मन एक बार फिर खिन्न हो गया. वहां से ऊषा दुनियाभर की बातें सुनाकर मुझे यहां भेज देती है, "आपके हिस्से की खेती भी तो भाईसाहब उड़ाते हैं, उसका हिसाब लो…" और यहां इन लोगों की अलग बातें… जी में आ रहा था, मां से लिपटकर रो लूं या इन सबसे दूर भाग जाऊं.
पूरी रात करवट बदलते ही बीती थी; जिस काम से गांव आया था, वो तो पूरा हुआ नहीं था. कल से जितनी बार भइया से बात करने की कोशिश की, उतनी ही बार भाभी बड़ी सफ़ाई से घुमा गईं.. और मैं कहते-कहते रुक गया कि मार्च से पहले मुझे बीस हज़ार रुपए चाहिए, नहीं तो बच्चे का एडमिशन इस साल भी उस स्कूल में नहीं हो पाएगा.
मन बार-बार फिर विचलित हो रहा था. क्या भइया जान-बूझकर भाभी को सामने खड़ा कर देते हैं?
"तुमसे क्या छुपा है, कैसे घर चलाते हैं, हम ही लोग जानते हैं…" हालांकि ये आवाज़ भाभी की होती है हर बार, लेकिन ऐसा क्यों लगता है कि शब्द भइया के होते हैं! घर कैसे चल रहा था, ये तो मुझे दिखता ही था… बच्चों के एक से एक महंगे कपड़े, जूते, खिलौने और मेरे बेटे के वही गिने हुए बदरंगे कपड़े…
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मन एक बार फिर खिन्न हो गया. वहां से ऊषा दुनियाभर की बातें सुनाकर मुझे यहां भेज देती है, "आपके हिस्से की खेती भी तो भाईसाहब उड़ाते हैं, उसका हिसाब लो…" और यहां इन लोगों की अलग बातें… जी में आ रहा था, मां से लिपटकर रो लूं या इन सबसे दूर भाग जाऊं.
"जाग गया क्या? आकर देख मेरे पेड़-पौधे…" मां ने खिड़की से बहुत धीरे से आवाज़ दी. मैंने बगल में सोए भतीजे को देखा, वो पूरे मन से खर्राटे भर रहा था…
ना चाहते हुए भी मैं बाहर निकला और मां पर बरस पड़ा, "आप मानना मत कभी कोई बात… इतने लोग हैं घर में, लेकिन पानी आप ही दोगी पौधों में, है ना? और ये इतनी बड़ी पाइप काहे के लिए रखी है, जब बाल्टी से ही पानी डालना है…" मैंने झपटकर मां के हाथ से बाल्टी छीन ली.
"जल्दी से ये रख ले…" मेरी बात अनसुनी करते हुए मां ने नोटों का एक पुलिंदा मेरी जैकेट की जेब में ठूंस दिया, "तुझे बिट्टू के एडमिशन के लिए चाहिए होंगे ना.. चुपचाप अटैची में रख आ."
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दस सेकंड के अंदर मेरे अंदर उथल-पुथल मचाकर मां मग में पानी लेकर कोने वाले पौधे को सींच आईं. दो सवाल सिर उठा रहे थे, पहला सवाल- मुझे रुपयों की ज़रूरत है ये मां कैसे जान गई, पूछना बेमानी था.. लेकिन दूसरा सवाल पूछना ज़रूरी था, "आप भइया से लेकर मुझे दे रही हैं ना?"
"नहीं रे… दो अंगुठियां पड़ी थीं, बहुत पुरानी, वही बेच दीं… ये देखो, सबसे ज़्यादा फूल इसमें आते हैं, जो तुम बीकानेर से लाए थे." मां के अचानक विषय परिवर्तन पर मैंने पलटकर देखा, भाभी हमारी ओर बढ़ी चली आ रही थीं.
"क्या हुआ, बड़ी सुबह उठ गए… बस तो दस बजे की है ना?" शॉल लपेटते हुए भाभी की सारी इंद्रियां हमारी बातचीत का सिरा पकड़ने में तल्लीन थीं.
"कुछ नहीं, मैं मां से पूछ रहा था कि पाइप है तो फिर उस पौधे में मग से काहे पानी डालती हैं…" मैंने जैकेट की जेब में हाथ डालकर नोट छुए, मेरी आंखें भीग रही थीं.
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"वही मैं इसे समझा रही थी." मां ने चुपचाप अपनी आंखें पोंछ लीं, "ये पौधा सबसे दूर है ना, वहां तक पाइप नही पहुंचती.. इसीलिए."
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Photo Courtesy: Freepik
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