आंखें बंद कर वह बिस्तर पर लेट गए. उनका संकल्प डगमगा रहा था. बेचैनी के बीच उनकी आंख लग गई. जागे तो हतप्रभ. बत्ती बुझी थी. दरवाज़ा बंद. वह मुस्कुराए. निश्चित रूप से यहां सरोज आकर गई है. कल्पना लोक में वह शकुन्तला को भुलाकर सरोज के साथ विचरण कर रहे थे.
छुटपन से ही सरोज अपने पापा की लाडली थी. तोतली बोली में मिठास घोलते हुए वह कहती, “पापा! पापा! घोरा बनो ना. मुझे घोरे पे बैठना है.” और मुख़्तार सिंह अपने पैर नीचे टिकाकर अपनी हाथी के हौदे-सी पीठ को फैलाते हुए कहता, “बिटिया रानी, बैठो. घोड़ा तैयार है.” चिड़िया-सी चिहुंकती सरोज घोड़ा बने पापा की पीठ पर चढ़कर तोतली बोली में गाती, “चल मेले घोले तिक... तिक... तिक.” कमरे में चार-पांच चक्कर लगाकर मुख़्तार सिंह कहता, “बिटिया रानी, घोड़ा थक गया. अब उसे थोड़ा आराम करने दो.” “अले! मेला घोला थक गया...” कहते हुए सरोज झट से नीचे उतर जाती और अपने नन्हें कोमल हाथों से अपने पापा को पकड़कर उठाने का यत्न करती. अपनी गुड़िया-सी बिटिया की अदाओं पर मुख़्तार सिंह निहाल हो जाता. उसको गोद में उठाकर वह अपनी छाती से लगा लेता. बाल-स्मृतियों में डूबी सरोज अपने पापा की छाती से चिपकी थी. उसने मन ही मन कहा, “पापा आप हमको असमय छोड़कर क्यों चले गये?” और इसी के साथ उसकी आंखें आंसू-धारा बन गईं. बिछोह का दर्द प्यार की कसक पैदा कर रहा था. भावनाओं पर काबू पाकर सरोज स्मृतियों से उबरी. मुंह धोया और खुले में बैठने की इच्छा से वह छत की ओर बढ़ गई. देखा, छत पर उसकी बेटी चारू किरायेदार गोविन्द बाबू को घोड़ा बनाए गा रही थी, “चल मेले घोले तिक... तिक ... तिक.” सरोज पुन: अपनी बाल-स्मृतियों में लौट गई. वह चारू में परिणित हो गई थी और गोविन्द बाबू मुख़्तार सिंह में. गोविन्द बाबू चारू को उल्टे हाथ से संभालते हुए उठ खड़े हुए. चारू उनकी छाती से चिपकी थी. सरोज मन ही मन तुलना कर रही थी. गौर-वर्णी, भरा-भरा वैसा ही गोल चेहरा, मोटी-मोटी मूंछें, वैसी ही क़द-काठी. गोविन्द बाबू चारू को गोद में समेटे सरोज के निकट आए और उन्होंने कहा, “आप ऐसे क्या देख रही हो?” “बस इसी चारू को. यह आपसे बहुत हिल-मिल गई है.” चारू को गोद से उतारते हुए गोविन्द बाबू ने कहा, “यहां अकेले में चारू से मेरा मन लगा रहता है.” गोविन्द बाबू- अधेड़ उम्र के आदमी. रिटायरमेंट के क़रीब. गांव में काफ़ी ज़मीन-जायदाद है, जिसको उनकी धर्मपत्नी संभालती है. दो बेटे हैं. बड़ा राज्य के बिजली-बोर्ड में सहायक अभियंता है. छोटा कम्प्यूटर-इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में है. घर के चारों सदस्य अलग-अलग चार जगह. बस तीज-त्योहार में चारों एक जगह मिल जाते हैं अपने पुश्तैनी गांव में. गोविन्द बाबू ने इन्हीं दिनों मकान बदला है. सरोज सदन के पिछवाड़े में नए-नए आए हैं. सरोज का पति राकेश अपने व्यवसाय के चक्कर में कलकत्ता और मुम्बई की दूरियां नापता रहता है. वह कुछ ज़्यादा ही व्यस्त है. सरोज चारू को लेकर सीढ़ियां उतर गई थी. गोविन्द बाबू वहीं बैठ गए थे. उन्होंने अपने चेहरे पर हाथ फेरा और वह उन क्षणों में खो गए, जब सरोज उनको एकटक देख रही थी. उनके मन में कोमल हरी-हरी पौध उग आई थी. मन रूपी हिरण कुलांचे भरने लगा था. उनके मानस-पटल पर उनको निहारता हुआ सरोज का चेहरा उभर आया. गोविन्द बाबू अधिक देर तक छत पर नहीं बैठ सके. उनके पेट में गुड़गुड़ होने लगी. वह नीचे आए. सरोज के घर का दरवाज़ा बंद देखकर निराशा के बादल घिर आए. वह अपने कमरे में जा बैठे. उनकी नज़र शो-केस पर पड़ी. ऊपरी खाने में उनकी पत्नी शकुन्तला की फ़ोटो थी, जिसमें वह मोनालिसा की तरह मुस्कुरा रही थी. सत्ताईस वर्ष पूर्व वे शकुन्तला को जयपुर दिखाने ले गए थे. तब यह फ़ोटो खिंचवाई थी. दोनों में कितना प्यार था. वह चौंके. क्या आज प्यार नहीं है? फिर यह भटकन? गोविन्द बाबू विचार-शून्य. उन्होंने शो-केस से फ़ोटो बाहर निकाली. जब वे शकुन्तला के साथ जयपुर घूमने गए थे तब राजीव का जन्म होनेवाला था. वह विगत स्मृतियों में खो गए. उन दिनों वे बहुत ख़ुश थे. सपनों से सराबोर उनकी अपनी दुनिया थी. रामनिवास बाग में बैठकर दोनों ने ढेर सारे सपने संजोये थे. उन्हें अपना संकल्प याद आया- वे कभी शकुन्तला के साथ धोखा नहीं करेंगे. फिर यह क्या है? मेरे बच्चे की उम्र की सरोज. उनकी आत्मा धिक्कार उठी... गोविन्द बाबू संभले. उन्होंने शकुन्तला की फ़ोटो को गमछे से पोंछा और शो-केस में यथास्थान सजा दिया. मन को सुकून मिला. उन्हें लगा कुछ देर पहले मन में उगी कोमल हरी-हरी पौध उनके प्यार रूपी खेत की खरपतवार है, जो एक ही झटके में उखड़कर मन रूपी खेत के बाहर थी. इतवार का दिन था. गोविन्द बाबू सुबह से ही कमरे में थे. दिनभर के अकेलेपन से उकता गए थे. सोचा, बाज़ार की ओर टहल आया जाए. उन्होंने जूते पहने और बाहर जाने लगे तो चारू चिल्लाई, “मैं बी चलूंगी.” सरोज मुस्कुरा रही थी. उसके हर शब्द में आत्मीयता और अधिकार भाव था. गोविन्द बाबू बिना किसी प्रतिरोध के चारू का हाथ थामकर बाज़ार की ओर बढ़ गए. वह कुछ भी नहीं सोचना चाहते थे. फिर भी दबे पांव एक प्रश्न ने उनके दिलो-दिमाग पर दस्तक दे दी, “क्या सरोज दरवाज़े पर कान लगाकर ही खड़ी थी कि चारू की आवाज़ सुनते ही वह मुस्कान बिखेरती हुई बाहर आ गई.” उन्होंने पीछे मुड़कर देखा. गेट पर खड़ी सरोज उन्हें एकटक देख रही थी. वह चक्कर में पड़ गए. वह ऐसे क्यों देख रही है? उसकी भावनाओं की थाह पाने में वह अक्षम थे. गोविन्द बाबू और चारू उसकी आंखों से ओझल हो गए, तो सरोज रसोई में पहुंची. देखा ख़ूब सारा दूध था. क्यों न साबूदाने की खीर बना ले, पूरे दूध का उपयोग हो जाएगा. खीर पकने लगी थी और सरोज स्मृतियों में डूबी अपने पापा का हाथ पकड़कर बाज़ार में घूम रही थी... बिल्कुल चारू की तरह. वह निर्विघ्न जल्दी-जल्दी अपना काम निपटाने लगी. एक अबूझ पहेली मन में लिए गोविन्द बाबू बाज़ार में घूमते रहे. चारू चलते-चलते थक गई थी. उसने कहा, “अब मेले से चला नहीं जाता.” चारू को गोद में लेकर वह वापिस लौटने लगे. आइस्क्रीम की दुकान देखकर चारू ने ज़िद की, “मुझे आइछक्लीम चाइए” गोविन्द बाबू नहीं समझ पाये, उन्हें आइस्क्रीम ख़रीदनी चाहिए अथवा नहीं. सरोज क्या सोचेगी? मगर, चारू मचल गई. हाथ-पांव मारते हुए उसने रट लगा दी, “मुझे आइछक्लीम चाइए... मुझे आइछक्लीम चाइए.” बालहठ के सामने गोविन्द बाबू को झुकना पड़ा. चारू गोद से नीचे उतर गई थी. आइसक्रीम का कप उसके हाथ में था. वह नन्हें पैरों से घर की ओर बढ़ रही थी. गोविन्द बाबू ने कहा, “चारू इसे यहीं ख़त्म कर लें.” चारू मुड़ी और दायें हाथ की तर्जनी उंगुली दिखाते हुए बोली, “अच्छे बच्चे बाहल की चीज़ सलक पल नहीं खाते.” गोविन्द बाबू मुस्कुरा दिए. चारू को गोद में लेकर वह घर लौटे. पहली दस्तक़ पर सरोज ने दरवाज़ा खोल दिया था. वह ख़ुश थी. कहा, “आइए, खाना खाकर जाइए.” गोविन्द बाबू चौंके. यह क्या हो रहा है? अनायास सरोज उसे खाने का निमंत्रण क्यों दे रही है? उन्होंने सजग होकर कहा, “नहीं खाना रहने दो.” सरोज ने अधिकार भाव से कहा, “आप अंदर आइए. मैंने आपका खाना बना दिया है.” गोविन्द बाबू प्रतिवाद न कर सके. चारू गोद में थी. सरोज ने कहा, “लाओ, चारू को इधर बिठा दें.” चारू चुपचाप आइस्क्रीम खाने लगी थी. सरोज मनोयोग से खाना लगा रही थी. गोविन्द बाबू मूर्तवत बैठे थे. थाली लगाकर सरोज ने कहा, “उठिये, हाथ धोकर खाना खा लीजिए.” गोविन्द बाबू उठे और वॉशबेसिन की ओर बढ़ गये. वह हाथ धोकर मुड़े, तो पीछे सरोज तौलिया लिए खड़ी थी. चेहरे पर निर्मल मुस्कान. गोविन्द बाबू की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. मौन उनके लिए भारी था. वह वार्तालाप के लिए शब्द ढूंढ़ने लगे. उन्होंने कहा, “खाने के लिए आप ज़िद कर रही हैं, तो राकेश के आने पर उसके साथ ही खा लेता.” सरोज ने प्रतिक्रिया दी, “आप मुझे आप न कहें. तुम कह सकते हैं. रही राकेश के साथ खाना खाने की बात, उसका कोई ठिकाना है? हो सकता है उसका अभी फ़ोन आ जाए कि वह आज रात कलकत्ता जा रहा है. आप बेहिचक खाना खा लीजिए.” गोविन्द बाबू खाना खाने लगे. उनके अंदर रेंगता कीड़ा सरोज के हर शब्द की चीर-फाड़ कर रहा था. “आप मुझे आप न कहें. तुम कह सकते है... राकेश का कोई ठिकाना है?” उनसे चुप न रहा गया. कहा, “राकेश को इतनी भाग-दौड़ की क्या ज़रूरत है? भगवान का दिया यहां बहुत है.” “आप ठीक कह रहे हैं. पता नहीं वह किस मायावी स्वर्ण-मृग के पीछे भाग रहा है. हमारे लिए उसके पास समय ही नहीं.” कहते हुए सरोज ने एक ठण्डी आह छोड़ दी. गोविन्द बाबू के मन में कीड़ा रेंग रहा था. उन्होंने नज़र उठाकर देखा. सरोज उन्हीं को निहार रही थी. आंखें चार होते ही उसने पूछा, “कुछ चाहिए?” गोविन्द बाबू के होंठों पर हल्की मुस्कान उभरी और उन्होंने ना में गर्दन हिला दी. सरोज ने कहा, “खीर खाकर देखो. मैंने आपके लिए बनाई है.” गोविन्द बाबू हिल गए. मन में रेंगता कीड़ा सांप बन गया. कुछ भी बोलते नहीं बन रहा था. उन्होंने खीर की कटोरी उठाई और अदब से खाने लगे. सरोज ने पूछा, “खीर कैसी बनी है?” गोविन्द बाबू ने प्रशंसाभाव से कहा, “बहुत स्वादिष्ट.” गोविन्द बाबू खाना खाकर चलने लगे तो सरोज ने कहा, “अगले इतवार शाम का खाना आप यहीं खाना.” “क्यों? क्या कोई ख़ास बात है?” “नहीं. ऐसे ही.” “फिर क्या यूं रोज़-रोज़ खाना अच्छा लगेगा?” सरोज ने झिड़का, “आप सोचते बहुत ज़्यादा हैं.” गोविन्द बाबू अपने कमरे में आकर ज्यों ही बैठे, उनकी नज़र शकुन्तला की फ़ोटो पर पड़ी. वह झिझके. उन्हें लगा वो व्यंग्य में मुस्कुराते हुए कह रही है, “मन में लड्डू फूट रहे हैं.” मन का चोर झेंप रहा था. वह शकुन्तला की फ़ोटो से नज़रें नहीं मिला सके. उन्हें अपना संकल्प याद आया. वह शकुन्तला से धोखा नहीं करेंगे. ...बकवास, कोरी बकवास. धोखा तो वह कर रहे हैं, वरना उनके मन में चोर कैसे आता? आंखें बंद कर वह बिस्तर पर लेट गए. उनका संकल्प डगमगा रहा था. बेचैनी के बीच उनकी आंख लग गई. जागे तो हतप्रभ. बत्ती बुझी थी. दरवाज़ा बंद. वह मुस्कुराए. निश्चित रूप से यहां सरोज आकर गई है. कल्पना लोक में वह शकुन्तला को भुलाकर सरोज के साथ विचरण कर रहे थे. दरवाज़ा खुलते ही वे यथार्थ में लौटे. वह चारू थी. एक गुड़िया को छाती से चिपकाये वह सीधी चली आ रही थी. उसने होंठों पर उंगली रखकर गोविन्द बाबू को चुप रहने का संकेत दिया. गुड़िया को बिस्तर पर लिटाते हुए उसने कहा, “ये मेली बेती है. भोत तंग कलती है. कबी आंख बंद कल के नहीं छोती.” बेटी! बेटी का सुख गोविन्द बाबू को नहीं मिला था. वह चारू की बाल क्रीड़ाओं में रम गए. उन्होंने ध्यान से देखा. कल-चालित गुड़िया की आंख ठीक से काम नहीं कर रही थी. उन्होंने गुड़िया का पेट खोला और आंखें ठीक कर दीं. गुड़िया ने आंखें झपका ली थीं. चारू के चेहरे पर ख़ुशी के भाव उभर आये. गोविन्द बाबू के हाथ चारू की ओर बढ़े और उसको उठाकर अपनी गोद में बिठा लिया. उनके मन में कसक उभरी, “काश! उनको भी एक बेटी होती चारू जैसी... सरोज...” मन-विकार से पीड़ित गोविन्द बाबू ने सरोज के नाम को नामंजूर कर दिया. वह सोचने लगे. क्या उनके चरित्र रूपी गढ़ की चूलें सचमुच इतनी कमज़ोर हैं? ऐसा सोचना उनके लिए अप्रिय था. वह चारू से बतियाने लगे. बातों-बातों में उन्हें ज्ञात हुआ कि अगले इतवार को सरोज का जन्मदिन है. चारू कह रही थी, “पापा मम्मी के लिए कबी हली चूलियां नहीं लाते. अंकल, सन्दे को मम्मी का बड डे है. अपन बजाल छे हली चुलियां लायेंगे.” “हां, ज़रूर लायेंगे.” कहते हुए गोविन्द बाबू ख़ुश हो गए. इतवार को गोविन्द बाबू ख़ूब सज-धज गए थे. दाढ़ी बनाई. सिर में खिजाब लगाया. नये कपड़े पहन ख़ुद को आईने में निहारा. शाम को चारू को लेकर बाज़ार गए. हरे रंग की चूड़ियां ख़रीदीं और मुस्कान बिखेरते वह सरोज के दरवाज़े पर पहुंच गए. सरोज ने दरवाज़ा खोला. गोविन्द बाबू के बदले स्वरूप को देखकर वह दंग रह गई. उसके फूल से खिले-चेहरे की मुस्कान गायब हो गई. वह मुश्किल से कह पाई, “आइये.” पहले क़दम के साथ उन्होंने कहा, “सरोज, जन्मदिन मुबारक हो.” सरोज ने अनमनेपन से कहा, “धन्यवाद.” दूसरे क़दम के साथ वह सरोज के बिल्कुल सामने थे. उपहार का डिब्बा थमाते हुए उन्होंने फ़िल्मी अंदाज़ में कहा, “इस नाचीज़ की एक छोटी-सी भेंट.” औरत को अद्भुत ज्ञानेन्द्रिय बोध होता है, जिससे वह पुरुष के मन में बैठे चोर का पता लगा लेती है. सरोज गोविन्द बाबू के मन में बैठे चोर को देख रही थी. उसने डिब्बा खोला. कांच की हरी चूड़ियां जगमग कर रही थीं. उसे चक्कर आ गया. गोविन्द बाबू ने फुर्ती दिखाई. उन्होंने सरोज और चूड़ियों के डिब्बे को सजगता से संभाला. सरोज संभली तो उसकी आंखों में आंसू थे. उसने दर्द भरे स्वर में कहा, “आपकी शक्ल में अपने पापा को देखती हूं. मैं उन्हें बहुत प्यार करती थी.” गोविन्द बाबू पानी-पानी हो गए. वह फूट पड़े. उनकी आंखों से बहते आंसू उनके मन की मलिनता को धो गये थे. उनके मन रूपी खेत में चंदन के पावन पेड़ लहराने लगे थे. उनका मन सुवास से भर गया था. उन्होंने भर्राये कंठ से कहा, “बेटी.” पावन बाहुपाश के निमंत्रण को उसने स्वीकार लिया था. वह गोविन्द बाबू से लिपट गई थी. शाम का सूरज आकाश में सुनहरे रंग भर रहा था.- हरदान हर्ष
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