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कहानी- सबक (Short Story- Sabak)

“... चलो, मुझे इतनी तसल्ली तो मिली कि इस बुढ़ापे में मेरे बेटे नहीं तो बेटी मुझे अपने साथ रखने को तैयार है, पर सोचो, उन अभिभावकों की क्या स्थिति होती होगी, जिनका दुख बांटने के लिए उनकी बेटियां नहीं होतीं. बुरा मत मानना, पर एक बात कहूं, आज मैं तुम्हारा पिता हूं और तुमसे मेरा ख़ून का रिश्ता है, इसलिए तुम्हें आज मुझसे इतनी हमदर्दी हो रही है कि तुम मेरे लिए सब कष्ट उठाने को तैयार हो, पर क्या कभी तुमने इतनी सहृदयता से अपने ससुरजी के विषय में भी सोचने की कोशिश की है?.."

पिछले कुछ समय से अक्षत के मन में अपनी मम्मी को लेकर नाराज़गी बढ़ती जा रही थी. बात यह नहीं थी कि मम्मी उसे डांटती थीं या उसका ख़याल नहीं रखती थीं. उसे स्वयं को लेकर मम्मी से कोई शिकायत नहीं थी. मम्मी से उसकी नाराज़गी की वजह तो यह थी कि मम्मी का व्यवहार उसके दादाजी के प्रति बहुत ख़राब था. अक्सर मम्मी, दादाजी को बिना बात अपमानित ही नहीं करती थीं, बल्कि अकेले में पापा के सामने भी दादाजी का झूठा नाम लेकर उनकी बुराई करती रहती थीं.
उस दिन तो मम्मी ने हद ही कर दी थी. जब नानाजी के सामने उन्होने दादाजी का अपमान किया तो दादाजी को अच्छा नहीं लगा और वे चुपचाप बिना नाश्ता किए टेबल से उठ गए. दादाजी का नाराज़ होना भी ग़लत नहीं था. बात तो बस इतनी-सी थी कि दादाजी ने केवल मम्मी को इतना कहा कि अर्चना, लगता है आज तुमने भूल से उपमा में नमक दो बार डाल दिया. दादाजी का इतना बोलना भर था कि मम्मी ग़ुस्से में उबल पड़ीं, “बाऊजी, अब बुढ़ापे में आपका यही काम रह गया है कि आप सारे समय मेरे काम में ग़लतियां ढूंढ़ें. यह तो नहीं कि जो कुछ मिला खा लिया.” मम्मी इस तरह चिल्लाने से दादाजी ही नहीं, बल्कि टेबल पर बैठे सभी लोग चौंक गए थे.

मम्मी की बात पर अक्षत को बहुत ही ग़ुस्सा आया. उसका मन किया कि वह भी दादाजी के साथ टेबल से उठ जाए. पर मम्मी की बड़ी-बड़ी लाल आंखें देखकर उसकी हिम्मत नहीं हुई. उसने पापा की ओर देखा. वे चुपचाप नाश्ता करते रहे. उसे पापा पर भी बहुत क्रोध आया. वे मम्मी के इस तरह के व्यवहार करने पर उन्हें डांटते क्यों नहीं, उनसे इतना डरते क्यों हैं?

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नानाजी ने मम्मी को ज़रूर कहा, “बेटी, तुमको अपने ससुरजी से इस तरह बात नहीं करनी चाहिए थी.” इस पर मम्मी अपना ही रोना रोने लगीं और अपनी सफ़ाई में धड़ल्ले से झूठ बोलने लगीं.
मम्मी की बात सुनकर अक्षत हैरान हो रहा था. मम्मी उसे तो कहती हैं कि कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए, पर ख़ुद कितना झूठ बोल रही थीं. वे दादाजी का कौन-सा ध्यान रखती हैं? उन्हें अपनी शॉपिंग, किटी पार्टीज़ और फ़ोन से फ़ुर्सत मिले तो वे दादाजी का कोई काम करें.
अक्षत को समझ में नहीं आता कि उसकी मम्मी दादाजी से बेवजह इतनी नाराज़ क्यों रहती हैं. एक दिन उसने दादाजी से पूछा भी कि जब मम्मी उनका अपमान करती हैं तो वे उनके साथ क्यों रहते हैं. वापस गांव क्यों नहीं लौट जाते? तो दादाजी ने उसको बताया कि उन्होंने अपनी सारी जमा-पूंजी अपने दोनों बेटों की पढ़ाई-लिखाई, उनकी शादी में लगा दी, जो थोड़ी-बहुत रकम बची थी, वह दादीजी की बीमारी में लग गई. अब उनके पास कुछ नहीं बचा है कि वे अलग रहकर अपना गुजारा कर सकें. बस गांव में उनका एक छोटा-सा घर है, जिसको वे अपने जीते जी नहीं बेचना चाहते. मम्मी-पापा रोज़ उन पर दबाव डालते हैं कि वे अपना गांव का घर बेच दें, जिससे जो रुपए आएं, उससे वे लोग शहर में अपना बड़ा घर ख़रीद लें. दादाजी इसके लिए तैयार नहीं हैं, इसलिए मम्मी-पापा उनसे नाराज़ रहते हैं.
अक्षत को ये सब अच्छा नहीं लगा. यही सब सोचते-सोचते अक्षत की आंख लग गई. वह गहरी नींद में सो रहा था कि उसके दोस्त अभिनव ने उसे झिंझोड़ते हुए उठा दिया, “अरे अक्षत इस समय दिन में कैसे सो रहे हो. चलो मेरे घर चलो. मेरे दादाजी ने मेरे लिए एक सुंदर-सी ग़िफ़्ट लेकर आए हैं.
अभिनव के उठाने पर अक्षत तैयार होकर उसके साथ उसके घर चल दिया. अभिनव उसके पड़ोस में ही रहता था और दोनों एक ही स्कूल और एक ही क्लास में पढ़ते थे. अभिनव ने उसे अपनी साइकिल दिखाई और अपने दादाजी से मिलाने घर के अंदर ले गया. अक्षत ने देखा, अभिनव की मम्मी के साथ खाने की टेबल पर एक बुज़ुर्ग बैठे थे. अक्षत भी उन लोगों के साथ खाना खाने बैठ गया. अक्षत देख रहा था कि अभिनव की मम्मी बहुत प्यार से उसके दादाजी को एक-एक चीज़ के लिए पूछ रही थीं. अक्षत को अनायास ही अपनी मम्मी याद आ गईं. वे तो कभी भी उसके दादाजी को इतने प्यार से नहीं खिलातीं. वह जो भी चीज़ बनाती हैं, सबसे पहले पापा को परोसती हैं, फिर उसे तथा सबसे अंत में दादाजी की प्लेट में बहुत बेमन से डालती हैं.
अक्षत के नानाजी कई दिनों से अक्षत की मनोदशा का अध्ययन कर रहे थे. उन्होंने अक्षत से पूछा, “अक्षत बेटा, मैं तीन-चार दिनों से तुमको देख रहा हूं. तुम्हारे हाथ में पढ़ाई की क़िताब होते हुए भी तुम्हारा ध्यान कहीं और रहता है. क्या बात है, तुम इतने परेशान क्यों हो?”
अक्षत पहले तो कुछ देर तक चुप रहा, पर उनके बार-बार पूछने पर बोला, “नानाजी, मम्मी सारे समय दादाजी का इतना अपमान क्यों करती हैं? मैंने आज अभिनव के मम्मी-पापा को देखा, वे तो उसके दादाजी की इतनी इज़्ज़त करते हैं. फिर मेरी मम्मी ऐसी क्यों हैं? आप तो उनके पापा हैं, आप उन्हें कुछ कहते क्यों नहीं?”

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नानाजी ने अक्षत के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “ओह, लगता है तुम्हें अपने दादाजी से बहुत प्यार है. सच कहूं बेटा, तुम्हारी मम्मी का बर्ताव मुझे भी पसन्द नहीं, पर उसको समझाना इतना आसान नहीं है. पर तुम घबराओ नहीं. मैं अपने तरी़के से उसको सबक सिखाऊंगा.” नानाजी की बात सुनकर उसे काफ़ी तसल्ली मिल गई थी.
नानाजी, दस दिनों का प्रोग्राम बनाकर आए थे, पर पांच-सात दिनों बाद ही उन्होंने वापस जाने का मन बना लिया. दामाद-बेटी तथा अक्षत ने उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की, पर उन्होंने ज़रूरी काम का बहाना बनाकर उनकी बात अनसुनी कर दी. जाते-जाते वे अपनी बेटी और अक्षत को क्रिसमस की छुट्टियों में दिल्ली आने का न्यौता दे गए थे.
हालांकि अक्षत के मम्मी-पापा क्रिसमस की छुट्टियों में गोवा जाने का प्रोग्राम बना रहे थे, पर नानाजी के बहुत आग्रह करने पर उसकी मम्मी ने कुछ दिनों के लिए दिल्ली जाने का प्रोग्राम बना लिया.
अक्षत को लेकर अर्चना जब अपने पीहर गई तो उसे अपने घर का माहौल काफ़ी बदला हुआ लगा. एक तो अपनी मां की मृत्यु के बाद वह पहली बार पीहर गई थी, इसलिए भी उनकी अनुपस्थिति में घर उसे बहुत सूना लग रहा था. फिर बाऊजी भी बहुत उदास और सुस्त लग रहे थे. अर्चना सोचने लगी, दो महीने पूर्व जब बाऊजी उससे मिलकर गए थे, तब तो इतने बुझे-बुझे से नहीं थे. उसने बाऊजी से पूछा भी तो उन्होंने यह कहकर टाल दिया कि रिटायरमेंट के बाद अकेले बैठे समय काटना उनके लिए बहुत दुश्‍वार हो जाता है. बेटे-बहुएं सब अपने-अपने कामों में व्यस्त रहते हैं. दोनों भाइयों ने अपने दोनों बड़े बच्चों को हॉस्टल भेज दिया था. घर में दोनों के दो छोटे बच्चे रह गए थे, वे भी दिनभर अपने स्कूल, ट्यूशन में व्यस्त रहते हैं. शाम को खेलने चले जाते हैं. रात को भी उनके पास केवल टीवी पर अपनी पसन्द का कार्टून चैनल देखने आते हैं. उस समय भी अगर वे अपनी पसंद का कोई कार्यक्रम देखते होते हैं और उन्हें रिमोट पकड़ाने में दो-चार मिनट की ही देर हो जाती है तो चिल्ला-चिल्लाकर अपनी मम्मियों को बुला लेते हैं, ‘बाऊजी आप बच्चों को प्यार नहीं कर सकते तो कम से कम उन्हें रुलाया तो मत कीजिए. आप तो दिनभर टीवी देखते ही हैं, जब बच्चों का देखने का समय होता है तो भी आप बीच में उनको डिस्टर्ब करते हैं.’
अर्चना ने देखा, इस बार उसके भाइयों के रवैये में भी बहुत परिवर्तन हो गया था. रिटायरमेंट के पूर्व वे बाऊजी का जितना मान-सम्मान करते थे, वह सब तो समाप्त ही हो चला था. अब तो वे बात-बात में बाऊजी की अवमानना करने में भी नहीं चूकते थे. उस दिन भी खाने की मेज़ पर जब सब बैठे थे तो बाऊजी की तबियत ठीक नहीं होने के कारण खाना खाते समय निवाला उनके मुंह में न जाकर उनके कपड़ों पर गिर गया तो बड़े भैया का कितना मूड ख़राब हो गया था. वे झल्लाते हुए तुरन्त बोल उठे, “अमिता, बाऊजी को तुम अलग मेज़ पर बैठाकर खाना क्यों नहीं खिलातीं? बार-बार उनके मुंह से खाना गिरता रहता है. भोजन करने का मूड ख़राब हो जाता है.” बस, दूसरे ही दिन से बाऊजी को परिवार के सारे सदस्यों के साथ बैठने का जो एक मौक़ा मिलता था, वह भी बंद हो गया था. बाऊजी अपने ही कमरे में ़कैद से हो गए थे. बाऊजी पर हो रहे अन्यायों को देखते हुए भी अर्चना कुछ नहीं कर पा रही थी.

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उस दिन तो उन लोगों ने हद ही कर दी, जब उसके जाने के दो दिन पूर्व उसके दोनों भाई-भाभियों ने उसे अलग कमरे में बुलाकर बाऊजी की शिकायतों का एक लंबा-चौड़ा पुलिंदा उसके सम्मुख खोल दिया था. बड़े भैया कह रहे थे कि बाऊजी अपनी दो लाख की एफ.डी. को तुड़वाकर उससे प्राप्त होनेवाली धनराशि उन लोगों में क्यों नहीं बांट देते. इस उम्र में भी उनकी स्वार्थपरता को वे जी भरकर कोस रहे थे. उन्होंने जब उसे बताया कि वे बाऊजी को ‘ओल्ड पिपुल होम’ वृद्धाश्रम में रखने का मन बना रहे हैं तो उनकी बात सुनते ही वह क्रोध और आवेश से तिलमिला उठी- “तो नौबत यहां तक पहुंच गई कि अपने दो-दो बेटों और बेटी होने के बाद भी बाऊजी को इस उम्र में वृद्धाश्रम की शरण लेने को बाध्य होना पड़ेगा.” अक्षत पास ही बैठा था. जब उसने अपने मामा और मम्मी के बीच बहस होते देखी तो उनकी बातें सुन वह बहुत भोलेपन से पूछ बैठा, “मम्मी, यह ओल्ड पिपुल होम क्या होता है? अब क्या नानाजी वहीं रहेंगे? क्या मैं भी उनके साथ जा सकता हूं?” अर्चना ने उसे डांटते हुए कहा, “जब बड़े बात करते हों तो छोटों को बीच में नहीं बोलना चाहिए. तुम जाओ, बाहर जाकर खेलो.”
अक्षत के जाने के बाद उसने अपने भाइयों और भाभियों को सम्बोधित करते हुए कहा, “जब से मैं यहां आई हूं, बाऊजी के प्रति आप लोगों के व्यवहार को देखकर बहुत दुखी और क्षुब्ध हूं. बाऊजी के तीन-तीन बच्चों के होते हुए भी उन्हें अपने बुढ़ापे में वृद्धाश्रम की शरण लेनी पड़े, इससे अधिक शर्म की बात और क्या होगी? आप चिंता न करें, मैं बाऊजी को अपने साथ ले जाऊंगी. पर हां, एक बात ज़रूर कहूंगी कि वाह भैया, जिन माता-पिता ने इतने कष्टों से हमें पाल-पोसकर बड़ा किया, उनको अपने जीवन की संध्या बेला में क्या हम इस तरह जलील और अपमानित करें? मैं परसों जा रही हूं, बाऊजी का टिकट हम लोगों के साथ ही बनवा दें, मैं उन्हें अपने साथ ले जाऊंगी.” कहती हुई वह ग़ुस्से से बाहर निकल गई थी.
रात को खाना खाने के बाद उसने जब अकेले में इस विषय पर बाऊजी से चर्चा की तो कुछ देर गंभीर रहकर सोचने के बाद वे बोले, “बेटी, तुमने अभी जो कुछ भी मुझे बताया, वह मेरे लिए कोई नई बात नहीं है. आज तो कमोवेश सभी जगह हम वृद्धों की ऐसी ही स्थिति है. ऐसे बिरले ही मिलेंगे, जिन्हें इस अवस्था में अपने बच्चों से अपेक्षित मान-सम्मान मिलता है. आज के युग में यह हमारी नियति ही बन गई है कि हम अपनी शारीरिक वेदनाओं को भोगने के साथ-साथ अपनी मानसिक परेशानियों को भी मूक भाव से झेलते रहें.”
कुछ देर रुकने के बाद वे पुन: बोले, “तुमने तो इन लोगों द्वारा मुझे वृद्धाश्रम भेजने की बात शायद यह सोचकर मुझसे छिपायी कि मुझे इस बात से गहरा सदमा लगेगा. पर आज दोपहर में ही अक्षत मुझे तुम लोगों के बीच हो रही बातचीत के विषय में बताता हुआ पूछ रहा था- ‘नानाजी, वृद्धाश्रम क्या होता है? मामा-मामी आपको वहां भेजने की बात कर रहे थे, तो मम्मी उनसे झगड़ा क्यों कर रही थीं?’ मैंने पहले तो उसके प्रश्‍न को टालना चाहा, पर जब वह बार-बार मुझसे पूछता रहा तो मुझे समझाना पड़ा कि जब बच्चों के दिलों और घरों में बड़ों के लिए जगह कम पड़ने लगती है तो उन्हें अपने अभिभावकों को वृद्धाश्रम भेजना पड़ता है. जानती हो, मेरी बात सुनकर उसने मुझसे क्या कहा? वह बोला, ‘तब तो नानाजी आप अपने साथ मेरे दादाजी को भी क्यों नहीं ले जाते. मेरी मम्मी भी सारे समय पापा से कहती रहती हैं कि जब से दादाजी आए हैं, उनकी प्राइवेसी ख़त्म हो गई है और घर छोटा पड़ने लगा है. दादाजी का भी घर में मन नहीं लगता. आप दोनों साथ रहेंगे तो टाइम पास हो जाएगा.’
अपने बाऊजी की बात सुनकर अर्चना एकदम से झेंप गई थी. उन्होंने उसकी ओर देखते हुए कहा, “देखा बेटी, छोटे बच्चे कितने संवेदनशील होते हैं? वे कितनी जल्दी अपने ढंग से समस्या का समाधान ढूंढ़ लेते हैं.”
बाऊजी की बात सुनकर अर्चना कुछ क्षण मौन रहने के बाद बोली, “बाऊजी, पर मैंने सोच लिया है कि आप मेरे साथ ही चलेंगे. इन लोगों के पास मैं आपको और जलील नहीं होने दूंगी. इन लोगों के पास भले ही आपके लिए जगह नहीं है, पर मेरे घर में आप आराम से रह सकते हैं, अक्षत के साथ उसका रूम शेयर कर सकते हैं. हां, एक बात और है कि आप इन लोगों की बातों में आकर अपनी एफ.डी. बिल्कुल नहीं तुड़वाइएगा. ये लोग आपसे आपके बुढ़ापे का एकमात्र सुरक्षा कवच भी छीन लेना चाहते हैं.”

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अपनी बेटी की बात सुनकर उनके चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान दौड़ आई. अर्चना के कंधे पर हाथ रखते हुए बाऊजी बोले, “चलो, मुझे इतनी तसल्ली तो मिली कि इस बुढ़ापे में मेरे बेटे नहीं तो बेटी मुझे अपने साथ रखने को तैयार है, पर सोचो, उन अभिभावकों की क्या स्थिति होती होगी, जिनका दुख बांटने के लिए उनकी बेटियां नहीं होतीं. बुरा मत मानना, पर एक बात कहूं, आज मैं तुम्हारा पिता हूं और तुमसे मेरा ख़ून का रिश्ता है, इसलिए तुम्हें आज मुझसे इतनी हमदर्दी हो रही है कि तुम मेरे लिए सब कष्ट उठाने को तैयार हो, पर क्या कभी तुमने इतनी सहृदयता से अपने ससुरजी के विषय में भी सोचने की कोशिश की है?

मैं अभी कुछ समय पूर्व ही तुम्हारे यहां जाकर आया हूं, सच बताना, तुम्हारा अपने ससुरजी के साथ कमोवेश वैसा ही व्यवहार नहीं है, जो कि तुम्हारे भाई-भाभियों का मेरे साथ है? क्या तुमने भी कभी उनकी ज़रूरतों-आवश्यकताओं के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों का ख़याल किया है? मैं जितने दिन तक तुम्हारे घर रहा, मैंने मेरे और उनके प्रति तुम्हारे व्यवहार में ज़मीन-आसमान का अंतर महसूस किया. तुम छोटी-छोटी बातों में उनकी जितनी अवमानना करती हो, उसे देखकर तो मुझे स्वयं पर ग्लानि हो रही थी. हम लोगों ने तो तुम बच्चों को ऐसे संस्कार नहीं दिए थे.
एक बात और कहूं, तुम्हारे और विवेक के तुम्हारे बाऊजी के प्रति ऐसे आचरण को देखकर नन्हें से अक्षत के हृदय पर क्या बीतती है, क्या कभी तुम लोगों ने जानने की कोशिश की? अक्षत ने ही मुझे बताया कि तुम लोग जिस तरह उनका अपमान करते हो, उसे बहुत बुरा लगता है. वह भले ही तुमसे डरकर तुम्हारे सामने कुछ न बोले, पर तुम लोगों के प्रति उसके मन में कितनी दुर्भावनाएं पनपने लगी हैं, यह उसकी बातों से मैंने जाना. वह मुझसे कहता है कि वह भी बड़ा होकर तुम लोगों के साथ ऐसा ही व्यवहार करेगा. तभी तुम लोगों को पता चलेगा कि बड़ों की भावनाओं को आहत करना कितना कष्टकर होता है. वह किशोरावस्था के जिस दौर से गुजर रहा है, यह उसके लिए बहुत ही संवेदनशील समय है. इस समय बच्चों के मन की कच्ची मिट्टी पर जो भी लकीरें बन जाती हैं, वह कभी-कभी जीवनभर नहीं मिट पातीं.”
बाऊजी फिर कुछ देर चुप रहकर बोले, “हां, एक बात और है, तुम मुझे तो आने वाले समय के लिए अपनी एफ.डी. को बचाकर रखने की सलाह देती हो, फिर तुम लोग अपने बाऊजी से कैसे उम्मीद करते हो कि वे भी अपना एकमात्र सुरक्षा कवच, अपना मकान तुम लोगों को सौंप कर तुम्हारे मोहताज हो जाएं.
बस, अंत में इतना ही कहूंगा कि काश, तुम मेरे प्रति जितनी सहृदय और उदार हो, उसका अंशमात्र भी अपने ससुरजी के प्रति होती तो मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं होती. आज अक्षत की बातों ने मुझे प्रेरित किया कि मैं तुम्हें अपने कर्त्तव्य का बोध कराऊं. अब मेरी बात मानो या न मानो, तुम्हारी मर्ज़ी.”
बाऊजी की बातें सुनकर अर्चना का मन बहुत बोझिल हो गया था. वह चुपचाप वहां से उठ गई थी. दूसरे दिन वह अक्षत के साथ वापस अपने घर के लिए रवाना हो गई थी. भागती ट्रेन के साथ रास्ते भर उसके विचारों की उथल-पुथल भी चलती रही, पर जब वह घर पहुंची तो उसका मन स्थिर हो गया था.
घर पहुंचकर उसने अपने पहुंचने की सूचना बाऊजी को दे दी थी. उन लोगों के जाने के तीन-चार दिन बाद जब अक्षत का अपने नानाजी के पास फ़ोन आया तो वह बहुत ख़ुश लग रहा था. उसने उनसे कहा, “नानाजी, आपने तो मेरी मम्मी पर जादू कर दिया. सच, वे एकदम बदल गई हैं. अब वे दादाजी से बहुत अच्छे से बात करती हैं और उनका बहुत ध्यान रखती हैं. आपको विश्‍वास नहीं हो तो दादाजी से ही बात कर लें.” कहते हुए उसने फ़ोन अपने दादाजी को पकड़ा दिया था.
दादाजी फ़ोन पर केवल इतना ही बोल पाए, “हरदयालजी, आपने तो मेरी बहू को मेरी बेटी बनाकर भेज दिया. किन शब्दों में आपका आभार व्यक्त करूं?” कहते-कहते उनकी आवाज़ भर्रा गई थी.
हरदयालजी की आंखें भी नम हो गई थीं. अपनी योजना को सफलतापूर्वक क्रियान्वित होते देखकर उन्हें गहरा संतोष मिला था. उन्होंने तुरन्त अपने बेटों और बहुओं को बुलाया और उन्हें धन्यवाद देते हुए कहा, “बच्चों, चलो तुम लोगों के सहयोग से अपने ड्रामा का सुखद अंत देखकर मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है. तुम चारों की सहायता के बिना भला मैं अपनी बेटी को सही रास्ते पर कहां ला पाता?”
बाऊजी की बात सुनकर सभी के चेहरों पर हर्ष और संतोष की लहर दौड़ गई थी.

 

हंसा दसानी गर्ग

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