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कहानी- सभ्य लोग (Short Story- Sabhy Log)

मालीराम ने हिम्मत नहीं हारी. वो ठहरा ठेट देहाती, सीधा-साधा इंसान. वह सोच रहा था कि दिल्ली आकर भी अगर वह अत्रे साहब से बिना मिले चला गया, तो निश्‍चित रूप से उन्हें बहुत बुरा लगेगा. उसके पास अत्रे साहब का विजिटिंग कार्ड था. गांठ में पैसे भी ज़्यादा नहीं थे. किसी समझदार व्यक्ति ने उन्हें ऑटोरिक्शा वाले के साथ अत्रे साहब का पता समझाकर उन्हें रवाना कर दिया.

मालीराम को तहसील पहुंचने की जल्दी थी. पहले ही वह एक घंटा लेट हो चुका था. एसडीएम साहब ने न जाने क्यों उसे अर्जेंट तलब किया था. जैसे-तैसे एक ट्रक से लिफ्ट लेकर वह रवाना हो पाया था. रास्ते में चट्टाने टूट जाने के कारण उसकी यात्रा कुछ अनावश्यक रूप से विलंब हो रही थी. पूरी रात उसने अपने खेतों में पानी मोड़ने का काम किया था. आंखों की नींद, थकान और खुमारी भूल कर वह साहब के आदेश की पालना में दौड़ पड़ा था.
सहजपुर वैसे तो छोटा गांव नहीं था, परंतु दुर्गम पहाड़ियों से घिरे होने के कारण अभी भी वो मुख्य धारा से कटा हुआ था. गांव तक पहुंचने के लिए कोई पक्की सड़क नहीं थी. न पानी न बिजली. सभ्यता के विकसित हो जाने के प्रभाव से सहजपुर अब भी अछूता सा था. सहजपुर में अभी भी लोग 18-19 वीं सदी के ज़माने का जीवन जी रहे थे. गांव में एक प्राथमिक स्कूल ज़रूर था, परंतु अब भी मिडिल स्कूल पूरे 15-20 किमी. दूर ही पड़ता था. यही कारण था कि गांव में शिक्षा की भी कोई समुचित व्यवस्था नहीं हो पाई थी. मालीराम ने जैसे-तैसे 8वीं पास कर ली थी, सो पूरे गांव में उसकी गिनती सबसे विद्वान पुरुषों में हुआ करती थी. सब उसे आदर की दृष्टि से देखते थे. था भी वह गांव का अघोषित मुखिया ही. कभी किसी को ख़ास आन पड़ती थी, तो ले देकर वही था, जो प्रशासन और गांव को जोड़ने की कड़ी का काम करता था.
एसडीएम साहब के इजलास में हाज़िर होते ही मालीराम को साहब ने दो वीआईपी लोगों से मिलवाया. साहब कह रहे थे, "मालीराम, ये हमारे मेहमान हैं. इन्हें सहजपुर में कुछ रिसर्च कार्य करना है. अब इन्हें गांव पहुंचाने और इनके रहने-खाने की पूरी ज़िम्मेदारी तुम्ही पर है."
मालीराम ने देखा सामने बैठे साहब लगभग 45 के पार की उम्र के रहे होंगे. उनके साथ जो महिला थी वो लगभग 25-30 वर्ष की होगी. दोनों सभ्य और जहीन लग रहे थे. उसने बड़े आदर के साथ उन्हें प्रणाम किया. उन्होंने भी उसका प्रेमपूर्ण भाषा में अभिवादन किया.
साहब लोगों की कार बाहर खड़ी थी. एसडीएम साहब ने उन्हें विदा करते हुए मालीराम को एक बार फिर ताकीद करते हुए कहा, "उन्हें कोई कष्ट नहीं होना चाहिए."
तीनों कार में सवार होकर सहजपुर के लिए प्रस्थान कर गए. पहाड़ी दुर्गम मार्ग बेहद विकट और उबड़-खाबड़ था. 20 किमी. कार से सफ़र करने के बाद 7 किमी. की चढ़ाई पहाड़ी की चोटी पर बसे सहजपुर के लिए शुरू होती थी. मालीराम का मन तो बहुत था कि वह उनके गांव में तशरीफ़ लाने का कारण पूछे, लेकिन उसे लग रहा था कि कहीं साहब लोग नाराज़ न हो जाएं. बस उसे तो इतना ही पता था कि दिल्ली से पधारे दोनों साहबान कॉलेज में प्रोफेसर हैं. हिमालय क्षेत्र की कुछ दुलर्भ वनस्पतियों पर शोध कार्य हेतु वे सहजपुर तशरीफ़ लाए हैं.


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पैदल चढ़ाई का मार्ग उन दोनों के लिए मुश्किल लग रहा था. प्रो. साहब जिनका नाम मि. अत्रे था और उनके साथ महिला मैडम शेफाली. उनके लगेज को मालीराम ने उठा लिया था. प्रो. साहब मैडम का हाथ पकड़ कर पहाड़ी पगडंडी पर चलने लगे. सात किमी. की दूरी उन्होंने लगभग दस घंटों में पूरी की. वो अनुभवी व्यक्ति थे सो अपने साथ खाने-पीने का कुछ सामान लाए थे. मालीराम ने भी रास्ते की दुकान से कुछ बिस्किट आदि ले लिए, जो उनके लिए मार्ग के भोजन का काम करते रहे. मालीराम ने उन्हें जंगल के ताज़ा फलों का भी स्वाद चखाया. सफ़र कुल मिलाकर रोमांचक रहा और जैसे-तैसे वो रात्रि आठ बजे गांव सहजपुर जा पहुंचे.
घर में घुसते ही उसकी अनपढ़ बीवी लाडो ने मेहमानों का स्वागत किया. मालीराम के घर में ले देकर एक ही पक्का कमरा था. उसी कमरे में उसने उनके लिए ठहरने की व्यवस्था कर दी. रात्रि का भोजन उसकी पत्नी ने तैयार कर दिया. आदर सहित चौकी पर भोजन करा दिया. लैम्प की मध्यम सी रोशनी उन दोनों मेहमानों के लिए अजीब सा अनुभव साबित हो रही थी. दिल्ली की चकाचौंध से दूर प्रकृति की गोद में प्रकृति के इतने नज़दीक का जीवन उनके लिए अनूठा अनुभव था.
दूसरे दिन दो अन्य सेवक साथ लेकर मालीराम उन्हें जंगल की सैर कराने चल पड़ा. दोनों जंगल के जीवन में इतने हिल-मिल गए कि शोध कार्य में उन्हें बड़ा मज़ा आने लगा था. मालीराम ने अपने बूते से बाहर जाकर उनके सेवा-सत्कार में कोई कमी नहीं छोड़ी. फसल पकने को थी. सिंचाई का समय था, परंतु दोनों पति-पत्नी ने घर आए मेहमानों की आवभगत में कोई कमी नहीं आने दी. अतिथि तो देवता समान होते हैं, भारतीय संस्कृति की मूल भावना को दोनों पति-पत्नी बेचारे अक्षरशः पालन कर रहे थे. पहाड़ी लोग तो होते भी हैं मेहमांनवाज़ और संस्कारवान.
एक महीने बाद उनके जाने का समय आया. मालीराम अब उनसे इतना घुलमिल गया था कि उन्हें विदा करते समय उसे दुख हो रहा था. उसकी पत्नी लाडो जिसे वह अक्सर पागल कह देता था, मेम साहब से बहुत घुलमिल गई थी. अपनी तरफ़ से लकड़ी की बनी एक कलाकृति उसने उन्हें बतौर भेंट की. चलते-चलते प्रो. अत्रे ने मालीराम के हाथ पर दो हजार रुपए थमा दिए. मालीराम की आंखों से आंसू टपक रहे थे. उसने रूंधे कंठ से बस इतना ही कहा, "साहब, हम छोटे आदमियों का इतना अपमान मत कीजिए. आप जैसे सभ्य लोग हमारे गांव पधारे, बस इसी से हमारा जीवन सार्थक हो गया है."
प्रोफेसर ने बड़ी कोशिश की, लेकिन मालीराम ने पैसे नहीं लिए. मैडम शेफाली ने बड़ी ज़िद करके कुछ नोट बच्चों के हाथ पर ज़रूर रख दिए. दोनों प्रोफेसर ने एक बार फिर उन्हें बड़े प्रेम से दिल्ली शहर आने का निमंत्रण दे दिया. दुखी मन से मालीराम उन्हें तहसील तक विदा कर आया.
इस घटना को एक बरस बीता होगा कि लाडो का मानसिक संतुलन बिगड़ गया. आस-पास काफ़ी इलाज कराने पर भी आराम नहीं आ रहा था. गांव वालों ने मालीराम को दिल्ली जाकर लाडो का इलाज कराने की बात कही. मालीराम की यूं तो गांव में सबसे समझदार व्यक्ति के रूप में गिनती होती थी, किंतु उसने कभी दिल्ली देखी भी नहीं थी, सिर्फ़ सुना-सुना था. उसका मन डर से कांप रहा था. बड़ा शहर, जाएं तो कैसे? बात गंभीर थी, सो एक दिन कड़ा मन करके वह पत्नी लाडो को लेकर दिल्ली जा पहुंचा.
बस टर्मिनल पहुंचते ही उसने अत्रे साहब के फोन नंबर पर संपर्क किया. काफ़ी देर बाद अत्रे साहब उसे पहचान पाए. लेकिन बात बीच में ही कट गई. राम जाने क्या हुआ उनसे फिर फोन पर संपर्क ही नहीं हो पाया. उनका मोबाइल स्विच ऑफ़ हो चुका था. मालीराम ने हिम्मत नहीं हारी. वो ठहरा ठेट देहाती, सीधा-साधा इंसान. वह सोच रहा था कि दिल्ली आकर भी अगर वह अत्रे साहब से बिना मिले चला गया, तो निश्‍चित रूप से उन्हें बहुत बुरा लगेगा. उसके पास अत्रे साहब का विजिटिंग कार्ड था. गांठ में पैसे भी ज़्यादा नहीं थे. किसी समझदार व्यक्ति ने उन्हें ऑटोरिक्शा वाले के साथ अत्रे साहब का पता समझाकर उन्हें रवाना कर दिया.
दिल्ली की चमक-दमक देख मालीराम का दिल बैठ रहा था. उसे लगा जैसे वह जंगल की दुनिया से निकलकर किसी दूसरी दुनिया में आ गया है. मोटर गाड़ियों की रेलमपेल, बेतहाशा दौड़ते-भागते लोग और सीमेंट-कंक्रीट के जंगल में उसे खो जाने का डर सता रहा था.
ग्रीन पार्क कॉलोनी में अत्रे साहब की कोठी पर पहुंचते ही उसकी जान में जान आई. जैसे ही वो अत्रे साहब की कोठी में प्रवेश करने लगे कि गार्ड ने उन्हें रोक दिया. पालतू कुत्ते भोंक-भोंक कर उनका स्वागत कर रहे थे. गार्ड ने नपे-तुले शब्दों में उनके बढ़ते कदमों पर ब्रेक लगा दिया.
"साहब घर पर नहीं हैं."


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मालीराम ने मेमसाहब के बारे में पूछा. पता चला वो भी देर रात लौटेंगी. क्या करे मालीराम? जिसके भरोसे यहां तक आ पहुंचा था वो अब नदारद थे. फोन, अत्रे साहब उठा नहीं रहे थे. स्वीच ऑफ की रट से मालीराम का दिल बैठता जा रहा था. बेचारे कोठी से बाहर ही बैठे-बैठे साहब के लौटने का इंतज़ार करने लगे. वापस जाना भी आसान नहीं था.
रात को दस बजे के क़रीब अत्रे साहब की कार कोठी में प्रविष्ट हुई. अंजान लोगों को अपने कोठी के बाहर बैठे देख उनका माथा ठनका. सभ्य चेहरे पर कुछ आक्रोश की लकीरें उत्पन्न हुई. मालीराम उन्हें देखते ही दौड़ पड़ा. दुआ सलाम हुई. साहब को आया देख नौकर दौड़े. मालीराम ने राहत महसूस की. अब सब ठीक हो जाएगा. खिसियाए से अत्रे साहब ने उन्हें पहचान कर, दिल्ली आगमन का प्रयोजन पूछा. हल्की-सी डांट भी पिलाई कि बिना सूचना दिए अचानक क्यों आ गए. मालीराम को कुछ समझ नहीं आ रहा था. अत्रे साहब ने नौकर से उनके खाने-पीने की दरियाफ़्त की. फ़ौरन उन्हें पानी पिलाने का आदेश दे दिया. साहब का आदेश पाते ही एक नौकर दो क़ीमती ग्लास एक शानदार ट्रे में सजाकर उपस्थित हुआ. उन्हें गर्व के साथ पानी पिलाया गया.
इतनी देर में श्रीमती अत्रे भी आन पहुंची. भारी शरीर, आधुनिक लिबास और आधुनिकता की प्रतिमूर्ति ने उन्हें देखकर नाक भौ चढ़ाई. तुरंत अंदर जाकर दोनों में गुप्त मंत्रणा हुई. अत्रे साहब ने बाहर आकर मालीराम को समझाया,
"तुम्हारे रहने की व्यवस्था मैंने एक धर्मशाला में कर दी है. खाना भी वहां तैयार मिलेगा. हमारा घर छोटा है. आप लोग कंफ़र्ट महसूस नहीं कर पाओगे. ड्राइवर तुम्हें छोड़ आएगा. एक बात का ध्यान रखना मालीराम, मेरे साथ जो शैफाली मैडम तुम्हारे गांव आई थीं वह बात यहां किसी से भूल कर भी मत कहना."
इतना सुनकर मालीराम अवाक-सा रह गया. अत्रे साहब ने उन्हें तुरंत विदा कर दिया. मालीराम सपत्नी कार में रवाना हुआ. उसकी आत्मा उसे कचोट रही थी. उसने ड्राइवर से कहा,
"रहने दो भैया! हमें स्टेशन छोड़ आओ. हम सभ्य लोगों में रहने के लायक नहीं हैं."

- नरेश शर्मा

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Photo Courtesy: Freepik

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