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कहानी- सामनेवाली खिड़की (Short Story- Samnewali Khidki)

मुझे रह-रहकर रोना आ रहा था. आंसुओं से धुंधलाई आंखों से मैंने उस कमरे का मुआयना किया. व्हीलचेयर, कैनवास, रंग, ब्रश सभी कुछ वैसा ही था बस… वो नहीं था. कमरे में कोने में एक काठ की आलमारी थी, उसके ऊपर ढेर सारे चित्र थे. इतने दिनों की मुराद आज पूरी होनेवाली थी. मैं देखना चाहती थी उसने कैसे चित्र बनाए थे. मैंने कुर्सी पर चढ़कर उन चित्रों को नीचे उतारा. अख़बार हटाते ही मेरी आंखें फटी-की-फटी रह गईं. सांसें रुकती हुई-सी प्रतीत हुईं.

आज फिर खिड़की बंद थी, न जाने कहां चला गया. मेरा मन बेचैन हो उठा, किससे पूछूं, कहां गया होगा? कुछ समझ नहीं आता.
सामनेवाले मकान में ही रहता था वह, नाम मुझे नहीं मालूम. कभी जानने की कोशिश भी नहीं की, बस उसे देखना मुझे बहुत अच्छा लगता और देखते रहने में ही मैं संतुष्ट थी. ये मेरी रोज़ की ज़िंदगी का एक हिस्सा बन चुका था.
वह अपाहिज़ था. व्हीलचेयर पर बैठा- खिड़की के पास रखे कैनवास पर ब्रश चलाता रहता था. हालांकि इतनी दूर से उसके चित्र मुझे दिखाई नहीं देते थे, लेकिन उसके चेहरे के भाव, उसकी तन्मयता और एकाग्रता से मुझे लगता था कि वो बहुत उम्दा चित्र बनाता होगा. मैं रोज़ उसे देखती, लेकिन कभी उसे अपनी ओर देखते नहीं पाया और इससे मैं ख़ुश भी हूं, जाने उसकी मानसिकता कैसी हो, मैं थोड़ा डर भी जाती हूं. काफ़ी देर तक चहलकदमी करने के बाद मैं नीचे आई.
आंगन में मां धूप सेंक रही थीं, “हो गई सफ़ाई बेटी?” मेरे होंठों पर हल्की-सी मुस्कान तैर गई. रोज़ यही तो कहकर ऊपर जाया करती थी कि ऊपर के कमरे में धूल बहुत रहती है. रोज़ सफ़ाई करनी पड़ती है. मां पैरों से लाचार थीं, अतः सीढ़ियां चढ़ना उनके बस की बात नहीं थी. ऊपर सफ़ाई करने के पीछे मेरा प्रयोजन उसे देखना होता था. इसके बिना मैं रह नहीं पाती. किंतु अभी चार दिनों से वह खिड़की बंद थी. उसे न देख पाने की कसक दिल को छलनी किए जा रही थी.
घर में पूर्ण शांति थी. मां आंगन में पड़ी चारपाई पर लेट गई थीं. शायद उन्हें नींद आ गई थी. घर में बस मैं और मां ही थे. किसी काम में भी मन नहीं लग रहा था.
आख़िर क्या हो गया है मुझे? उसके न दिखने से मैं इतना परेशान क्यों हूं? हो सकता है किसी रिश्तेदार के यहां चला गया हो, मगर सभी तो यही कहते थे कि उसका इस दुनिया में कोई नहीं है. फिर? मानव मन की जटिलताएं भी अजीब हैं, कहीं कोई अंत नहीं. वह अपाहिज था इस कारण मुझे और चिंता हो रही थी. पता नहीं उसके प्रति अपने इस लगाव को क्या कहूं. अगर प्रेम होता तो उससे मिलने की, उसे पाने की उत्कंठा भी होती. लेकिन मेरा मन उसे जी भर देख लेने से ही शांत हो जाया करता था, बिल्कुल एक मचलते बच्चे की तरह जो मनपसंद खिलौना पाकर शांत हो जाया करता है.
क्या पता कहां गया? मुझे ख़ुद पर क्रोध आने लगा. क्या हो गया है मुझे? रोमांटिक उपन्यासों, फिल्मों से मुझे सख़्त चिढ़ है, लेकिन आज किसी रूमानी कहानी की नायिका सी हालत हो रही है मेरी. एक बार फिर मेरे कदम सीढ़ियों की ओर बढ़ गए, 'देखें, शायद आ गया हो.' मां की ओर देखकर मैं निश्चिंचत हो गई. मां गहरी नींद में थी. धीरे-धीरे ऊपर बढ़ती हुई मैं जिस तरह चल रही थी, उससे कहीं गुना ज़्यादा तेज़ी से मेरा दिल धड़क रहा था. बार-बार होंठ बुदबुदा उठते, “भगवान वो दिख जाए बस.”
मगर ऊपर पहुंची तो निराशा ही हाथ लगी. खिड़की अभी भी बंद थी. मेरा दिल हताश हो गया. तभी पड़ोस की रमा चाची ने टोक दिया, “करूणा… क्या कर रही हो बेटी?” मैं सकपका गई, “कुछ नहीं चाची, कपड़े सुखाने आई थी.” कहकर मैं नीचे उतर आई. अब झुंझलाहट और बढ़ गई. रमा चाची अब मां को नमक-मिर्च लगाकर बताएंगी, “करूणा को मैंने ऐसे देखा, वैसे देखा.” उफ़… न जाने लोगों को दूसरों की ज़िंदगी में दख़लअंदाज़ी करने में क्या मज़ा आता है.
उस रात भी मैं नहीं सो पाई. फिर सुबह हुई, उम्मीद लिए मैं ऊपर गई और निराशा लिए वापस लौट आई.
पंद्रह दिन बीत गए, मगर कुछ परिवर्तन नहीं हुआ. न वो खिड़की खुली, न मेरी बेचैनी कम हुई.
एक दिन मां पूछ बैठी, “क्या बात है करूणा, आजकल तू उदास और खोई-खोई-सी रहती है. पिछले कुछ दिनों से देख रही हूं, तू ढंग से खाती-पीती भी नहीं है. आख़िर बात क्या है?” उनकी अनुभवी आंखों ने मेरी बेचैनी को कितना सही आंका था. मैं उस समय तो टाल गई, किंतु रसोई में काम करते सिसक पड़ी. सचमुच मैं अंदर से परेशान थी, मगर ख़ुद भी समझ नहीं पा रही थी कि मुझे क्या हुआ है, क्यों ‘वो’ मुझे इतना याद आता है. खिड़की पर बैठा वह, उसकी व्हीलचेयर, कैनवास, ब्रश, उसका ध्यानमग्न चेहरा- इन सब में आख़िर क्यों उलझी रहती हूं मैं! क्या रिश्ता है मेरा इन सबसे?
क्या जवाब दूं लोगों के प्रश्‍नों का जब मेरे मन के ही कितने प्रश्‍न अधूरे हैं? किससे उत्तर पूछूं?
अगले दिन मैं रोज़ की भांति ऊपर गई, तो मेरे आश्‍चर्य की सीमा ना रही. सामने खिड़की के पास वह बैठा था, बिल्कुल पहले की तरह व्हीलचेयर पर, कैनवास के सामने, हाथों में ब्रश लिए. वह चित्र बनाने में डूबा हुआ था. अब मेरा आश्‍चर्य असीम प्रसन्नता में बदल गया. ख़ुशी के मारे कब आंखों से आंसू बहने लगे, पता ही नहीं चला. मैं मंत्रमुग्ध-सी उसे देखती रहती.
पता नहीं कितनी देर मैं उसे देखती अगर वह कमरे से बाहर नहीं गया होता. मैंने देखा, व्हीलचेयर को खिसकाकर वह कमरे से बाहर गया और थोड़ी देर के बाद पुनः प्रवेश किया शायद कुछ लेने गया था. मैं थोड़ा बेचैन हो गई.
उस खिड़की की बिल्कुल सीध पर मेरी छत थी और उस कमरे में आते समय किसी की भी नज़र सीधे मुझ पर पड़ती होगी, फिर क्या वो मुझे नहीं देखता होगा? मगर ख़ुद ही मन को समझाया, अगर ऐसा होता तो कभी तो कोई प्रतिक्रिया होती उसके तटस्थ चेहरे पर. वह फिर चित्र बनाने में तल्लीन हो गया. उस दिन पहली बार तीव्र इच्छा हुई, काश! मुझमें अदृश्य होने की क्षमता होती, तो इसी वक़्त जाकर उसके चित्रों को देखती. बहुत जी चाहा था कि उसके बनाए चित्र देखूं. जिसकी दुनिया ही चित्रों में सिमटी हो, उसे जान पाना तो उसके चित्रों के माध्यम से ही संभव था. अब उसे जानने की इच्छा सी मन में जगने लगी थी. ख़ैर, उस दिन मैं नीचे उतर आई. मेरी ख़ुशी का ठिकाना ना था, मानो कोई ख़ज़ाना मिल गया हो.
रात में बिस्तर पर करवटें बदलती रही, पता नहीं कैसा शख़्स है वो. पूरे मुहल्ले में किसी से भी उसका मेल-मिलाप नहीं. लगभग एक वर्ष होने को आया उसे उस मकान में आए, मगर आज तक सभी से अजनबी. इतने दिनों की जुदाई ने मुझे दिल ही दिल उसके और क़रीब कर दिया था. उसी के विचारों में खोए हुए कब मुझे नींद आ गई, पता ही नहीं चला और इस तरह दो महीने और बीत गए. अब भी सब कुछ वैसा ही था. वो खिड़की, व्हीलचेयर पर बैठा शांत भाव से चित्र बनाता वो और मेरी ख़ुशी- सब कुछ एक-दूसरे के पूरक.
आजकल मां मेरी शादी को लेकर चिंतित हो उठी है. पापा के देहांत के बाद अकेली मैं ही उनके जीने का सहारा थी. इस कारण मेरी शादी की इच्छा नहीं थी और अब तो शादी का नाम आते ही उसका चेहरा आंखों के सामने आने लगता- ‘मत जाओ’ कहता हुआ. मगर ऐसा क्यों हो रहा है. यह मैं कभी नहीं जान पायी. कभी भी उसने मुझे देखा तक नहीं, क्यों मुझे लगता था कि उसकी दुनिया में सिर्फ़ मैं ही हूं. शायद नहीं… यक़ीनन अब मैं उससे प्रेम करने लगी थी.
समाज अपने ही बनाए कायदों पर चलता है, उसमें मुझ जैसी अजीब-सी लड़की की अजीब चाहत की क्या क़द्र होती.
एक दिन मामा विनय का रिश्ता लेकर आए. माता-पिता का इकलौता लड़का विनय सरकारी दफ़्तर में क्लर्क था. मां बेहद ख़ुश थीं.
शादी का दिन तय हो गया. मैं दिल ही दिल बेहद उदास थी. कई बार मां से कहा भी, “मां मुझे शादी नहीं करनी. मैं यहां से कहीं नहीं जाना चाहती. ज़िंदगीभर तुम्हारे पास ही रहूंगी.”

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“पगली, मेरी चिंता क्यों करती है? बेटियां तो पराया धन होती हैं, उन्हें तो जाना ही होता है. मेरा क्या है, जब तक ज़िंदा हूं कोई न कोई देखभाल कर ही लेगा. पड़ोसियों का साथ आख़िर कब काम आएगा और जब मर जाऊंगी तब इन्हीं में से कुछ उठाकर श्मशान तक भी पहुंचा आएंगे. तेरा घर बस जाए, तू सुखी रहे, बस यही आस है बेटी.” भरे गले से मां ने समझाया. मैं रो पड़ी. नहीं समझा सकी कि मेरा सच्चा सुख अब उस खिड़कीवाले से जुड़ गया था. हां, ख़ामोश ही रह गई. कहां कोई नाम दे सकी उस शख़्स के प्रति अपनी चाहत को. शादी के दिन क़रीब थे. अब भी मैं उसे रोज़ ज़रूर देख आती. मगर अब दिल पर जैसे कई मन बोझ रख दिया था किसी ने. हर समय दिल भरा सा रहता. ऊपरवाला भी कैसे हृदय में प्रेम को अंकुरित कर देता है. कहीं भी, किसी के भी प्रति. अब समझने लगी थी दर्द और प्रेम के महत्व को. वो अब भी उसी प्रकार चित्र बनाता बिल्कुल शांति से और तन्मय होकर, मुझ मीरा की विरहाकुल पीड़ा से बिल्कुल अनभिज्ञ और बेख़बर.
एक दिन रमा चाची को उसके घर जाते देखा तो मेरी उत्कंठा रोके नहीं रुक रही थी. उनके लौटने का बेसब्री से इंतज़ार किया मैंने. पहली बार कोई उसके घर गया था. रमा चाची लौटकर आईं, तो सीधे हमारे घर ही चली आईं, मगर मैं नज़रें नीची किए उनके सामने से हट गई. कई बार उसे छत से निहारते हुए वो मुझे देख चुकी थीं. कहीं मां के सामने कुछ बोल ना पड़ें, इस डर ने मेरी उत्कंठा रोक दी.
रमा चाची काफ़ी देर तक मां से बातें करती रहीं. मैं चाय देने गई तब दो लाइन उसके बारे में सुनी, ‘बड़ा शरीफ़ लड़का है दीदी. अपने काम से मतलब रखता है बस. मैंने उसे करूणा की शादी में बुलाया है दीदी. कहीं आता-जाता ही नहीं है बेचारा.” मैं दिल को मुट्ठी में भींचे ऊपर आ गई और फूट-फूट कर रो पड़ी. काश, अभी मुझे मौत आ जाती. इस अनाम, अकेले रिश्ते का बोझ उठा नहीं पा रही थी मैं.
मेरा मुरझाता चेहरा देख मामा-मामी भी समझाते, “विनय अच्छा लड़का है करूणा, तुम्हें मां से मिलाने ले आया करेगा. तुम चिंता मत करो. फिर हम भी तो हैं बेटी. तुम्हारी मां अकेली कहां है?” मैं ख़ामोश ही हो गई थी बिल्कुल, उन दिनों जैसे शब्द गुम हो गए थे.
शादी के दो दिन पहले मैं ऊपर गई. तो देखा फिर वो खिड़की बंद थी, मेरा कलेजा धक से रह गया, ’ये कहां चला गया?’ तभी नीचे आंगन में कुछ शोर सा सुनकर मैं जल्दी से नीचे आई, तो देखा रमा चाची हांफती हुई अंदर आ रही थीं, “अरे करूणा… ग़ज़ब हो गया, तुम्हारी मां कहां है?” मां शायद बाथरूम में थीं. “क्या हुआ चाची?” मैंने पूछा, “वो सामनेवाला लड़का था ना, अरे वही जिससे मैं उस दिन मिलकर आई थी, उसने आज तड़के खुदखुशी कर ली.”
“हे राम! मगर क्यों?” ये मां का स्वर था.
“पता नहीं बड़ा अच्छा लड़का था.” मुझे काठ मार गया. वहां एक पल भी रुकती तो मेरे आंसू मेरी पवित्र भावना को सबके सामने उजागर कर देते.
“रसोई में दूध उबल रहा है.” कहकर मैं रसोई में भागी और टूटकर बिखर गई. अपना रेशा-रेशा टूटता हुआ महसूस किया. काफ़ी देर तक जी भर कर रो लेने के बाद कुछ हल्का महसूस किया. अचानक एक निर्णय लेकर मैं मां के सम्मुख जा खड़ी हुई. मां से पहली बार झूठ बोला कि बाज़ार में कुछ काम है. मां ने कहा, “रीमा की बिटिया को साथ लेती जाना बेटी. उसे भी कुछ काम था.” मगर मुझे बाज़ार कहां जाना था, मैं घर से निकली और सीधे उस मकान में जा पहुंची.

वो एक बड़ा-सा मकान था, जिसके सभी कमरों में ताले बंद थे, सिर्फ़ वही एक कमरा खुला था, जिसमें वह रहता था. घर में पूर्णतः शांति थी. मोहल्ले के लोग उसे शमशान ले गए थे. मुझे रह-रहकर रोना आ रहा था. आंसुओं से धुंधलाई आंखों से मैंने उस कमरे का मुआयना किया. व्हीलचेयर, कैनवास, रंग, ब्रश सभी कुछ वैसा ही था बस… वो नहीं था. कमरे में कोने में एक काठ की आलमारी थी, उसके ऊपर ढेर सारे चित्र थे. इतने दिनों की मुराद आज पूरी होनेवाली थी. मैं देखना चाहती थी उसने कैसे चित्र बनाए थे. मैंने कुर्सी पर चढ़कर उन चित्रों को नीचे उतारा. अख़बार हटाते ही मेरी आंखें फटी की फटी रह गईं. सांसें रुकती हुई-सी प्रतीत हुईं. ये तो मेरे चित्र थे… तो क्या वह भी मुझे देखता था, मगर कब? कैसे? हर चित्र मेरा था- किसी में मैं कपड़े सुखा रही थी, किसी में बाल बना रही थी. कहीं पर चुपचाप उदास खड़ी उसे निहारते हुए… ‘उफ़! मुझे अपनी आंखों पर विश्‍वास नहीं हो रहा था, मेरी हर अदा उसमें बयां थी. इतने दिनों का मेरा भ्रम टूट गया. मुझे उसे देखना पसंद था और वह कैनवास पर मुझे रंगों के द्वारा साकार करता रहा. कितनी ख़ूबसूरत चित्रकारी की थी उसने, मुझसे कहीं ज़्यादा सुंदर मेरे चित्र थे.
लगभग सौ-डेढ़ सौ की तादाद में वो चित्र यूं लग रहे थे, मानो मेरा वज़ूद हों.
हर चित्र में उसने मेरे साथ ख़ुद को भी चित्रित किया था. कहीं पक्षी के रूप में, तो कहीं चांद के रूप में. एक चित्र में तो उसने मुझे व्हीलचेयर पर चित्र बनाते हुए और स्वयं को मुझे निहारते हुए बना दिया था. मैं एक-एक करके उन चित्रों को देखती जा रही थी और चित्रों से उसके प्रेम की गहराई में डूबती जा रही थी. कितना पवित्र हृदय, कितनी निश्छल आत्मा बसी थी उसमें. मेरी ही तरह कभी मुझे सशरीर पाने का प्रयास उसने भी नहीं किया, मगर उसके कण-कण में मैं थी, ये उसके चित्रों से साफ़ पता चल रहा था.

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देखते-देखते उसके सारे चित्र ख़त्म हो गए और अंतिम चित्र मेरे हाथ में था, जिसने मेरे सारे प्रश्‍नों के उत्तर दे दिए. उस चित्र में मैं डोली में दुल्हन बनी बैठी थी और दूर एक बुझा हुआ दीया चित्रित था. उसके आत्महत्या करने की कहानी थी यह. जाते-जाते मेरे अंतिम सवाल का उत्तर भी दे गया वह. अचानक काले घने बादल छा गए और तेज़ घनघोर बरसात होने लगी. उसकी मौत पर रोने का फ़र्ज़ शायद बादल भी अदा करना चाहते थे. मैं बिलख-बिलख कर रो पड़ी. उसके लिए जिसका नाम भी मैं नहीं जानती थी, मगर एक एहसास जो मेरे दिल में था अब प्यार से बढ़कर श्रद्धा में बदल चुका था, आजीवन मेरे साथ रहेगा और उस आत्मा को अपनी आत्मा के साथ मैं ताउम्र महसूस करती रहूंगी.

- वर्षा सोनी

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