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कहानी- नियति (Short Story- Niyati)

“तुम भी शादी कर लो तन्मय.”
“क्यों..? सलाह क्यों दे रही हो?”
“सलाह नहीं दे रही हूं. बस शादी कर लो. अकेलेपन से निजात मिल जाएगी.”
“मैं अकेलेपन से निजात पाना ही नहीं चाहता. किसी को अकेलापन सालता है, पर मुझे सुकून देता है. अकेलापन मेरे लिए ईश्‍वर का दिया अनुपम वरदान है. अकेलेपन में अतीत मेरे साथ होता है. मेरा ख़ूबसूरत अतीत. तो मैं अपने को ख़ूबसूरत अतीत से वंचित कर दूं?”

सड़क सिंहपुर गांव से होकर गुज़रती थी. श्यामलाल का घर सड़क के किनारे ही था. वो रिटायर्ड प्रोफेसर थे और तन्मय के बड़े भाई के ससुर. सेवानिवृत्त होने के बाद गांव में रहने के लिए नौकरी में रहते हुए ही गांव में शानदार घर बनवा लिया था. नरोत्तमलाल उनसे दस साल छोटे थे. वो एक राष्ट्रीयकृत बैंक की पास की शाखा में प्रबंधक थे और गांव में ही रहते थे. श्यामलाल को दो संतानें थीं. एक लड़का और एक लड़की- तन्मय की भाभी. नरोत्तम को केवल लड़की- बिट्टन.
जम्मू जाने वाली ट्रेन आज पांच घंटे विलंब हो गई. प्लेटफॉर्म पर बोर होने की बजाय वो सिंहपुर आ गया. गांव से भावनात्मक लगाव था उसका. दिल की धड़कनें बढ़ गईं. स्मृतियां ताज़ा हो उठीं. एक दशक बाद यहां आया था.
सिंहपुर उजड़ी बस्ती की तरह लग रहा था. इक्का-दुक्का लोग ही दिखाई दे रहे थे. द्वार पर गाय, गोरू और दो कुत्तों के सिवा कोई न था. तन्मय दालान में चला आया.
दीपक पढ़ रहा था. वो उसकी भाभी का भतीजा था. बड़ा हो चुका था. उसने पहचान लिया. पांव छुआ और आने की ख़बर देने घर में चला गया. तन्मय ने बैग रख दिया और सोफे में धंस गया. आंखों को राहत देने के लिए आंखें मूंद लीं.
“तनमय!” अपनत्व भरा संबोधन. आवाज़ कान के परदे से टकराई. उसने आंखें खोलीं. हड़बड़ाकर उठ बैठा. जिससे मिलने आया था, वो सामने थी- बिट्टन, हाथ में पानी का ग्लास. तन्मय को झटका लगा. कितनी दुबली हो गई है. मरियल और बीमार-सी. मुख मंडल कांतिहीन और पीला.
उसने मन ही मन सोचा, ये वो बिट्टन तो नहीं है. वो तो तंदुरुस्त थी. उसमें अल्हड़पन था. चंचलता थी. शोख़ी थी.
“तुम..?”
“हां मैं, कैसे हो तुम?”
“मैं तो ठीक हूं, लेकिन तुम मुझे ठीक नहीं लग रही हो.”
“तुम्हारे मन का भरम है. तुम्हें कहां कोई ठीक लगता है. लो पानी पी लो. प्यास लगी होगी.”
“हां, प्यास तो लगी है.” उसने ग्लास का पानी ले लिया और गटागट पीने लगा.

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सहसा उसने पांव में स्पर्श महसूस किया. बिट्टन पदधूलि ले रही थी.
“ये क्या कर रही हो?”
“पदधूलि ले रही हूं.” बिट्टन बोली, “तुमसे छोटी हूं. चरण स्पर्श तो कर ही सकती हूं.”
कितना कुछ बदल गया 15 साल में. लेकिन वो बिल्कुल नहीं बदली.
“क्या लोगे? चाय, कॉफी या शरबत?”
“सब कुछ भुला बैठी?”
“अरे हां… तुम्हें तो केवल दूध में अदरक, इलायची और हरी चाय पत्ती डालकर बनी चाय बहुत पसंद है.” वो ख़ामोश हो गई.
सचमुच उसमें 15 सालों में तनिक भी बदलाव न आया. तन्मय ने सोचा, आदमी कहां बदलता है. वो तो हमेशा बच्चा ही रहता है. निःस्वार्थी बच्चा. उसका बदलाव बदलाव नहीं अभिनय होता है. बिट्टन भी अभिनय कर रही थी.
जब पहली बार बिट्टन से मिला था तो बीए अंतिम वर्ष में थी. वो ख़ुद इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में. उनमें ख़ूब शरारत होती थी.
बिट्टन बाहर चली गई. तन्मय अतीत की ओर खिंचने लगा.
उस दिन उसकी नींद खुली, तो दिन ढल चुका था. वो दिन में नहीं सोता था, पर ना मालूम कैसे नींद आ गई. पूरे चार घंटे गहरी निद्रा में सोता रहा. क्या सोच रहा था, जब नींद ने अपनी बांहों में भर लिया था. हां, वो बिट्टन के बारे में ही सोच रहा था.
उसका बिट्टन से नया-नया परिचय था. बड़े भाई की चचेरी साली थी. छेड़ती थी. मज़ाक में गालों में चिकोटी काट लेती थी. एक बार तो उसके भी हाथ चुटकी काटने के लिए उसके गालों तक पहुंचे थे. फिर रुक गए. स्पर्श भर कर पाया था. हाथ ही आगे न बढ़े और तब तक वो भाग गई. मज़ाक में भी उसे ही झेंपना पड़ता. उसने महसूस किया कि लड़कियां जल्दी बेतक़ल्लुफ़ हो जाती हैं, लड़के नहीं. वे डरते हैं, कहीं लड़की अन्यथा ना ले ले.
नींद खुलने पर वो चारपाई से उठा. हड्डियां चटकाया. नींद से उठने के बाद हाथ-मुंह धोने की आदत थी. पानी के लिए घर में गया. हैंडपंप आंगन में था. आंगन में कहकहे लग रहे थे. भाभी सहेलियों से घिरी थीं. गौने के पूरे दो साल बाद पीहर आई थीं, इसलिए चार दिन बाद भी सहेलियां घेरे थीं. वे मीठे अनुभवों और रोचक संस्मरणों को सविस्तार सुना रही थीं. उसी पर सहेलियां ठहाके लगा रही थीं.
आंगन में पहुंचते ही युवतियां उसको देखने लगीं. इस तरह देखना उसे अटपटा लगा. उनको अनदेखा कर हैंडपंप पर हाथ-मुंह धोया और दालान में आ गया. दर्पण के सामने खड़ा होकर कंघी करने लगा. सहसा, उसे बालों के बीच लाल सा दिखा. उसे संदेह हुआ. और क़रीब से देखा. वहां सिंदूर था. किसी ने बालों में सिंदूर डाल दिया था.
“ये क्या मज़ाक है?”
उसे क्रोध आ गया. जान गया, शरारत किसकी है. बदला लेने का ़फैसला कर लिया. धीरे से घर में गया. शृंगारदान से सिंदूर की डिबिया लेकर जेब में रख ली और वापस आ गया.
दालान के बगल का कमरा खुला था. अंदर देखा, बिट्टन थी. सज-संवर रही थी. वो दरवाज़े से सटकर खड़ा हो गया. उसके संवरने में बाधा नहीं डालना चाहता था. अंत में दर्पण में ख़ुद को देखकर बिट्टन मुस्कुराई. नहीं पता था, जिसके लिए सज-संवर रही है, वो पास ही खड़ा है. उठने वाली थी कि तन्मय दबे पांव अंदर आ गया. दबे पांव ही उसकी ओर बढ़ा और चीते सी फुर्ती से एक चुटकी सिंदूर उसकी मांग में डाल दिया. वो चौंक पड़ी. उसके बालों में सिंदूर देखकर हंस पड़ी. बड़ी दिलकश मुस्कान थी.

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“अपने बालों को तो देखो, किसी ने सिंदूर डाल दिया है. लड़की लग रहे हो.”
सिंदूर डालते ही तन्मय को होश आया कि क्या कर बैठा. पर तीर कमान से निकल चुका था. उसे काठ मार गया. सहसा बिट्टन की नज़र उसकी उंगलियों पर पड़ी. सिंदूर देखकर लरज पड़ी. घूमकर ख़ुद को दर्पण में देखा. मांग में सिंदूर देखकर कांपने लगी.
“नहीं, ये झूठ है. ये कैसा अनर्थ कर दिया तन्मय?” मासूम स्वर में बोली, “ये कैसा बदला लिया? अब क्या होगा..?”
वो फूट-फूटकर रोने लगी. तभी बुआ पहुंच गईं.

“क्या हुआ बेटा? रो क्यों रही हो?” उनकी नज़र बिट्टन की मांग पर पड़ी, “तेरी मांग में सिंदूर बेटा..? किसने डाली?” अचानक उनकी नज़र तन्मय की उंगलियों की ओर गई, “ये क्या किया..? जानते हो तन्मय, लड़कियों की मांग में सिंदूर कौन भरता है? उसका पति. मांग में सिंदूर भर कर अर्धांगिनी बनाता है और घर ले जाता है. क्या ये सब कर सकोगे? नहीं न… फिर, अनर्थ क्यों किया? जानते हो, इसने सिंदूर क्यों डाला था… थोड़े परिहास के लिए. तुम लड़के हो. फ़र्क़ नहीं पड़ा. लेकिन तुमने क्यों किया? इसका जीवन नरक कर दिया. तुम भूल क्यूं गए कि ये लड़की है.”
बिट्टन बिलख रही थी. तन्मय ग्लानि से भर उठा. भारी भूल कर दी थी. पछतावा हो रहा था. किंतु जो कुछ कर बैठा था, वो वापस भी तो नहीं हो सकता था.
बिट्टन का क्रंदन उसके सब्र की तमाम दीवारों को धराशायी कर गया. उसे रोना आ रहा था. लेकिन ऊपर से वो बुत ही बना रहा.
“मुझे माफ़ कर दो. तुम्हारा अपराधी हूं. तुमने मज़ाक किया. मैं विवेक ही खो बैठा था. बड़ा अनर्थ हो गया. प्लीज़ रोओ मत. मुझसे और नहीं सहा जा रहा. तुम्हारे पांव पड़ता हूं. क्षमा कर दो.” तन्मय कातर स्वर में बोला. उसके पांव पकड़ लिया, लेकिन वो पीछे हट गई.
“तुम्हें क्या माफ़ करूंगी…”
“तुमने उसकी मांग में सिंदूर भरा है. अब तुम ही उसके धर्म पति हो.” बुआ बोली.
“धर्म पति..?”
हालांकि उसे बिट्टन पसंद थी. मन ही मन चाहता था. दोनों की शादी में कोई बाधा न थी. उनकी शादी की चर्चा कई बार चल भी चुकी थी, लेकिन नरोत्तमलाल उसे पसंद नहीं करते थे. उन्होंने रिश्ते की संभावना को ही ख़ारिज़ कर दिया. तर्क दिया कि एक घर में दो बेटियों की शादी नहीं होगी.
“रुको मैं नरोत्तम को बुलाती हूं. उन्हें बताना ज़रूरी है. वही भूल-सुधार करेंगे.”
बुआ बाहर चली गईं.
“मैं तुम्हारा गुनाहगार हूं बिट्टन. ग़लती हुई है. इसका भूल-सुधार ये है कि मैं तुम्हें धर्म पत्नी के रूप में स्वीकार कर लूं. हां बिट्टन, मेरे जीवन में अब किसी और लड़की के लिए स्थान नहीं. अगर तुम मेरी धर्मपत्नी हो गई, तो मैं भी तन-मन-धन से तुम्हें जीवन-संगिनी स्वीकार करता हूं. संभव है कि तुम्हारे पिता मुझे ना स्वीकारें. अगर उनकी ज़िद के कारण शादी ना हुई, तो मैं आजीवन शादी नहीं करूंगा. वयस्क हूं. मुझ पर किसी और से शादी के लिए दबाव कोई नहीं डाल सकता.”
थोड़ी देर में नरोत्तमलाल पहुंचे. पीछे-पीछे बुआ.
“क्या हुआ बेटा, रो क्यों रही हो?”
नरोत्तमलाल शांत थे. बुआ ने पूरा वाक़या नहीं बताया था. बुआ चाहती थीं कि दोनों की शादी हो जाए. सो उनके लिए ये स्वर्णिम मौक़ा था.
पिता को देखकर बिट्टन का सब्र टूट गया. लिपट कर रोने लगी. वो समझ ही नहीं पाए कि मामला क्या है. हमेशा चहकने वाली लाडली रो क्यों रही है? ऐसा क्या हो गया कि लाडली ऐसे रो रही है. सहसा नज़र बिट्टन के बाल सहलाते अपनी उंगली पर पड़ी. वे चौंक पड़े. हाथ में सिंदूर था. बेटी की मांग में भी सिंदूर. विद्युतीय रफ़्तार से तन्मय को देखा. उसके दाहिने हाथ की उंगलियां लाल थीं.
उन्हें समझते देर न लगी. आपा खो बैठे और करारा तमाचा तन्मय के चेहरे पर पड़ा.
“आ गया न अपनी औक़ात पर…”
“अरे, नरोत्तम क्या कर रहे हो? घर के दामाद पर हाथ उठा रहे हो.”
“चुप रहो बहन! तुम कुछ भी बोलती हो. देख रही हो, ये दामाद बनने लायक है. ये तो क्रिमिनल है.”
तन्मय लड़खड़ाकर गिरा. सिर दरवाज़े से टकराया. आंख के ऊपर की त्वचा कट गई. होंठ कट गए. उसके मुंह और सिर से ख़ून निकलने लगा.
तन्मय बीमारी से उठा था. शरीर भी कमज़ोर था. होश खो बैठा. तभी भाभी पहुंचीं. देवर की हालत देखकर उन्होंने उत्पात मचा दिया. घर में कोहराम मच गया. संयुक्त परिवार में दरार पड़ गई.
तन्मय डॉक्टर के पास ले जाया गया. मरहम पट्टी कर डॉक्टर ने नींद की गोली दी, ताकि दर्द महसूस ना हो. उसके बाद तन्मय रात भर सोता रहा.
श्यामलाल को भी लगा कि तन्मय की हरकत पर नरोत्तम की प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी. उन्होंने तन्मय व बेटी को भेजने के लिए जीप बुक कर दी. जाते समय परिवार के सभी सदस्य विदा करने आए. लेकिन न तो बिट्टन थी और न ही नरोत्तम. लोग ख़ामोशी ओढ़े थे. कोई भी कुछ न बोल रहा था. जैसे ही जीप चली, उसकी भाभी फूट-फूट कर रोने लगी. पीहर से नाराज़ होकर अपनी ससुराल जा रही थी. अब न मालूम कब मायके आना होगा.
वो घटना दोनों परिवारों के रिश्ते में गांठ सी बन गई. तीन साल तक कोई संपर्क नहीं हुआ. इस दौरान तन्मय की भाभी न तो मायके गईं और न ही मायके से कोई आया.
नरोत्तमलाल ज़िद्दी इंसान थे. बिट्टन इकलौती बेटी थी. वे उसकी शादी बड़े घर में करना चाहते थे, इसलिए तन्मय से रिश्ते के लिए तैयार नहीं हुए. परिजनों ने लाख समझाया, पर वो न माने. उन्होंने बिट्टन की शादी अन्यत्र कर दी. लड़का राष्ट्रीयकृत बैंक में अच्छी पोस्ट पर था. पर शादी के बाद पता चला कि उसका चाल-चलन ठीक नहीं था. नशाखोरी समेत कई बुरी आदतें थीं. शराब पीकर बिट्टन को यातनाएं देता था. बिट्टन थी भारतीय लड़की, लेकिन स्वाभिमानी थी. उस पति के साथ ज़िंदगी गुज़ारना असंभव लगा. मायके आई और नरोत्तमलाल को वृतांत सुना दिया.
नरोत्तमलाल को अपने फ़ैसले पर पछतावा हो रहा था. वो चाहते थे कि बेटी उस शराबी के चंगुल से बाहर आ जाए. इसलिए तलाक़ का मुक़दमा दायर करना चाहते थे. इसी सिलसिले में अदालत जा रहे थे, लेकिन रास्ते में ही उनकी कार को एक ट्रक ने टक्कर मार दी. हादसे में उनकी घटनास्थल पर ही मौत हो गई. बिट्टन पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. बाल्यावस्था में मां काल-कवलित हो गई थी. अब सिर से बाप का साया भी हट गया.
बिट्टन बहादुर लड़की थी, पर उसने उसे बेचारी बना दिया.
श्राद्ध में बिट्टन के ससुराल से कोई नहीं आया. इससे बिट्टन और दुखी हुई. पति की बुरी आदतों के बाद भी कहीं न कहीं उम्मीद थी कि वो बुरी आदतें छोड़ देगा और उनका वैवाहिक जीवन सामान्य हो जाएगा. पर किसी के ना आने से निराश हो गई. दिनभर रोती रही. तन्मय ने रोते हुए देखा, तो कोलैप्स्ड हो गया.
श्राद्ध के दूसरे दिन बिट्टन पास आई. कुछ कहना चाहती थी, पर कुछ बोल न पाई. उसकी आंखों से दो बूंद मोती गालों पर लुढ़क गए. तन्मय ख़ुद को रोक नही पाया और उसके आंसू पोंछ दिए. बिट्टन फूट पड़ी और उसके सीने पर सिर टिकाकर रोने लगी.
तन्मय ने उसका चेहरा हाथों में ले लिया और धीरे से कहा, “रोओ मत. सब ठीक हो जाएगा. मैं हूं न.” बड़ी देर तक दोनों साथ ही रहे. तन्मय ने उसे मास्टर और उसके बाद बीएड करने की सलाह दी. चाहता था बिट्टन अपने पैरों पर खड़ी हो जाए.

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श्राद्ध के तीसरे दिन तन्मय ने सिंहपुर से प्रस्थान किया. बिट्टन छोड़ने के लिए दूर तक आई. विदा लेते समय पदधूलि ली. तन्मय की इच्छा हुई, उसे बांहों में भर ले, लेकिन वो ऐसा नहीं कर पाया.
उसके बाद भाभी तीज-त्योहार में मायके जाने लगीं. उनके बीच संबंध सामान्य हो गए. तन्मय ने आईआरएस की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली. आयकर विभाग में नौकरी लग गई. पहली पोस्टिंग जम्मू-कश्मीर में मिली. नौकरी में वो बहुत व्यस्त रहने लगा.
एक बार भाभी ने बताया कि बिट्टन ससुराल नहीं जाती. मास्टर के बाद बीएड भी पूरा कर लिया. पीएचडी कर रही है. वो किसी कॉलेज में लेक्चरर हो जाएगी. पति से अघोषित तलाक़ हो गया. पति ने तलाक़नामा भेजा, तो बिट्टन ने हस्ताक्षर कर दिया. उसके साथ रहना ही नहीं चाहती थी तो तलाक़ के विरोध का मतलब न था. बिट्टन को अपने शहर के केंद्रीय सरकारी कॉलेज में लेक्चरर की नौकरी मिल गई.
तन्मय ने शादी नहीं की. अनगिनत रिश्ते आए, सबको रिजेक्ट करता रहा.
अचानक दीपक के आने से अतीत से तारतम्य टूट गया. वर्तमान में आ गया. उसे लगा कि कल की ही बात है. वो सीलिंग फैन को देखने लगा.
कुछ देर बाद बिट्टन दो कप चाय और प्लेट में बिस्किट ले आई. एक कप तन्मय को दिया, दूसरा दीपक को. दीपक चाय लेकर बाहर चला गया.
“और तुम्हारी चाय?”
“अब मैं चाय नहीं पीती.”
“याद करो बिट्टन, अदरक और इलायची की चाय हम साथ-साथ पीते थे.”
“तुम्हें अब तक याद है.”
“तुम भी कहां भूल पाई हो कोई बात. हां, अब भूलने का अभिनय करो तो दूसरी बात.”
उनके दरमियान गहरी ख़ामोशी पसर गई.
“तुम भी अपने लिए चाय लेकर आओ. अकेले नहीं पी सकूंगा.”
“अकेले चाय नहीं पी सकोगे, तो कंपनी देने वाली का इंतज़ाम कर लो. शादी कर लो.” बिट्टन बोली, “अकेलेपन से भी निजात मिल जाएगी और कंपनी देने वाली भी मिल जाएगी.”
“जीवन जीने के लिए शादी बहुत ज़रूरी है नहीं?”
“शादी जीवन का अभिन्न पार्ट है.” बिट्टन बोली, “शादी की औपचारिकता तो निभानी ही पड़ती है.”
“वो औपचारिकता तो मैं बरसों पहले निभा चुका हूं. बगल वाले कमरे में. बस मेरे दुल्हन की विदाई न हो सकी. मेरी हैसियत आड़े आ गई थी.”
बिट्टन चुप ही रही.
“मज़ाक कर रहा था. जाओ, खाली कप ही लेकर आओ. इसी में पी लेंगे.”
बिट्टन कप लाने घर में चली गई.
तन्मय फिर अतीत की ओर खिंचने लगा.
शादी के तुरंत बाद बिट्टन बहन के साथ तन्मय के घर आई थी. उससे मिलना चाहती थी. वो उसकी शादी में नहीं गया था.
“तुम भी शादी कर लो तन्मय.”
“क्यों..? सलाह क्यों दे रही हो?”
“सलाह नहीं दे रही हूं. बस शादी कर लो. अकेलेपन से निजात मिल जाएगी.”
“मैं अकेलेपन से निजात पाना ही नहीं चाहता. किसी को अकेलापन सालता है, पर मुझे सुकून देता है. अकेलापन मेरे लिए ईश्‍वर का दिया अनुपम वरदान है. अकेलेपन में अतीत मेरे साथ होता है. मेरा ख़ूबसूरत अतीत. तो मैं अपने को ख़ूबसूरत अतीत से वंचित कर दूं?”
“तुमने शादी न करने का निर्णय ले लिया. लेकिन तुम्हें नहीं पता लड़की ये भी नहीं कर सकती. स्वेच्छा से निर्णय नहीं ले सकती. जब मेरी शादी तय हो रही थी, तब मुझे महसूस हुआ कि स्त्री कितनी कमज़ोर और लाचार होती है. मेरी शादी कर दी गई. मुझसे पूछा तक नहीं गया कि मुझे क्या पसंद-नापसंद है.”
“रोओ मत, मैं तुम्हें कभी डूबने नहीं दूंगा. तुम्हारी शादी हो गई है, तो मैं तुम्हारा नहीं हो सकता, लेकिन मैं अकेला ही रहूंगा, ताकि जब तुम्हें मेरी ज़रूरत पड़े, तब मेरे पैरों में कोई बंधन न हो.”
तभी बिट्टन चाय लेकर आ गई और सामने वाली चेयर पर बैठ गई.
“कब तक रहोगे?”
“आज ही जा रहा हूं. दो घंटे बाद ट्रेन है. चार घंटे का टाइम था, सो तुमसे मिलने आ गया. तुम आओ न कश्मीर घूमने.”
बिट्टन कुछ नहीं बोली.
“चलूं अब. एक घंटा तो स्टेशन पहुंचने में ही लगेगा.”
बिट्टन बोली कुछ नहीं. नज़रें झुका लीं. कुछ कहना चाहती थी, पर कह नहीं पाई.
चलते समय तन्मय परिवार के सभी सदस्यों से मिला. सबका चरण स्पर्श किया. दीपक ने उसका चरण स्पर्श किया. आख़िर में बिट्टन भी उसके पास आई. चरण स्पर्श किया.
“ये क्या कर रही हो?”
“पदधूलि ले रही हूं.” बिट्टन की आवाज़ हलक में फंसी हुई थी. वो स्पष्ट बोल नहीं पाई. काफ़ी कोशिश के बाद उसने पूछा, “अब कब आओगे?”
“जब तुम बुला लो.” तन्मय परिहास में कह गया. फिर बोला, “देखो…”
वो चल पड़ा. कुछ दूर जाकर पीछे मुड़कर देखा. सब लोग उसी को निहार रहे थे. द्वार पर बंधे गाय-गोरू भी चारा खाना छोड़कर उसी को देख रहे थे. उसका मन भर आया. बिट्टन भी उसे एक गाय की तरह लगी. उसका मन भारी था. शायद यही उसकी नियति थी.

Harigovind
हरिगोविंद विश्‍वकर्मा

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