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कहानी- पुनरावृत्ति (Short Story- Punravritti)

प्रीति सिन्हा

हर समय पति की धमकी कि उसे छोड़कर चला जाएगा, उसे मनाने, समझाने तथा परिवार से जोड़ने की कोशिश में अंदर से टूटती जा रही थी. परंतु अब भी उसे ज़िंदगी से विशेष शिकायत नहीं थी. पति से भी नहीं. शिकायत करती भी क्या? जिस व्यक्ति के साथ जीवन जी रही थी, उसका दो रूप था एक देवता का, दूसरा दानव का. जब देवता का रूप होता तो हमेशा यही कहता, "मैंने तुम्हें धन का सुख नहीं दिया है. क्या करूं मेरे भाग्य में ही खोट है. जी चाहता है दुनिया का सारा सुख तुम्हें दूं."
मगर दूसरे रूप की कल्पना से भी कांप उठती. निशा हमेशा यही सोचती कि पति से मैं प्रेम करूं या घृणा?

निशा आवाक रह गई… वही रूप, वही भावभंगिमा, वही उत्तेजना… जड़ हो गई वह. होंठ सूख गए, आवाज़ गुम हो गई… उसकी आंखें फैल गई… वही पुनरावृत्ति.
पूरे जीवन की तपस्या पल भर में समाप्त हो चुकी थी.
कहते हैं, मनुष्य के जीवन में दुख के बाद सुख ज़रूर आता है. निशा हर रोज़ अपने हाथों की लकीरों को पढ़ने की कोशिश करती और यही सोचा करती- मेरे जीवन में सुख कब आएगा?..
इसी सुख की आस में जीवन के पचास वर्ष किस तरह निकल गए उसे पता तक नहीं चला. संघर्ष करते-करते शरीर जर्जर और मन थक चुका था. सफ़ेद बाल और झुर्रियोंवाला शरीर लिए जीवन के प्रत्येक क्षण से जूझती निशा उम्र से ज़्यादा बूढ़ी दिखने लगी थी.
रात का सन्नाटा था. बिल्कुल शांत वातावरण, परंतु निशा के भीतर कितनी अशांति, कितनी उथल-पुथल मची थी. उसकी आंखों की नींद गायब थी. लगता था आज ह्रदय फट जाएगा. भीतर का वह सारा घुटन बाहर आकर चित्कार करना चाहता था, जिसे वह वर्षों से दबाई हुई थी.
यह सच ही तो था कितना कुछ उसके भीतर था, जिसे वह कभी बाहर नहीं निकाल पाई थी. कभी बाहर निकालना भी चाहा, तो समय का ऐसा ज़ोरदार तमाचा मिलता कि वह भीतर तक सिहर जाती और फिर से अपने आपको बंद कर लेती.
बड़े घर की बेटी निशा ने जब होश संभाला और पहली बार अपने भीतर से अपने आपको निकालना चाहा, तब तक मां का देहांत हो चुका था.
पिता ने दूसरा विवाह कर लिया था. उनकी अपनी दुनिया थी. निशा सिमटती चली गई. उसके जीवन का दूसरा दौर तब शुरू हुआ, जब कम उम्र में ही उसका विवाह कर दिया गया. इस दुनिया के सभी लोगों से उसे भरपूर प्यार मिला, परंतु जिस शख़्स के साथ उसे पूरी ज़िंदगी गुज़ारनी थी, उसकी प्रकृति बड़ी विचित्र थी. ऐसा नहीं था कि उसने निशा से कभी प्रेम नहीं किया था, बल्कि दोनों के प्रगाढ़ प्रेम की मिसाल पूरे परिवार में दी जाती थी. निशा भी ऐसा ही समझती थी, परंतु उस व्यक्ति की प्रेम की परिभाषा बड़ी विचित्र थी. स्वभाव से अय्याश, उसकी अपनी कुछ आवश्यकताएं थीं. उनके पूरा होने के बाद ही उसका प्रेम उमड़ता था, वरना दुनिया में उसका कोई अपना नहीं था.
हर औरत का सपना उसका ‘अपना घर’ होता है, परंतु निशा को ऐसा कोई घर नहीं मिला, जिसे वह ‘अपना’ कह पाती. अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्त उस व्यक्ति ने उसे एक रिश्तेदार की गृहस्थी में झोंक दिया. एक कमज़ोर पति के पत्नी के रूप में निशा अपने को बड़ा ही असुरक्षित महसूस करती. संयुक्त परिवार में नौकरों से भी बदतर स्थिति में दुख, तकलीफ़, अभाव के बीच संघर्ष करती निशा को पति के कंधे की आवश्यकता थी, जहां सिर रखकर वह अपने भीतर को खोल सके, पर यह उसे कभी नसीब नहीं हुआ.
निशा को सबसे ज़्यादा घबराहट उस व्यक्ति के क्रोधी स्वभाव से होती थी. प्रचंड क्रोध था उसका. ऐसा क्रोध जो कल्पना से परे था. उसे देखकर डर जाती, सहम जाती. उसे लगता था पूरे परिवार का विनाश हो जाएगा. भविष्य को देखकर कांप उठती वह. सिर पर छत और दो वक़्त की रोटी कहीं उससे छिन न जाए यही सोच कर कभी किसी से कुछ नहीं कहती.

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हर समय पति की धमकी कि उसे छोड़कर चला जाएगा, उसे मनाने, समझाने तथा परिवार से जोड़ने की कोशिश में अंदर से टूटती जा रही थी. परंतु अब भी उसे ज़िंदगी से विशेष शिकायत नहीं थी. पति से भी नहीं. शिकायत करती भी क्या? जिस व्यक्ति के साथ जीवन जी रही थी, उसका दो रूप था एक देवता का, दूसरा दानव का. जब देवता का रूप होता तो हमेशा यही कहता, "मैंने तुम्हें धन का सुख नहीं दिया है. क्या करूं मेरे भाग्य में ही खोट है. जी चाहता है दुनिया का सारा सुख तुम्हें दूं."
मगर दूसरे रूप की कल्पना से भी कांप उठती. निशा हमेशा यही सोचती कि पति से मैं प्रेम करूं या घृणा?
चाहकर भी वह घृणा नहीं कर पाई. उसका पति के प्रति कर्तव्य और प्रेम बढ़ता गया.
निशा के जीवन में एक बहुत बडा मो़ड़ तब आया, जब वह मां बनी. जीवन के प्रति उसकी आस जगी. एक बार फिर से वह सब कुछ भूल कर अपने जीवन को संवारने में जुट गई. पुत्र को जब भी देखती अपने आपको बड़ा ही सुरक्षित महसूस करती और सोचती- यह मेरा है. इसे मैं अपनी तरह का अपने ढंग का बनाऊंगी. यह सबसे अलग होगा. सामान्य लोगों से अलग. एक उच्च विचारोंवाला दृढ़ पुरुष, जो मेरे जीवन की सारी कमियों को पूरा करेगा. अपने पति का क्रोध, उसकी अय्याशी, उसके विचार इन सभी से दूर रखूंगी. मेरा बेटा नम्र होगा, वह किसी से घृणा नहीं करेगा. मेरी भावनाओं को समझेगा…
यह सोचते-सोचते उसकी आंंख लग जाती. सपने में भी वही रूप देखती, पति से बिल्कुल अलग. पुत्र का लालन-पालन निशा के लिए कठोर तप रहा. प्रारंभ से ही उसे अच्छे लोगों का साथ, अच्छा माहौल, अच्छी किताबें दी. सारी बुराइयों से उसे अलग रखा.
निशा के पुत्र को उसके पिता का प्यार नहीं मिला ऐसा नहीं था, मगर उस व्यक्ति के प्रेम का तो तरीक़ा ही अलग था. उसे ख़ूब प्यार करता. हमेशा उसे अपने जैसा बनाने की कोशिश करता. अभाव के दिनों में स्वयं भूखे रहकर उसे खिलाता. उसके कपड़े, उसके जूते, सबका ख़्याल रखता, मगर उसमें इतनी समझ नहीं थी कि पुत्र का भविष्य क्या होगा? आज दूसरे के रहम पर पल रहा है, कल को उसे निकाल दे तो क्या होगा ? उसकी शिक्षा-दीक्षा कैसे होगी, क्योंकि वह जितना भी कमाता, वह तो उसके परिवार के भोजन के लिए भी पर्याप्त नहीं था. मगर निशा की तपस्या ने उसके पुत्र को उच्च विचारोंवाला शिक्षित व्यक्ति बनाया, जिसे देखकर वह भावविभोर हो उठती.
शरीर और मन दोनों से बूढ़ी हो चुकी निशा के जीवन में एक दूसरा दौर फिर आया और वह फिर से 'अपना घर' का सपना देखने लगी. अपने पूरे अस्तित्व को ढूंढ़ने लगी थी, जो वर्षों पहले खो गया था. हमेशा दूसरों के साथ रहते-रहते जहां हर पल उसे एहसास दिलाया जाता कि तुम दूसरे के घर में, दूसरे के रहम पर ज़िंदा हो. आज पुत्र से इस कमी को पूरा करना चाहती थी. उसकी यह कमी पूरी हो गई. पिता और पुत्र के साथ वह 'अपने घर' में आ गई. उसे लगा कि जीवन की सारी ख़ुशी मिल गई. जीवन कितना आसान लगने लगा था. एक क्षण में वह सारा संघर्ष, दुख, तकलीफ़ भूल गई. हर पल उत्साहित और पूर्ण स्फूर्ति के साथ अपने नए घर को सजाने-संवारने में जुट गई थी. हंसती हुई निशा हमेशा यही सोचा करती.
यह सुख-दुख का खेल जीवन में क्यों चलता है?
मगर उसके जीवन में सुख आया ही कहां था, जिसे वह भूल से सुख समझ रही थी, वह सुख कहां था? वह तो उसके संघर्ष की दूसरी कहानी थी.
शुरू से ही निशा ने अपने पुत्र के सामने पिता की किसी बुराइयों को आने नहीं दिया था. उसकी सारी अच्छाइयों को सामने लाती. पिता के प्रति प्रेम और आदर पुत्र के मन में भरती रही. परंतु जिस चीज़ को वह सालों से बचाती आ रही थी, इस नए घर में धीरे-धीरे खुलने लगा था. निशा का पुत्र पिता के क़रीब जाने लगा था. वह जैसे-जैसे क़रीब जाने लगा, निशा की घबराहट बढ़ती गई. वह हमेशा यही देखती कि वह अपने उच्च विचारों से अपने पिता को तौलता और जब वह उस की कसौटी पर खरा नहीं उतरता, तो उसमें चिड़चिड़ापन भर जाता. हमेशा कहता, "मां, ये किसी बात को क्यों नहीं समझते? यह किसी बात को मानते क्यों नहीं ? मैं जितना समझाने की कोशिश करता हूं उसकी उल्टी प्रतिक्रिया इनमें क्यों होती है?"
निशा यही सोचती कि जिसने जीवनभर किसी की नहीं सुनी वह पुत्र की क्या सुनेगा. जैसे-जैसे दोनों नज़दीक आते गए, रिश्तों में दूरियां भी बढ़ने लगी. निशा हर दिन इस परिवर्तन को देखती. दोनों के बीच दूरियों को पाटने की कोशिश करती. कभी पुत्र को मनाती, कभी पति को समझाती. यही उसकी दिनचर्या बन चुकी थी. दोनों के रिश्तों को जोड़ते-जोड़ते फिर से निशा टूटने लगी थी. उसके भीतर एक अनजान-सा डर समाता जा रहा था. उसकी ज़िंदगी दो हिस्सों में बंट चुकी थी. एक तरफ़ पुत्र था, दूसरी तरफ़ पति.

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उसके भीतर का जो उफान था, वह दबा का दबा रह गया. पुत्र से भी नहीं कह पाई वह. जब भी कुछ कहने का प्रयास किया पुत्र में क्रोध, वितृष्णा का रुप देखती. जिसकी प्रतिक्रिया पिता के ऊपर होती और वह डर जाती, सहम जाती. यह डर उसके बहुत भीतर समा गया था. यहां तक कि कभी उसका मलीन चेहरा दोनों देखते, तो दोष एक-दूसरे को देते. उसका सहज रहना भी उससे छिन चुका था. हर समय कृत्रिम हंसीवाला चेहरा लिए निशा जीवन से जूझ रही थी. दो पाटों में बंटी निशा अपने को पहले से ज़्यादा असुरक्षित और अकेला महसूस करती थी.
आज छोटी-सी बात पर पिता-पुत्र में विवाद हुआ और बढ़ते-बढ़ते यह इतना विकराल रूप ले लिया कि निशा ने यह सपने में भी नहीं सोचा था. आज उसके सामने वही रूप खड़ा था, वही विनाशकारी क्रोध. उसकी गर्जना सुनकर आवाक रह गई.
"मां, चुनाव करो पुत्र का या पति का."
पुत्र में पति का वही रूप देखकर निशा आज उस असहनीय पीड़ा को सह नहीं पाई थी.
आधी रात को बिस्तर पर बैठी निशा बातें कर रही थी, मगर किससे..? वहां तो कोई नहीं था, रात की नीरवता को छोड़कर.
क्या कह रही थी वह?
ऐसा लग रहा था जैसे जीवनभर जो बातें वह किसी से ना कह पाई, वह आज अपने आप से ही कह डालेगी. आज अगर आसमान के पास या धरती के पास ह्रदय होता, तो दोनों चीत्कार कर उठते.
सुबह हो चुकी थी निशा की आंखें बंद थी, मगर होंठ हिल रहे थे. सामने पुत्र खड़ा था, थोड़ा झुका, "क्या कह रही हो मां?"
वह कुछ कह रही थी…
पुत्र और झुका और ध्यान से सुना, "मैं दोनों को खोना नहीं चाहती, ना पति को ना पुत्र को, ना मुझे ज़िंदगी से शिकायत है, ना उन दोनों से. शिकायत है मुझे अपने आप से, मेरी तपस्या में ही कहीं ना कहीं कोई कमी थी… हे प्रभु, शक्ति दो मुझे… मैं फिर से एक बार तपस्या की कोशिश करूंगी…
होंठ हिलने अब बंद हो चुके थे.

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