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कहानी- नीड़ के तिनके (Short Story- Need Ke Tinke)

"यह अंधेरा क्यों कर रखा है?" अनिल ने घर में घुसते ही पूछा.
"तुम जो न थे. उजाला करती भी तो किसके लिए?" मधु का स्वर रुआंसा हो गया.
"मां की हालत अभी ठीक नहीं हुई है. पच्चीसों टेस्ट चल रहे हैं, पर दादाजी एवं मां ने ज़बरदस्ती मुझे भेज दिया कि वहां त्योहार में बहू बच्ची के साथ अकेली होगी."

"मधु, दादाजी का पत्र आया है."
"मधु…" अनिल ने दुबारा आवाज़ दी. दूसरे कमरे से मधु के निर्देश की एवं खटर-पटर की आवाज़ें आ रही थीं. दीवाली की सफ़ाई और रंगाई-पुताई हो रही थी. दो मज़दूर अंदर लगे थे और मधु उन्हें बीच-बीच में बताती जाती थी
"मधु…" अनिल ने फिर आवाज़ देनी चाही.
"सुन लिया," कमर पर हाथ रखे मधु दरवाज़े पर चली आई सिर पर तौलिया बांधे.
"क्या लिखा है? यही न कि त्योहार में घर चले आओ. मुझे नहीं जाना, साफ़ मना कर दो."
"नहीं मधु ये बात नहीं है." मधु के उत्तेजित स्वर पर अनिल ने उसे बताया, "मां की तबीयत ज़्यादा ख़राब है. बुलाने के लिए तो उन्होंने कुछ लिखा भी नहीं है."
"क्या हो गया अम्मा को?" अब मधु का स्वर सामान्य था. "सास ज़्यादा फूलने लगी है. शहर के डॉक्टर को दिखाया है. एक्सरे हुआ है."
"ओह! लाओ पत्र मुझे दो." मधु ने पत्र अनिल के हाथ से ले लिया.
मधु एवं अनिल ने इस बार निर्णय लिया था कि हर बार की तरह गांव न जाकर दिवाली यहीं मनाएंगे. आख़िर पांच साल से वह यहां रह रहे हैं. यार लोगों में उठना-बैठना है.
पड़ोस में अच्छी जान-पहचान है. जब मिलने-मिलाने का वक़्त आता है, तो बोरिया-बिस्तर बांधकर गाव चल देते हैं, यह भी कोई बात हुई.

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इसी कारण मधु के आग्रह पर अनिल ने घर पत्र भेज दिया था कि वह दिवाली में गांव नहीं आ सकेंगे, पर ऐन दिवाली के चार दिन पूर्व यह पत्र आ गया.
शाम तक मधु ने निर्णय सुना दिया कि अनिल घर जाकर मां को देख आए. वह यदि साथ में गई, तो फिर त्योहार पर लौट नहीं पाएगी. मधु यहीं रह जाएगी, तो अनिल को दिवाली पर वहां कोई नहीं रोकेगा.
"सुनो, रुकना नहीं, चले आना. अम्मा की तबीयत ज़रा सम्हलें तो आ जाना. कह देना कि मजदूर लगे हैं सफ़ाई में, वरना मैं ज़रूर आती."
अनिल सिर हिलाता हुआ चला गया. बिटिया टिंकी तीन वर्ष की थी. वह और मधु सिर्फ़ दो लाग घर में रह गए.
अनिल धनतेरस पर भी नहीं आया. छोटी दीवाली आकर चली गई और फिर दिवाली का बड़ा पर्व भी आ गया, पर दोपहर तक अनिल नहीं आया. सारा घर मजदूरों की सहायता से धो-पोंछकर उसने एक-एक झरोखे भी साफ़ कर लिए थे. ढेर सारे दीपों की पंक्तियां यहां सजाएगी. दो-तीन तरह की मिठाइयां बनाई थी. अपनी गृहस्थी में पहला पर्व मनाने की उमंग थी, पर अनिल के न आने पर वह बुझ गई.
दिवाली वाले दिन किसी शोर पर उसकी नींद खुली. टिंकी उसके गले में अपनी बांहें डाले बेधड़क सो रही थी. उसने टिंकी को हौले से परे किया, तो वह कुनमुनाई, "पापा…" कहती हुई वह फिर सो गई. नीचे मकान मालकिन के बेटे-बहू बीकानेर से आए थे. मधु रुआंसी होने लगी. यदि अनिल आज भी नहीं आया, तो वह अकेली क्या करेगी? किसके लिए यह सब तैयारी करेगी?
थोड़ी देर में मकान मालकिन एक तस्तरी में मिठाई सजाए हुए आ गई.
"बीकानेर की प्रसिद्ध खोए की मिठाई है. आज मेरा घर भर गया बहू-बच्चों के आने से."
"पर चाची, इतनी दूर से वे इलाहाबाद हर साल आते हैं. कितना पैसा तो आने-जाने में लग जाता होगा." मधु ने कहा.
"बेटी, रिश्तों से बड़ा तो पैसा नहीं है. बिना बच्चों के कही त्योहार होता है."
मकान मालकिन चली गई, पर मधु अनमनी सी बैठी रही. कही घर पर अम्मा की तबीयत ज़्यादा तो नहीं ख़राब हो गई. अनिल के रुकने का मतलब ज़रूर कुछ गंभीर बात है. क्या करें वह? क्या वह भी चली जाए, पर ऐसा न हो कि इधर वह जाए और उधर से अनिल आ जाए?
मधु के घर के बगल में श्रीमती रस्तोगी रहती थीं. पति-पत्नी दोनों बैंक में काम करते थे. मधु को देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ.
"अरे भाभीजी, आप घर नहीं गईं इस बार?"
"नहीं, ये गए है."
"तो आप यहां अकेली क्या कर रही हैं?"
"वह असल में बात यह हुई." मधु अटपटा रही थी बोलने में, "मां की तबीयत ख़राब थी, इधर मजदूर लगे थे, इस कारण इन्हें ही जाना पड़ गया."
"तब तो आपको भी जाना था. वैसे आपके रहने से हमें भी अच्छा लगेगा. हम तो मद्रास से इतनी दूर हैं कि बार-बार जाना नहीं हो पाता."

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"हूं…" मधु मन ही मन कुढी, 'इनकी राय जाने किसने मांगी थी. एक तो अनिल के न आने से मन यूं ही उदास है, उस पर इनका भाषण.' टिंकी बार-बार दरवाज़े पर आती. जब भी किसी रिक्शे की आवाज़ आती, "कब आएंगे पापा!" कहती हुई वापस आकर मां की गोद से लिपट जाती.
शाम सात बजे अनिल आया. पूरा घर अंधेरे में डूबा था, बस एक दीया टिमटिमा रहा था. आस-पास के घरों में दीपों की झिलमिलाहट पटाखे-फुलझड़ियों का शोर हो रहा था.
"यह अंधेरा क्यों कर रखा है?" अनिल ने घर में घुसते ही पूछा.
"तुम जो न थे. उजाला करती भी तो किसके लिए?" मधु का स्वर रुआंसा हो गया.
"मां की हालत अभी ठीक नहीं हुई है. पच्चीसों टेस्ट चल रहे हैं, पर दादाजी एवं मां ने ज़बरदस्ती मुझे भेज दिया कि वहां त्योहार में बहू बच्ची के साथ अकेली होगी."
त्योहार मनाया गया, पर वह उत्साह एवं उमंग न थी, जिसकी तैयारी मधु ने बहुत पहले से कर रखी थी. अनिल मां की बीमारी की चिंता एवं सफ़र की थकान के कारण जल्दी ही सो गया. मधु अपने मन की उलझन में उलझी रही.
दिवाली के बाद मधु गांव गई और पूरे १५ दिनों तक वहां रहकर उसने मां की सेवा की. पर दिवाली का अगला पर्व आते-आते फिर वही निर्णय सामने आ गया कि वह गांव नहीं जाएगी. इस बार अनिल ने भी बिना कोई प्रतिरोध प्रकट किए इसे स्वीकार कर लिया.
इस बार की दिवाली में मधु ने ख़ूब उत्साह दिखाया. अपनी तरफ़ से मेरठ में रहनेवाली जेठ-जिठानी एवं गांव में मां एवं देवर-देवरानी को पत्र लिखा कि वह दिवाली यहीं इलाहाबाद आकर मनाएं.
शाम को दीप जलाए गए. टिंकी के लिए पटाखे-फुलझडी लाए गए, जिसे अनिल एवं मधु ने मिलकर जलाए. मिलजुल कर खाना खाया. मोहल्ले में एक-दो जगह मिलने भी गए, पर उन्हें अंदर से कुछ कचोटता रहा, जैसे दिवाली का यह पर्व कुछ खालीपन लिए हो. घर लौटे और उदास मन से ही सो गए.
दिवाली के सूनेपन से घबराकर भी मधु का निर्णय वही ढाक के तीन पात ही रहा. शुरू से त्योहार घरवालों के साथ मनाते रहे हैं, इसी कारण मन भटक रहा है. सोचा उसने अगली दिवाली पर जब अनिल ने अपने दोस्तों को खाने पर आमन्त्रित किया, तो मधु का मन प्रसन्न हो गया. चलो इसी बहाने त्योहार में चहल-पहल रहेगी.
अब तक टिंकी पांच वर्ष की हो गई थी. गांव गए उसे भी वर्ष भर हो गया था. वह भी तब, जब अम्मा का देहांत हुआ था. शाम तक मधु ने ढेरों व्यंजन बना डाले. कुछ मद्रासी, कुछ बंगाली. दोस्तों ने "भाभीजी, वाह क्या खाना है…" कह कर चटखारे ले लेकर खाना खाया.
खाने के पहले सबने थोड़ी-थोडी शराब भी पी. अनिल पीता नहीं था, पर दोस्तों के आगे उसकी एक न चली. जब सुरूर चढ़ा और खाने का मज़ा आया, तो बात तीन पत्तों पर आ गई. अनिल ने पढ़ाई के दौरान एकाध बार छात्रावास में दोस्तों के साथ ताश खेला था. दोस्तों के चढ़ाने पर वह तैयार हो गया. फिर क्या था, सारी रात जुआ चलता रहा और जीत-हार की नैया डगमगाती रही.
जुआ जो शुरू हुआ, तो सिर्फ़ एक दिन नहीं चला, जब तक छुट्टी रही, जुए की बैठक कभी अनिल के घर, तो कभी किसी दोस्त के घर लगती रही.
मधु को आश्चर्य इस बात पर होता कि पुरुषों के साथ जुए में उनकी पत्नियां भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेतीं. अनिल रातभर खेलता और दिन चढ़े तक सोता. मधु अकेली ऊबती रहती. पर करती क्या, दिवाली पर अनिल को छूट उसी ने तो दी थी. इसके पहले की ज़िंदगी कितनी अच्छी थी. शांत जीवन में जैसे भूचाल आ गया था. त्योहार पर घर जाते थे. और छोटे-मोटे पर्वों पर भी. टिंकी के जन्मदिन या उनकी शादी की वर्षगांठ वह अपने तरीक़े से मनाते.

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टिंकी के जन्मदिन पर गांव से अम्मा या दादाजी ज़रूर आते. शादी की वर्षगांठ पर मेरठ वाली जिठानी उन्हें शुभकामना का निमंत्रण भेजने के साथ वहां आने का भी आमंत्रण साथ ही भेज देतीं. अब मधु को महसूस हुआ कि दिवाली पर गांव जाना बंद करके उसने कितनी बड़ी भूल की है. पर अब वह क्या कर सकती है? अब तो कहने पर भी अनिल दिवाली पर घर चलने को राजी नहीं होता. गांव से देवर-देवरानी का पत्र बराबर आता है, पर अनिल दिवाली में कहीं जाना नहीं चाहता.
आख़िर उसने दादाजी को पत्र लिखा, जिसमें अनिल की बिगड़ती हुई आदतों का भी ज़िक्र किया. जवाब में जो दादाजी ने लिखा वह एक कठोर सत्य था. उसमे अपनी संस्कृति, अपनी मर्यादा का उल्लेख था. दादाजी ने लिखा था-
प्रिय बहूरानी,
सदैव सौभाग्यवती रहो. तुम्हारा पत्र मिला. बेटी, सुख-दुख जीवन के चक्र हैं. ज़रा सी तकलीफ़ में भाग्य को बीच में लाकर उसे कोसना ठीक नहीं है. तुम सोचो, अनिल की इस बिगड़ी आदतों के पीछे क्या तुम्हारा हाथ बिल्कुल नहीं है?
अब त्योहार का महत्व देखो. दिवाली मात्र दीपों का पर्व नहीं है. त्योहार इसी कारण बनाए गए हैं कि दूर-दराज़ रह रहे अपने परिवार के सदस्य इसी बहाने एक बार इकट्ठे होते हैं. वरना सोचो, बाहर निकलने के बाद क्या सालभर कोई यूं ही समय निकाल पाता आने का. त्योहार न हों, तो शायद ब्याह-शादी में ही लोग इकट्ठे हों और शादी घर में हर वर्ष पड़े, यह ज़रूरी तो नहीं.
दिवाली में खरीफ की फसल कटती है. उसकी ख़ुशी दीप जलाकर प्रकट की जाती है. इसी बहाने घर की सफ़ाई-पुताई भी ही जाती है. बरसात में कीड़े, मच्छर बहुत हो जाते हैं, जो दीप में जल कर नष्ट हो जाते हैं. घर आने-जाने से अपने परिवार के प्रति व्यक्ति का प्यार बना रहता है. अपनी प्रतिष्ठा का भय और बड़े-बूढ़े के सम्मान का प्रश्न भी रहता है.
बेटी, जो ग़लती हो गई उसे दुहराना मत. अगली दिवाली तुम यहीं मनाओगी, लेने मैं स्वयं आऊंगा.
तुम्हारा दादा
पत्र पढ़कर उसने एक लंबी सांस ली. पत्र मोड़ कर उसने रख लिया और कैलेंडर पर दिवाली की छुट्टी के लाल निशान पर उसकी नज़र अटक कर रह गई.

- साधना राकेश

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