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कहानी- प्रेम गली अति सांकरी… (Short Story- Prem Gali Ati Sankari…)

इस रिश्ते का नाम मुझे नहीं पता था, लेकिन मन का हाल ज़रूर पता था. शेखर को इस तरह छोड़कर जाना संभव ही नहीं था. न यहां से जाना अच्छा लग रहा था, न अमेरिका में बैठे प्रणव से ये सब छुपाना अच्छा लग रहा था. कितनी बार मन में आया उसको बता दूं. पता नहीं मन के भीतर बैठा कौन सा डर मुझे यह सब कहने नहीं देता था.

मैंने अस्पताल में घुसते ही सबसे पहले यही एक सवाल पूछ लिया था, “वो ठीक हैं न?”
आईसीयू के बाहर बैठी भाभी ने गर्दन हां में हिला दी थी. फैमिली के और भी लोग थे. सब डॉक्टर से बात कर रहे थे. मेरे हाथ-पैर ठंडे पड़े हुए थे, मई की दोपहर में भी. आईसीयू के बाहर बेंच पर बैठते ही मैंने आंखें मूंद ली थीं. जो मंत्र, जितनी प्रार्थना याद थी, सब एक के बाद एक अपने आप मन में आता रहा और साथ ही भाभी का आया वो मैसेज भी, दिल्ली पहुंचते ही इस अस्पताल पहुंच जाना. शेखर हॉस्पिटल में है. लिवर ट्रांसप्लांट
हुआ है.
मन फिर हड़बड़ा गया… सब ठीक होगा. अपने को समझाती हुई मैं ध्यान भटकाती कि फिर कोई डर मन ख़ऱाब कर जाता. दो आंसू गाल पर गिर पड़े. कब से हम नहीं मिले, आज मिल भी रहे हैं तो कहां, अस्पताल में! वो मुलाक़ात याद आने लगी, क़रीब दो साल पहले, जब हम पहली बार मिले थे…
दिल्ली के जनपथ बाज़ार में चमक उस दिन कुछ ज़्यादा ही थी. जाता हुआ नवंबर सर्दी को तेज़ आवाज़ देकर बुला चुका था. हवा में खुश्की थी, लेकिन गुनगुनी धूप सब कुछ ठीक कर दे रही थी. मैंने क़रीब दस मिनट तक मोलभाव करते हुए एक दुपट्टा लगभग तिहाई दाम पर ख़रीद लिया था. अपनी इस विजय पर इतराती हुई मैं आगे बढ़ी ही थी कि एक आवाज़ मुझे चौंका गई थी, “इतने रुपए बचाकर मकान ख़रीद लेंगी क्या?”
मैंने पलटकर देखा, ढीला-ढाला कुर्ता और फेडेड जींस पहने हुए वो शख़्स आख़िर कहना क्या चाहता था? और… और वो मुझसे ही कह रहा था क्या?
“आप मुझसे कुछ कह रहे हैं?”
मेरे पूछते ही वो बड़ी ढिठाई से हां कहते हुए मेरी ओर बढ़ आया था, “हां, आपसे ही पूछ रहा था. बारह सौ से चार सौ पर लाकर आपने जो आठ सौ रुपए बचाए, उनका क्या करेंगी? पिज़्ज़ा पर न्योछावर कर देंगी या फिर किसी स्लिंग बैग पर? लिपस्टिक या फिर…”
“आपको इससे क्या?”
मैंने तुरंत उसकी बात काट दी थी. ये होता कौन है मुझे ज्ञान देनेवाला? वो अभी भी मुस्कुरा रहा था.
“रिश्तेदार मान लीजिए… आप अन्विता हैं न, बनारस से?”
मैंने पूरी शक्ति लगाकर दिमाग़ के सारे कोने खोज लिए, कौन है ये?
“हां, मैं अन्विता हूं, लेकिन आप…”
“मैं शेखर, आपकी भाभी का कज़िन! आपने मुझे नहीं पहचाना होगा, लेकिन शादी में आपको मैंने देखा था. दीदी ने बताया था कि आप भी दिल्ली में हैं, ये नहीं पता था कि इस तरह यहां मिलना होगा.”
“ओह… हां!” सब कुछ जुड़कर समझ में आने लगा था. शेखर, भाभी का कज़िन. ये प्रोफेसर हैं. हां, याद आया, भाभी ने एक बार कहा भी था कि मिल लेना.
“सॉरी शेखरजी, पहचान नहीं पाई.” मैं झेंपकर रह गई थी!
“सॉरी से काम नहीं चलेगा. वो जो रुपए बचाए हैं, उनकी चाय पिला दीजिए, ठंड तो है ही.”

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थोड़ी ही देर में हम दोनों चाय की दुकान पर बैठे बातों में मशगूल हो चुके थे. मैंने कुछ सोच कर पूछा, “वैसे आपने मुझे जिस बात के लिए टोका था, क्या वो सच था? आई मीन आपको लगता है कि इस तरह मोल-भाव नहीं करना चाहिए. जो भी दाम बताया जाए, उसी पर ख़रीद लेना चाहिए?”
शेखर ने बड़ी गंभीरता से बोलना शुरू किया, “ऐसा नहीं है. अगर आपको लग रहा है कि क़ीमत ज़्यादा है, तो थोड़ा-बहुत मोल-भाव ठीक है, लेकिन इतना ज़्यादा? उन 800 रुपए से आपको कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता होगा जितना उनको पड़ता है… मान लीजिए महीनेभर का आटा ख़रीदा जा सकता है उनके घरों में!”
इस तरह मैंने कभी सोचा ही नहीं था. मन अचानक ख़राब हो गया था… कितनी गहरी बात थी ये! 800 ख़र्च करते समय मैंने इससे पहले कभी इतना नहीं सोचा था जितना उसको बचाने के लिए मशक्कत की थी. चाय का कप नीचे रखते हुए मैंने कहा, “एक मिनट… मैं रुपए देकर आती हूं.”
शेखर ने फिर रोक लिया था, “ऐसे नहीं, उसका भी तो आत्मसम्मान है! एक-दो दिन बाद जाकर मुंह मांगे दाम पर कुछ और ख़रीद लीजिएगा, हिसाब बराबर हो जाएगा.”
मैं बस मुस्कुरा कर रह गई थी! पता नहीं दिल में क्या आया कि वो चाय ख़त्म करने के बाद मैंने ख़ुद ही दो चाय का ऑर्डर और कर दिया था. पता नहीं मैं क्या चाहती थी, चाय ख़त्म ना हो या हमारी बातों का सिलसिला यूं ही चलता रहे. उस दिन के बाद से, सब कुछ पर्याप्त मात्रा में मिलता रहा. चाय भी, धूप भी, बातें भी, शेखर का साथ भी.


“मुझे आज तक एक बात नहीं समझ में आई, आपने अचानक मार्केट में देखकर मुझे पहचान कैसे लिया था?”
जब दोस्ती ने थोड़ा और गहरा रंग लिया, तब मैंने मन में छुपा सवाल शेखर से पूछ लिया था. शेखर ने मेरी ओर बेहद गहरी नज़रों से देखते हुए एक और सवाल उछाल दिया था, “तुमको यह बात पूछने की ज़रूरत पड़ी भी कैसे?”
शेखर अचानक आप से तुम पर आ गए थे, मैं अचकचा कर रह गई… और फिर यह सवाल! इसका क्या मतलब था? मेरी नज़रें झुक गई थीं. शेखर ने फिर कहा, “बताओ ना! तुम ख़ुद इसका जवाब दो, मैं तुमको कैसे पहचान गया? अच्छा बताओ, हम किसको पहचान जाते हैं, वही ना जिसको बहुत गौर से देखा हो… शादी से आने के बाद मैं तुम्हारे बारे में इतना सोचता रहा, कितनी तो फोटो है मेरे पास तुम्हारी…”
31 दिसंबर की शाम थी वो! पुराना साल जा रहा था. नया साल पूरे के साथ आने की तैयारी में था और इसी के साथ कुछ और भी था जो मेरे जीवन में आनेवाला था. शेखर जिस तरह से मुझसे पूछते जा रहे थे, मेरे पास कोई जवाब नहीं था. शेखर ही बोलते जा रहे थे, “कई बार सोचा कि दीदी से तुम्हारा फोन नंबर लूं. फिर लगा ऐसा ठीक नहीं होगा और देखो ना अचानक तुम मिल ही गई.”
इतना कहते हुए शेखर ने अपनी हथेली मेरी
हथेली पर रख दी थी. झटके से चौंककर मैंने अपना हाथ पीछे कर लिया था. इतना सब कुछ इतनी जल्दी? यक़ीन करूं या ना करूं? मन के कोने से आवाज़ आ रही थी, ‘हाथ क्यों खींच लिया? यही तो चाहती थी तुम… कह दो कि तुमको शेखर पसंद नहीं?..’
“अंधेरा हो रहा है, वापस जाना है… रूममेट इंतज़ार कर रही होगी.”
हड़बड़ाकर बस मैं इतना ही कह पाई. शेखर ने मायूस होकर पूछ लिया था, “कल कब मिलना है?”
“ऑफिस है… मुश्किल होगा आना.” पर्स में फोन रखते हुए मैंने किसी तरह
इतना कहा.
शेखर हंसने लगे थे, “कुछ और झूठ बोल देती! संडे को ऑफिस है, ये थोड़ा ज़्यादा नहीं हो गया? मैं फोन का वेट करूंगा…”
किसी तरह वो रात बीती, अगले दिन पता नहीं मेरे भीतर बैठी कौन थी, जो मुझे शेखर तक खींच कर ले गई थी. साल की शुरुआत थी, नए रिश्ते की भी! दिन पंख लगाकर उड़े, महक को महसूस करते, रंग बिखेरते… बिल्कुल तितलियों की तरह और जब रुके, तो न रंग बाकी बचा था, न महक! उससे ज़्यादा नाराज़ मैंने शेखर को कभी नहीं देखा था, जितना उस दिन!
“कम ऑन अन्विता, तुमने मेरी दीदी मतलब अपनी भाभी से ये सब क्या बकवास कर दी है?” मैं सहम गई थी, “बकवास नहीं की है शेखर.अपने रिश्ते का सच बताया है. किसी फैमिली को तो शुरुआत करनी ही होगी न. आप थोड़ा रुककर बात करनेवाले थे क्या..?”
शेखर ने झुंझलाकर कहा था, “फैमिली से क्यों बात करनी है लेकिन… तुम कहीं शादी-वादी के बारे में तो नहीं सोच
रही हो न?”
बड़ी मुश्किल से मैं अपना रोना रोककर कह पाई थी, “हां, शादी के… शादी के बारे में ही तो…”
शेखर हैरानी से मेरा चेहरा ताकते रह गए थे, “मुझे लगा था कि तुम आज की लड़की हो… प्रोग्रेसिव सोच रखती होगी… तुम तो कम से कम इन बंधनों के बारे में नहीं सोचोगी, लेकिन निकली तुम भी वही…”

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शेखर का कहा एक-एक शब्द मुझ पर अंगारा बनकर गिरता रहा. बंधन? प्रोग्रेसिव सोच? कहना क्या चाहते थे वो? कुछ दिन तो एक-दूसरे को समझने-समझाने में ख़र्च हुए. फिर जैसे-जैसे दिन बीतते गए, दरकते रिश्ते के बीच बढ़ती खाई थोड़ी और चौड़ी होती गई, इतनी चौड़ी कि जिसको पाटना संभव नहीं रहा!
इस शहर की हर जगह शेखर का नाम लेकर चिढ़ाती थी. नौकरी बदली, शहर बदला. दुख ही था, जो साथ रहा हर जगह!
“तुम कहो तो मैं बात करूं शेखर से?” मम्मी ने मेरी हालत पर तरस खाकर पूछा होगा. मैंने हाथ जोड़ लिए थे, “नहीं मम्मी, भीख नहीं चाहिए मुझे. वैसे भी अब जाना ही है मुझे.”
कुछ महीनों में देश भी छूटा! कंपनी के नए प्रोजेक्ट से जुड़कर यूएसए जाना शायद क़िस्मत की ही कोई चाल रही होगी. नया देश, नया ऑफिस, नए कलीग!
उस दिन पूरी टीम के साथ बैठी दिल्ली की खासियत बता रही थी कि तभी एक लड़का लगभग दौड़ता हुआ आकर मेरी टेबल के पास आकर रुक गया था, “तुम भी दिल्ली से हो?.. हाय, आई एम प्रणव.”
उसने गर्मजोशी से हाथ आगे बढ़ा दिया था, मैं बस मुस्कुरा कर रह गई थी. उससे बात करने में मुझे बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं थी. एकाध बार पहले भी उसे देखा था. हर समय वही हंसी-मज़ाक, मौज-मस्ती, ब़ड़ा अजीब सा लगता था मुझे! मैं जितना टालने की कोशिश करती, मुझे लगता वो उतना ही ज़्यादा आसपास रहने की कोशिश करता. उस शाम भी तो यही हुआ, मैंने घर जाने के लिए बैग उठाया ही था कि वो अचानक दिख गया, “अरे, तुम अब तक गई नहीं? चलो, साथ में ही निकलते हैं. वैसे तुम दिल्ली में कहां से हो? अब दिल्ली कोई छोटी-मोटी जगह तो है नहीं, स्टेट है पूरा. है कि नहीं…”
ये तो पूरी दुनिया जानती है कि दिल्ली एक राज्य है, ऐसा कौन सा राज़ बता दिया इसने मुझे? मैं कम से कम जवाब देते हुए पार्किंग तक आ पहुंची, वो अभी भी वहीं था, “इस वीकेंड हम लोग एक इंडियन रेस्ट्रां जा रहे हैं, तुम भी चलो प्लीज़! बहुत अच्छा खाना, छोले कुलचे, एकदम दिल्ली वाले… मना मत करना…”
मैं मना कर भी नहीं पाई. कितने दिन हो गए थे बाहर निकले हुए, ढंग का इंडियन खाना खाए हुए… मैंने तुरंत ‘हां’ कर दी थी, अपनी इस जल्दबाज़ी पर मुझे हैरानी हुई थी, लेकिन इससे भी ज़्यादा हैरानी प्रणव के बताए हुए एड्रेस पर पहुंचने पर हुई. वहां हम दोनों के सिवा ऑफिस का कोई भी नहीं था.
“बाकी सब अभी तक आए नहीं?” मैंने आसपास देखते हुए पूछा था. प्रणव ने नज़रें चुराते हुए मेनू की ओर इशारा कर दिया था, “बाकी लोगों का इंतज़ार तुम करो. मेरा इंतज़ार तो कुलचे कर रहे हैं…”
उस दिन हम दोनों ने कितना कुछ खा लिया था. पेट भर चुका था, मन भर ही नहीं रहा था. बातें दिल्ली की हुईं, बातें दिल्ली की बाज़ारों की हुईं, फिर घर-परिवार तक बढ़ आईं…
“मैं दिल्ली में रही हूं लंबे समय तक… फिर शिफ्ट हो गई थी.”


मेरे बताते ही उसने चौंककर पूछा, “कोई दिल्ली कैसे छोड़ सकता है? कहते हैं कि दिल टूटता है, तभी दिल्ली छूटती है…” कहते ही उसने जैसे ही एक ठहाका लगाया था, ठीक उसी वक़्त मेरा चेहरा स़फेद हो गया था!
दस मिनट के अंदर ही मैं वहां से निकल आई थी, लेकिन पूरी रात दिल्ली की उन्हीं यादों में डूबती-उतराती रही थी. अगले दिन संडे था, बिस्तर में दुबकी रही. मन भी दुबका रहा, सहमा-सहमा, भीगा-भीगा! कितने फोन कॉल्स, मैसेज बीप-बीप करके उपस्थिति दर्ज कराते रहे, मैं जैसे वहां थी ही नहीं!
अगले दिन ऑफिस पहुंचते ही टेबल देखकर चौंक गई! स़फेद फूलों का एक गुच्छा और ’आई एम सॉरी’ लिखा एक कार्ड… मैंने जैसे ही कार्ड हाथ में लिया, ठीक तभी सॉरी लिखनेवाला मेरे क्यूबिकल के पास आकर रुक गया था, “मुझे पता है, मैं बोलने से पहले सोचता नहीं… ट्राई करूंगा कि ये आदत बदल पाऊं… आई एम रियली सॉरी…”
बोलते हुए  प्रणव ने अपना बायां हाथ, बाएं कान पर लगा लिया था. ख़ुद को रोकते-रोकते भी मैं हंस पड़ी थी. मुझे यक़ीन नहीं हुआ, लेकिन ऐसा हुआ था. लंबे समय से गंदा पानी मन में भरा हुआ था, प्रणव के फेंके पत्थर ने हलचल मचाकर, वो गंदगी दिखा तो दी थी कम से कम… कल दिनभर रोकर वो सब मैंने बाहर भी कर दी होगी, तभी मन आज साफ़ था. मुस्कुराते हुए अब अच्छा लगने लगा था. लोगों से बात करना अच्छा लगने लगा था, सड़कों पर टहलना भी! कितने दिनों बाद कुछ शॉपिंग भी की!
‘थैंक्स’ एक कार्ड मैं भी प्रणव की टेबल पर रख आई थी, जिसके बाद उसने फिर से छोले-कुलचे खाने की ज़िद कर ली थी. एक बार फिर हम वहीं बैठे थे. और फिर से वही बात छेड़ दी थी. इस बार मैंने ही सब बताना शुरू किया था.
“बस ये सब हुआ. फिर ब्रेकअप के बाद दिल्ली छूट गई.”
“अब तुम ठीक हो?” प्रणव ने बहुत भोलेपन से पूछा था. मैंने एक गहरी सांस खींचकर कहा था, “हां, अब ठीक हूं. मुझे नहीं लगता था कि तुम सेंसिटिव भी हो.”
और भी बहुत कुछ था जो वैसा नहीं था जैसा मुझे लगता था. हंसी-मज़ाक करता वो लड़का भीतर से कितना संजीदा था, ये बीतते वक़्त के साथ मुझे पता चला. इतना ज़्यादा ध्यान मेरा रखता था, मानो मैं कांच की बनी हुई हूं. अक्सर पूछता था, “तुम उदास तो नहीं हो न?”
हम मैत्री सूत्र में बंधते चले गए. नहीं, हम नहीं… शायद मैं अकेली उसको दोस्त मानती थी. उसकी नज़रों से देखो तो रिश्ता किसी और मोड़ पर जा टिका था. उस दिन घर आया, तो काफ़ी गंभीर था, “अन्विता, घुमा-फिरा कर नहीं कहना आता मुझे… बस यही कहना चाह रहा था कि आगे की ज़िंदगी तुम्हारे साथ बिताना चाहता हूं. हमेशा…”

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मैं उसका चेहरा ही देखती रह गई, वो सिर खुजलाते हुए परेशान होकर बोला, “समझ जाओ न. शादी के लिए कह रहा हूं, अब ऐसे साइलेंट मत रहो, कुछ तो कहो…”
मैं कुछ कहने की स्थिति में ही नहीं थी. कोई और लड़की रहती, तो शायद गले में हाथ डालकर झूम जाती. ख़ुशी से बौरा जाती या फिर मना करना होता, तो तुरंत कह देती. मैं तो इन दोनों स्थितियों में नहीं थी. अतीत मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा था और ऐसे सुनहरे भविष्य को खोने का भी मन नहीं था.
“अन्विता, कुछ तो बोलो यार.”
मेरी डबडबाई आंखें देखकर प्रणव को घबराहट होने लगी थी, मैं बस इतना ही कह पाई थी, “शेखर को मैं अभी भी नहीं भूल पाई हूं. किसी नए रिश्ते की आधी-अधूरी शुरुआत नहीं करना चाहती हूं. मुझे थोड़ा टाइम दो प्लीज़…”
प्रणव मेरे पास आकर रुका, फिर मेरे गाल थपथपाकर बहुत प्यार से बोला, “मैं जवाब का इंतज़ार करूंगा. इंडिया जा रही हो न, वहां अगर मैं बहुत याद आऊं, तो वापस आकर हां बोल देना.”
उसकी इस समझदारी भरी बात पर आंखें छलक आई थीं. पूरे रास्ते मैं उसके बारे में ही सोचती रही. क्या पता था कि नया रिश्ता जुड़ने से पहले अतीत आकर खींच ले जाएगा. भारत आते ही शेखर की ख़बर मिली थी और मैं सीधे अस्पताल भागती हुई चली आई थी. अब इस समय सब कुछ धुंधला हो चुका था, याद था बस इतना कि शेखर, जिसको मैंने टूटकर चाहा था, वो इस समय अस्पताल के आईसीयू में था. इतनी कम उम्र में इतना बड़ा ऑपरेशन, लिवर ट्रांसप्लांट? डॉक्टर के वहां से जाते ही भाभी मेरे पास आई थीं.
अंदर जाने की मनाही थी, बस इतना जानना ही बहुत था कि शेखर ख़तरे से बाहर थे. भाभी बताती जा रही थीं, “डॉक्टर कह रहे हैं, अब टेंशन की कोई बात नही. शाम तक रूम में शिफ्ट कर देंगे. तुम एयरपोर्ट से सीधे आई हो न? चाय पियोगी?”
मैंने मना कर दिया था. बस एक बार शेखर को देखना था. जल्दी से जल्दी शाम तक का समय बड़ी मुश्किल से कटा. पता नहीं था कि उसके बाद का समय और मुश्किल होगा. शेखर हड्डियों का ढांचा रह गए थे. शक्ल पहचानना मुश्किल था. बमुश्किल अपनी रुलाई रोककर मैं मिली. कांपते हाथों से शेखर ने मेरा हाथ थाम लिया था.
“तुम आ गई, अब मैं ठीक हो जाऊंगा.”
मैं अगले चार दिन अस्पताल के पास ही होटल लेकर रुकी रही. सेवा-टहल करती रही. साथ ही बातें भी सुनती रही. बार-बार मम्मी-पापा का फोन आता, “निकलो वहां से, घर आओ. कौन है अब वो लड़का तुम्हारा? किस रिश्ते से इतनी सेवा कर रही हो?”
उनके इस सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं था. इस रिश्ते का नाम मुझे नहीं पता था, लेकिन मन का हाल ज़रूर पता था. शेखर को इस तरह छोड़कर जाना संभव ही नहीं था. न यहां से जाना अच्छा लग रहा था, न अमेरिका में बैठे प्रणव से ये सब छुपाना अच्छा लग रहा था. कितनी बार मन में आया उसको बता दूं. पता नहीं मन के भीतर बैठा कौन सा डर मुझे यह सब कहने नहीं देता था. जब ज़्यादा दुविधा फंसाती, तब सिर झटक कर फिर से शेखर को देखने अस्पताल आ जाती. धीरे-धीरे एक हफ़्ता बीत चुका था. शेखर घर जाने की हालत में थे.
कई दिनों से मैं देख रही थी कि उनके परिवार के लोग हम दोनों को देखकर मुस्कुराते थे. आपस में कुछ बातें भी करते थे और आज जान-बूझकर हम दोनों को कमरे में अकेला छोड़कर सब बाहर निकल जाते थे. शेखर तकिए का सहारा लेकर बैठने लगे, तो थोड़ा सा झुक गए. मैंने तुरंत उनको संभाल लिया था. शेखर ने मेरी आंखों में झांककर कहा, “तुम्हारे बिना संभल नहीं पाता हूं.”
मैंने कोई जवाब नहीं दिया, बस इतना पूछा, “इतनी हालत कैसे बिगड़ गई? शुरुआत में ही डॉक्टर को दिखाना चाहिए था न.”
“तुमको तकलीफ़ दी थी, उसी का फल होगा.”
शेखर कहीं दूर देखते हुए बोले. थोड़ी देर वैसे ही चुप रहे, फिर बोले, “तुम इंडिया कब आ रही हो, मतलब हमेशा के लिए?”
“कुछ महीने और लगेंगे… क्यों?”
मेरे पूछते ही शेखर के चेहरे पर मुस्कान फैल गई, “पापा-मम्मी को बहुत जल्दी है तुमको बहू बनाने की और अब मेरे लिए भी इंतज़ार करना बहुत मुश्किल है.”
इस बार फिर मैं चुपचाप खड़ी रह गई थी! होना तो यह चाहिए था कि मैं बिस्तर पर लेटे हुए शेखर से जाकर लिपट जाती, बिलखकर रो देती, कह देती कि कब से मुझे इसी पल का इंतज़ार था. लेकिन कह तो मैं कुछ और रही थी, “शेखर, आपने कभी जानना नहीं चाहा कि आपके जाने के बाद मैं कैसे रही?”
“मैं दीदी से, मतलब तुम्हारी भाभी से पूछता रहता था, सब पता था मुझे.” शेखर निश्‍चिंत होकर बोले जा रहे थे.
मैंने टोककर कहा, “क्या पता चलता रहता था आपको?”
“यही कि तुम दिल्ली छोड़कर दूसरे शहर में शिफ्ट हो गई थी. उसके बाद तुम अमेरिका चली गई प्रोजेक्ट करने… यही सब तुम्हारा हाल-चाल…”


मैंने गहरी सांस खींच कर शब्द जमा किए, “नहीं शेखर, हाल-चाल यह नहीं होता है! आपके जाने के बाद क्या हुआ, मैं आपको बताती हूं. मैंने खाना-पीना छोड़ दिया था. कमरे में अपने आपको बंद कर लिया था. कुछ दिनों तक मम्मी-पापा ने मुझे संभालने की कोशिश की. उसके बाद मुझे मेडिकल हेल्प लेनी पड़ी. डिप्रेशन की दवाओं और दुनियाभर की थेरेपी से मैं सामान्य लाइफ में वापस आई. मैं बीमार रही हूं बहुत लंबे समय तक, मानसिक रूप से… मैं तो बीमार रही ही और साथ में मेरे मम्मी-पापा भी इसी तकलीफ़ से गुज़रते रहे.”
शेखर एकदम से हड़बड़ा गए थे. उनके चेहरे पर अपराधबोध साफ़ दिखाई दे रहा था, “मैं जानता हूं अन्विता, मैं ग़लत था… लेकिन मेरा यक़ीन करो, अब मैं सब कुछ ठीक कर दूंगा. तुम यहां मेरे लिए ही आई हो.”
मैंने मुस्कुराते हुए उनकी हथेली थपथपा दी, “मेरे पास जब भाभी का मैसेज आया कि आपका इतना बड़ा ऑपरेशन हुआ है, तब मैं यहां आने से अपने को रोक नहीं पाई. और यहां आने के बाद आपकी हालत देखकर मेरी हिम्मत ही नहीं हुई कि आपको इस तरह छोड़ कर जाऊं. जो कुछ भी मैंने किया, वो मैंने अपने लिए किया… मुझे यह सब करना अच्छा लग रहा था. ये एक बहुत बड़ा सच है शेखर. लेकिन उसके साथ ही एक सच और भी है…”
मेरी साफ़ सपाट बातें सुनकर शेखर के चेहरे पर परेशानी झलक आई थी, “कैसा सच अन्विता?”
“अभी आपने कहा ना कि आप सब ठीक कर देंगे. आप भगवान नहीं हैं शेखर कि जब आप चाहेंगे बिगाड़ देंगे, जब आप चाहेंगे तब सब ठीक कर देंगे… कुछ मेरे हाथ में भी रहने दीजिए… आप अपनी तबीयत पर ध्यान दीजिए. अपना बिगाड़ा हुआ मैं ख़ुद ठीक कर लूंगी.”
इतना कहकर मैं पीछे हटने लगी थी. घड़ी देखी, बहुत समय हो चुका था, पिछले वक़्त में ठहरे हुए भी और आने वाले समय को इंतज़ार कराते हुए भी!
कमरे का दरवाज़ा खोलकर शेखर के पापा-मम्मी अंदर आ ही रहे थे कि मैंने विदा मांगते हुए हाथ जोड़ लिए. एक बार मुड़कर शेखर की ओर देखा… चेहरा उदास था, लेकिन मुझे विचलित नहीं कर पा रहा था. अस्पताल से होटल तक जाते हुए मैंने घड़ी देखी, इस समय अमेरिका में रात होगी… तो क्या हुआ, जगा ही देती हूं. प्रणव ने हड़बड़ा कर वीडियो कॉल उठाई थी, “क्या हुआ… इतनी रात को? सब ठीक? आर यू ओके?”
"हां प्रणव, कुछ अर्जेंट बात थी.”
मैं अपनी हंसी रोक रही थी, वो चौंककर बोला, “जल्दी बोलो न…”
“बस, मैं ये सोच रही थी कि शादी के बाद हम चंडीगढ़ बस जाएं तो? वहां के छोले-कुलचे बहुत अच्छे होते हैं, दिल्ली से भी ज़्यादा अच्छे…”
इतना बोलकर मैं खिलखिला उठी थी. प्रणव का चेहरा इस समय देखने लायक था. हैरानी से आंखें खुली हुई थीं, लेकिन कोई रोशनी आकर उसको घेर चुकी थी. और मेरा चेहरा… मेरा चेहरा इस समय ख़ुद सूरज बन के चमक रहा था!

Lucky Rajiv
लकी राजीव

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