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कहानी- पराए घर की बेटियां (Short Story- Paraye Ghar Ki Betiyaan)

अम्मा जल्दी ही मुख्य मुद्दे पर आ गईं, “सुमति, बरही में मैंने काफ़ी सामान भेजा था. सास ने तो नहीं हड़प लिया?”
“उन्होंने नहीं हड़पा, मैंने ही सब उन्हें सौंप दिया था. परिमार्जन बोले बेटा हुआ है, तो सबका नेग बनता है. सास, दोनों ननदों और जेठानी को हम लोगों ने सोने के कंगन दे दिए.”
अम्मा पर गाज गिरी, “बेसहूर, कंगाल हो जाएगी.”
“न देती तो परिमार्जन को बुरा लगता.”
“अपनी बड़ी बहनों को देखो पति को मुट्ठी में रखती हैं. कुछ सीखो.”
स्त्रियों की मनोवृत्ति विचित्र होती है. बेटी को पढ़ाती हैं पति को मुट्ठी में रखो, बहू को आरोप देती हैं यह मेरे बेटे को मुट्ठी में रखती है.

सुमति की विदाई कर थका हुआ घर. अम्मा ख़ूब रोने के कारण भारी हो गए फटे सुर में कहती जा रही हैं, “सास-ननदें घाघ होती हैं. उनकी चिकनी-चुपड़ी बातों में आकर सुमति कहीं उन लोगों को अपनी साड़ियां न दे दे. बुढ़िया (अम्मा की सास) ने मेरी पेटी खाली करा ली थी. बहुत समझाया है सुमति को, पर वह आजकल की लड़कियों की तरह चतुर नहीं है.”
और अम्मा की दृष्टि गोपी पर. साफ़ मतलब है गोपी चतुर है. अम्मा की नज़र परख गोपी रसोई में जा छिपी. लंबी रसोई के दूर वाले कोने में दोनों बुआ बैठी थीं. अम्मा के शासन में इनकी यह दशा है. गोपी को आते देख बड़ी बुआ बोलीं, “तनिक सुस्ता लो. सुमति के ब्याह में तुमने गज़ब काम किया.”
गोपी को थकान से हरारत हो रही थी, “बुआ, अम्मा कहती हैं, मैंने कुछ भी सही ढंग से नहीं किया.”
“भउजी के रंग-ढंग देखते हमारी उमर गुज़र गई दुलहिन. उन्हें अपनी सास जल्लाद लगती थी. अब तुम चालबाज़ लगती हो. वह तो यही कहेंगी…”
इसी क्षण अम्मा अपना थुल-थुल शरीर संभाले रसोई में दाख़िल हुईं. गोपी और बुआओं को एक साथ देख तमक गईं, “गोपी, यहां डटी हो? थकान से मेरा सिर फट रहा है. तेल मालिश कर दो, तनिक ठीक हो जाए.”
दोनों बुआ समझ गईं, गोपी का उनके पास होना अम्मा को चालबाज़ी लगती है. गोपी अम्मा के पीछे चल दी. अम्मा बिस्तर पर छा गईं.
“वे सांप और बिच्छी क्या समझा रही थीं तुझे?”
बड़ी बुआ सांप, छोटी बुआ बिच्छू.
“नहीं तो.”
“ख़ूब समझती हूं. ननदें ज़हर की पोटली होती हैं. कल ही चलता कर दूंगी.”
अम्मा का संपर्क डेंजर ज़ोन होता है, तथापि गोपी थोड़ा मुस्कुरा दी कि अम्मा की तीनों बेटियां भी ज़हर की पोटली… गोपी की मुस्कान का अर्थ समझ अम्मा की चमड़ी चुनचुनाने लगी, “क्यों मुस्कुराई? तुम्हारी ननदें गऊ की तरह हैं.”
“हां अम्मा, गऊ.”
अम्मा को लगा गोपी के अनुमोदन में रहस्य छिपा है. गर्दन अकड़ाकर बोलीं, “मीरा और नीरा दोनों दो-चार दिन में चली जाएंगी. घर की आख़िरी शादी थी, दोनों को चेन देना है. दामादों को अंगूठी ठीक रहेगी.”
“बुआ को भी कुछ…”
अम्मा का चेहरा बागी दिखने लगा, “बिना लिए वे दोनों टलने वाली नहीं. नेग में बहुत साड़ियां आई हैं. उन्हीं में से दे देंगे.”
“यह ठीक न होगा अम्मा. यह उनका भी मायका है.”
“जब भाई की बेटियां बिदा होने लगें, तो मायका उनका हो जाता है.”
गोपी आगे न बोल सकी.
पखवाड़े बाद गोपी का पति विमल सुमति को लेने गया, पर ससुरालवालों ने नहीं भेजा. विमल सुमति को लिए बिना लौट आया.
“अम्मा, सुमति की बड़ी ननद कनाडा से आई है. वह सुमति के साथ थोड़ा रहना चाहती है. इतनी दूर से बार-बार आना नहीं हो पाता.”
अम्मा का सिर घूम गया, “ये कनाडा वाली तो बड़ी हठीली है. पहली बार गई है सुमति, अभी उसे ससुराल में अच्छा न लगता होगा. विमल तुम ले आते उसे.”

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बाबूजी बोले, “सुमति अब उस परिवार की बहू है. वह हमारे अनुसार नहीं, ससुरालवालों के अनुसार चलेगी.”
“जैसे हमसे रिसता (रिश्ता) ख़तम हो गया.”
“गोपी को तुम नेक सलाह देती हो न. बहू को ससुरालवालों के हिसाब से चलना चाहिए.”
अम्मा ने फटकार दिया, “सीधी बात को उलझाया न करो. और बहू का बहुत पक्ष न लो. सिर पर बैठेगी और बुढ़ापे में एक लोटिया पानी न देगी. बेटियां पूछ लें तो पूछ लें.”
मीरा जीजी और नीरा जीजी न अम्मा की सेवा करती हैं, न काम में मदद. उनके आने पर अम्मा ख़ास सतर्क हो जाती हैं. बेटियों की सुख-सुविधा में कमी न रहे. तब भी अम्मा को गुमान है बेटियां, बुढ़ापा पार कराएंगी.
सुमति अगले सप्ताह आ गई. अम्मा उसके बैगों की गुप्तचरी में लग गईं. तीन दामी साड़ियां नदारद.
“सुमति, साड़ियां सास ने हड़प लीं?”
“नहीं अम्मा, मैंने बड़ी ननद, जेठानी और माताजी को एक-एक दे दी.”
पुत्री की नादानी अम्मा को नागवार लगी, “इतना सिखाकर भेजा, पर तुझे अकल ही नहीं है.”
“अम्मा, भाभी जब पहली बार आई थीं, तो तुमने उनकी तीन साड़ियां रख ली थीं. मीरा जीजी, नीरा जीजी और अपने लिए. मुझे लगा, माताजी जबरन रखें, इससे बेहतर है मैं अपनी इच्छा से ही उन्हें दे दूं. यह क्या कि माल भी जाए और नाम भी न हो.”
“इसी तरह लुटाती रही तो सास-ननदें तुम्हें कंगाल बना देंगी. हां, कहे देती हूं. अभी सब नया-नया है, इसलिए तुम्हें सब हरा ही दिखाई देता है. जल्दी ही पता चलेगा सास-ननदें ज़हर की पोटली होती हैं.” सुमति हंस दी, “तब कहो अम्मा, मैं और तुम ज़हर की पोटली हैं. मैं भाभी की ननद, तुम सास.”
पता है मुस्कुरा कर ज़ुर्म कर रही है, लेकिन गोपी मुस्कुरा दी. अम्मा मुस्कुराहट सह न सकी, “गोपी, सिर में न बैठी रहो. चाय बनाओ.”
“अच्छा अम्मा.”
गोपी चाय बनाने चली गई. इधर अम्मा सुमति को मंत्र देती रहीं कि वह ससुराल में ग़ुलाम बन कर नहीं, मालकिन बनकर रहना सीखे. जबकि अम्मा ने गोपी को ग़ुलाम से अधिक कभी नहीं माना.
गोपी मायके जाए या न जाए या कब जाए, यह अम्मा तय करती हैं. गर्मी की छुट्टियों में गोपी के मायके में सभी भाई-बहन एकत्र होते हैं कि सबसे मिलना हो जाएगा. इधर यही समय गोपी की ननदों के आने का होता है. अम्मा उसे जाने की अनुमति नहीं देतीं. जब गोपी मायके जाती है, तब भाई-बहन जा चुके होते हैं. एक दिन उसने अम्मा से कहा था, “जाने दो अम्मा, शादी के बाद मैं अपने भाई-बहनों से कभी ठीक से नहीं मिली हूं.”
अम्मा का स्पष्ट जवाब, “तुम्हें अब हमारी सुविधा-इच्छा देखना चाहिए. मीरा और नीरा साल भर में आती हैं, पर उनका ख़्याल नहीं, भाई-बहनों का बहुत ख़्याल रखती हो.”
मीरा और नीरा के आगमन पर गोपी दिनभर चूल्हा संभालती है. विमल बड़े-बड़े झोले लिए बाज़ार दौड़ता है. मीरा और नीरा का पूरा समय ताश, सैर-सपाटे, बाज़ार में गुज़रता है. आमोद-प्रमोद में अम्मा तल्लीन हो जाती हैं.
सुमति छह माह बाद मायके आई. अम्मा और गोपी के लिए साड़ी लाई.
अम्मा से नहीं देखा गया, “मेरे लिए तो ठीक है, पर गोपी की चमची न बनो.”
“अम्मा, भाभी को भी लगे कि कोई उनका ध्यान रखता है. वो हम सबका हमेशा ध्यान रखती हैं.”
“बहू की लगाम जितना कसो, उतना ही क़ायदे में रहेगी.”
“भाभी ने कभी क़ायदा तोड़ा अम्मा?”
“ये बहस करना ससुराल में सीखा?”
“हां. मैं बहू बनी, तो पता चला बहू की कुछ भावनाएं होती हैं. वह मान और सम्मान चाहती है. मेरी बड़ी ननद कनाडा लौट गई, पर छोटी के नखरे. उसकी जूठी थाली तक मैं उठाती हूं.”
अम्मा सदमे में, “सुमति तुम उसकी गुलाम नहीं हो.”
“पर बहू तो हूं. बहू को ये सब करना चाहिए. अपने ही घर में देखती हूं अम्मा. गोपी भाभी…”
“गई भाड़ में. परिमार्जन (सुमति का पति) से कहो तुम्हें अपने साथ ले जाए. अच्छी पोस्ट में है. तुम क्यों दबोगी इस छुटकी ननदिया से?”
“वे ले जाना चाहते हैं, पर माताजी कहती हैं कुछ दिन हमारी सेवा करो.”
“तुमने फेरे माताजी के साथ लिए हैं? बिटिया, तुम इस बुढ़िया की लगाम कसो.”
अम्मा गोपी की लगाम कसना चाहती हैं और चाहती हैं सुमति अपनी दुराचारी सास की लगाम कसे.
“नहीं अम्मा. परिमार्जन अपनी मां के सामने मुंह नहीं खोलते हैं.”
“ऐसे भक्त हैं अम्मा के? प्रभु.”
अम्मा को विमल पत्नी भक्त जान पड़ता है, परिमार्जन मातृ भक्त.
“मैं चलूं अम्मा, भाभी का काम में हाथ बंटा दूं.”
“चार दिन को आई हो. सुस्ता लो.”
“अम्मा, यहां आदत बिगाड़ लूंगी तो ससुराल में अखरेगा. सुबह छह से रात बारह तक काम और काम.”
“सुमति, तुम्हारी तो मजदूर से भी ख़राब हालत है.”
गोपी और सुमति रसोई में आ गई.
गोपी पूछने लगी, “सच कह रही हो क्या सुमति?”
“भाभी मुझे कोई तकलीफ़ नहीं है. वे अच्छे लोग हैं. मैं अम्मा को महसूस कराना चाहती हूं कि वे जो व्यवहार तुम्हारे साथ करती हैं, वही बेटी के साथ हो, तो कैसी आग लगती है. पर तुम अम्मा से ये सब नहीं बताओगी. आगे-आगे देखो, होता है क्या?”
फिर सुमति अपने दो माह के बच्चे को लेकर मायके आई. अम्मा जल्दी ही मुख्य मुद्दे पर आ गईं, “सुमति, बरही में मैंने काफ़ी सामान भेजा था. सास ने तो नहीं हड़प लिया?”

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“उन्होंने नहीं हड़पा, मैंने ही सब उन्हें सौंप दिया था. परिमार्जन बोले बेटा हुआ है तो सबका नेग बनता है. सास, दोनों ननदों और जेठानी को हम लोगों ने सोने के कंगन दे दिए.”
अम्मा पर गाज गिरी, “बेसहूर, कंगाल हो जाएगी.”
“न देती तो परिमार्जन को बुरा लगता.”
“अपनी बड़ी बहनों को देखो पति को मुट्ठी में रखती हैं. कुछ सीखो.”
स्त्रियों की मनोवृत्ति विचित्र होती है. बेटी को पढ़ाती हैं पति को मुट्ठी में रखो, बहू को आरोप देती हैं यह मेरे बेटे को मुट्ठी में रखती है.
“अम्मा यह गुर तो हमें आता नहीं. तुम्हीं से जाना है पहली संतान वह भी पुत्र हो तो सास-ननदों को कुछ देना चाहिए. गुड्डू (गोपी का पुत्र) हुआ तब तुमने भाभी के कंगन उतरवा लिए थे. दोनों जीजी और जीजाजी को क्या-क्या दिलवाया था. जब कि विमल भैया और भाभी की अलग से कमाई नहीं है. विमल भैया, बाबूजी के साथ दुकान संभालते हैं. मुझे याद है अम्मा, भैया सुनार की दुकान में जाकर भाभी के झुमके और अंगूठी साफ़ करवा लाए थे जीजी लोगों के लिए.”
सुमति के द्रोह ने अम्मा की नींद उड़ा दी. दोनों बड़ी, अम्मा का निर्देश मानती हैं, लेकिन सुमति हौसले पस्त किए देती है. लड़की का यही आचरण रहा तो बेज़ुबान गोपी की ज़ुबान गजभर लंबी हो जाएगी. ग़ज़ब कर रही है लड़की.
गर्मी में अम्मा ने तीनों बेटियों को बुलवाया. मीरा और नीरा ने योजना बना ली, लेकिन सुमति तो मानो उल्टी चाल ही चलेगी. फोन कॉल किया उसकी तबियत ख़राब चल रही है. संभव हो तो भैया-भाभी कुछ दिनों के लिए आ जाएं. मदद मिल जाएगी और गुड्डू की आउटिंग भी हो जाएगी. भाभी नहीं आ सकती, तो वह अपनी सास और छोटी ननद को बुला लेगी.
अम्मा के सामने बड़ा चक्कर है.
गोपी जाती है तो मीरा और नीरा के स्वागत में भारी कमी होगी, नहीं जाती है तो सुमति की सास-ननद सुमति के घर के ठाट का आनंद लेंगी. उसकी मदद तो एक न करेंगी. गोपी को भेजना ही पड़ा.
गृहस्थी की थकान उतारने आई मीरा लटपटा गई, “हम आए और विमल व गोपी ग़ायब. यह क्या है अम्मा?”
बाबूजी ने स्पष्ट किया, “गोपी सुमति की मदद के लिए गई है मीरा. यहां का काम तुम, नीरा और तुम्हारी अम्मा मिलकर संभाल लोगी.”
दोनों बहनों के चेहरे दुखी हो गए. नीरा को बेइज़्ज़ती जैसा कुछ महसूस हुआ, “यहां भी चूल्हा फूंकूं? सुमति को अभी बीमार पड़ना था.”
गृहस्थी का अपार काम और गोपी नदारद. अम्मा को तत्काल समझ में आ गया  कि गोपी के बिना वे घर नहीं चला सकतीं. काम करने की आदत नहीं, तो जोड़ों में पीड़ा हो गई. मीरा और नीरा रसोई में घुसी खाना कम बनातीं, सुमति और गोपी को अधिक कोसतीं. जल्दी ही मीरा ने ऐलान किया, “अम्मा, हम लोगों की दक्षिण भारत घूमने की योजना है. यहां का देख-सुन लिया. अब जाना है.”
अम्मा उदास हुईं, “रुको न.”
“फिर छुट्टियां ख़त्म हो जाएंगी और दक्षिण भारत जाना नहीं हो पाएगा.”
नीरा जान गई कि मीरा चतुराई दिखाते हुए भाग रही है. उसे अपनी बेटी का क्रैश कोर्स याद आ गया, “अम्मा, जाना पड़ेगा. नीली को एक क्रैश कोर्स करना है.”
“नीरा, तुम भी! मुझसे तो दो आदमी का खाना नहीं बनाया जाता. आदत छूट गई है.”
“तो गोपी को बुलाओ. वहां जम कर बैठ गई.”
गोपी की भर्त्सना पर अम्मा पुत्रियों के साथ सुर में सुर न मिला पाईं. कुछ कहते न बनता था. बाबूजी ने कहा, “तुम लोग जाना चाहती हो, जाओ. तुम्हारी ज़िम्मेदारियां हैं, व्यस्तताएं हैं. यहां का हम दोनों संभाल लेंगे. बरस हुए, अकेले नहीं रहे. अब देखें अकेले रहने का क्या मज़ा और क्या परेशानियां होती हैं.
परिस्थिति में भारी उलट-फेर हुआ. न सैर-सपाटा, न पुत्रियों के लेन-देन को लेकर अम्मा ने हड़कंप मचाया. और अब खाली घर. दो प्राणी. अम्मा सामर्थ्य भर काम करतीं, पर काम पूरा न हो पाता. बाबूजी ने अलग हौसले तोड़नेवाली बात कर दी, “तुम जिन लड़कियों का यशोगान करती हो, लो, वे पीठ दिखा गईं. चाहती तो हो भीतर की भड़ास निकालकर तबियत हल्की कर लो, पर झिझक हो रही है. है न? होती हैं कुछ स्त्रियां. सेवा बहू से लेती हैं, श्रेय बेटियों को देती हैं. मैंने बार-बार तुम्हे कहा कि जो विमल और गोपी हमारा इतना काम करती हैं उन्हें न सराहो तो कोई बात नहीं, पर परेशान भी न करो. बाहर वाले मदद को नहीं आएंगे, यही लोग काम देंगे. तो क्या हम उन्हें थोड़ा-सा प्रेम और महत्व नहीं दे सकते? अमरबेल का स्वभाव जानती हो? जिस पेड़ पर चढ़ती है, उससे अपना पोषण लेती है और उसे सुखा देती है. फिर कहता हूं गोपी से सहारा लो, पर उसे ठूंठ न बना दो. वह विद्रोह कर दे, तो हम इस बुढ़ापे में क्या करेंगे? उसके हाथ-पैर मज़बूत हैं, हमारे थक रहे हैं. विमल और गोपी अलग हो जाएं, तो वे अपना काम चला लेंगे, हम अकेले नहीं चला सकेंगे. मीरा और नीरा को देख लिया न. फिर मैं उन्हें भी दोष नहीं देता. अपनी गृहस्थी बसाने के बाद वे तुम्हारी गृहस्थी का बोझ अपने ऊपर नहीं लादेंगी. काम गोपी ही आएगी, पर तुमने कभी उसे महत्व नहीं दिया. उसे स्नेह और महत्व दो तो वह तुम्हारी सेवा मन से करेगी. देखो, मशीन के कलपुर्ज़ों की देखभाल न करो तो एक दिन वे काम करना बंद कर देते हैं. गोपी तो इंसान है. उसकी संवेदनाएं हैं, इच्छाएं हैं, अधिकार हैं.”
अम्मा सुनती रही बाबूजी की बातें. शायद वे पहली बार चित्त देकर सुन रही हैं, वरना पुत्रियों को अपना बल माननेवाली वे धीरज से किसी की नहीं सुनती हैं. मनमानी करती हैं. इस व़क़्त ख़ुद को दुर्बल पा रही हैं और बाबूजी की बातों में उन्हें सार दिखाई दे रहा है. यही वजह रही वापस आए बेटे-बहू से पूछने की. उन्होंने पूछा, “कोई तकलीफ़ तो नहीं हुई?”
आवाज़ नम है, लहजा नरम. गोपी ने सोचा था अम्मा एकदम दंगा कर देंगी कि यहां लड़कियां तंग हुईं और यह आनंद लूटने गई थी. लेकिन तस्वीर बहुत भिन्न. गोपी ने बताया, “सुमति ने बिल्कुल तकलीफ़ नहीं होने दी.”
“कैसी है उसकी तबियत?”
यह बताना कठिन था. कैसे बताए कि सुमति बेहद तंदुरुस्त है. घर उसे सौंप परिमार्जन के साथ शिमला निकल गई कि ‘भाभी तुम लोग कुछ दिन यहां एकदम फ्री होकर रहो. अम्मा जान लें, तुम्हारे बिना घर नहीं चल सकता. मीरा जीजी और नीरा जीजी एक दिन अम्मा की सेवा नहीं कर सकतीं.’
सुमति की धारणा का सत्यापन यहां हो चुका है.
अम्मा ने दुहराया, “विमल सुमति ठीक है न?”
विमल हंसा, “ठीक है. अम्मा तुम कैसी हो? दुबला गई हो.”
अचरज. अम्मा हंस दी, “बुढ़ापा है. दुबलाएंगे ही न. मैं तुम लोगों के लिए चाय बना दूं.”
“चाय मैं बनाऊंगी अम्मा, तुम इनसे सुमति के हाल-समाचार पूछो.”
गोपी हाथ-मुंह धोने के लिए स्नानघर की तरफ़ चली गई. अम्मा जाती हुई बहू को देख रही हैं- हां थोड़ा स्नेह, थोड़ा विश्‍वास दो, तो ये पराए घर की बेटियां, पेटजायी बेटियों से अधिक अपनी हो जाती हैं.

सुषमा मुनीन्द्र

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