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लघुकथा- पसंद की मिठाई (Short Story- Pasand Ki Mithai)

सामाजिक परंपरा का निर्वाह करते हुए उन्होंने लड़कियों को तो दूसरे घर ससम्मान बिदा कर दिया, परंतु बेटे ने पत्नी मोह में अपनी बिदाई स्वयं कर अपनी गृहस्थी अलग बसा ली. इधर स्वाभिमानी मृदुला भी किसी पर बोझ न बनना चाहती थी और किसी के आगे हाथ पसारना तो उसने सीखा ही न था.

"हैलो पापाजी, मम्मी को मीठे में क्या पसंद था? वो क्या है आज उनकी बरसी का भोज रखा है, तो पंडित के लिए वही मिठाई मंगवा लूंगी." बहू ने चहकते हुए ससुर दीनानाथ से फोन पर पूछा.
"बेटा, वे तो सब खाती थीं, कुछ भी मंगवा लो. हां देख लो अगर जलेबी मिल जाए, तो…" कहते हुए दीनानाथ मौन हो गए. स्वर्गीय पत्नी की याद कर उनका अंतस पीड़ा से भर उठा. पूरी ज़िंदगी तो बच्चों की ज़रूरतों को पूरा करने में निकल गई. पत्नी की पसंद-नापसंद को जानने का कभी मौक़ा ही न मिला और ना ही कभी वो हैसियत बन पाई कि उसकी इच्छा मालूम कर उसे पूरा किया जा सके.
उनकी छोटी-सी नौकरी में तीन बच्चों की परवरिश करना ही बेहद मुश्किल काम था, तिस पर बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाने की मृदुला की ज़िद. लेकिन आख़िरकार मृदुला जीत ही गई. अपने ऊपर तमाम कष्ट सहकर भी बड़ी किफ़ायत से घर चलाते हुए उसने कड़ी मेहनत करके इस असंभव को संभव कर दिखाया. उच्च शिक्षा प्राप्त कर बच्चे आत्मनिर्भर बन गए. फिर उनकी शादी वगैरह की ज़िम्मेदारियों से जब कुछ राहत मिली, तो ध्यान आया कि अपने लिए कुछ ज़्यादा न बचा पाए.


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सामाजिक परंपरा का निर्वाह करते हुए उन्होंने लड़कियों को तो दूसरे घर ससम्मान बिदा कर दिया, परंतु बेटे ने पत्नी मोह में अपनी बिदाई स्वयं कर अपनी गृहस्थी अलग बसा ली. इधर स्वाभिमानी मृदुला भी किसी पर बोझ न बनना चाहती थी और किसी के आगे हाथ पसारना तो उसने सीखा ही न था. सो जब तक हाथ-पांव चले और जेब ने साथ दिया धीरे-धीरे ही सही गृहस्थी की गाड़ी सरकती रही. परंतु बीते कुछ समय से आर्थिक व शारीरिक कमज़ोरी ने उन्हें बेटे की तरफ़ आस भरी नज़र से देखने पर मजबूर कर दिया. पर बेटे ने अपनी मजबूरियों व ज़िम्मेदारियों का ऐसा रोना रोया कि उनके पास किराए के एक कमरे में रहने के अलावा कोई विकल्प न बचा.
तीज-त्योहार पर औपचारिकता निभाने के सिवाय बेटे-बहू ने कभी झांककर भी न देखा कि कैसे दो कृशकाय शरीर अपनी देखरेख या भरण-पोषण कर रहे हैं. गाहे-बगाहे उनके लिए कुछ सामान लाकर बेटा-बहू अपने कर्तव्य की इतिश्री करते रहे. पास-पड़ोसियों की मदद के सहारे जैसे-तैसे कुछ समय और कटा, पर बच्चों के प्यार और उनके अपनेपन को तरसती मृदुला पर्याप्त देखभाल के अभाव में बच्चों का मुंह देखने की आस लिए असमय ही परलोक सिधार गई.
पर हाय री क़िस्मत, जिस बहू ने जीते जी उन्हें एक निवाले को न पूछा, वह उसके जाने के बाद पंडितों को उसकी मनपसंद मिठाई खिलाकर पुण्य कमाना चाह रही है… दीनानाथ ने एक गहरी नि:श्वास ली. अपने भविष्य का खाका हृदय में विचारते हुए उन्होंने कुर्सी से पीठ टिकाकर धीरे से अपनी आंखें मूंद लीं.

पूनम पाठक


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