालों किसी को भी नहीं पता कि वह अचानक कहां चला गया? हम बिन्नी को घर ले आए. इस गऊ सरीखी लड़की को तो विश्‍वास ही नहीं हो रहा था कि उसके साथ छल हुआ है.

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एक दिन किसी परिचित ने उसे एक लड़की के साथ एक नर्सिंगहोम में देखा, तो हमें सूचित किया. हम भागे-भागे पहुंचे तब तक वे ग़ायब हो चुके थे. नर्सिंग होम के रिकॉर्ड से ही पता चला कि वह लड़की उससे गर्भवती थी. अब उस रिश्ते में कुछ नहीं बचा था. यही सोचकर हमने तलाक़ की याचिका दायर की तो पता चला ऐसी याचिका तो उस लड़के की ओर से पहले ही दायर की जा चुकी है. वह शायद बिन्नी से तलाक़ लेकर उस लड़की से विधिवत विवाह कर लेना चाहता है, पर घरवालों के डर से छुपता-छुपाता घूम रहा है.”
“आप उसके घरवालों से मिले?” मैंने उनसे पूछा.
“हां, वे बहुत शर्मिंदा हैं. पूरे मामले में अपनी अनभिज्ञता ज़ाहिर करते हुए ख़ुद को बेकसूर ठहरा रहे हैं. कभी कहते हैं हम तो लड़के को
जायदाद से ही बेदखल कर देंगे, पर हमें इस संबंध को और निभाने में अब कोई दिलचस्पी नहीं है. उनका बेटा उन्हें मुबारक! मिले न मिले, मेरी बेटी की तो ज़िंदगी बर्बाद हो गई.” निहारिका की मां का गला भर आया था. मैंने उनके आगे सामने रखा पानी का ग्लास बढ़ा दिया था. अब मोर्चा निहारिका के पापा ने संभाल लिया था.
“आपने बिन्नी को परीक्षा देने की सलाह देकर उसका साल बर्बाद होने से बचा लिया, बल्कि साल क्या ज़िंदगी बर्बाद होने से बचा ली. हम लोग इसी बात का आभार व्यक्त करने आए हैं. आज उसके पास एक व्यावसायिक डिग्री है. वह और हम सभी चाहते हैं कि वह बीते दिनों को एक बुरा स्वप्न समझकर भूलने का प्रयास करे. घर के बाहर निकले, नौकरी करे और एक नई ज़िंदगी आरंभ करे. ईश्वर एक द्वार बंद करता है, तो दूसरा खोलता भी है. उस व़क्त भले ही हमें आपकी सलाह भड़काने वाली लगी थी, पर आज महसूस होता है कि आपकी सोच कितनी व्यावहारिक थी.”
निहारिका की गाथा जानकर मैं ख़ुद सकते में आ गई थी. इतनी-सी उम्र में क्या कुछ झेलकर आई है यह बच्ची. उसके निर्दोष चेहरे की निर्मलता, शांत मासूम आंखों की पवित्रता बार-बार मुझे किसी अलौकिक मूर्ति का-सा आभास दे रही थी. किसी ने ठीक ही कहा है पत्थर को सहलाने से मूर्ति नहीं बनती, उस पर चोट करनी पड़ती है. ज़िंदगी रूपी कठोर हथौड़े ने चोट पहुंचा-पहुंचाकर ही उसे यह निर्मल मूर्तिमय स्वरूप प्रदान किया है. सुबह फोन पर चयन की सूचना देने के बाद जैसी कि मुझे उम्मीद थी निहारिका शाम को फिर माता-पिता के साथ मिठाई का डिब्बा लेकर उपस्थित थी. ख़ुशी से चमकते उन चेहरों पर आज कल के दुख की छाया तक नज़र नहीं आ रही थी. मुझे मानना पड़ा हमारे दुख बड़े नहीं होते. दुख को सहन करने की हमारी ताक़त छोटी होती है. जैसे ही ताक़त बढ़ी दुख दुम दबाकर भागता नज़र आया.

- संगीता माथुुुुर

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