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कहानी- नहले पे दहला (Short Story- Nahle Pe Dahla)

वकील साहब आज बाऊजी की वसीयत पढ़नेवाले थे यानी आज उनकी विरासत का बंटवारा होना था. सबके अंतर्मन में बहुत कुछ चल रहा था. सबको वकील साहब के नाश्ते-खाने की चिंता थी कि वो क्या खाएंगे या फिर उन्हें ये नाश्ता पसंद आएगा या नहीं. किसी को मां के नाश्ते की फ़िक्र नहीं थी, जो सुबह से भूखी बैठी थीं.

आज सुबह से ही दोनों भाभियां, जिन्हें रसोई में एक टाइम का खाना बनाने में भी आफ़त आती थी वो आज ख़ुशी-ख़ुशी तरह-तरह के नाश्ते बनाने में पूरे ज़ोर-शोर से जुटी थीं. और दोनों बड़े भैया बैठक को करीने से सजाने में लगे थे. वैसे घर में कोई ख़ुशी की बात नहीं थी, बल्कि आज वकील साहब आनेवाले थे, बाऊजी की वसीयत पढ़ने के लिए. दोनों भाइयों को उनका हिस्सा देने. वकील साहब के खाने की बहुत चिंता थी सभी को, पर मां उनकी किसी को फ़िक्र नहीं थी. बाऊजी को गुज़रे आज पूरे छह महीने हो गए थे और इन छह महीनों में मां ने बहुत कुछ गहराई से महसूस कर लिया था, देख लिया था, जिसे संभवतः शब्दों में बयां करना मुश्किल था.
समय के साथ अपनों के बदलते रंग-ढंग ने मां को आहत कर दिया था, परंतु चुप रहने के सिवा उनके पास कोई विकल्प नहीं था. बाऊजी के बाद दोनों भाई-भाभियों को मां शायद बोझ लगने लगी थी. उन्होंने कल ही वकील साहब के साथ-साथ मुझे भी बुलवा लिया था, ताकि भविष्य में मेरे मन में भी कोई शंका न रहे. वकील साहब आज बाऊजी की वसीयत पढ़नेवाले थे यानी आज उनकी विरासत का बंटवारा होना था. सबके अंतर्मन में बहुत कुछ चल रहा था. सबको वकील साहब के नाश्ते-खाने की चिंता थी कि वो क्या खाएंगे या फिर उन्हें ये नाश्ता पसंद आएगा या नहीं. किसी को मां के नाश्ते की फ़िक्र नहीं थी, जो सुबह से भूखी बैठी थीं.
“बड़ी भाभी अगर नाश्ता तैयार हो गया हो, तो मां के लिए दे दो.“
“दीदी, मेरे हाथ गंदे हैं. आप छोटी से कह दो.“ कहकर बड़ी सफ़ाई से बड़ी भाभी ने अपना पल्ला झाड़ लिया. मैंने देखा कि छोटी भाभी के हाथ भी खाली नहीं है, इसलिए उनके मुंह से कुछ सुनने से अच्छा था की खुद ही मैंने मां को नाश्ता परोस दिया. मां की ख़ामोशी, उनकी भीगी उदास पनीली आंखें और कांपते हाथ बहुत कुछ कह रहे थे. बाऊजी के जाने के बाद इन छह महीनों में बहुत कुछ अनुभव कर लिया था. उनकी सारी ज़िंदगी का अनुभव एक तरफ़ और इन छह महीनों का अनुभव एक तरफ़.
ख़ैर, तय समय पर वकील साहब आए और उनका स्वागत भी ख़ूब ज़ोर-शोर से हुआ. वकील साहब, वकील कम बाऊजी के दोस्त ज़्यादा थे. वे पारखी नज़र रखते थे, अतः सादर-सत्कार और मां की पनीली आंखें देख सारा माजरा समझ गए.
जैसे ही वकील साहब ने वसीयत पढ़नी शुरू की, दोनों भाइयों और भाभियों के चेहरे के रंग बदल गए. दोनों भाई बाऊजी की अपार सम्पत्ति के आधे-आधे वारिस होने का सपना देख रहे थे, किंतु हुआ उल्टा. अनुभवी बाऊजी ने अपने बेटे-बहुओं की नियत पहले ही भांप ली थी, अतः उनकी दूरदर्शी सोच ने सारा पासा पलट दिया. बाऊजी की सारी सम्पत्ति मां के नाम देख, दोनों भाइयों के पैरों तले ज़मीन खिसक गई.


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भाइयों ने सोचा था सम्पत्ति मिलने के बाद मां को एक अच्छे, उम्दा वृद्धाश्रम में छोड़ आएंगे, पर यहां तो कहानी बदल गई. सब कुछ उलट-पलट हो गया. जिस मां को बेबस-बेसहारा समझ रहे थे, वो मां ख़ुद अकेली सारी सम्पत्ति की स्वामिनी थी. ईश्वर की कृपा से बाऊजी के सम्पत्ति वैभव में कोई कमी नही थी. घर, फैक्ट्री, दुकान और बैंक बैलेन्स सब कुछ अब मां के नाम था और भविष्य में भी मां के बाद अर्थात् उनकी मृत्यु के बाद समस्त सम्पत्ति के तीन बराबर हिस्से थे. एक-एक दोनों भाइयों का और एक हिस्सा मेरा यानी उनकी बेटी का. मेरा हिस्सा सुनकर दोनों भाई-भाभियों के चेहरों पर ग़ुस्से, आश्चर्य और अफ़सोस के मिले-जुले भाव आ रहे थे.
क्या सोचा था और क्या हो गया... चारों यही सोच रहे थे. अब तो घर भी मां के नाम था. कहां मां को बेघर करने की सोच रहे थे और कहां ख़ुद बेघर होने की नौबत आ गई.
“मैंने ये वसीयत कोर्ट में भी रजिस्टर करवा रखी है और हां, एक बात और वसीयत के हिसाब से अगर भाभी यानी सुशीला देवी अगर आगे अपनी सम्पत्ति अपने बच्चों में न बाँटना चाहे, तो ये उनकी इच्छा पर निर्भर करता है की वे उस सम्पत्ति का क्या करना चाहती हैं, किसको देना चाहती हैं. इस बात में उन पर किसी भी प्रकार का दबाव नहीं होगा, अन्यथा सारी सम्पत्ति चैरिटी में चली जाएगी.
अगर किसी को भी इस विषय में कुछ पूछना हो तो पूछ ले. भाभी आपको या फिर बच्चों...“ वकील साहब ने पूछा.
“जी नहीं.“ बस चारों के मुख से बड़ी मुश्किल से ये दो शब्द ही निकले.
'वाह बाऊजी वाह! क्या नहले पर दहला मारा है. अच्छा सबक़ सिखाया आपने. शायद आप अपने बेटों की नियत पहले ही देख-समझ चुके थे. जिस रोग का नासूर बनने का डर था, आपने उस रोग को ही ख़त्म कर दिया. इसे कहते हैं दूरदर्शिता.' चारों के चेहरे देख मैं मन ही मन बाऊजी को धन्यवाद दे रही थी. उनमें से कोई कुछ भी कहने, सुनने की हालत में नहीं था.
वकील साहब चले गए, पर मां को आत्मसम्मान, इज़्ज़त और ख़ुशी से रहने की चाभी भी दे गए थे. मां के चेहरे पर संतोष और ख़ुशी थी, जिसे देख मुझे संतुष्टि हुई.
दोनों भाई-भाभी कुछ भी कहने की स्थिति में नही थे, शायद इसलिए हम समय और अनुभव को बलवान कहते है.

कीर्ति जैन
कीर्ति जैन




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