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कहानी- निश्छल प्रेम (Short Story- Nishchal Prem)

वासु घर आकर पापा के गले लगकर रोने लगा और कहने लगा, “मैं आपको कभी घर से नहीं निकालूंगा, मैं आपके बिना नहीं रह सकता.”
“पर बेटे, कौन कह रहा है कि तुम हमें घर से निकाल दोगे.” अरुण बोला.
“पापा, आज मैंने बहुत सारे वृद्ध अंकल देखे. मेहता अंकल भी आज बहुत दुखी थे. पापा, क्या हम उनके लिए कुछ नहीं कर सकते? अगर मेरे दादाजी होते, तो बिल्कुल उनकी तरह ही होते ना!” वासु ने मन की बात बताई.
अरुण को अपने बेटे पर बहुत गर्व हुआ.

“मम्मी…” सात वर्षीय वासु ने ज़ोर से चिल्लाते हुए कमरे में आकर इधर-उधर देखा. मां को न पाकर वासु पूरी ऊर्जा एकत्रित कर फिर से चिल्लाया, “मम्मी…” इस बार मां की आवाज़ आई, “आ रही हूं बाबा, क्यों चिल्ला रहे हो?” थोड़ी देर बाद मां रसोईघर से बाहर आई और बोली, “कहो, क्या बात है, आज इतनी जल्दी खेेल कर आ गए?”
“मम्मी, आज हमारे खेल के मैदान में बहुत सारे काले-काले लोग मिट्टी खोद रहे थे. उन्होंने हमें वहां से भगा दिया.”
“भगा दिया, पर क्यों?”
“मां, वे लोग कह रहे थे कि हमें यहां पर वृद्धाश्रम बनाना है, इसलिए हम वहां नहीं खेल सकते.”
“अरे भाई, कौन से काले-काले लोग..? कौन-सी मिट्टी? कौन-सा वृद्धाश्रम..?” पीछे से वासु के पापा की आवाज़ आई.
“पापा, आप ऑफिस से आ गए.” कहते हुए वासु भागकर पापा के गले लग गया. उसने पापा से पूछा, “पापा, यह वृद्धाश्रम क्या होता है?”
“बेटा, वृद्धाश्रम बूढ़े लोगों के रहने के लिए बनाया जाता है.”
“कौन-से बूढ़े लोग पापा? वही जिनके बाल सफ़ेद होते हैं, जैसे सौरभ के दादाजी और मेरे नानाजी?” वासु बोला.
“हां बेटे.” अरुण ने जवाब दिया.
“पापा, मेरे दादाजी क्यों नहीं हैं?”
“बेटा, आपके दादाजी भगवान के पास हैं. जब मैं छोटा था, तब वह मुझे छोड़कर भगवान जी के पास चले गए थे.” अरुण ने धैर्य से जवाब दिया. वासु की उत्सुकता अभी भी समाप्त नहीं हुई थी. वह फिर से वृद्धाश्रम के बारे में पूछने लगा. इस पर सुधा ने कहा, “आओ, मैं तुम्हें समझाती हूं कि वृद्धाश्रम क्या होता है. बेटे, जो लोग बुढ़ापे में अपने मम्मी-पापा की सेवा नहीं करते, उन्हें प्यार नहीं करते, वे लोग अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम में रहने के लिए भेज देते हैं.” वासु इस उत्तर से सोच में पड़ गया. फिर बोला, “मम्मी, जब मैं बड़ा हो जाऊंगा तब मैं आपकी ख़ूब सेवा करूंगा. मैं आपको कभी वृद्धाश्रम नहीं भेजूंगा.” सुधा ने प्यार से वासु को गले लगा लिया.

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धीरे-धीरे समय गुज़रता गया. वासु प्रतिदिन वृद्धाश्रम बनने वाले स्थान पर जाकर कार्य में हुई प्रगति का अवलोकन करता. हर रोज़ घर आकर वहां हुए कार्य के बारे में माता-पिता को सूचित करता. उसने पहली बार किसी इमारत को बनते हुए देखा था. इस समय उसका ध्यान पूरी तरह से वृद्धाश्रम पर था. धीरे-धीरे आश्रम का निर्माण कार्य पूरा हो गया.
एक दिन वहां विख्यात शिक्षाविद् उद्घाटन करने पहुंचे और उन्होंने ज़ोरदार भाषण दिया, “वृद्धाश्रम सभ्य समाज के नाम पर एक कलंक है. हमारी संस्कृति में प्रारंभ से ही बड़े-बुज़ुर्गों का विशेष स्थान रहा है, परन्तु आज पाश्‍चात्य सभ्यता के प्रभाव से हम अपनी जड़ों को काटते जा रहे हैं. अपने ईश्‍वर समान माता-पिता की अवहेलना करने लगे हैं. इस वृद्धाश्रम का यहां बनना इस बात का प्रमाण है कि लोगों में स्वार्थ और कर्त्तव्यहीनता की भावनाएं किस कदर पांव पसार रही हैं. खैर, जब समाज का एक वर्ग स्वार्थी हो जाए, तो दूसरे वर्ग को ज़िम्मेदारी का एहसास होना चाहिए. इसी बात को ध्यान में रखकर हमने इस वृद्धाश्रम का निर्माण कराया है.”
उनके इस भाषण पर ज़ोरदार तालियां बजीं. वासु भी अपने माता-पिता के साथ उस समारोह में गया था. उसके भोले मन पर भाषण का इतना असर तो हुआ था कि उसे समझ में आ गया था कि वृद्धाश्रम कोई अच्छी बात नहीं है.
अगले दिन वासु अपने दोस्तों के साथ वहां खेलने गया. खेलते-खेलते उसका ध्यान वृद्धाश्रम के खुले दरवाज़े की ओर गया. उसने एक वृद्ध को वहां चहलकदमी करते देखा. उसे देखकर वासु का मन आलोकित हो उठा. उसने अपने दोस्तों को अपने पीछे आने का संकेत दिया. वे सभी उस वृद्ध के पास पहुंचे. वृद्ध मन-ही-मन कुछ बड़बड़ा रहे थे. अचानक वासु और उसके दोस्तों को देखकर वह हड़बड़ा गए और बोले, “कौन हो तुम लोग? यहां क्यों आए हो?” उस वृद्ध के तनाव वाले हाव-भाव देखकर वासु डर गया. फिर हिम्मत करके बोला, “अंकल, आज हमने आपको यहां देखा तो…”
“तो, तो क्या?” वृद्ध खीझकर बोले.
“तो हमने सोचा कि आपसे मिला जाए, कुछ बात की जाए.” वासु ने किसी तरह वाक्य पूरा किया.
“क्यों? मैं तुम्हारा क्या लगता हूं? तुम्हारा रिश्तेदार हूं, पड़ोसी हूं, क्या हूं?” वृद्ध ने पलटकर जवाब दिया.
वासु को वृद्ध से इस प्रकार के जवाब की आशा न थी. उसके मासूम मन को ठेस पहुंची और वह अपने दोस्तों के साथ वहां से चला आया. बाहर आकर उसका एक दोस्त बंटी बोला, “वासु, कितना ख़तरनाक बुड्ढा था.” दूसरे दोस्त पंकज ने भी साथ दिया और बोला, “हां, ऐसा लगता था जैसे किसी डरावनी फिल्म का भूत हो.”
वासु को लगा शायद वह सही कह रहे हैं. घर जाकर वह उदास मन से मां की गोद में बैठ गया. बेटे का उतरा चेहरा देख सुधा ने पूछा, “क्या बात है बेटे? कुछ हुआ क्या?”
“मां, मां… वह बुड्ढा बहुत गंदा था.”
“कौन-सा बुड्ढा?”

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“वही जो वृद्धाश्रम में रहने के लिए आया है.” वासु ने सुधा को शुरू से अंत तक की सारी कहानी बता दी. पूरी बात सुनने के बाद सुधा कुछ देर विचारमग्न रही और फिर वासु का ध्यान बंटाने की कोशिश करने लगी. शाम को अरुण के घर आने पर सुधा ने उसे वासु की मनोस्थिति के बारे में बताया.
सारी बात सुनकर अरुण बोला, “सुधा, हमारा वासु बहुत भावुक और संवेदनशील है. उसके बालमन में दादा या नाना की जो छवि है, वह उस वृद्ध की क्रोधित भाव-भंगिमा से मेल नहीं खाती, इसलिए वह उलझन में पड़ गया है. कोई बात नहीं, मैं उसे समझाऊंगा.”
अगले दिन वासु हमेशा की तरह पंकज और बंटी के साथ खेलने चला गया. वे वृद्धाश्रम के पास ही क्रिकेट खेलने लगे. अचानक पंकज ने गेंद को ज़ोर से मारा और गेंद पास से जा रहे आवारा सांड को लग गई. सांड दर्द से बिलबिला उठा और बच्चों की तरफ़ भागने लगा. सांड से बचने के लिए बच्चे वृद्धाश्रम में घुस गए.
“बचाओ… बचाओ…” की आवाज़ सुनकर वह वृद्ध, वृद्धाश्रम का व्यवस्थापक और रसोईया बाहर आ गए. सारा माजरा समझकर वृद्ध तुरंत अपने कमरे से बंदूक लाए और हवा में फ़ायर किया. गोली की आवाज़ से घबराकर सांड ने दिशा बदल दी और भाग खड़ा हुआ. बच्चों ने चैन की सांस ली और वृद्ध की ओर देखा. वृद्ध बच्चों का कंधा थपथपाते हुए बोले, “अब डरने की कोई बात नहीं है. अगर अब सांड आए तो मेहता अंकल को याद कर लेना.” बच्चों की प्रश्‍नसूचक दृष्टि देखकर वृद्ध उनके मन की बात भांप गए और बोले, “वो कल मेरी तबीयत ठीक नहीं थी, इसलिए मैंने तुमसे बात नहीं की.”
“अच्छा बोलो, क्या खाओगे?” वृद्ध बोला.
“हम तो खा-पीकर आए हैं.” हिम्मत करके वासु बोला. “अच्छा, कोई बात नहीं. मैं तो तुम्हारे दादाजी जैसा ही हूं. मुझसे बेहिचक बात करो.”
“अंकल, कल तो आपने हमें डांटकर भगा दिया था.” बंटी बोला.
“अच्छा तो यह बात है. आओ, हाथ मिलाकर दोस्ती कर लें.” वृद्ध ने हंसते हुए कहा. इस पर तीनों बच्चों ने उत्साहित होकर हाथ मिलाया. इसके बाद कहानियों और गपबाज़ी का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि दो घंटे कब बीत गए, पता ही नहीं चला. तब मेहता जी बोले, “अच्छा अब जाओ, तुम्हारे मम्मी-पापा इंतज़ार कर रहे होंगे.” इस पर बच्चे फौरन खड़े हो गए.
बाहर आकर बंटी और पंकज बोले, “इतनी अच्छी कहानियां तो हमें आज तक किसी ने नहीं सुनाईं.”
वासु बोला, “इतने अच्छे अंकल को पता नहीं क्यों इनके बच्चों ने घर से निकाल दिया. मेरी मम्मी कहती हैं कि जिनके बच्चे गंदे होते हैं, वही अपने मां-बाप को घर से निकाल देते हैं.” घर आकर वासु ने अपने मम्मी-पापा को सारी बात बतायी.
अरुण हंसते हुए बोला, “अच्छा, ये डरावनी फिल्मवाला भूत जैसा बुड्ढा अचानक इतना अच्छा कैसे हो गया?” वासु सकपकाकर बोला, “पापा, मुझे क्या पता. मुझे तो बस इतना पता है कि उन्होंने आज हमारा ख़ूब दिल बहलाया.” अरुण बोले, “बेटे, कई स्वार्थी इंसानों की तरह शायद उनके बच्चे भी उन्हें बोझ समझ कर यहां छोड़ गए, इसलिए उनका मन दुखी होगा. जब तुम उनके पास गए, तो उन्हें क्रोध आ गया होगा कि जब उनके अपने बच्चों को उनकी कोई ज़रूरत नहीं, तो परायों को क्या पड़ी है उनसे बात करने की.” पापा की बात सुन वासु सोच में पड़ गया.
अगले दिन जब वासु अपने दोस्तों के साथ गया, तो उसने देखा कि वृद्धाश्रम में बहुत भीड़ जमा है. बहुत से नौजवान उस भीड़ में शामिल थे. वे अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम छोड़ने आए थे.
“पंकज, बंटी, ये लोग कितने बुरे हैं ना. भगवान जी इन्हें सज़ा देंगे.” वासु बोला.
“तुम ठीक कहते हो बेटे.” पीछे से मेहता अंकल की आवाज़ आई.
“तुम्हारे माता-पिता ने अच्छे संस्कार दिए हैं, जो तुम इतनी छोटी-सी उम्र में इतनी अच्छी सोच रखते हो. कुछ मेरे बच्चों जैसे हैं, जो अपने माता-पिता को पुराना फ़र्नीचर समझ कर घर से बाहर कर देते हैं.” वृद्ध मेहता अंकल दुखी होकर बोले.
बच्चे उनका हाथ पकड़ कर बोले, “अंकल, आप उदास न हों. आप हमारे घर चलिए, हमारे मम्मी-पापा आपसे मिलकर बहुत ख़ुश होंगे.”
“धन्यवाद बेटे, लेकिन आज नहीं, फिर कभी ज़रूर चलूंगा.” वृद्ध बोले.
वासु घर आकर पापा के गले लगकर रोने लगा और कहने लगा, “मैं आपको कभी घर से नहीं निकालूंगा, मैं आपके बिना नहीं रह सकता.”
“पर बेटे, कौन कह रहा है कि तुम हमें घर से निकाल दोगे.” अरुण बोला.

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“पापा, आज मैंने बहुत सारे वृद्ध अंकल देखे. मेहता अंकल भी आज बहुत दुखी थे. पापा, क्या हम उनके लिए कुछ नहीं कर सकते? अगर मेरे दादाजी होते, तो बिल्कुल उनकी तरह ही होते ना!” वासु ने मन की बात बताई.
अरुण को अपने बेटे पर बहुत गर्व हुआ.
“बेटे, मैं कल ही तुम्हारे साथ उनके पास चलूंगा. मुझे तुम पर नाज़ है.” अगले दिन सुधा और अरुण वासु को लेकर वृद्धाश्रम गए. मेहता अंकल से बात करने पर पता चला कि वे सेना में थे. रिटायर होने के बाद बच्चों के दुर्व्यवहार के कारण उन्हें घर छोड़ना पड़ा. मेहता अंकल ने वासु की तारीफ़ की और कहा, “आप लोग भाग्यशाली हैं कि आपकी वासु जैसी औलाद है.”
अरुण ने कहा, “आपसे मिलने के बाद पता चला कि घर में बुज़ुर्गों का होना कितना आवश्यक है. आपसे प्रार्थना है कि वासु को अपने आशीर्वाद से वंचित न रखें. वासु आपमें अपने दादाजी की छवि देखता है. थोड़े ही समय में आपसे हिल-मिल गया है. वासु तो यहां रोज़ आया ही करेगा, हम भी आपसे मिलने का मोह छोड़ नहीं पाएंगे.”
मेहता अंकल को विश्‍वास नहीं हो रहा था कि दुनिया में अब भी अच्छे लोग बसते हैं. वह सिर्फ़ इतना ही कह पाए, “मैं भी तुमसे और वासु से मिलने का मोह छोड़ नहीं पाऊंगा. जब भी तुम्हें मेरी ज़रूरत होगी, मुझे अपने पास खड़ा पाओगे.” इतना कहकर वह अरुण के गले लग गए. इसके बाद उन्होंने वासु को गोद में उठाया और बोले, “जलपरी की कहानी सुनोगे?”
“सुनुंगा अंकल.” वासु ने उत्साह से कहा. “अंकल नहीं बेटा, दादाजी कहो.” मेहता अंकल बोले. यह सुनते ही वासु की आंखों में चमक आ गई. उसने अपनी बांहें मेहता अंकल के गले में डालीं और पास खड़ी सुधा से कहा, “मम्मी, अब मेरे भी दादाजी हैं.”
“हां बेटे” कहकर ख़ुशी के मारे सुधा का मन भर आया. अरुण और सुधा इस नए रिश्ते की ख़ुश्बू को मन में संजोए दादा और पोते के अद्भुत मिलन को भावविभोर हो देखते रहे.

- नेहा पुंज

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