‘वह तो दूसरों के लिए हंसती है, अपने लिए कहां! रात को अकेले में बिस्तर पर सिसकती होगी. बस इतना ही बदलाव आएगा क्या? नहीं, कुछ और सुखद परिवर्तन की ज़रूरत है. हे ईश्वर! जो करना है जल्दी करना, मेरे पास भी कहां वक़्त बचा है अब?’ मैंने हाथ जोड़े.
प्रतिदिन जैसा ही सूर्योदय था, चिड़िया बेपरवाह चहक रही थी, प्राणदायिनी हवा तन-मन को शीतल किए दे रही थी. रोज़ की तरह ही दूधवाले, पेपरवाले काम पर निकल पड़े थे, घरों में लोग नहाकर भजन-पूजन कर रहे थे. रसोई में चाय की प्यालियां खड़क रही थीं. ब्रेड-बटर, परांठे-सब्ज़ियों की ख़ुश्बू आ रही थी. पुरुष वर्ग काम पर जाने की तैयारी में थे. मांएं बच्चों को लेकर दौड़ती हुईं इस हड़बड़ी में कि कहीं स्कूल बस छूट न जाए- सब कुछ एक जैसा, किसी पर कोई असर नहीं कि किसी की हरी-भरी दुनिया बसने से पहले ही उजड़ गई. मैं अपने एकांत कमरे की खिड़की पर खड़ी, सामने वाले घर पर नज़रें जमाए थी, जो आंसुओं के सैलाब से धुंधली हो आई थीं.
दस वर्ष पूर्व बतौर सहायक शिक्षिका के पद से रिटायरमेंट के बाद से ही घर की छत पर बना यह छोटा-सा, हवादार कमरा मेरी शरणस्थली बना हुआ था. मैंने नौकरी बहुत बेमन से की थी, कुछ आर्थिक कारणों से और कुछ पति एवं ससुरालवालों के दबाव के कारण. मैं एक अंतर्मुखी, दीन-दुनिया से बेख़बर स्त्री थी. मुझे अपनी कल्पनाओं की दुनिया में व्यस्त रहना अच्छा लगता. मेरे विचार, मेरे सपने मुझे लेखन की दुनिया में खींच लाए.
अपनी कहानियों और लेखों के प्रकाशन से मुझे अनुपम संतोष मिलता, किंतु अन्य आम स्त्री की भांति मुझे भी पति, सास, ससुर, देवर, ननद और अपने दोनों बच्चों की सेवा-टहल करनी पड़ी. लेखन का समय कम मिलता, किंतु मैं निकाल ही लेती. प्रकाशित रचनाओं को देखकर मिली ख़ुशी मैं किसी से बांटती नहीं, किंतु पति का मूक समर्थन मेरा संबल था. एक के बाद एक मैं सारी ज़िम्मेदारियां निभाती चली गई.
मैं तटस्थ भाव से दुनियादारी निभाती रही, किंतु पति की मृत्यु के आघात ने मुझे सांसारिकता से विमुख कर दिया. कई सालों तक यंत्रवत् नौकरी करते हुए एक दिन सेवानिवृत्त हो गई. उसी दिन शाम को बुलाकर मैंने अपनी एकमात्र बहू को आलमारी व बैंक लॉकर की चाभियां, क़ीमती साड़ियां व गहने- सब कुछ सौंपकर हाथ झाड़ लिए. हमारा छोटा-सा बंगला सभी सुख-सुविधाओं से सम्पन्न था, किंतु धन-ऐश्वर्य, विलासिता-सांसारिकता से मैं पूर्णतः विमुख हो चुकी थी.
मैंने छत पर एक एकांत कमरा बनवाया और इसी कमरे में रहने लगी. कमरे में एक तख्त, पतला गद्दा, चादर, बड़ी-सी खिड़की के पास अपने सबसे प्रिय कोने में अपनी स्टडी टेबल व कुर्सी, एक बक्सा (गिनी हुई कुछ साड़ियां व तौलिए रखने के लिए), एक टेबल लैम्प और एक पंखा- बस, इतना ही सामान रखवाया.
मेरे लिखने-पढ़ने की मेज़ ही मेरी सबसे रुचिकर जगह थी, जहां मेरी कल्पनाएं नित नए रूप में पंख पसारे मेरे आस-पास मंडरातीं और उन्हें श्वेत काग़ज़ों पर शब्दों में ढालते, मूर्त रूप देते हुए मैं दुनिया की सबसे सुखी स्त्री होती. मैं मोह-माया से विरक्त पचहत्तर वर्षीया वृद्धा, अपनी ही रचनाओं में लीन जी रही थी, तभी एक दिन अचानक मेरा भी किसी से जुड़ाव हो गया और मैं किसी के मोह में पड़ गई.
उस दिन सुबह नहा-धोकर बैठी ही थी कि अचानक शंख, उलूक-ध्वनि और खिलखिलाहट ने मेरी तंद्रा भंग कर दी. देखा, सामने वाले घर का बड़ा लड़का शादी के बाद पत्नी के साथ घर में प्रवेश करने जा रहा था. दूल्हा धोती-कुर्ता व सिर पर टोपोर पहने था और उसके बगल में लाल बनारसी साड़ी में सजी, सिमटी-सी खड़ी थी उसकी दुल्हन- सिर पर श्वेत मुकुट, विदाई के आंसुओं से धुला सुंदर चेहरा, क्लांत भाव, नयन झुके हुए. लड़का कुछ मस्ती के मूड में था. मां द्वारा आरती कर लेने और बहनों से कुछ लेन-देन के बाद उस जोड़े को गृह-प्रवेश की अनुमति मिल गई.
वह एक बंगाली ब्राह्मण परिवार था. अगले दिन बहूभोज के आयोजन में बहू ने हरे रंग के सुनहरे-चौड़े बॉर्डर वाली तांत की साड़ी पहनी थी. वह गहनों से लदी थी, केश पूरे खुले थे. घूंघट भी बस नाममात्र का था. सर्वप्रथम साड़ी, सिंदूर, आल्ता व अन्य सामग्री उसके आंचल में देते हुए पति ने जीवनभर उसके वस्त्र-भोजन की ज़िम्मेदारी वहन करने का वचन दिया, फिर बहू ने कोई एक व्यंजन सबकी थाली में परोसा और भोज शुरू हो गया. हंसी-ख़ुशी का माहौल था.
यह सारा आयोजन उनके घर के आंगन में हो रहा था, जो मुझे अपनी खिड़की से स्पष्ट दिखाई दे रहा था. अचानक मुझे ध्यान आया, कल से मैं लगातार सामनेवाले घर की ओर टकटकी लगाए बैठी हूं. जब भी मेज़ पर लेखन या पठन के लिए बैठती, आंखें अनायास ही उस घर पर चली जातीं. दुबली-पतली, बड़ी-बड़ी आंखोंवाली, घनेरी पलकें, सुतवां नाक और पतले अधरों वाली वह श्यामवर्णा लड़की मेरे मन में बस गई. प्रतिदिन उसे और उसके कार्यकलापों को देखते रहने का लोभ मैं संवरण न कर पाती.
अतिथियों के जाने के बाद वह छुईमुई-सी, नई-नवेली दुल्हन एक कर्त्तव्यपरायण बहू के रूप में बदल गई. झाड़ू-पोछा लगाती, पानी भरती, सास के साथ खाना बनवाती, ट्रे में चाय-नाश्ता सजाकर सबको- जो जहां मांगे, वहीं दे आती. उसके पति और देवर एक जैसे दिखते थे. ननद व देवर उसके प्रिय मित्र बन गए थे. उनके साथ ही वह बाज़ार व पिकनिक जाती, बागवानी करती.
वह घर की दुलारी बहू थी. उसका पति उस पर जान छिड़कता था. शाम छह बजते वह पति की प्रतीक्षा में छत पर चली जाती. सात बजे मोटरसाइकिल की आवाज़ सुनते ही वह हिरनी-सी कुलांचे भरती नीचे पहुंच जाती और आंखों में ढेर सारा प्यार व होंठों पर सलज्ज मुस्कुराहट लिए गेट खोल देती. पति उसे नज़रों ही नज़रों से प्यार करता, फिर दोनों अंदर जाते. सब मिलकर खाते-पीते, मस्ती करते. कभी-कभी बहू पति के साथ उसकी मोटरसाइकिल के पीछे चिपककर घूमने जाती, तो उसकी ननद हाथ हिला कर उसे विदा करती.
फिर रात गहराती, दरवाज़े-खिड़कियों के पर्दे लहराते. मैं अपने एकांत कमरे में बैठी उनके कमरे की रोमानियत को महसूस करती. उस घर में ‘ज़िंदगी’ बसती थी, जिसने मुझे भी प्रफुल्ल कर दिया था. उस दौरान मैंने दर्जनों प्रेमकथाएं लिखीं. मेरे पाठक-प्रकाशक विस्मित थे कि इस पचहत्तर वर्षीया बुढ़िया में ऐसी कौन-सी प्रेम की कोपलें फूट आईं, जो यह तन-मन में सिहरन जगानेवाली, सच्चे प्यार की अनुभूति करानेवाली कहानियां लिखे जा रही है. अब उन्हें भला कौन बताता
कि मैं सचमुच ही सामनेवाली बहू, जिसका मैं नाम भी नहीं जानती थी, से एक गहरा रिश्ता जोड़ बैठी थी.
फिर उसके देवर को कहीं बाहर नौकरी मिल गई और वह चला गया. उसकी ननद की भी शादी हो गई. अब घर में बस दो जोड़े रह गए थे, जिनमें एक वृद्ध था और दूसरा जवान- प्रेम में उन्मत्त, जीवन से भरपूर. माता-पिता उन्हें पूर्ण प्रेम और संरक्षण देते, उनकी ख़ुशी से ख़ुश होते. शायद अब वे उनसे एक बच्चे की अपेक्षा करने लगे थे और ऐसा ही कुछ होता भी, यदि अचानक एक भयंकर दुर्भाग्य का साया उस परिवार पर न पड़ा होता.
मैं रातभर सो नहीं पाई थी, जब शाम को मेरी बहू ने मुझे बताया कि सामनेवाले घर के बड़े पुत्र की एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई.
उस घर से आती मां की चीखें, पिता का निःशब्द क्रन्दन और बहू का आर्तनाद मैं अपने कमरे से सुन और महसूस कर सकती थी. पूरी रात गृह-स्वामी अपने छोटे पुत्र के साथ युवा बड़े पुत्र के शव की कांट-छांट देखते रहे थे. उनकी रात पोस्टमार्टम रूम के बाहर ही बीत गई और अब भोर में स़फेद वस्त्रों में लिपटा शरीर घर के आंगन में पड़ा था. वही शरीर, जिसे मां ने महीनों कोख में रखा, जन्म दिया और बड़े अरमानों से पाला था. वही शरीर, जो पिता के बुढ़ापे की लाठी था, बहन-भाई का दुलारा था और जो एक युवा स्त्री का सब कुछ था.
वह बदहवास-सी निर्जीव शरीर को निहार रही थी. उसकी ननद दहाड़ें मारती उसे खींच रही थी. अचानक उसकी सास गरजी,
“इसी नासपीटी के लिए कश्मीर-भ्रमण का टिकट कटाने गया था मेरा लड़का और ऊपर का टिकट कटवा आया.”
“मां! ये क्या कह रही हो?” छोटे पुत्र ने विरोध करना चाहा, किंतु वह नहीं रुकी.
“मैं कैसे चुप रहूं. इसे कोख में रखा था नौ महीने. बित्तेभर से छह फुट का जवान बना कर जिसे सौंप दिया, वही खा गई इसे… इसे जन्म देने की पीड़ा सही मैंने, अब इसे खोने का दुख कैसे सहूं?” मां ज़मीन पर लोट गई.
मां के इस विलाप से बहू पत्थर का बुत बन गई. फिर किसी ने भी उसे एक आंसू बहाते नहीं देखा, कुछ बोलते नहीं सुना. वह वहीं पुतले की तरह पड़ी रही, अर्थी उठने तक.
वह घर वीरान हो गया. कुछ दिनों बाद पहले ननद गई और फिर देवर भी चला गया. घर में केवल तीन प्राणी रह गए थे. वे तीनों कहीं खो से गए थे. कोई नज़र ही नहीं आता था. कभी-कभी उस ख़ामोशी को तोड़ती एक बेबस मां के क्रंदन या बहू को कही गई किसी बात की बड़बड़ाहटों की आवाज़ें…फिर वही मौत का सन्नाटा.
बहू के कमरे के पर्दे वैसे ही लहराते, वैसी ही सुरमई रातें होतीं और शीतल बयारें भी वैसी ही, किंतु विशाल पलंग के कोने में पड़ी बहू का साथी कहीं गुम हो गया था. वह उस खाली स्थान पर हाथ रखे लेटी रहती होगी… सूखी आंखें और बंद होठ लिए.
मेरी लेखनी चुप हो गई थी. मैं अपनी कहानी के पात्रों की रचयिता थी, जैसा चाहती उन्हें वैसा ही चलाती थी. किंतु सामनेवाले घर के पात्रों से मैं भले ही बहुत गहरे तक जुड़ गई थी, पर उनका रचयिता कोई और था. यदि इस कहानी की रचनाकार मैं होती तो स्थिति कुछ और होती, किंतु यहां तो पात्रों की डोर ऊपर वाले ने थाम रखी थी.
अचानक मेरे कमरे का दरवाज़ा खड़का और मेरी बहू तेज़ी से सामने आ खड़ी हुई.
“अपने ख़ुराक की दो रोटियां भी आप लौटा दे रही हैं, ऐसा कैसे चलेगा? चलिए, नीचे चल कर हमारे साथ रहिए, कम से कम आंखों के सामने तो रहेंगी.”
“मेरी चिंता छोड़, यह बता सामनेवाले घर की बहू के क्या हाल हैं?”
“अब उस बेचारी के क्या हाल होंगे? पति की मृत्यु के आघात से पत्थर हो गई है. एक ही जगह पड़ी रहती है. पुत्र के ग़म में पागल-सी हुई मां, उसे ही मृत्यु का कारण ठहराती है.”
मैं उदास हो गई्र. ‘खाना ठीक से खा लिया करूंगी’ के आश्वासन के बाद मेरी बहू चली गई. उस लाचार युवती के जीवन का ऐसा दुखद पटाक्षेप? नहीं, यह नहीं हो सकता. मैं धैर्य से ईश्वर के अगले क़दम की प्रतीक्षा करती रही. वैसे मेरे कल्पनाशील मस्तिष्क ने उसके भविष्य की कहानी रचनी शुरू कर दी थी. क्या वह विधाता के आदेश से मिलती-जुलती होगी?
फिर पता चला, बहू का देवर आया है. हू-ब-हू पति जैसे चेहरेवाले देवर को सामने देख बहू अचानक दहाड़ें मार कर रो पड़ी. महीनों तक बुत बनी रही थी, किंतु अब आंसुओं के सैलाब ने उसे गहरे आघात से उबरने का अवसर दे दिया. वह धीरे-धीरे सामान्य होने का प्रयास करने लगी.
मेरे दिन का अधिकांश समय उसे ताकते ही बीतता. ईश्वर ने अवश्य उसके लिए भी कुछ सोच रखा होगा. उसके नियम क्रूर होते हैं, किंतु अन्यायपूर्ण नहीं. अब मैं जितनी कथा-कहानियां लिखती, सब दुखांत हो जाते. लेखनी तो वैसी ही चलती थी, किंतु उससे निकलनेवाले शब्द अश्रु से पगे, वेदनापूर्ण हो जाते.
उस दिन मेरे सामने ब्रेड के तीन स्लाइस, मिठाई और चाय रखी थी. मैं धीरे-धीरे चाय की चुस्कियां लेने लगी. तश्तरियों की ओर हाथ बढ़ाने का कोई उपक्रम नहीं किया. अचानक सामनेवाले घर की बहू करीने से हल्के रंग की सूती साड़ी पहने और बैग लिए बाहर आई. वह ऑटो में बैठी, तो पीछे खड़ी उसकी ननद ने मुस्कुराते हुए कहा, “नौकरी का पहला दिन मुबारक़ हो, भाभी.”
बहू ने हंसने की चेष्टा की, पर सफल नहीं हुई. ऑटो आगे बढ़ गया.
ओह! तो उसे नौकरी मिल गई है. अवश्य ही पति के स्थान पर मिली होगी. अब बाहर निकलेगी, चार लोगों से मिलेगी तो मन बहलेगा. दायित्वबोध या ज़िम्मेदारियों का एहसास व्यक्तिगत पीड़ा से उबरने का अच्छा माध्यम है, मैंने सोचा. मेरे सुस्त शरीर में चेतना भर गई. मैंने फटाफट अपना नाश्ता ख़त्म किया और ऊपर से ही आवाज़ लगाई, “बहू! एक कप चाय और मिलेगी?”
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“क्यों नहीं मम्मी, अभी लाई!” बहू ने नीचे से ही जवाब दिया.
कभी कुछ न मांगने वाली मां के एक इशारे पर वह सौ जान न्यौछावर हो गई. दो मिनट में चाय हाज़िर थी. मैं गर्म चाय की चुस्कियों के साथ ख़ुशनुमा रचनाएं रचने लगी.
प्रतिदिन सामनेवाली बहू को ऑफ़िस जाते हुए देखने का एक अलग आनंद था. उसमें परिवर्तन आ रहा था. उसने प्लेन साड़ियों के स्थान पर फूलदार या खिलते हुए रंगों की साड़ियां पहननी शुरू कर दीं. फिर मैंने उसे हल्का मेकअप, स्टाइलिश जूड़ा और बेहतरीन सैंडिल पहनते देख कर अनुभव किया कि समय के साथ जख़्म सूखने लगे हैं. ज़िंदा रहने के सौ बहाने हैं. कभी-कभी आने वाली ननद और देवर के साथ वह हंसने-बतियाने लगी थी. सबसे सुखद था वह दृश्य, जब उसकी सास को मैंने उसे टिफ़िन थमा कर हाथ हिलाकर विदा करते हुए देखा.
उसके पति की मृत्यु के बाद मुझे स्वयं अपनी ज़िंदगी ठहरी-सी लगती थी. उसे रोते-बिलखते देखकर लगता, मैं भी किसी क्षण समाप्त हो जाऊंगी. कभी मैं उसके साथ रोई थी, आज उसकी ख़ुशी में शरीक होकर प्रसन्न हो रही थी.
जैसे मैं अपनी कहानियों के पात्रों को इच्छानुसार ढालती थी, वैसे ही परमेश्वर भी तो अपने बनाए पात्रों के जीवन में उलट-फेर कर के आनंदित होता होगा! लेकिन यदि वह मेरी कहानी का क़िरदार होती, तो मैं उसका पुनर्विवाह करवा देती, उसकी गोद में भी एक चांद-सा बच्चा खेलते देखती.
‘चल-चल, ज़्यादा उड़ मत. ईश्वर ने शायद तेरी इच्छानुसार ही तो उसे स्वावलंबी बना दिया, उसे हंसने का मौक़ा दिया. जो उसे कोसते थे, अब प्यार करने लगे हैं. अब और क्या चाहती है तू?’ मेरे अंतर्मन ने मुझे फटकारा, तो जवाब भी वहीं से किसी ने दिया, ‘वह तो दूसरों के लिए हंसती है, अपने लिए कहां! रात को अकेले में बिस्तर पर सिसकती होगी. बस इतना ही बदलाव आएगा क्या? नहीं, कुछ और सुखद परिवर्तन की ज़रूरत है. हे ईश्वर! जो करना है जल्दी करना, मेरे पास भी कहां वक़्त बचा है अब?’ मैंने हाथ जोड़े.
वह नवरात्रि का द्वितीय दिन था. मैं यूं ही बैठी थी. अचानक चिर-परिचित उलूक-ध्वनि व शंखनाद ने मेरे कान खड़े कर दिए. मैं लगभग भागती हुई खिड़की के पास पहुंची. शायद ईश्वर ने मेरी पुकार सुन ली थी, किंतु यह क्या! वह तो उसका देवर था दूल्हे के वेश में. उसके बगल में गुलाबी जोड़े में उसकी अर्द्धांगनी. मेरा मन बुझ गया. विधवा भाभी शायद अपशकुन के भय से वहां न थी. ननद-ननदोई, बच्चे, सास-ससुर- सब प्रसन्न मुद्रा में खड़े थे. वह कहीं छुप कर तो खड़ी होगी? पर कहां? मेरी व्यग्र दृष्टि इधर-उधर भटकने लगी. अचानक मेरी धड़कनें तेज़ हो गईं, श्वास-प्रश्वास तीव्र से तीव्रतर होते गए.
अरे! मैं भी कैसी मूर्ख थी, सामने खड़ी सामनेवाले घर की बहू को पहचान नहीं पा रही थी. वही तो पति के बगल में दुल्हन के लिबास में खड़ी थी. सूनी मांग अब सिंदूर से दमक रही थी. वैधव्य के श्वेत वस्त्र अब चमकीले रंगों में परिणत हो गए थे. एक वीरान दुनिया आबाद हो गई, टूटे दिल पुनः जुड़ने लगे, कामनाएं पुनः तरंगित होने लगी थीं.
मेरी ख़ुशी का कोई ठिकाना न था, पर बाकी दुनिया उस दिन की भांति आज भी इस सबसे जैसे बिल्कुल अछूती, प्रभावहीन थी. सब अपने-अपने काम में मस्त थे, उन्हें किसी से क्या लेना-देना. किंतु सूर्य की किरणें आज ज़्यादा चमकीली थीं, चिड़ियों के कलरव में जीवन का संगीत बह रहा था…
सामनेवाले घर की बहू इस बात से अनभिज्ञ थी कि कोई और भी उसकी ख़ुशी में शरीक था. घर के ऊपर एकांत कमरे में एक वृद्ध स्त्री प्रसन्नता से नाच और गा रही थी. आज उसके जोड़ों में दर्द नहीं था और न ही सांस फूल रही थी. वह अपनी बहू से आज कुछ मीठा खाने की फ़रमाइश करने वाली थी, उसके लेखन में फिर से प्रेम की उत्ताल तरंगों के गीत सजनेवाले थे. स्त्री-पुरुष के चिर प्राचीन व अति नवीन रिश्तों के पावन एहसास फिर से शब्दों में ढल कर एक नई दुनिया रचने जा रहे थे.
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