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कहानी- प्रतिहिंसा (Short Story- Pratihinsa)

उसे देखते ही बाबा के चेहरे की मांसपेशियां पुनः कठोर होने लगीं… आंखों में वहीं वहशीपन उतर आया. कुत्ते को कोंचने के लिए उन्होंने अपनी कुबड़ी तलाशी, कुबड़ी उनसे चार क़दम दूर पड़ी थी. उसे लेने वे ज्यों ही बढ़े, हड़बड़ाहट में गुलदस्ता लुढ़क गया. उनका चेहरा भय से एकदम सफ़ेद हो गया.

जुगुप्सा से मेरा मन कड़वा हो गया. उफ्, कितने क्रूर हैं ये वृद्ध बाबा? उस छोटे से कुत्ते को कुबड़ी (छड़ी) से कोंचे जा रहे हैं. ज़रा भी दया-ममता नहीं. यदि कोई इन्हें इसी तरह कोंचे तो? घृणा से मैंने मुंह फेर लिया.
अभी दो दिनों पूर्व ही में इस शहर में कंपनी के काम से आया था. साथ में मेरा असिस्टेंट निखिल भी था. रवाना होने के एक दिन पूर्व स्टोर्स सेक्शन के इंचार्ज संपतलाल मेरे घर आये थे, "मैंने सुना है निखिल भी आपके साथ चंद्रपुर जा रहा है?"
"हां."
"तो मेरा एक काम कर देंगे?"
"ज़रूर."
"मेरे साले साहब मेहरचंद वहीं रहते हैं. उनकी लड़की अमिता अब सयानी हो गई है, मेरी इच्छा है निखिल व उसकी जोड़ी जम जाये…"
"यह तो बड़ी अच्छी बात है." मैंने फोन उनके आगे कर दिया, "आप अभी उन्हें एस.टी.डी. कर दो."
"अभी नहीं. अभी किसी को कुछ नहीं बतलाना है. आप पहले निखिल को एक-दो बार वहां ले जाना. दोनों सहज भाव से एक-दूसरे को देख लेंगे. यदि आपको किंचित् भी आकर्षण महसूस हो तो आप चर्चा छेड़ देना."
"बड़ा अच्छा आइडिया है."

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बात मुझे भी जमी. मैंने डायरी में उनके साले साहब का पता नोट कर लिया. अगले दिन में व निखिल चंद्रपुर के लिए रवाना हुए दो रोज़ बाद फ़ुर्सत मिली तो हम संपतलाल की ससुराल गये, बैठक में संपतलाल के वृद्ध ससुर बैठे थे- अकेले… गुमसुम, उदास… आंखें बंद किये वे बैठे-बैठे ही झपकियां ले रहे थे.
हमारे पहुंचने पर उन्होंने धीरे से अपनी आंखें खोलीं, मैंने प्रणाम कर अपना परिचय दिया और आगे बढ़कर मिसेज़ संपतलाल का पत्र उनके हाथ में रख दिया,
बेटी का पत्र पढ़कर उनके होंठों पर क्षणिक मृदु-मुस्कान दौड़ गई. उन्होंने अंदर आवाज़ लगाई.
दो मिनट बाद एक बीस-इक्कीस वर्षीया युवती ने बैठक में प्रवेश किया. युवती सुंदर व स्मार्ट थी- निखिल को पसंद आने योग्य.
मैंने नमस्कार के आदान-प्रदान के बाद उसके पिता के बाबत पूछा.
"मम्मी-पापा यहीं कॉलोनी में काबरा अंकल के यहां गये हैं. उनके पिता की तबियत पूछने, बस, आते ही होंगे. आप बैठिये." उसने हमें पानी पिलाया और वापस अंदर चली गई.
मैं बाबा से बतियाने के लिए उनकी ओर मुखातिब हुआ, मगर इतनी सी देर में वे झपकी लेने लगे थे. मैं अख़बार उठा पढ़ने लगा. निखिल ने भी एक पत्रिका उठा ली.
उसी समय अंदर से एक छोटा-सा झबरा कुत्ता आया, कुत्ता बड़ा प्यारा था, कोई भी उसके संग खेलने की लालायित हो जाता. उसे देख में भी उसकी ओर आकर्षित हुआ, बूढ़े बाबा चौंककर जाग गए. अभी तक वे अलसाये से कुर्सी में धंसे झपकी ले रहे थे. कुत्ते को देखते ही उनकी नींद हिरण हो गई, एक झटके में वे तनकर बैठ गये, आंखों में शैतानी चमक उभर आई. उन्होंने उठाई अपनी कुबड़ी (छड़ी) और खच्च से कुत्ते के पेट में खोंप दी. यह इतने अप्रत्याशित ढंग से हुआ कि मैं व निखिल भौचक्के से रह गये. हमें अपनी ही आंखों पर सहसा विश्वास नहीं हुआ कि यह कमजोर वृद्ध इंसान ऐसा बचकाना, मगर क्रूर कर्म भी कर सकता है, उधर कुत्ता अचानक हुए इस हमले से बुरी तरह बिलबिला गया था. उसने भागने की कोशिश की, मगर बाबा ने उसे घेर लिया और लगातार कुबड़ी चुभोने लगे, कभी तुम पर, कभी पेट पर, कभी मुंह पर और कभी सीधे आंख पर पीड़ा से बिलबिलाता कुत्ता 'कें कें' करता इधर-उधर दुबकने लगा. यह देख बाबा की शैतानी चमक में और भी वृद्धि हो गई. उनके होंठों पर नाचती मुस्कान उस 'सेडिस्ट' (परपीड़क) की नाई लगती थी, जिसे दूसरों को पीड़ा पहुंचाने में अपरिमित मानसिक सुख-संतोष मिलता है.
में हैरत व वितृष्णा से यह सब देखता रह गया, कितना क्रूर है यह बुड्ढ़ा आदमी? जरा भी दया- ममता नहीं!
नफरत से मुंह फेर मैं बाहर सड़क की तरफ़ देखने लगा. बाबा का कुत्ते को सताना जारी था. उसकी 'कें कें' सुन अंदर से अमिता की आवाज आई, "ओफ् दादाजी, उसे फिर तंग करने लगे क्या? पता नहीं कैसी आदत है इनकी भी?" बड़बड़ाती हुई वह बाहर आने लगी. बाबा तत्क्षण कुर्सी में धंस ऊंघने लगे, अमिता बाहर आई तो उसे दादा नींद में ग़ाफ़िल दिखे. असमंजस में 'पता नहीं क्यों चिल्ला रहा था' बुदबुदा वह कुत्ते को ले अंदर चली गई.
बाबा ऊंघने का नाटक करते बैठे रहे.
मगर दो मिनट भी नहीं बीते थे कि कुत्ता मालकिन की नजर बचा वापस आ गया. वह शायद बंगले के बाहर जाना चाहता था. आहट पा बाबा की आंखें खुल गई. गुस्से से वे कुत्ते को घूरने लगे, देखता हूं, कैसे जाता है?"
तभी पंखे से टकराकर एक चिड़िया तड़फड़ाती हुई नीचे गिरी. उसके डेनों से खून निकल रहा था. गलीचे पर पड़ी पीड़ा से बह छटपटाने लगी, यह देख कुत्ता उसकी ओर लपका, मगर उसके पूर्व ही बाबा ने कुबड़ी घुमाकर उसके मुंह पर मारी, निशाना अचूक था, पीड़ा से बिलबिलाता कुत्ता अंदर भागा.
चिड़िया चीं-चीं करती अब भी तड़प रही थी. कुबड़ी पर जोर दे बाबा धीरे से उठे और कांपते डग भरते हुए चिड़िया के पास आकर बैठ गये, कुबड़ी एक ओर रख उन्होंने चिड़िया को उठाया. चिड़िया लंबी-लंबी सांसें ले रही थी. बाबा उसे सहलाते हुए खिड़की के पास आये. खिड़की की पाटी क़रीब एक फुट चौड़ी थी. उस पर लिटा बाबा ड्रॉअर में से डेटॉल, रूई, मलहम, पाउडर इत्यादि निकालने लगे. पूर्ण मनोयोग से वे चिड़िया की तिमारदारी में जुट गये थे. उस वक़्त उनकी आंखों का सारा वहशीपन ग़ायब हो चुका था. वहशीपन की जगह अब असीम कोमलता और स्निग्धता ने ले ली थी. ज्यों-ज्यों चिड़िया का तड़फड़ाना कम हो रहा था और उसमें दुबारा उड़ने की हिम्मत व ताक़त आती जा रही थी, उनके मुख पर शांति व संतोष की आभा पल-पल बढ़ती जा रही थी. पांच मिनट की सेवा-सुश्रुषा के बाद चिड़िया पुनः उड़ने योग्य हो गई. यह देख उल्लासित भाव से बाबा ने चिड़िया को थपथपाया… उड़ने लिए प्रोत्साहित किया. दो मिनट चिड़िया पंखों को तौलती रही… एक-दो बार असफल हुई… और फिर फुर्र से उड़ गई. बाबा बच्चों की तरह तालियां पीटने लगे, संतोष की सांस लेते हुए वे प्रफुल्लित नयन से चिड़िया को दूर जाते देखते रहे…
उसी वक़्त कुत्ता अंदर से वापस आ गया.
उसे देखते ही बाबा के चेहरे की मांसपेशियां पुनः कठोर होने लगीं… आंखों में वहीं वहशीपन उतर आया. कुत्ते को कोंचने के लिए उन्होंने अपनी कुबड़ी तलाशी, कुबड़ी उनसे चार क़दम दूर पड़ी थी. उसे लेने वे ज्यों ही बढ़े, हड़बड़ाहट में गुलदस्ता लुढ़क गया. उनका चेहरा भय से एकदम सफ़ेद हो गया. घबराकर वे गिरते गुलदस्ते को थामने पलटे, गुलदस्ता तो उन्होंने पकड़ लिया, मगर इस जल्दीबाजी में उनकी कोहनी दो जगह से छिल गई. अपनी चोटों की रत्तीभर परवाह न कर उन्होंने भयभीत निगाहों से अंदर देखा और लुढ़की तिपाई वापस खड़ी कर थरथराते हाथों से गुलदस्ता उस पर जमा दिया. उनके दिल की धड़कन बहुत तेज चल रही थी और आंखों में भय की दहशत भी अभी तक क्रायम थी. कांपते हुए वे कुर्सी में धंस गये. मैं हैरत से यह सब देखे जा रहा था. मेरे मन में तरह-तरह के विचार घुमड़ने लगे. तभी बाहर से स्कूटर रुकने की आवाज आई. अगले ही क्षण मेहरचंद अपनी पत्नी बेला रानी के साथ आ गये. परिचय के आदान-प्रदान के बाद हम बातें करने लगे. तब तक उनकी आवाज सुन कुत्ता भी आ गया, वह उनके पैरों में लोटने लगा. मेहरचंद ने उसे गोद में उठा लिया और हमसे बतियाते रहे.
इस कालखंड में बाबा अपने में खोये सिर झुकाये बैठे रहे मौन… गुमसुम. चर्चा उनकी बेटी की चल रही थी, बेटी के परिवार की चल रही थी, मगर वे उपेक्षित से अलग-थलग बैठे थे. बीच बीच में उनकी छिली कोहनी पर रक्त की बूंदें चमक उठतीं, जिसे पोपले होंठों को भींच वे हथेली से पोंछ लेते.

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मैंने यह बात नोट की, मगर उनके बेटे के ध्यान में यह बात नहीं आई. उनके सपूत तो अपनी गोद में खेल रहे 'अपने कुत्ते' का मुंह चिंतित निगाहों से देख रहे थे, जिसकी चमड़ी शायद (कुबड़ी से) कुछ छिली हुई थी. हमें बातें करते हुए दस मिनट बीत गये. बेला देवी इस दरम्यान उठकर अंदर जा चुकी थीं, बाहर आकर उन्होंने हाथ जोड़ विनम्रता से आग्रह किया, "थालियां लगा दी हैं, प्लीज… आइये, पधारिये…" हम दोनों भोजन करके आये थे. लिहाज़ा विनम्रतापूर्वक माफ़ी मांग ली. लेकिन दोनों पति-पत्नी जिद करने लगे, “घंटे भर में पच गया होगा. हमारे साथ भोजन कर लीजिए, अभी हमें भी भोजन करना है." उनके हठ के सम्मुख सिर झुका हमें नाश्ता करना स्वीकार करना पड़ा. जिस वक़्त मेहरचंद दम्पति हमसे मनुहार कर रहे थे, मैंने सामने लगे आईने में देखा - बेला देवी ने ज्यों ही हमसे कहा, "… आपको अमिता के हाथ का मिल्क केक लेना ही पड़ेगा… बहुत अच्छा बनाती है, सभी को बेहद पसंद आता है…", बाबा किसी छोटे- से नादान बालक की तरह 'मेरे लिए भी' की सांकेतिक गुहार करने लगे, मेहरचंद ने (हमसे सयत्न छुपाकर) आंखों ही आंखों में उन्हें घुड़क दिया. बेचारे बाबा सहमकर कुर्सी में दुबककर रह गए.
अमिता दो प्लेटों में मिल्क केक लाई. बाबा मुंह लटकाये बैठे थे. प्लेट थामते हुए मैंने तिरछी निगाहों से दो बातें एक साथ गौर कीं. मिल्क केक देखते ही जहां बाबा की आंखें ललचा गई थीं, मेहरचंद की गोदी में मस्ती कर रहा कुत्ता भी 'कूं कूं' करने लगा था.
मेहरचंद ने अपने जन्मदाता पिता की तरसती आंखों पर तो ध्यान नहीं दिया, मगर अपने कुत्ते के मचलने पर उनके स्वर में अप्रतिम आह्लाद छा गया, "ओ हो… हमारे सिल्की को भी चाहिए मिल्क केक… मिल्क केक देखते ही मचल उठते हैं नवाब साहब… अरे अमिताऽ… सिल्की के लिए भी लाना दो पीस…"
"…!" मेरे हाथ का कौर हाथ में ही रह गया. मैंने झुकी-झुकी तिरछी नज़रों से बाबा की ओर देखा. उनके अपमान से विक्षुब्ध चेहरे पर उभर आए भाव दिल को चीर देनेवाले थे… पिता की स्पष्ट इच्छा का तो कोई ध्यान नहीं?.. उस कुत्ते की औलाद के लिए झट आवाज़ दे दी? मैं स्तब्ध रह गया. बड़ा विचित्र और जुगुप्साभरा पल था वह. बरसों बीत गये उस पल को. मगर वह पल…? उस पल, उस असहाय वृद्ध की आंखों में छायी अपमान, उपेक्षा, लाचारगी, हताशा की पीड़ा की चुभन को आज तक नहीं भूल पाया हूं.
और उस पल क्या सिर्फ़ वे वृद्ध बाबा ही अपमानित महसूस कर बाबा ही उस पल हम दोनों (निखिल व मैं) भी अपने आपको अपमानजनक स्थिति में पा रहे थे.
मगर हमारी मनःस्थिति से बेखबर मेहरचंद पूर्ण तन्मयता से अपने प्यारे कुत्ते को मिठाई खिलाते हुए हमसे नॉन-स्टॉप बतियाते जा रहे थे. उनकी पत्नी भी बेटी की पाक-कला की तारीफ़ें करती और हमसे मिल्क केक लेने के लिए आग्रह पर आग्रह किये जा रही थी. उधर उनके वृद्ध तात् श्री का मचलना जारी था..! मुझे सामने आईने में स्पष्ट नज़र आ रहा था. वे कुर्सी पर पहलू बदल-बदलकर 'मेरे लिए भी' की मौन गुहार किये जा रहे थे. आख़िर (गोया उनकी 'उदंडता' से परेशान हो 'अरे इनको भी एक टुकड़ा डालना' के खीझ भरे अंदाज़ में) मेहरचंद ने बिटिया रानी को आवाज़ लगाई, "अमिताऽ… अपने दादाजी को भी दे देना बेटी…"
"…!" सुनते ही वृद्ध बाबा के चेहरे पर संतोष व ख़ुशी के भाव दौड़ गये, वे बेसब्री से अंदर की ओर देखने लगे. जैसे ही पोती प्लेट लेकर उनके सामने आई, अधीरता से प्लेट झपट 'बकर बकर' खाने लगे.

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मेरा मन वितृष्णा से भर उठा. उसी समय अंदर फोन की घंटी बजी, मेहरचंद के ससुर का फोन था, अतः मेहरचंद तेजी से लपककर गये, मानो लार्ड गवर्नर ने तलब किया हो.
उनके अंदर जाते ही बाबा को सुनहरा अवसर मिला. उनका चेहरा कठोर हो गया, आंखें प्रतिहिंसा से जलने लगीं. कुत्ते की तरफ़दारी करनेवाला फ़िलहाल कमरे में कोई नहीं था. ज़िंदगी? बिना एक पल गंवाये उन्होंने खच्च् से कुबड़ी उसके पेट में खोंप दी!
एकाएक हुए इस हमले से घबराकर वह उछल पड़ा. बाबा की आंखों में बदला ले लिये जाने की ख़ुशी की चमक थी. उधर कुत्ता मालिक की उपस्थिति में कोंचे जाने से बेहद क्षुब्ध था, वह रोषपूर्ण नज़रों से बाबा को देख गुरनि वाला था कि बाबा ने कुबड़ी उसकी आंख में कोंच दी- 'ले! आंख दिखाता है?"…कुत्ता बिलबिलाकर सोफे के नीचे छुप गया. बाबा के चेहरे पर अजीब तृप्ति के भाव छा गये.
मेहरचंद की ससुर से बात पूरी हो चुकी थी. उन्होंने अत्यंत आदरपूर्वक अपने ससुर को एक बार पुनः प्रणाम कहा और फोन रख दिया. वे बाहर आने लगे. उधर कान लगाये बाबा ने झट कुबड़ी बाजू में रखी और प्लेट उठा मासूमियत से खाने लगे. मेरा हृदय भर आया.
उस अशक्त वृद्ध इंसान का सारा व्यवहार मेरी समझ में आ गया था. बीते कल के गृहस्वामी की आज उसी के खून-पसीने से निर्मित घर में क्या हैसियत है..? बेटे-बहू का व्यवहार कैसा है..? कुछ न पूछते हुए भी खुली किताब सा स्पष्ट हो गया था सब कुछ. कुत्ते के प्रति उनकी प्रतिहिंसा भी मेरी समझ में आ गई थी. मगर एक बात आज तक समझ में नहीं आई कि उनके मन की पीड़ा का असल कारण क्या था- स्वयं की कुत्ते जैसी अपमानजनक ज़िंदगी या उस कुत्ते की शाही इज्ज़तदार ज़िंदगी?

- प्रकाश माहेश्वरी

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