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कहानी- रेल यात्रा (Short Story- Rail Yatra)

अनिल माथुर

जैसे-जैसे यात्रा पूरी होने वाली होती है, हमारा स्टेशन पास आने वाला होता है, हमें चाहिए कि साथी यात्रियों से अच्छा व्यवहार करें. क्योंकि उतरना तो तय है. अपना सामान यथावत रखकर सबसे विदाई लें. हमारे अच्छे कार्य-व्यवहार, दान-पुण्य वह सामान है, जो हमारे साथ उतरना है. यह सामान समय रहते यथावत जमा कर लेने से उतरते वक़्त भागम भाग नहीं होगी. हम आराम से उतर पाएंगे.

ऑफिस से आते ही सुहासिनी बेटे अवि को होमवर्क करवाने बैठ गई तो मुझसे रहा नहीं गया. “पहले तू ख़ुद तो कॉफी पीकर फ्रेश हो ले. अवि को होमवर्क तो मैं ही करवा दूंगी. याद नहीं तुझे और सौरभ को हाई स्कूल तक मैं ही पढ़ाती और होमवर्क करवाती थी.”

“ममा, वह ज़माना और था. तब सारी पढ़ाई किताबों से होती थी. अब इसे जो प्रोजेक्ट तैयार करने होते हैं उसके लिए पहले चैट जीपीटी, एआई या गूगल पर सर्च करके मैटर निकालना होता है. फिर संबंधित फोटो का प्रिंट निकलवाकर ऑनलाइन मंगवाना होता है.”

“अरे, क्या सब बच्चे ऐसा ही करते हैं?”

“हां.”

“फिर तो सबके एक जैसे असाइनमेंट तैयार होते होंगे.”

“नहीं, मैटर को हूबहू कॉपी नहीं करना होता. अवि उसे पढ़ता है, समझता है और फिर अपनी सोच के अनुरूप लिखता है. यहां तक कि मैं उस पर अपनी सोच भी नहीं लादती.” मुझे विचार मगन देख सुहासिनी अपनी बात स्पष्ट करने लगी, “अब जैसे अवि अभी फोर्थ स्टैंडर्ड में है. मान लीजिए उसे गाय  पर लेख तैयार करना है. तो अपनी उम्र अनुसार वह यही लिखेगा कि गाय एक चार पैर का पालतू जानवर है. इसका दूध शुद्ध, पौष्टिक और लाभदायक होता है. जिससे कि घी, मक्खन आदि भी बनाया जा सकता है. गाय के गोबर से उपले बनाकर ईंधन का काम भी लिया जा सकता है. जबकि मैं इस पर आज के संदर्भ में सोचूंगी. मेरे दिमाग़ में स्लाटर हाउस आएंगे, बीफ आएगा. चूंकि गाय हिंदुओं के लिए पवित्र है तो उसे लेकर जो हिंदू-मुस्लिम झगड़े होते रहते हैं वे विचार आएंगे... आप क्या सोचने लगीं?”

“मैं सोच रही थी कि जब से यहां आई हूं गाय को रोटी देने का नियम ही भंग हो गया है. तुम्हारी सोसाइटी में गाय क्या, कुत्ते-बिल्ली भी नहीं घुस सकते. सोच रही हूं अपने शहर लौटकर एक दिन गौशाला जाकर गायों को घास और गुड़ खिला आऊंगी.”

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“देखो हो गए ना एक ही टॉपिक पर अलग-अलग विचार.”

“अरे हां यह तो मैंने गौर ही नहीं किया.  मतलब अलग-अलग उम्र में, अलग-अलग परिप्रेक्ष्य में व्यक्ति एक ही बिंदु पर अलग-अलग ढंग से सोचता विचारता है.”

“हां.”

“ऐसा कर, तू मुझे लैपटॉप पर सर्च करना सिखा दे. फिर मैं अवि को होमवर्क करवा दूंगी.”

“ममा, अवि यह सब ख़ुद भी कर सकता है. मैं तो स़िर्फ उसे थोड़ा-बहुत गाइड करती हूं. नज़र रखती हूं. हक़ीक़त तो यह है कि हमें होमवर्क करवाना ज़्यादा मुश्किल काम था. अब तो सब कुछ पका पकाया उपलब्ध है. आप टेंशन मत लो. थोड़े दिनों के लिए आए हो. आराम करो, घूमो-फिरो. आपने अपनी ज़िम्मेदारियां बख़ूबी निभा ली. अब हमारी ज़िम्मेदारियां हमें ख़ुद निभाने दीजिए. मुझे ज़रूरत होगी तो मैं आगे होकर आपसे मदद मांग लूंगी.” बेटी की समझदारी ने मुझे अंदर तक भिगो दिया. काश, इसके बच्चे भी इसे ऐसे ही प्यार, सहयोग और सम्मान दें. रिश्तों की फसलें नहीं होती जो पके और काट ली जाए. रिश्तों के वटवृक्ष होते हैं. जो वर्षों की मेहनत के बाद गहरी छाया देते हैं. समय अच्छा व्यतीत हो रहा था. वीकेंड पर कहीं ना कहीं जाने का प्लान बन जाता. अवि अब  हम नाना-नानी से ख़ूब हिल-मिल गया था. स्कूल से आने के बाद अब वह हमारे संग इंडोर गेम्स खेलता. उस दिन उसके स्कूल से आने के बाद हमने कैरम की बिसात बिछाई ही थी कि सुहासिनी का फोन आ गया. “ममा, ऑफिस में कोई ज़रूरी काम निकल आया है तो आने में देरी हो जाएगी. माया का फोन आया था. मौसम में बदलाव की वजह से उसे हरारत महसूस हो रही है. हल्का बुखार है. तो वह भी नहीं आ पाएगी. ख़ैर, खाना तो मैं आकर ऑर्डर कर दूंगी. आप बस अवि को होमवर्क करवा देना.”

“तू चिंता मत कर, सब हो जाएगा.” फोन रखकर मैंने कैरम समेटा.

“आप अवि का होमवर्क देखिए और मैं किचन संभालती हूं. बेटी कह रही है ऑफिस से आकर ऑर्डर कर देगी. पर क्यों? मेरे होते बाहर से खाना मंगाने की कहां ज़रूरत है? मैं अपने घर में भी तो ख़ुद बनाती हूं. दो का न सही, चार का बना दूंगी.” “नानी, मैं भी तो हूं. चार का नहीं पांच का बोलो.” अवि ने टोका तो हम मियां-बीवी की हंसी छूट गई.

“चूजे जितना तो खाते हो तुम. तुम्हें क्या गिनना? अच्छा बताओ क्या खाओगे?”

“ऊं.. खीर. जब मैं जयपुर आता हूं, तब आप बनाते हो ना मेरे लिए. मखाने, मेवे वाली खीर. बस वही.”

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“अच्छा! आप नाना से होमवर्क करो. तब तक मैं खीर तैयार करती हूं.” रसोई में घुसी तो मन किया दम आलू भी बना लेती हूं,  सुहासिनी को पसंद है. मटर पुलाव भी बना लेती हूं दामाद जी को पसंद है. तो फिर अवि के नानाजी को क्यों छोड़ू? उनकी पसंद की बेडमी पूरी भी बना डालती हूं. बहुत दिनों बाद अपने चिर परिचित रणक्षेत्र में उतरने की ख़ुशी थी.  तो सारे हथियार और युद्ध कौशल आज़मा लिए. दो-ढाई घंटे बाद किचन से निकली तो मन में अद्भुत संतुष्टि का एहसास था. नाना दोहिता भी पढ़ाई से फारिग हो गए थे. “नानी, चलो लूडो खेलते हैं.” अवि ने मुझे बुलाया. किंतु मुझे अब आराम की आवश्यकता महसूस हो रही थी. बूढ़ी  हड्डियों ने जोश-जोश में कुछ अधिक ही दमखम दिखा दिया था, जो अब भारी पड़ रहा था.

“तुम लोग खेलो. मैं लेटूंगी.” बिस्तर पर लेटी तो थकान की वजह से जाने कितनी देर सोई ही रही. सुहासिनी के जगाने पर आंख खुली. इतना सब करने की क्या ज़रूरत थी ममा? अब थकान हो रही होगी.”

“नहीं, आह...” कहते हुए मैंने उठने की कोशिश की तो बदन में तीखे दर्द की लहर सी दौड़ गई. “क्या हुआ?” सुहासिनी ने घबराकर मेरी कलाई थाम ली.

“अरे आपको तो बुखार भी है. क्या ममा, क्यों करती हो ऐसा? क्या ज़रूरत थी रसोई में खपने की? मैं तो आपको जयपुर में भी कुक लगा लेने का कहती रहती हूं. अब आपकी उम्र नहीं रही है यह सब काम करने की. मैं आपका खाना यहीं लगा देती हूं. और खबरदार कल माया आए या ना आए आप रसोई में नहीं घुसेंगी.” सुहासिनी प्लेट लगाकर मुझे कमरे में ही पकड़ा गई थी. मेरा उत्साह बुझ गया था. क्या सच में मैंने बहुत बड़ी ग़लती कर दी थी? मैं तो सोच रही थी पसंद का सुस्वादु खाना देखकर सब की बांछे खिल उठेगी और वे  मेरी तारीफ़ों के पुल बांधते हुए खाने पर टूट पड़ेंगे. पर डाइनिंग टेबल से आते सुहासिनी के चिंतातुर स्वर ने मेरे सारे उत्साह पर पानी फेर दिया.

“पापा आपको तो सोचना चाहिए था! रोकना चाहिए था ममा को. वैसे ही ऑफिस और घर के ढेरों काम रहते हैं हमें. अब मां की केयर का काम और बढ़ गया.”

मन हुआ चिल्ला कर कहूं, “मैं अपनी केयर ख़ुद कर सकती हूं.  किसी को मेरे पीछे परेशान होने की ज़रूरत नहीं है. जैसे शांति से दुनिया में आई थी, वैसे ही शांति से निकल भी लूंगी...” सबने मेरे बनाए स्वादिष्ट खाने की तारीफ़ की. पर साथ ही साथ अपने स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही न बरतने की हिदायत भी दे डाली. सुहासिनी ने एक सिरप और टेबलेट लाकर दी, “यह ले लीजिए. फ़र्क नहीं पड़ा तो फिर कल डॉक्टर को दिखाएंगे. यहां तो डॉक्टर भी बिना अपॉइंटमेंट नहीं देखते. देखते हैं, नहीं तो फिर प्रैक्टो पर डॉक्टर से कंसल्ट करेंगे.” मैं रह-रहकर ख़ुद को गुनहगार महसूस कर रही थी. मानो सब की पसंद का खाना बनाकर मैंने कोई बहुत भारी अपराध कर डाला हो. सबसे बुरा तो तब लगा, जब मेरे पति देव भी मेरे पास आकर ख़ामोशी से लेट गए.  

“सबको चिंता में डाल दिया है तुमने.” उनके ऐसा कहते ही मैं फट पड़ी.

“आप भी मुझे ही गुनहगार ठहराएंगे? वहां घर पर तो रोज़ खाने को लेकर कुछ ना कुछ फ़रमाइश चलती रहती है आपकी. तब मेरी और ख़ुद की उम्र का ख़्याल नहीं आता कि मैं कैसे पकाऊंगी और आप कैसे पचाएगें? इतना ख़्याल था मेरा तो रसोई में आकर कुछ मदद ही कर देते.”

“अरे सबका ग़ुस्सा मुझ पर क्यों निकाल रही हो? तुम्हारी वजह से मुझे भी तो डाइनिंग टेबल पर घंटे भर सबकी नसीहतें सुननी पड़ी. दोनों तब जाकर शांत हुए जब मैंने कहा कि मैं जयपुर पहुंचते ही कुक रख लूंगा.”

“बस घूम-फिरकर एक ही राग! कुक रख लो, कुक रख लो. कुक सुबह नौ बजे नाश्ता, खाना सब बनाकर रख जाएगी. खाते रहना गर्म कर करके बेस्वाद खाना. अरे, यहां गले उतार रहे हैं कुक के हाथ का बना खाना. वही बहुत है. मुझे नहीं रखना कोई कुक वुक.”

“मेरे लिए तो इधर कुआं उधर खाई वाली स्थिति है. किसकी मानूं?” पतिदेव ने लाचारी दर्शाई तो मेरे तेवर नरम पड़ गए.

“छोड़िए यह सब. अवि को होमवर्क करवाने में कोई दिक्क़त तो नहीं आई?”

“अरे कुछ मत पूछो! रेल यात्रा पर आलेख तैयार करना था. और बेचारे अवि ने तो कभी रेल यात्रा की ही नहीं. मासूम सा चेहरा बनाकर बोला, “मैं तो आपके और दादा के यहां हमेशा फ्लाइट से ही जाता-आता हूं. बाहर घूमने भी फ्लाइट से ही गया हूं.”

“अरे फिर?”

“फिर क्या? इतने साल रेलवे की नौकरी की है मैंने! आधी ज़िंदगी तो मेरी रेल में ही गुज़री है. रेल यात्राओं के क़िस्से पर क़िस्से सुनाते चला गया उसे. उसे भी ख़ूूब मज़ा आया. मैंने उसे बताया कि आधुनिक रेल प्लेन जैसी ही सुख-सुविधाएं देती हैं. फ़र्क है तो इतना कि वे ज़मीन पर पटरी पर चलती है और प्लेन आसमान में.”

“फिर उसे अपने आप लिखने दिया ना?”

“हां और क्या? पर अपने स्तर पर सोचकर उसने बहुत अच्छा लिखा.”

“पापा-मम्मी अब सो जाइए. तभी दवा असर करेगी.” सुहासिनी ने पुकारा तो पतिदेव ने फटाफट बत्ती बुझा दी और करवट बदलकर सो गए. पर मेरी आंखों में नींद का नामो निशान न था. शाम को इतना सो जो चुकी थी. दिमाग़ में रील घूमने लगी. अवि को उसके नानाजी ने रेल यात्रा के कौन से क़िस्से सुनाए होंगे? अब तो हमें भी रेल यात्रा का अवसर कम ही मिलता है. दिमाग़ पर बहुत ज़ोर देने पर भी याद नहीं आया कि अंतिम रेल यात्रा कब की थी? मैंने प्रयास छोड़ दिया. अब तो शरीर के साथ-साथ दिमाग़ भी थकने लगा है. सुहासिनी और उसके पापा ठीक ही तो कहते हैं उम्र हो चली है अब हमारी! बचपन में कौआ उड़, मैना उड़... जवानी में नींद उड़, चैन उड़... बुढ़ापे में बाल उड़, दांत उड़... यह जीवन एक रेल यात्रा ही तो है. हम जैसे रेल में सवार होते हैं वैसे ही हम एक दिन ज़िंदगी की इस रेल में सवार हुए यानी जन्म लिया. बीच-बीच में तमाम रिश्ते-नाते, भाई-बहन आकर जुड़ते गए जैसे रेल में हर स्टेशन पर नए यात्री जुड़ते रहते हैं. कोई पहले चढ़ता है और अंतिम स्टेशन पर उतरता है. कोई कुछ स्टेशन निकल जाने के बाद चढ़ता है और पहले ही उतर जाता है. जब जिसका स्टेशन आता है उसे उतरना होता है चाहे कहीं से भी, कभी भी चढ़ा हो. जब हमारा स्टेशन आने वाला होता है हम पहले से ही सब सामान आदि पैक करके रख लेते हैं. कोशिश करते हैं कि गेट के पास रख ले, जिससे कि स्टेशन आने पर भागम भाग ना हो, कुछ छूट न जाए. जीवन रूपी यात्रा में भी ऐसा ही दृष्टिकोण अपेक्षित है.

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जैसे-जैसे यात्रा पूरी होने वाली होती है, हमारा स्टेशन पास आने वाला होता है, हमें चाहिए कि साथी यात्रियों से अच्छा व्यवहार करें. क्योंकि उतरना तो तय है. अपना सामान यथावत रखकर सबसे विदाई लें. हमारे अच्छे कार्य-व्यवहार, दान-पुण्य वह सामान है, जो हमारे साथ उतरना है. यह सामान समय रहते यथावत जमा कर लेने से उतरते व़क्त भागम भाग नहीं होगी. हम आराम से उतर पाएंगे. पर कई बार एहसास ही नहीं होता और स्टेशन जल्दी आ जाता है. तब हमको भागम भाग में उतरना पड़ता है. लेकिन यदि ईश्‍वर हमें पर्याप्त समय दे रहे हैं तो हम समय रहते अपनी समस्त ज़िम्मेदारियां पूरी कर ले. सब सामान समेटकर फ्री होकर बैठे और यात्रा का आनंद लें. और जब स्टेशन आए तो उतरने में कोई तकलीफ़ ना हो. यदि सामान पूरी रेल में फैला रहेगा और स्टेशन आ जाएगा तो हम यात्रा के दौरान भी तनाव में रहेंगे और उतरते व़क्त भी. और हमारे साथी यात्रियों को भी तकलीफ़ होगी. तो यदि हमें पता है कि हमारा स्टेशन आने वाला है तो जिसे जो देना है, देकर फ्री हो जाए. रेल में हो तो जिसका अख़बार, मैगजीन, तकिया, हेड फोन या जो कुछ भी ले रखा हो स्टेशन आने से पहले लौटा दे. और ज़िंदगी में भी यदि किसी से उधार ले रखा हो तो समय रहते चुकता कर दे. जिसे जो देना है दे दे, ताकि हमारे जाने के बाद झगड़ा ना हो.  तभी हमारी भी यात्रा सुखद होगी और हमारे सहयात्रियों की भी.

“सुनिए, सो गए क्या?”

“नहीं, क्या हुआ? शरीर दुख रहा है? दबाऊं?” “नहीं. दवा के असर से दर्द चला गया है. मैं सोच रही थी हम साउथ में आए हुए हैं तो क्यों ना केरल घूम आएं? थोड़ा और नीचे जाकर रामेश्‍वरम के दर्शन भी कर आए. अभी तो हम चल-फिर सकते हैं. ख़ुद को, एक-दूसरे को संभाल सकते हैं.”

“आइडिया तो अच्छा है.”

“और हमें अपनी वसीयत भी लिख डालनी चाहिए.”

“क्यों? ऐसा क्या हो गया?”

“ताकि जब स्टेशन आए तो आराम से उतर सके.”

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