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लघुकथा- नया सवेरा (Short Story- Naya Savera)

मालती की बात से मेरा चेहरा फक् पड़ गया. विवेक और दोनों बच्चे एकटक मुझे निहार रहे थे और मैं उनसे नज़रें नहीं मिला पा रही थी. अपनी ही नज़रों में मैं स्वयं को बेहद छोटा महसूस कर रही थी. पिछले साल की एक स्मृति मेरे मन में कौंध गई.

आज सुबह-सुबह ही मेरा मूड ऑफ हो गया. कामवाली बाई मालती का फोन आ गया कि वह आज काम पर नहीं आएगी. नाश्ते और खाने के अलावा झाड़ू-पोछा, बरतन सभी कुछ मेरे सिर पर आ गया, जिसने मुझे बेहद थका डाला. शाम को ऑफिस से विवेक आए, तो मैं खिन्न मन से बोली, ‘‘आज मुझसे खाना नहीं बन सकेगा. बाहर चलकर कुछ खाते हैं.’’
‘‘हां मम्मी, आज चाट खाने चलते हैं. बहुत समय हो गया चाट नहीं खाई,’’ बेटा-बेटी सम्वित स्वर में बोले. मालती के न आने से उनकी तो लॉटरी निकल आई थी. विवेक भी राजी हो गए.
अचानक तैयार होते हुए वह बोले, ‘‘मम्मी को भी ले चलते हैं. वह भी बाहर ही खा लेंगी.’’
‘‘हां मम्मी, दादी का भी चेंज हो जाएगा.’’ बेटी स्वरा बोली, तो मैंने क्रोधभरी नज़र उस पर डाली और कहा, ‘‘बाहर का खाने से दादी का पेट ख़राब हो जाएगा. मैंने उनके लिए दो रोटी सेंक दी हैं. सुबह की दाल से खा लेंगी.’’ मेरी बात पर तीनों ख़ामोशी से एक-दूसरे का मुख़ देखने लगे. जानते थे कि मैं सास के साथ सहज नहीं रहती.
हम चारों चाट बाज़ार पहुंचे. अभी हमने चाट का ऑर्डर किया ही था कि बराबर की दुकान पर मालती को अपने परिवार के साथ चाट खाते देख मेरे तन-बदन में आग लग गई. मेरे काम की छुट्टी करके देवीजी यहां मज़े कर रही हैं. कल इसकी अच्छी ख़बर लूंगी, मन ही मन मैं सोच रही थी कि दुकान से बाहर आती मालती की नज़र मुझ पर पड़ी.
वह मेरे क़रीब आई और नमस्ते करती हुई बोली, ‘‘भाभी, आज मेरी वजह से आपको तकलीफ़ हुई. दरअसल, आज आपकी इस बेटी का दसवीं का रिज़ल्ट आया है. यह 80 प्रतिशत नम्बरों से पास हुई है.’’ पास खड़ी अपनी बेटी की ओर इशारा कर वह बोली.
‘‘वाह, कांग्रैचुलेशन्स बेटा.’’ मैंने और विवेक दोनों ने उसकी बेटी को सिर पर हाथ रख आशीर्वाद दिया.
‘‘भाभी, इसका मन था, आज हम सब इसके साथ घर पर रहें और बाहर खाए-पिएं.’’
‘‘अच्छा किया मालती, बच्चों का मन रखना चाहिए.’’ उन सबकी प्रसन्नता देखकर मेरे मन की नाराज़गी जाती रही. अपने साथ आई बुज़ुर्ग महिला से परिचय करवाते हुए वह बोली, ‘‘यह मेरी सास हैं भाभी. यह तो आना नहीं चाह रही थीं, मगर हम लोग नहीं माने. इन्हीं के आशीर्वाद से तो यह दिन देखने को मिला है. थोड़ा बाहर निकलेंगी तो जी भी लगेगा, वरना रोज़ तो घर में रहती ही हैं.’’
मालती की बात से मेरा चेहरा फक् पड़ गया. विवेक और दोनों बच्चे एकटक मुझे निहार रहे थे और मैं उनसे नज़रें नहीं मिला पा रही थी. अपनी ही नज़रों में मैं स्वयं को बेहद छोटा महसूस कर रही थी.
पिछले साल की एक स्मृति मेरे मन में कौंध गई.
मेरे बेटे सनी का 12वीं का रिज़ल्ट आया था. 98 प्रतिशत लाकर उसने कॉलेज में टॉप किया था. घर में शानदार पार्टी का आयोजन था. सनी और स्वरा के मित्र ख़ूब नाच-गा रहे थे. मम्मी कितनी हसरत भरी निगाह से बार-बार अपने कमरे से बाहर आकर सबको देख रही थीं. मैंने एक बार भी उनसे नहीं कहा कि वह वहीं बच्चों के बीच बैठकर आनंद लें. यही नहीं उनके खाने की प्लेट भी मैंने उनके कमरे में पहुंचा दी थी.
क्या पोते की कामयाबी का जश्न मनाना उनका अधिकार नहीं था? क्या उनका आशीर्वाद सनी के साथ नहीं था? आज मैं सोच रही थी. मम्मी ने तो सदैव मुझ पर ममता लुटानी चाही, मेरे क़रीब आना चाहा. मैंने ही इस पूर्वाग्रह के चलते कि सास कभी मां नहीं बन सकती, उनसे दूरी बनाकर रखी, किंतु आज एक कामवाली बाई ने मुझे मेरी भूल का एहसास कराया था.
बरसों से सुबह जल्दी उठने की मेरी आदत रही है. सुबह पांच बजे मेरी नींद स्वतः खुल जाती है, किंतु वास्तव में तो मेरी आंख आज खुली थी. आज ही मेरी ज़िंदगी में नया सवेरा हुआ था.

Renu Mandal
रेनू मंडल

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