"... उम्र के साथ स्वयं में आए परिवर्तनों को ख़ुशी से स्वीकारना चाहिए. इस प्रौढ़ावस्था का भी अपना एक महत्व है, हमें इसे भरपूर जीना चाहिए, बल्कि मैं तो इसे अपने जीवन का सुंदरतम हिस्सा मानती हूं और तुम?" श्रुति सिसक रही थी. उसकी और निशा की सोच में ज़मीन-आसमान का अंतर था. अपनी सोच की वजह से ही उसने अपना जीवन नर्क बना रखा था. वह कोई जवाब न दे सकी.
रचना गहरी सोच में डूबी हुई थी. मां के व्यवहार में आया परिवर्तन उसकी समझ से बाहर था. रचना कॉलेज के प्रथम वर्ष की विज्ञान की छात्रा थी. वह अपनी मां से बहुत प्यार करती थी. श्रुति भी अपनी बेटी रचना पर जान छिड़कती थी. परंतु रचना श्रुति में पिछले कुछ समय से अजीब-सा बदलाव महसूस कर रही थी.
पहले मां हर बात उसे प्यार से समझाती थी. उनके हर काम में स्नेह व आत्मीयता झलकती थी. रचना को याद हैं, जब वह स्कूल से लौटकर आती, तो मां उसे गले से लगा लेती थी और मिनटों में उसका मनपसंद खाना टेबल पर रख देती थी. उससे अगर कुछ ग़लती हो जाती तो उसे डांटने की बजाय समझाती थी. कितनी अच्छी थी मां.
उसकी हर बात को रुचि लेकर सुनतीं, लेकिन अब उन्हें न जाने क्या हो गया है? अब वे अपने आप में ही डूबी रहती हैं. रचना जब कॉलेज से आती है, तो या तो किसी पत्रिका में डूबी होती हैं, या फिर कहीं जाने के लिए श्रृंगार कर रही होती रहती. इन सब बातों को लेकर साहिल और उसमें कभी-कभी नोंक-झोंक भी होने लगी.
इस बीच तुम्हारा जन्म हुआ और श्रुति को ऐसा लगने लगा, जैसे उसकी सुंदरता कम हो गयी है. वह कुछ मोटी हो गयी थी, इसलिए हमेशा यह सोचती कि काश! तुम पैदा ही न हुई होती. परंतु धीरे-धीरे तुम्हारे प्रति उसका मातृत्व जाग उठा और वह तुममें व्यस्त हो गयी.
कुछ समय बाद जब तुम्हारा भाई हुआ, तो वह और भी निराश हो गयी. सब तरफ़ से मिलने वाली प्रशंसा अब बहुत कम हो गयीं. राजू के जन्म के बाद वह कुछ बेडौल हो गयी, वज़न भी बढ़ गया. आलस की वजह से उसने व्यायाम की ओर भी ध्यान नहीं दिया और दिन-प्रतिदिन और मोटी होती गयी. इधर तुम्हारे पापा व्यवसाय में अधिक व्यस्त हो गए. अतः उनका ध्यान भी घर की ओर पहले की अपेक्षा कम हो गया.
अब उसे ऐसे वाक्य सुनने को मिलते, "श्रुति, तुम कितनी मोटी हो गई हो, पहले कितनी अच्छी लगती थीं." उससे श्रुति और अधिक निराश रहने लगी. जब उसके बालों में सफ़ेदी झलकने लगी, तो उसे डिप्रेशन रहने लगा, उसने बालों को डाई करना शुरू कर दिया. चेहरे पर भी वह अधिक श्रृंगार करने लगी.
इधर तुम जवान हो गई. तुम सुंदर भी हो. ऐसे में जो भी श्रुति से मिलता यही कहता, "तुम्हारी बेटी तो बहुत सुंदर है, तुम भी कभी ऐसी हुआ करती थीं." वह तुमसे ईर्ष्या करती हो, ऐसी बात नहीं है, पर वह अपने बारे में दूसरों की राय जानकर कुंठित हो जाती है, इसीलिए उसका व्यवहार तुम्हारे प्रति बदलने लगा. बात-बात पर तुम पर ग़ुस्सा उतरने लगा.
उम्र बढ़ने के साथ-साथ उसमें जो परिवर्तन आ रहे थे, वह उनसे सामंजस्य नहीं बिठा पाई. उम्र बढ़ने के साथ-साथ इंसान के पहनावे में, बोलने-चालने में, हर बात में बड़प्पन आ जाना चाहिए. सादगी आ जानी चाहिए. बड़ी उम्र में ये सारी बातें ज़्यादा आकर्षित करती हैं, ये बात वह नहीं समझ पाई.
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निलेश हमारा सहपाठी था वह कभी श्रुति पर जान छिड़का करता था. उसकी सुंदरता का बखान करते न थकता था. जब उसने भी ऐसा कहा, तो श्रुति बिल्कुल निराश हो गई.
रचना के लिए ये सारी बातें नई थीं. परंतु वह समझदार थी, अतः सब कुछ समझ गई. निशा ने रचना के सिर पर स्नेह से हाथ रखकर कहा, “तुम चिंता मत करो रचना, मैं उन्हें समझाने की कोशिश करूंगी."
दूसरे दिन निशा श्रुति से मिलने उसके घर गयी और लंच के बहाने उसे अपने घर ले आयी. दोनों ने मिलकर पहले खाना खाया, फिर धीरे से निशा ने बात छेड़ दी. "श्रुति, तेरी तबियत ठीक नहीं है?"
"नहीं निशा, बस यूं ही मन कुछ अच्छा नहीं है."
"क्यों, क्या हुआ?"
"पता नहीं निशा, कुछ भी अच्छा नहीं लगता. बस चुपचाप लेटे रहने को जी चाहता है. किसी से मिलने की बात करने की भी इच्छा नहीं होती, ज़िंदगी से जैसे कोई चाह ही नहीं रही." श्रुति निराश स्वर में बोली. निशा मुस्कुरा दी, “क्या फिलॉसफ़र जैसी बातें कर रही है, अरे ये तूने बालों का क्या हाल बना रखा है…. आ मैं ठीक कर दूं." निशा कंघी लेकर आयी और उसके बाल संवारने लगी.
"कितने सुंदर हैं तुम्हारे बाल आज भी. मेरे देख, सारे झड़ गये हैं और इनकी हल्की- सफ़ेदी तो तेरे चेहरे पर चार चांद लगा रही है."
श्रुति ने आश्चर्य से निशा की ओर देखा "चार चांद ? कैसी बातें कर रही है निशा? सफ़ेदी तो बुढ़ापे की निशानी है."
निशा हंस कर बोली, "बुढ़ापे की नहीं, बड़प्पन की नशानी है. जब हमारे बालों में सफ़ेदी आ जाती है न, तो हममें बड़प्पन झलकने लगता है. तुम्हें तो मालूम है जब जवानी में कॉलेज में पढ़ाती थी, तो लड़के मुझे कितना छेड़ते थे, मैं तो बहुत दुखी हो जाती थी. पर अब सब कितने अदब से बात करते हैं. कितनी इज्जत करते हैं. उम्र के साथ मैं अनुभव भी तो बढ़े हैं. इसलिए मैं पहले से अच्छा पढ़ाने लगी हूं. सारी कक्षाएं चाहती हैं कि मैं ही उन्हें पढाऊं, ये सब इसी सफ़ेदी का कमाल है."
श्रुति हैरानी से उसे देख रही थी. बालों की सफ़ेदी भी कभी ख़ुशी का कारण बन सकती है, ये तो उसने कभी सोचा ही न था.
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निशा आगे बोली, “और श्रुति, जब हमारी नयी-नयी शादी हुई थी तो अक्सर किसी न किसी बात को लेकर हमारी अनबन हो जाया करती थी. मैं कभी खुश नहीं रहती थी, हमेशा तनाव में रहती थी. धीरे-धीरे बढ़ती उम्र ने वक़्त के साथ-साथ सब सिखा दिया. अब तो में इन्हें और ये मुझे इतना समझने लगे हैं कि एक-दूसरे के मुंह से बात निकलने से पहले ही हम दोनों समझ जाते हैं कि अगला क्या कहने वाला था ये सब भी इसी सफेदी का कमाल है- समझी." कहकर निशा फिर से हंसने लगी.
इस बार श्रुति भी हंसे बिना नहीं रह सकी. हंसते-हंसते उसे साहिल का ख्याल आया. क्या उसने साहिल के बारे में कभी ऐसा सोचा भी? अपने अनुभवों को अपने दाम्पत्य जीवन का पहिया बनाया? नहीं, वह तो स्वयं में ही खोई रही और साहिल से दूर
उसे निशा की बातें बहुत अच्छी लग रही थीं. वह मुस्कुरा कर बोली- "और सुनाओ, इस सफ़ेदी के कमाल…" "और सुनाऊं? मेरे बच्चे हैं ना- लावण्या और हिमांशु, जब तक पैदा नहीं हुए थे मैं अपने आपको अधूरा महसूस करती थी. तुम तो जानती हो, जन्म के समय लावण्या को कितनी मुश्किल से बचाया गया था. दोनों बच्चों के आने के बाद मेरा जीवन ख़ुशियों से भर गया. मुझे मां का गौरव मिला. लावण्या अब सोलह साल की है, उसे मेरे प्यार, सलाह, मार्गदर्शन की ज़रूरत है, मैं उसकी सबसे अच्छी दोस्त हूं. मैं उसकी हर बात में शामिल हूं, वरना इस उम्र में बच्चे मटक भी सकते हैं. इसी समय तो उन्हें हमारी जरूरत होती है."
श्रुति की आंखें नम हो उठीं. क्या रचना को वह कभी ऐसा दोस्ती का रिश्ता दे पायी? क्या उसने कभी स्वयं को दो बच्चों की मां होने पर गौरवान्वित अनुभव किया? शायद नहीं- तभी निशा अंदर जा कर एक साड़ी ले आयी और उसे देते हुए बोली, "देख श्रुति, ये साड़ी कैसी है? कल ही ख़रीदी है."
श्रुति ने साड़ी देखकर कहा "अच्छी तो है, पर इसका रंग बहुत ही हल्का है." निशा ने कहा, "इनकी पसंद है, वैसे भी अब मैं गहरे रंगों को छोड़कर हल्के रंग पसंद करने लगी हूं. हर चीज़ का एक वक़्त होता है और वक़्त के साथ चलने में ही बुद्धिमानी है. श्रुति, उम्र के साथ स्वयं में आये परिवर्तनों को ख़ुशी से स्वीकारना चाहिए. इस प्रौढ़ावस्था का भी अपना एक महत्व है, हमें इसे भरपूर जीना चाहिए, बल्कि मैं तो इसे अपने जीवन का सुंदरतम हिस्सा मानती हूं और तुम?" श्रुति सिसक रही थी. उसकी और निशा की सोच में ज़मीन-आसमान का अंतर था. अपनी सोच की वजह से ही उसने अपना जीवन नर्क बना रखा था. वह कोई जवाब न दे सकी.
"बताओ न श्रुति, तुम क्या सोचती हो?" निशा ने फिर पूछा.
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श्रुति ने भीगे स्वर में कहा, “निशा! आज तक मैं भटक रही थी, मैं समझने लगी थी कि जवानी खोकर मैंने सब कुछ खो दिया है. पर आज मेरी समझ में आ गया है कि मैं कितना ग़लत सोचती थी. तुम्हारी बातें सुनकर आज मेरी आंखें खुल गयी हैं. आज पता चला कि प्रौढ़ावस्था भी उतनी ही महत्वपूर्ण है, तुम्हारे ढंग से सोचूं तो मैं सचमुच बहुत सुखी हूं. हां! अब कुछ अधूरे काम करने हैं, जो अब तक न कर पायी. पति और बच्चों को जो अपनापन देना चाहिए था, वही नहीं दे पायी, पर अब ऐसा नहीं होगा. "
श्रुति की आंखों में पश्चाताप के आंसू थे, तो निशा की आंखों में ख़ुशी थी कि वो अपनी प्यारी सहेली को सही राह पर लाने में सफल हो गयी थी.
- शिखा मिड्ढा
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