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कहानी- रूपांतरण (Short Story- Rupantaran)


 
 
“जब निरामय के न रहने का विचार डराता नहीं था, तब वे थे, पर जब यह विचार डराने लगा, तब नहीं हैं. मैं जिसे पसंद करने लगती हूं, वही छूट जाता है. मेरे साथ ऐसा क्यों होता है मां?” मधु के रूपांतरण को देख केसर साहस खो रही थी. मुरलीधर अवाक् थे.

 


 
कॉल चेन्नई से था.
“मि. मुरलीधर, निरामय रोड एक्सीडेंट में घायल हो गए हैं. मैं उनका सीनियर बोल रहा हूं.”
मुरलीधर के स्याह होते चेहरे को देख केसर समझ गई कि कुछ अनहोनी सूचना है. “खैरियत तो है?”
व़क़्त था तेज़ चीख मार कर जड़ हो जाने का, पर मुरलीधर ने दुख कम, विक्षोभ अधिक व्यक्त किया. “खैरियत पूछती हो, तो निरामय रोड एक्सीडेंट में घायल हो गए हैं. मधु ने कलह की होगी. निरामय तनाव में घर से चले होंगे, स्पीड कंट्रोल न कर सके होंगे.”
“मधु का क्या हाल होगा?”
“सोच रही होगी कि निरामय घायल क्यों हुए, मर क्यों नहीं गए? नापसंद पति से तो छुट्टी मिलती. दस साल होने को आए, इसने उस भले आदमी को जीने न दिया… हमें अभी वहां जाना होगा.”
दस साल. पूरा एक दशक.
मधु इसरार से शादी कर कुल-मर्यादा पर बट्टा लगाए, इसके पहले मुरलीधर ने निरामय का बंदोबस्त कर लिया था. केसर को आपत्ति थी,
“मधु को संभलने के लिए थोड़ा वक़्त दो.”
“तब तक तो लड़की उस मुसलमान के साथ भाग कर पता नहीं कहां पहुंचेगी.”
विवाह वेदी पर थी सर झुकाए मधु और गर्व से भरा सम्मोहित-सा निरामय. अग्नि कुंड में मधु के सपने, कल्पनाएं, इच्छाएं और अनुभूतियां धुआं-धुआं हो रही थीं और निरामय का उत्साह परवान चढ़ रहा था. उसने हनीमून के लिए सिंगापुर का पैकेज बुक किया था. सिंगापुर की रौनक और रोशनी में दाम्पत्य की चमकीली गाथा लिखने को आतुर अनुरक्त निरामय और विरक्त मधु. उसके व्यवहार से निरामय ऊब जाए, त्रस्त हो जाए और भड़ककर कह दे, ‘तुम जहां से आई हो, वहीं लौट जाओ.’ और वह इसरार के पास चल दे.
“क्या मैं ख़ुश नहीं हूं, पूछ कर आप मुझे दर्द दे रहे हैं. सुनिए, मैं बिल्कुल ख़ुश नहीं हूं. आपसे पहले इसरार मेरी ज़िंदगी में आ चुका है.”
पर निरामय की तबियत को क्या कहिए, इतना स्पष्ट सुन कर भी नहीं भड़का. “होता है मधु. प्रेम कब, किससे हो जाए कोई नहीं जानता.”
थोड़ा भी ग़ुस्सा नहीं आ रहा है. ऐसा तो नहीं कि इसे भी किसी से इश्क़ हो और उससे शादी न कर सका हो? ऐसा है तो इसकी और मेरी महत्वाकांक्षा और लक्ष्य एक ही है. यह अच्छा मौक़ा होगा, जब यह अपनी दिलरुबा के पास रवाना हो जाए और मैं इसरार के पास. मधु ने बड़ी उम्मीद से पूछा, “आपको कभी किसी से प्रेम हुआ है?”
“अपनी सूरत ही ऐसी नहीं. मुझसे भला कौन इश्क़ करेगी?”
“मैं आपका हाल पूछ रही हूं.”
“मैं तुम पर मर मिटा हूं.”
“मेरी वास्तविकता जान कर राय बदल दें.”
“कोई चांस नहीं. तब मुझसे तुम्हारा कोई कमिटमेंट नहीं था. तुम इसरार से प्रेम करने के लिए आज़ाद थी. उससे शादी करने के लिए भी क़ानूनी तौर पर आ़ज़ाद थी, पर शायद हिम्मत न कर सकी.”
“तो आपको बुरा नहीं लगा?”
“मुझे किसी ने कहा है, उन बातों पर ध्यान दो, जो सुख देती हैं. तो मुझे ख़ूबसूरत पत्नी मिली है, मुझे अच्छा लगा.”
इतनी उपेक्षा और तिरस्कार के बाद भी यह बुरे चेहरे वाला आदमी धन्य हुआ जाता है कि ख़ूबसूरत पत्नी मिली है. इस अभिव्यक्ति को मधु ने हादसे की तरह देखा. मधु के असमंजस ख़त्म न होते थे. निरामय के साथ रहने की आदत नहीं डाल पा रही थी और जिस घर में उसने इतने बरस गुज़ारे थे, वहां जाना नहीं चाहती थी. वह बार-बार मायके जाने की ज़िद ठान लेती थी तो इसलिए कि निरामय भड़क जाए, पर ऐसा हो न पाता.
मधु का बार-बार आना मुरलीधर को अनुचित लगता था, “केसर मुझे लगता है मधु सामंजस्य नहीं बना पा रही है.”
“कोशिश कर रही है. यदि वह शादी से साफ़ मना कर देती या भाग जाती तो हम कुछ नहीं कर सकते थे. अनिच्छा से ही सही, उसने हमारा मान रखा तो हमें उसे सहानुभूति देनी होगी.”
“तो तुम्हारी सहानुभूति पाने के लिए आती है? समझाओ लड़की को कि निरामय की भावनाओं की क़द्र करे.”
“हमने मधु की भावनाओं की क़द्र की? मैंने तब कहा था, फिर कहती हूं, उसे थोड़ा व़क़्त दो.”
“तब तक यदि शादी टूट गई, तलाक़ हो गया तो? मेरी पोज़ीशन मिट्टी में…” और मधु ठीक सामने थी, “पोज़ीशन! पापा मुझे विदा कर आपने अपनी पोज़ीशन बचा ली न? कभी सोचा है वहां रहते हुए मैं किस तकलीफ़ से गुज़रती हूं? नापसंद आदमी के साथ रहने का उपक्रम कैसे करती हूं? आपको मेरे घाव न तब दिखे थे, न अब दिखेंगे. मेरे आने से आपकी पोज़ीशन बिगड़ती है तो अब नहीं आऊंगी.”
मधु लौट गई. सामने कोई लक्ष्य नहीं, महत्वाकांक्षा नहीं, प्रयोजन नहीं. दिनभर निष्क्रिय पड़ी निरामय को कोसती रही. निरामय फ़िक्रमंद रहता. किसी दिन ऐसा न हो जाए कि वह शाम को घर आए और मधु जा चुकी हो. वह ऑफ़िस से दो-तीन बार ़फ़ोन करता. जिस दिन निरामय को घर लौटने में देर होती, मधु कामना करने लगती, एक्सीडेंट हो गया हो तो मुक्ति मिले. माता-पिता को सुना दूंगी कुंडली मिलाकर, कमाऊ देखकर, बड़ा सोच-विचारकर तुम लोगों ने जो ख़बीस चुना था, लो वह मर गया. मैं आज़ाद हुई. इसरार अब भी मेरे इंतज़ार में है. उसे यह हद दर्जे का विचार न डराता था, न शर्म से भरता था, बल्कि निरामय जब कहता, “मुझे लौटने में देर हुई, तुम्हें फ़िक्र  हो रही होगी.” तब मधु निर्ममता से कह देती, “नहीं हुई.” निरामय शांत बना रहता. मधु की तुनक बढ़ जाती. यह भड़कता क्यों नहीं? हंगामा क्यों नहीं करता? जब देखो, तब सरेंडर. क्या इसमें मेल ईगो, स्वाभिमान, आत्मसम्मान जैसे भाव नहीं हैं?
निरामय में सारे भाव थे, पर वह हौसला नहीं खोना चाहता था,
“मधु, एमएससी, आईटी जैसी डिग्री को क्या बेकार करोगी? मैंने एक इंस्टीट्यूट में बात की है. रिसर्च कर डालो. इस तरह उदास बैठी रहोगी तो मानसिक तौर पर बीमार हो जाओगी.”
यह पहली बार हुआ, जब मधु को निरामय का प्रस्ताव किसी लायक लगा. उसे ख़याल आ गया कि वह पीएचडी करना चाहती थी.
“पीएचडी में मेरी रुचि है.”
संस्थान जाते हुए मधु दिनों बाद रुचि से तैयार हुई. याद आया ब्रांडेड वस्त्र कभी उसकी कमज़ोरी होते थे. लेकिन शादी के बाद उसने कपड़ों को आलमारी में बंद कर दिया.
संस्थान जाते हुए मधु को लगता, उसके पुराने दिन लौट आए हैं, जब वह कॉलेज की रौनक हुआ करती थी. निरामय ने अपने प्रभाव और सम्पर्क से उसे नामी संस्थान में अवसर दिला दिया, इसलिए आभार स्वरूप वह निरामय से संस्थान की कुछ बातें कर लेती. कभी-कभी उसके काम के बारे में पूछ लेती. निरामय को लगा एक दिन वह मधु का दिल जीत लेगा. वह उत्साहित हो जाता, “थक गई? चलो आज बाहर खाना खाते हैं, चलो मैं किचन में मदद करता हूं, खाना जल्दी बन जाएगा… आज मूवी देखेंगे… आज शॉपिंग, मेरी छुट्टी है, तुम्हें इंस्टीट्यूट से ले लूंगा…” निरामय जब संस्थान पहुंचा, परिसर में कुछ शोध विद्यार्थियों के साथ खड़ी मधु हंस रही थी. ‘हंसते हुए यह कितनी ताज़ा और तनावमुक्त लग रही है. घर में नहीं हंसती. कारण मैं हूं. मेरा बेचारा-सा चेहरा और इसका परी जैसा. शादी तय होने के बाद मैंने जब भी इससे फ़ोन पर बात की, यह उत्साह प्रदर्शन नहीं करती थी. ख़ूबसूरत पत्नी मिलने की मौज ऐसी रही कि उसके निरुत्साह को मैं समझकर भी नहीं समझ पाया. नहीं समझा कि मेरी पर्सनैलिटी इसके उत्साह को ख़त्म कर देगी. इसके साथ अन्याय हुआ है.’ इधर मधु की नज़र निरामय पर पड़ी तो उसकी हंसी को ब्रेक लग गया. समूह से विदा लेकर उसके पास आई, “कब आए?”
“हंसते हुए अच्छी लगती हो.”
“क्यों आए? मैं आ जाती.”
“तुम्हें हंसते हुए देखने की तमन्ना थी तो आ गया. अरे बाबा भूल गईं? शॉपिंग.”
मधु निरामय के साथ भव्य प्रतिष्ठान में थी.
“मधु यहां अच्छे कपड़े मिलते हैं. ले लो, जो चाहिए.”
कलेक्शन लुभा रहा था. झिझकते हुए  ही सही- मधु ने चार सलवार-सूट ले लिए. घर आकर कपड़ों को उलटती-पलटती रही. निरामय उसकी प्रफुल्ल छवि को निहारता रहा.
“जानता हूं, तुम्हें कुछ ख़ास ख़ुशी नहीं हुई है कपड़ों को लेकर, पर तुम्हें ख़ुश देखना अच्छा लग रहा है. ये छोटी-छोटी ख़ुशियां हैं, जिन्हें पाने के जतन करने चाहिए. उम्र वापस नहीं लौटती. जो उमंग सोलह साल की उम्र में रही होगी, उसे तुम सत्ताइस साल की उम्र में महसूस नहीं करती होगी. हर उम्र का एहसास और कल्पनाएं अलग होती हैं, जिन्हें फिर नहीं पाया जा सकता. ज़िंदगी को लेकर सजगता और सावधानी न बरती जाए तो ज़िंदगी अपना अर्थ खो देती है और प्रयोजन भी. माना कि मैं तुम्हें पसंद नहीं, पर इन कपड़ों को क्यों सज़ा देती हो? यह पीला सूट पहन कर दिखाओ.”
यह शायद पहली बार ही था, जब मधु ने स्थिति को दूसरी नज़र से लक्ष्य किया- तो निरामय को बोध है मैं इसे पसंद नहीं करती? तो यह कैसा महसूस करता होगा? और जब शादी को तीन साल हो रहे हैं, तब भी मैं स्थिति को पहचानने, समझने व सम्भालने की कोशिश नहीं कर रही हूं. यदि मैं अब इससे मुक्ति चाहूं तो यह मुक्ति वैसी न होगी जैसी तीन साल पहले होती. तीन साल का फ़ासला वैसे तो बड़ा नहीं है, पर विवाह जैसे संदर्भ में बड़ा है. जिस आस्था और प्रतिबद्धता को लेकर मैं शादी नहीं करना चाहती थी, वे तीन साल पुरानी हो चुकी हैं. बड़ा फ़र्क़ यह आया है कि इसरार की शादी हो चुकी है. फ़र्क़ यह कि मुझे इस घर में रहने की आदत हो गई है. फ़र्क़ यह कि अब निरामय के मर जाने जैसी कामना भयभीत न करे, पर अमानवीय लगती है.
कभी-कभी होता यह है कि हम परिस्थिति को नहीं सम्भालते, बल्कि परिस्थिति हमें सम्भाल लेती है. शिशु की आहट परिस्थिति का दिशा-निर्देश थी. निरामय ख़ुश था, “मधु, बेटी हो तो तुम्हारी तरह ख़ूबसूरत हो. बेटा हो तो उसकी शकल मेरे जैसी न हो, वरना तुम जिधर देखोगी मेरी ही शकल नज़र आएगी.”
“हां… नहीं…” खण्डन-मण्डन के बीच मधु ने अंदर की आवाज़ सुनी.
भगवान ने निरामय को सुंदर नहीं बनाया तो निरामय का क्या दोष? इससे मेरी शादी हुई, यह इसका दोष नहीं है. यह मुझे बलात भगा कर नहीं लाया है. भरे समाज में फेरे लिए हैं. यदि मुझसे कुछ उम्मीद करता है तो यह इसका अधिकार है, बल्कि उम्मीद नहीं करता, मेरी क्या उम्मीदें हैं, इस फ़िक्र में रहता है. तो मैं इसे स्वीकारोक्ति क्यों नहीं देती? यह सामने नहीं होता, तब इससे सहानुभूति होती है? सामने होता है, तब लगता है तालमेल सही रखने की दिनभर जो तैयारी की थी, बेकार हुई. असमंजस ख़त्म क्यों नहीं होते?
जेनी के जन्म पर केसर आ गई थी. केसर ने मधु के असमंजस भांप लिए.
“मधु, अब निरामय ही नहीं, ये बच्ची भी तुम्हारे साथ जुड़ गई है. यही तुम्हारा परिवार है. दूसरा विकल्प नहीं है. हो भी तो उस विकल्प को अपनाने में तुम्हें सामाजिक, मानसिक व पारिवारिक परेशानियों का सामना करना पड़ेगा. भीतर कुछ दरकेगा. निरामय इतने भले हैं कि ममता होती है. तुम अपनी बौखलाहट को नियंत्रित करो.”
“बाहर से कुछ दिखूं, भीतर से कुछ रहूं, यह हुनर मुझमें नहीं है. मेरी क़िस्मत ख़राब है. मैं सुखी नहीं रह सकती.”
“रह सकती हो. यदि निरामय की अच्छी बातों, आदतों पर ध्यान केंद्रित करो.”
“मां, तुम्हारे विधान भी… मैं अच्छी आदतों वाले तुम्हारे दामाद को स्वीकार करने की कोशिश नहीं करना चाहती.”
कुछ कोशिशें ऐसी होती हैं, जिनका होना हम नहीं जान पाते. इसीलिए मधु नहीं जान पाई कि वह क्या कोशिश कर रही है. मधु और निरामय किसी वैवाहिक समारोह से देर से लौटे थे. रात एक बजे निरामय को उल्टियां होने लगी थीं. वह अस्त-व्यस्त था, फिर भी पूछा था, “मधु, वही खाना तुमने भी खाया.  तुम ठीक हो न?”
“हां.”
और यही व़क़्त था, जब मधु को निरामय की ज़रूरत का एहसास हुआ. इसमें कुछ ज़रूरी गुण हैं. मां ठीक कहती हैं, निरामय की अच्छी आदतों, अच्छे स्वभाव, अच्छी बातों पर ध्यान दो. आईआईटीयन फ्रॉम खड्गपुर. तेरह लाख का पैकेज. सुस्थापित कम्पनी में प्रोजेक्ट मैनेजर… छोटी बात नहीं है. इसकी नैतिकता, विचारधारा व संयम छोटी बात नहीं है. बड़ी बात यह है, जिस सामाजिक भय के कारण मैं इसरार से शादी नहीं कर सकी, वह भय मेरे भीतर से गया नहीं है. नहीं गया है, इसलिए इस व्यक्ति, परिवार व संसार को छोड़ नहीं सकूंगी. छोड़ते हुए भीतर कुछ दरकेगा. अब जेनी और छह माह की रेनी भी मेरे जीवन का हिस्सा हैं. कहा जाता है वात्सल्य भाव इतना प्रबल होता है कि बच्चों को ममता देते-देते स्त्री हर किसी के लिए ममतामयी हो जाती है. मैं कितनी निर्ममता से निरामय के मर जाने की कामना करती रही हूं. अब वह कल्पना डराती है. यह न होगा तो ज़िंदगी में बहुत कुछ न होगा. मैं इसे अब भी बहुत पसंद नहीं करती. पर यह तो ख़ुद को पसंद करता होगा, जेनी-रेनी तो इसे बहुत पसंद करती हैं. इसकी मां और बहनों को तो यह अच्छा ही नहीं, ख़ूबसूरत भी लगता है. तो जिए मां का बेटा, पांच बहनों का भाई, बच्चियों का पिता… मधु अनायास भगवान के सामने थी, ‘ईश्‍वर निरामय सक्रिय और सेहतमंद रहें. जब मैं इन्हें स्वीकृति देने लगी हूं, इन्हें कुछ नहीं होना चाहिए.’
स्वीकृति.
कितने प्रतिशत?
यही ख़ुलासा होना था सिंगापुर में.
मधु के आंदोलन को नरम कर देना निरामय की क़ामयाबी थी. पूछा था, “मधु, इतना तो मैं जान गया हूं कि अस्वीकार करते-करते तुम मुझे स्वीकार करने लगी हो. बताओ मुझे कितने प्रतिशत स्वीकारोक्ति मिली.”
“तुम अनुमान लगाओ.”
“पचास प्रतिशत.”
“सौ प्रतिशत क्यों नहीं?”
“सौ प्रतिशत स्वीकृति कहीं नहीं होती. इसीलिए होते हैं मतभेद, वैमनस्य, टकराव, अभाव. मधु इसी का नाम ज़िंदगी है.”
“हां, स्वीकृति का मसला उलझा हुआ है. स्वीकृति का प्रतिशत जानना चाहते हो तो एक बार फिर सिंगापुर चलना होगा. यद्यपि वह जो वाहियात-सी शुरुआत हमने यानी मैंने वहां की थी, उसे याद कर मुझे शर्म आती है. फिर भी वहां जाना चाहती हूं. यह अनुभव पहला नहीं होगा. पहले अनुभव को मैंने जाया कर दिया, फिर भी जाना चाहती हूं. तुम ठीक कहते हो. उम्र लौटती नहीं, इसलिए उसे भरपूर जी लेना चाहिए.”
प्रासंगिक क्षण थे वो.
निरामय ने मधु को प्यार से देखा. इसके साथ जो भी विरोध रहे, आत्म प्रताड़ना से यह भी गुज़री है. अपने आप से संघर्ष करती रही है. इसके सामने असहनीय परिस्थिति थी, पर पलायन नहीं किया.
“इसी बात पर ग़ुलाम का सलाम ़क़बूल लीजिए. सिंगापुर का प्रस्ताव अच्छा है.”
एक अच्छे प्रस्ताव को निष्फल कर देने के लिए थोड़े से अभिशप्त क्षण पर्याप्त होते हैं. निरामय सुबह ऑफिस के लिए निकला था, पर लौटा नहीं. कार, जिसकी देखभाल वह ख़ुद से अधिक करता था, पिचक कर डरावनी हो गई थी. ड्राइव कर रहे निरामय का चेहरा पहचाना नहीं जा रहा था. स्तब्ध मधु दृश्य में होकर भी दृश्य में नहीं थी. नहीं जानती बच्चियों को किसने संभाला? निरामय का शव कैसे घर लाया गया? किसने परिजनों को सूचना दी? कैसे दिन बीते? कैसी रातें बीतीं? नहीं जानती, मां और पिताजी कब आए? किसने उसे उसके कमरे में पहुंचाया?
केसर तीस घंटे के सफ़र में घायल निरामय की सेहत के लिए निरंतर भगवान से प्रार्थना कर रही थी. पहुंच कर पता चला वे इस संसार को छोड़ कर जा चुके निरामय के लिए प्रार्थना कर रही थीं. वह वक़्त था तेज़ चीख मार कर जड़ हो जाने का, पर केसर का जी चाहा मधु को झिंझोड़ डाले- लो नापसंद आदमी चला गया तुम्हारी ज़िंदगी से. चुन लो, जिसे चुनना है… पर मधु जिस तरह करुण और निरुपाय होकर रो रही थी, वह देख केसर आकुल हो गई.
“जब निरामय के न रहने का विचार डराता नहीं था, तब वे थे, पर जब यह विचार डराने लगा, तब नहीं हैं. मैं जिसे पसंद करने लगती हूं, वही छूट जाता है. मेरे साथ ऐसा क्यों होता है मां?”
मधु के रूपांतरण को देख केसर साहस खो रही थी. मुरलीधर अवाक् थे. वे जानते थे मधु प्रदर्शन के लिए या किसी बाहरी प्रभाव के कारण नहीं रोती. तभी रोती है, जब उसे भीतर से रोना आता है. वह वास्तविक और सच्ची रुलाई थी, जिसका थमना आसान नहीं होता.              

सुषमा मुनीन्द्र


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