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कहानी- ऑफिस, शुबु और मैं… (Short Story- Office, Shubhu Aur Main…)

नई जॉब, नए दोस्त, नए जीवन में रात को समय निकालकर हम दिनभर की बातें एक-दूसरे को बताते. ऐसा करते कुछ महीने बीत गए. अब कभी-कभी हम अपनी व्यस्तता के कारण बात नहीं कर पाते. धीरे-धीरे कब हमारी बातचीत बंद हो गई मुझे पता ही नहीं चला. लेकिन रीमा को यह सब समझ आ रहा था. वह मेरे फोन का इंतज़ार करती रहती और मुझे बिल्कुल ध्यान नहीं रहता.

शुरुआती ठंड की एक शाम जब मै लगभग 7 बजे रोज़ाना की तरह ऑफिस से निकाला और पार्किंग एरिया में जा पहुंचा. वहां से मैंने अपनी गाड़ी को स्टार्ट करके घर की ओर बढ़ा दी और रास्ते का आनंद लेते हुए घर जाने लगा.
मैंने देखा अंधेरे को कम करती दुकानों की लाइट, दिवाली के बाद का समय और शादियों के शुरु होने का समय है, इसलिए सजावटी लाइट से दुकानों की जगमगाहट रास्ते को और आनन्ददायक बना रही थी. कुछ लोग शादियों की शॉपिंग में व्यस्त तो कुछ लोग रोड साइट फूड का आनन्द लेने में व्यस्त थे. सब अपने आनन्द में इतना खो गए थे कि मानो ऐसा लग रहा हो, कही किसी कोने में भी कोई दुख ही ना हो.
यह सब अनुभव करते हुए मेरे चहरे पर बड़ी-सी मुस्कान आ गई और मैं यह सब में इतना खो गया कि मैंने कब अपनी गाड़ी की स्पीड कम कर दी मुझे पता ही नहीं चला. अब मुझे लगा कि मुझे जल्दी से पहुंचना चाहिए कोई मेरा इंतज़ार कर रहा है.

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गाड़ी को कॉलोनी के पार्किंग एरिया मे लगा कर मैंने चौकीदार को एक मुस्कान दी, वैसे मुझे बातें करना ज़्यादा पसंद नही है, पर मैं एक मुस्कान के आदान-प्रदान का रिश्ता सबसे बना लेता हूं.
मेरा घर तीसरी मंज़िल पर है. सीढ़ियों पर से होते हुए जाते समय मैंने पहली मंजिल के घर से आ रही आवाज़ को सुना. वहां मिसेज़ वर्मा अपने बेटे को टीवी को बंद कर स्कूल का होमवर्क करने के लिए डांट रही थी. जब मैं दूसरी मंज़िल पर पहुंचा, तो मुझे कुछ ख़ुशबू-सी आई. यहां एक दक्षिण भारतीय परिवार रहता है और इस ख़ुशबू से मेरे मन में दक्षिण भारत के कुछ प्रमुख व्यंजन की तस्वीर सी आ गई. अब तीसरी मंज़िल आ चुकी थी और मैं घर के दरवाज़े पर था. मैंने अपने बैग से चाबी निकाली और दरवाज़ा खोला, वैसे ही मेरे सामने था मेरा प्यारा शुबु (डॉग). शुबू जब 10 दिन का था, तब मैं उसे लेकर आया था. फिर जब मैंने अपनी जॉब कोलकाता में शुरू की, तो मैं प्रयागराज से शुबू को अपने साथ ले आया. यहां अकेले रहने की ख़ुशी शुरुआत में बहुत थी, पर अब 5 साल रह लेने के बाद समझ आया मां-पिताजी को छोड़कर यहां रहना आसान नहीं.
मैंने अपने लिए खाना बनाया और शुबु को भी उसका खाना दिया. हमने साथ मे खाना खाया और टीवी देखने लगे. शुबु मेरे पास ही बैठा था. टीवी में कुछ रोचक तलाश की कोशिश से थक कर मैंने टीवी बंद की और याद करने लगा अपने कुछ अच्छे पल, घर , मां-पिताजी और मेरी एक ख़ास दोस्त, जिसे मैं हर रोज़ याद करता हूं, रीमा.
रीमा मेरी बचपन की दोस्त थी. थी बोलते हुए मुझे बहुत दुख हो रहा है, पर हम यथार्थ को कब तक नज़रअंदाज़ कर सकते हैं. बचपन में हम स्कूल में दोस्त बने और फिर एक ही कॉलेज में पढ़े. रीमा बहुत ही चंचल, पर समझदार लड़की थी. रीमा और मैं कॉलेज कैंटीन में घंटों बैठे रहते और बातें करते. हमारे विचार हर विषय पर मिलते थे, राजनीति, महिला-पुरुष, गरीबी, आतंकवाद, विवाह आदि. कॉलेज में वैसे तो सबके ग्रुप होते हैं, लेकिन हमारा कोई ग्रुप नही था. बस हम दो ही बहुत थे हमारे लिए. मैं रीमा के लिए कुछ ख़ास महसूस करता था, वहीं रीमा भी.
एक बार रीमा का जन्मदिन था और मैंने उस दिन को ख़ास बनाने का सोचा. कॉलेज के बाद मैंने रीमा को मेरे घर चलने के लिए कहा, वह तैयार हो गई. जब हम पहुंचे, तो मैंने उसे अपने मां-पिताजी से मिलवाया. हमने वहीं जन्मदिन मनाया और उस ख़ुशी भरे माहौल में गुनगुनाने लगा.
एक दिन आप हमको यूं ही मिल जाएंगे, फूल ही फूल राहों मे खिल जाएंगे, मैंने सोचा न था…
रीमा बहुत ख़ुश थी, पर मेरे लिए यह भी आसान नही था, क्योंकि मैं अंतर्मुखी इंसान हूं और मां-पिताजी के सामने…
पर हम हमेशा अपने प्यार के लिए अपनी सीमा से ज़्यादा करने को तैयार रहते हैं. आज सबसे अच्छी बात ये हुई कि रीमा के साथ-साथ मां-पिताजी भी ख़ुश थे. ज़िंदगी में भी सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था. कॉलेज ख़त्म होते ही मेरा प्लेसमेंट कोलकाता हो गया और रीमा का प्लेसमेंट मुंबई.
हम प्रयागराज एयरपोर्ट पर मिले. रीमा ने मुझे एक किताब गिफ्ट में दी और मैंने फूल और कहा, "हम बात करते रहेंगे." फिर हमने अपने-अपने स्थान पर जॉब शुरू की और व्यस्त हो गए. नई जॉब, नए दोस्त, नए जीवन में रात को समय निकालकर हम दिनभर की बातें एक-दूसरे को बताते. ऐसा करते कुछ महीने बीत गए. अब कभी-कभी हम अपनी व्यस्तता के कारण बात नहीं कर पाते. धीरे-धीरे कब हमारी बातचीत बंद हो गई मुझे पता ही नहीं चला. लेकिन रीमा को यह सब समझ आ रहा था. वह मेरे फोन का इंतज़ार करती रहती और मुझे बिल्कुल ध्यान नहीं रहता.
इस तरह कब तीन साल निकल गए पता न चला. तीन साल बाद जब मुझे एहसास हुआ कि अब मेरे ऑफिस के दोस्त कम हो गए हैं. मुझे अपने नए जीवन, नए दोस्त का यथार्थ समझ आ गया था. इन सब में मिल जाने के लिए मैंने क्या खो दिया है और मैंने चाहा भी था इसे ठीक करना. जब एक शाम मैंने रीमा को फोन किया था.
"हैलो… कैसी हो?"
"अच्छी हूं, तुम कैसे हो?"
"ठीक हूं, तुमसे मिलना चाहता हूं."
"ठीक है, मिलते हैं."
"मैं इस रविवार को मुंबई आता हूं…"
हम रविवार को मुंबई में मिले. हमने साथ में खाना खाया और बहुत सारी बातें कीं. रीमा ने बताया मुंबई आने के दो साल बाद वह रिषि से मिली. रीमा और रिषि ऑफिस पार्टी में एक दोस्त के ज़रिए मिले. रीमा ने आगे कहा, "जैसे हमारे विचार हर बात पर मिलते थे, वैसे रिषि से नहीं मिलते. उसके विचारों में बहुत अंतर है, फिर भी रिषि का अलग होना पसंद आया. उसने नए विचारों को भी समझा."


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रिषि के साथ एक साल बीता लेने के बाद उन्होंने शादी के बारे मे सोचा है. इन बातों से मुझे समझ आया कि रीमा अब आगे बढ़ चुकी है. वह ख़ुश है और वह बस मेरी ख़ुशी के लिए मुझसे मिली है. अगले ही दिन मैं कोलकता आ गया था.
इस बात को आज दो साल हो चुके हैं. और मुझे आज भी एहसास है कि कुछ क्षण की ख़ुशी में गुम होकर मैंने अपने जीवन से किसे खो दिया है. रीमा के साथ ख़ुशी और सुकून दोनों था. अक्सर देर कर देते है हम अपने जीवन में सही इंसान की पहचान में और उसे एहमियत देने में. जैसे नदी बहती रहती है, वैसे ही जीवन चलता रहता है. मुझे अब सो जाना चाहिए. सुबह ऑफिस है. इस कहानी के पन्ने तो मेरी ज़िंदगी रोज़ पलटती है.

- मेघा कटारिया

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