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कहानी- रिश्तों के समीकरण (Short Story- Rishton Ke Samikaran)

नेहा जब अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्त हुई तब पाया कि बालों में सफ़ेदी झलकने लगी थी. अपनी तरफ़ तो उसका ध्यान ही नहीं गया था. बीच-बीच में जब कभी कोई रिश्तेदार उसके लिए रिश्ता लेकर आते, मां किसी-न-किसी बहाने से टाल देतीं. वह भी अपनी ज़िम्मेदारियों का एहसास कर अपने सारे जज़्बातों को जज़्ब कर लेती.

रात दस बजे के क़रीब, थकी-हारी नेहा घर पहुंची तो भाभी ने रूखेपन से कहा, "दीदी, तुम्हारा खाना ढंक रखा है, चाहो तो गरम करके खा लेना." नेहा ने सिर हिलाते हुए 'अच्छा' कहा और कपड़े बदलने अपने कमरे में चली गई. हाथ-मुंह धोकर, खाना लेकर वह कमरे में आई ही थी कि भाभी की बातें उसके कानों में पड़ीं.
"अब तो हद हो गई है. रोज़ ही रात को देर से लौटना, कभी खाना खाया तो ठीक, नहीं खाया तो ठीक. इन्होंने तो नाक में दम कर रखा है. मोहल्लेवालों अन्य की बातें सुन-सुनकर तो मेरे कान पक गए, पता नहीं ऐसा क्या काम करती हैं? भगवान जाने, कब तक छाती पर मूंग दलती रहेंगी?" भाभी भैया से ये सब कह रही थीं. अब तक भैया ने एक शब्द भी नहीं कहा था. इस पर खीझती हुई भाभी बोली, "अब कुछ बोलो भी. तुम्हारी शह पाकर ही तो सिर पर चढ़ती जा रही हैं, कल ही दीदी से साफ़-साफ़ बात कर लो, वरना मैं ही पूछ लूंगी."
इस पर भैया का कुछ धीमा स्वर कुछ धीमी आवाज़ में सुनाई दिया,
"अरे! ऐसा ग़ज़ब मत करना भागवान! उसी की कमाई से तो यह घर चल रहा है. कुछ और निर्णय ले लिया उसने तो पछताती फिरोगी. भूल गईं क्या वो पिछली घटना, जब हमारे तंग करने पर गर्ल्स हॉस्टल रहने चली गई थी वह. तब घर में कैसे फांके पड़ गए थे. कितनी मुश्किल से मना कर लाए थे हम उसे?"
ये बातें नेहा के दिल में नश्तर-सी चुभ रही थींये सब बातें अब तो आए दिन होने लगी थीं. नेहा सुन-सुनकर थक चुकी थी. हर बार खून का घंट पीकर रह जाती. उसकी भूख ख़त्म हो चुकी थी, उसने थाली को वापस रसोई में लाकर रख दिया और चुपचाप बिस्तर पर आकर लेट गई. नींद आंखों से कोसों दूर थी. सुबह उसे जल्दी मिसेज़ अग्रवाल के यहां पहुंचना था. दिनभर कभी ट्रेन का तो कभी बस का सफ़र करना व एक जगह से दूसरी जगह पहुंचना… यह उसकी विनचर्या का हिस्सा था.
नेहा फ़िजियोथेरेपिस्ट थी. उसे अपने मरीज़ के घर जाकर व्यायाम-मालिश आदि के बारे में बताना, समझाना पड़ता, इसके लिए उसे मुंबई जैसे शहर में बहुत भाग-दौड़ करनी पड़ती थी. उसके मरीज़ों में कई नामी-गिरामी हस्तियां थीं, काफ़ी अच्छी प्रैक्टिस चल रही थी उसकी. पर इस मुकाम तक पहुंचने में उसे काफ़ी मेहनत व संघर्ष करना पड़ा. जिंदगी के पन्द्रह साल उसने इस पेशे में बिता दिए थे, तब कहीं जाकर वह इस मंजिल तक पहुंची थी. उसे काोोफ़ी जद्दोजेहद करनी पड़ी थी अपने आपको स्थापित करने में.

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नेहा को याद आने लगे वो दिन, जब वह छोटी थी. बड़े भाई के बाद हुई थी वह. ख़ूब नाज़ों से पाला था उसे उसके मम्मी-पापा ने. नन्हीं प्यारी सी गुड़िया लगती थी वो. उसके पापा उसकी हर फ़रमाइश पूरी करते. हमेशा कहते, "नेहा की मां, देखना एक दिन मेरी बेटी इतनी बड़ी अफसर बनेगी कि दुनिया इसके आगे झुकेगी. पढ़ाई में इतनी होशियार है और सुंदर भी है. इसके लिए तो मैं राजकुमार सा दूल्हा ढूंढूंगा." मां भी पिता का समर्थन करती. उनके यहां कई पीढ़ियों से बेटी नहीं हुई थी. अतः बेटी की बहुत ख़्वाहिश थी उसके पापा को. पर यही हालत तब ख़त्म सी हो गई जब एक और बेटे की चाह में उनके यहां और छह बहनें लाइन से पैदा हो गईं. पिताजी सब संभाल ही रहे थे कि एक दिन हार्ट अटैक में चल बसे, उस वक़्त वह दसवीं कक्षा में थी.
सात-सात बहनों में इकलौता भाई अधिक लाड़-प्यार से बिगड़ गया था. उसका मन पढ़ाई में बिल्कुल नहीं लगता था. वहीं नेहा पढ़ाई में होशियार थी. पिता की मृत्यु के पश्चात् मां ने भी खाट पकड़ ली. अब तो स्वयं की पढ़ाई, घर का काम, छोटी-छोटी बहनों की देखभाल सभी की ज़िम्मेदारी अकेले नेहा पर आ पड़ी थी. उसने पिता के मिले प्रोविडेन्ट फंड की रकम को बैंक में जमा करवाया तथा साथ ही ट्यूशन्स भी करने लगी. समय ने उसे वक़्त से पहले ही परिपक्व बना दिया था. बारहवीं के बाद उसने फ़िज़ियोथेरेपिस्ट का कोर्स किया. साथ ही घर, परिवार, बहनें सबकी ज़िम्मेदारियों को निभाती रही.
उसके पिता के दोस्त थे मंगल सेन जी. उनकी सिफ़ारिश पर उसे किसी प्राइवेट नर्सिंग होम में फ़िज़ियोथेरेपिस्ट का काम मिल गया. तब उसकी उम्र मुश्किल से बीस बरस रही होगी. तब से जो जद्दोजेहद शुरू हुई, वह आज तक चल रही थी. बहनों को पढ़ाकर, कुछ बनाकर, एक-एक को निबटाती गई वह. मां बिस्तर पर लेटी-लेटी बार-बार बलैया लेती रहीं.
भाई आवारा निकल गया. बुरी सोहबत में रहने लगा. उससे तो घर में कोई मदद मिलती नहीं थी. उल्टे वो ही नेहा से मांग-मांग कर पैसे ले जाता. नेहा जब अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्त हुई तब पाया कि बालों में सफ़ेदी झलकने लगी थी. अपनी तरफ़ तो उसका ध्यान ही नहीं गया था. बीच-बीच में जब कभी कोई रिश्तेदार उसके लिए रिश्ता लेकर आते, मां किसी-न-किसी बहाने से टाल देतीं. वह भी अपनी ज़िम्मेदारियों का एहसास कर अपने सारे जज़्बातों को जज़्ब कर लेती.
भाई की भी शादी हो गई. शुरू-शुरू में तो भाभी का व्यवहार सही रहा. पर बाद में वही भाभी अपने रंग दिखाने लग गई,.
घर में नेहा का स्थान सिर्फ़ पैसे कमाने वाली मशीन की तरह रह गया था. अब तो मां भी कुछ बदल-सी गई थीं. बहू की 'हां' में 'हां' मिलाते हुए वे भी नेहा को ही बात- बेबात दोषी ठहराने लगतीं. भाभी भी अपनी ही दुनिया में मस्त रहती. आए दिन कुछ-न-कुछ फ़रमाइश नेहा से करती रहती.
कभी कहती, "दीदी, आज बबलू की फीस भरनी है," तो कभी कहती, "आज कपड़ों के लिए पैसा चाहिए" या "आज पिंकी कह रही थी कि बुआ से कहना मुझे साइकिल दिला दें"… आदि-आदि. नेहा भी भाई के बच्चों को मां सा प्यार देती. अपनी सारी कमाई भतीजे-भतीजी व घर पर लुटाती रहती. बहनों के ख़र्चे भी बढ़ते जा रहे थे. आज डॉली के यहां तीज आएगी. आज मंजू के बेटा होने का फंक्शन है. उसके यहां सामान जाएगा. जयपुर वाली बहन की मैरिज एनिवर्सरी है. उसके यहां अच्छा सा तोहफ़ा लेकर भाई जाएगा. उसके लिए साड़ी, उसके सास-ससुर के कपड़े, बच्चे के कपड़े, फल-मिठाई जाएगी, उसका ख़र्चा. आए दिन मां की फ़रमाइशें… कुछ-न-कुछ लगा ही रहता.

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उसने कभी सोचा भी न था कि उसे लाड़ करनेवाली यही मां, उसकी अपनी सगी मां इतनी बदल जाएगी. उसकी शादी का तो कभी ख़्याल तक नहीं आया. ऊपर से कुछ कह दो तो घर में हंगामा, मां का रोना-धोना शुरू कि "आज तेरे पिता ज़िंदा होते तो मेरी यह दशा तो न होती. मैं तो अपाहिज़ हो गई हूं, तुम्हारे टुकड़ों पर पल रही हूं, मैं तो हूं ही करमजली, मौत भी तो नहीं आती."
मां का बड़बड़ाना एक बार शुरू होता तो रुकने का नाम ही न लेता. वह सुबह एक कप चाय पीकर जल्दी निकल जाती और शाम ढले थकी-हारी लौटती. भाभी से यह कभी न होता कि जहां बबलू, पिंकी का टिफ़िन पैक कर रही है, वहीं उसके लिए भी दो परांठे सेंक दे. हर महीने घर के ख़र्चे के लिए सारी कमाई हाथ में रख दो. उस पर भी यह जलालत भरी ज़िंदगी, क्या यूं ही घुट-घुटकर जीती रहेगी? क्या यूं ही चलती रहेगी ज़िंदगी? आख़िर कब तक? सोचते-सोचते उसकी आंख लग गई.
अगले दिन जब उठी, तो सिर बहुत भारी था. मन नहीं कर रहा था तैयार होने का, पर घर पर रहकर भी क्या करती? दूसरे मिसेज़ अग्रवाल की आर्थराइटिस बहुत बढ़ी हुई थी.
उनका व्यायाम व मसाज करने के लिए जाना ही था. बहुत पुरानी मरीज़ थी वो उसकी. फीस भी अच्छी मिलती थी वहां से. बेमन से तैयार हुई. एक कप चाय पीकर निकल पड़ी.
उसके काम पर जाने के रास्ते में एक अनाथालय पड़ता था. वह जब भी विले पार्ले उतरकर अपनी मरीज़ के घर तक पहुंचती, उस अनाथालय की ओर बरबस ही उसकी दृष्टि उठ जाती. कुछ समय से चार-पांच साल का एक प्यारा सा बच्चा, अनाथालय के गेट को अपने नन्हें-नन्हें हाथों से पकड़े, खड़ा हुआ उसे जाते टुकुर-टुकुर देखता रहता. वह भी उसकी प्यारी-सी मुद्रा पर दृष्टि डाले बिना न रह पाती, काफ़ी दिनों तक यह क्रम चलता रहा. एक दिन वह कुछ टॉफ़ियां लेकर उस बच्चे के पास पहुंची और बैग से निकालकर उसे देने ही वाली थी कि वह घबराकर पीछे मुड़ा और लंगड़ाता हुआ अंदर चला गया. नेहा उसकी चाल को देखकर उसकी परेशानी समझ गई और काफ़ी देर तक वहां खड़ी रही. उसका मन उस बच्चे को देखकर व्यथित-सा हो उठा और अनमनी सी वह वहां से चल दी.
उस दिन अपने सारे काम तो उसने निबटाये, पर मन के किसी कोने में वही बच्चा, उसकी लंगडाहट, मासूम सा चेहरा आदि आंखों के सामने तैरता रहा.
अगले दिन वह जब फिर से वहां से गुज़री, तब वही बच्चा उसे उसी मुद्रा में दिखाई पड़ा. वह यंत्रचालित सी उसके पास पहुंच गई. वह उसे देखकर पीछे मुड़कर लौटा नहीं, इस पर नेहा ने उसे बैग से टॉफियां निकालकर देने के लिए हाथ बढ़ाया. लेकिन बच्चे ने अपना हाथ नहीं बढ़ाया, नेहा ने कहा, "बेटा ले लो." इस पर वह तुतलाता हुआ बोला, "आंटी डांटेंगी." नेहा को बच्चे की इस बात से उसकी समझदारी का एहसास हुआ. उसने कहा, "अच्छा बेटा, एक बात बताओ, तुम्हारी आंटी 'हां' कह देंगी तब तो ले लोगे ना?" इस पर उसने 'हां' में सिर हिला दिया. नेहा ने पूछा, "बेटा, तुम्हारा नाम क्या है?"
"बंटी" उसने जवाब दिया. नेहा ने फिर पूछा, "हमसे दोस्ती करोगे?" उस पर फिर उसने 'हां' की मुद्रा में सिर हिला दिया.
अब तो नेहा का यह नित्यक्रम हो गया. वे दोनों मानो एक-दूसरे की प्रतीक्षा में रहते थे. नेहा के मन में मातृत्व की भावना हिलोरें लेने लगी. उसकी भी शादी हो गई होती तो उसके भी प्यारे प्यारे बच्चे होते. उसे वह बच्चा इतना प्यारा लगता कि उसने निर्णय ले लिया कि वह उसे गोद ले लेगी. उस दिन वह अपने एक मरीज़, जो कि वकील थे, से मिली व गोद लेने के सारे नियम जाने, उस दिन घर लौटने पर वह विचारों के झंझावातों में ही उलझी रही. इस घर में रहकर तो उस बच्चे को पालना नामुमकिन था. फिर वह क्या करे? इसी कशमकश में वह घिरी रही, फिर भी कुछ फ़ैसले उसने कर ही लिए थे.
उसने घरवालों की चोरी से बैंक अकाउंट खोल रखा था, जिसमें वह हर महीने रुपए जमा कराती आ रही थी. अब तक तो काफ़ी पैसे इकट्ठे हो गए थे. उसने निर्णय लिया कि वह अपना अलग घर ले लेगी, चाहे छोटा-सा ही क्यों न हो. इस निर्णय में मानो उसे जीवन जीने की एक नई दिशा मिली.. उस रात वह बंटी को लेकर अपने नए जीवन के बारे में सोचती रही व निर्णय लिया कि कल सबसे पहला काम वह अनाथालय की संचालिका से मिलने का करेगी.
अगले दिन जब वह उठी तो बहुत ख़ुश थी. उसे यूं लग रहा था मानो सूरज की किरणें भी उसकी ख़ुशी में साथ देकर दमक रही थीं. वह तैयार होकर निकली व अनाथालय जा पहुंची. बंटी हमेशा की तरह अनाथालय के गेट के पास खड़ा था. उसे लेकर वह अनाथालय की संचालिका के पास जा पहुंची व बंटी को गोद लेने की अपनी मंशा उसने ज़ाहिर की. उसकी आर्थिक स्थिति, कामकाज आदि के बारे में विस्तृत जानकारी पूछी गई. इन सबसे संतुष्ट हो, उसे कुछ औपचारिकताएं पूरी करने के लिए अगले दिन बुलवाया गया.
उस दिन उसने अपनी पहचान के बिल्डर से मिलकर एक फ्लैट ख़रीदने की बात की व अग्रिम राशि के रूप में रकम जमा करवाने की बात हो गई. फ्लैट भी वह देख आई. फ्लैट का कब्जा भी उसे जल्दी ही मिल जाना तय हो गया. अब समस्या यह थी कि दिनभर बंटी के पास कौन रहेगा? कौन-से स्कूल में उसे दाख़िला दिलाना सही रहेगा? इसका भी प्रबंध उसने कर लिया, पूरे दिन की आया का इंतज़ाम हो गया. स्कूल भी घर के पास ही था. वहां भी नेहा दाखिले की बात कर आई. फार्म वगैरह ले आई. अब बस बंटी का संरक्षण मिलते ही वह उसे घर लाने को आतुर थी. अपनी एक छोटी-सी दुनिया शुरू करने के लिए, जिसमें वह होगी और मातृत्व की कमी पूरा करने के लिए बंटी होगा. उसे बेटा मिलेगा और बंटी को मां.

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उस रात घर आकर उसने अपने निर्णय से घरवालों को अवगत कराया. सबके चेहरे फक्क पड़ गए. भाई व भाभी ने बच्चों की दुहाई दी. कहा, "क्या तुम्हारे भतीजे-भतीजी तुम्हारे अपने नहीं हैं, जो पराया बच्चा गोद लेने की सोच रही हो? वो भी जिसकी जात का पता नहीं, मां-बाप का भी पता नहीं." ख़ूब रोना-धोना हुआ. उसे तरह-तरह से समझाया गया. रिश्तों की दुहाई दी गई. उसके दायित्वों का एहसास कराया गया.
साम, दाम, दंड, भेद जब कुछ भी काम न कर सके, तब मां ने रोना शुरू कर दिया, नेहा तब भी नहीं पिघली. उस दिन उसने पहली बार अपना मुंह खोला, "किन रिश्तों की दुहाई दे रहे हैं आप लोग? मैं तो सिर्फ़ पैसा कमाने की मशीन हूं? मेरे दर्द को कभी समझा आप लोगों ने? मेरी भावनाओं की क़द्र की क्या आप लोगों ने? मैं तो छाती पर मूंग दल रही हूं ना आप लोगों के. मेरी वजह से मोहल्ले में आपकी छीछालेदार होती है ना. मैं भी कभी विवाह योग्य थी. क्या मेरी चिंता हुई थी आप लोगों को? कहने को ये मेरी मां हैं, पर इन पैंतीस सालों में इन्होंने मेरे साथ जैसा व्यवहार किया, वैसा तो सौतेली मां भी न करती.
फिर भाभी के लिए तो क्या कहूं, वह तो पराए घर की लड़की है. मेरा यह भाई, जिसे भाई कहने में भी शर्म आती है. क्या दायित्व निभाया इसने भाई होने का? जब से होश संभाला है मां तुम्हारी ही गृहस्थी को पार लगाती रही. है ना तुम्हारा यह लाडला, संभालेगा अपनी ज़िम्मेदारी, तब सारे नेग पूरे करवाना अपनी बेटियों के, जो मुझसे करवाती रहीं. जिन बेटियों का पक्ष लेकर मुझसे लड़ती रहीं. अब आए ना वो आप लोगों को संभालने. आपकी बेटियों ने भी जैसा व्यवहार मेरे साथ किया, दुश्मन भी ना करता. सुबह से रात तक काम में अपने आपको डुबोए रखा. असमय ही बूढ़ा बना दिया मुझको. क्या मेरे कुछ अरमान नहीं हो सकते हैं? इसके बारे में सोचा कभी आपने? बहुत जी ली आप लोगों के लिए. अब जीऊंगी सिर्फ़ अपने लिए और अपने बेटे के लिए."
सभी को अवाक् छोड़ वह अपने कमरे में आई. अपना सामान समेटा और अगली सुबह का इंतज़ार करने लगी, अब वह भी अपने छोटे से आशियां में अपने बेटे के साथ रहेगी.
अगली सुबह जब वह सूटकेस लेकर अपने कमरे से बाहर निकली, तो देखा बैठक में पूरा परिवार जमा था. बच्चे सहमे हुए से खड़े थे. भाई ने बोलने के लिए मुंह खोला ही था कि तपाक से नेहा ने कहा, "बस! मुझे और कुछ नहीं सुनना. मेरा निर्णय अंतिम निर्णय है और इसे मैंने बहुत सोच-समझकर लिया है. बच्चों की पढ़ाई के लिए मैंने बैंक में पैसे जमा करवा दिये हैं. ये लो पास बुक और चेक बुक. मैं नहीं चाहती कि आपके साथ ये निर्दोष भी सज़ा भुगतें." और यह कहकर अपना सामान लिए वह तीर-सी निकल गई सबको अवाक् छोड़कर.
थोड़े दिनों तक वह हॉस्टल में रही. इस बीच उसे फ्लैट का कब्ज़ा मिल गया. घर का ज़रूरी सामान ख़रीदकर घर को व्यवस्थित किया. अनाथालय जाकर सारी ज़रूरी औपचारिकताएं पूरी कीं और बंटी की उंगली पकड आ गई अपने घर.
बंटी घर आकर बहुत प्रसन्न था. कहने लगा, "आंटी, ये घर तो बहुत सुंदर है." इस पर नेहा ने बंटी से कहा, "आज से मैं तेरी आंटी नहीं 'मां' हूं बेटा. बोल 'मां." बंटी ने कहा- "मां!" नेहा ने उसे सीने से लगा लिया. उसकी आंखें नम थीं. यह ख़ुशी के भावातिरेक का संकेत था.
नेहा ने निश्चय किया कि वह घर पर ही ज़्यादा-से-ज़्यादा मरीज़ देखा करेगी, ताकि बंटी के पैर को भी ठीक कर सके. अच्छे डॉक्टर को दिखाकर उसने बंटी की तकलीफ़ के बारे में जाना और सही व्यायाम, मालिश आदि करना शुरू कर दिया. बंटी अब काफ़ी ठीक हो चला था. उसका स्वास्थ्य भी अच्छा होने लगा. नेहा ख़ुश थी अपने छोटे से संसार में, अपने बेटे के साथ.‌

- विभा गोयल

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