रति को कैसे भूल सकती हूं. वही तो मेरी अपनी थी… अपनी है. नहीं-नहीं, अगर अपनी होती, तो क्या पलट कर मेरा हाल नहीं पूछती? आख़िर इतना समय हो गया, क्या कभी उसे मेरी याद आई… क्या कभी सोचा कि मैं जी रही हूं या मर गई. अरे, अपने-अपने होते हैं, पराई जाई मेरी कैसे हो सकती है..?
उस समय तो स्वार्थ ने ऐसा घेरा कि आंखों पर लालच का पर्दा छा गया. मन, माया के जाल में ऐसा फंसा कि 'जाल' जाल ही न लगा, लेकिन अब यह बंधन ही नहीं, जकड़न लग रहा है. एक छटपटाहट हो रही है. "क्यों हो रही है यह छटपटाहट?" शायद सुख-शांति नहीं, इसीलिए… सुख-शांति हो भी तो कैसे? रह ही क्या गया है जीवन में… सिर्फ़ सांसें… दुख में 'आह सी' निकलती सांसें… अनंत सांसें, 'जिन्हें समाप्त करने की प्रति पल उस परमात्मा से प्रार्थना करती हूं. प्रार्थना… नहीं… वह तो मैंने पांच साल पहले से ही बंद कर दी है. अब तो सिर्फ़ उसे धिक्कारती हूं. 'उसने' मुश्किल से पटरी पर आई ज़िंदगी को इतने गहरे में धकेल दिया है, जहां आशा की कोई किरण नहीं पहुंचती.
पांच वर्ष पूर्व मेरा इकलौता जवान, हट्टा- कट्टा, लंबा-चौड़ा, हंसमुख लाडला अचानक हमें छोड़कर चला गया. एक शराबी ट्रक ड्राइवर ने उसकी नई मारुति कार को ऐसे रौंद डाला कि कार में से मेरा बेटा अतुल जीवित तो क्या, साबूत भी न निकल सका. किसी ने ट्रक का नंबर भी नोट नहीं किया… कर भी लेता तो क्या… अतुल वापस आ जाता… यदि वापस आना ही होता, तो जाता क्यों? चला गया… और साथ में मेरी सारी ख़ुशियां, सारे अरमान, सारे सुख, सब कुछ ले गया… हाय रे दुर्भाग्य! थोड़े दिनों के सुख के बाद दुर्भाग्य ने मेरा ऐसा पीछा किया कि कभी साथ ही नहीं छोड़ा.
अतुल जब ग्यारह साल का था, तब उसके पिता भी एक्सीडेंट में ही मुझे इस जगत जंजाल में अकेला छोड़ गए थे. सब तरफ़ से निराश हो चुकी थी, लेकिन अतुल की पनीली आंखों ने उसके लिए जीने की चाहत जगाई. कैसे उसे पाला-पोसा, पढ़ाया, पल-पल उसे देखकर जिया है मैंने. ज़िंदगी का सिर्फ़ एक ही मक़सद रह गया- 'अतुल', अतुल पढ़ जाए, कुछ कमाने लायक हो जाए, बस यही तमन्ना रह गई. फिर मेरी मेहनत रंग लाई और आज की नौकरी की आपा-धापी में भी अतुल अच्छी कंपनी में प्रोडक्शन मैनेजर लग गया. बहुत सालों बाद घर में बहार आई. हंसने-मुस्कुराने के दिन आए. जब से अतुल के पिता गए, तब से शायद अब जाकर दिमाग़ से एक चिंता हटी. नही तो हर पल चिंता में जल-जल कर गुज़ारा. फिर शादी की उसकी. चांद सी दुल्हन आई घर में. ईश्वर का लाख-लाख शुक्रिया अदा किया.
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'हे परमेश्वर, तूने बिगाड़ी तो बहुत बुरी थी, लेकिन आज सब ठीक भी कर दिया. शायद मेरे दुर्भाग्य ने मेरी बात सुन ली. वह और भी भयंकर बन कर सामने आ खड़ा हुआ. मैं सामना न कर सकी. टूट गई, बिखर गई… विश्वास उठ गया उस परमेश्वर से, आस्था ख़त्म हो गई. नास्तिक हो गई मैं. घर में बनाया भगवान का मंदिर तोड़ डाला. मूर्तियां उठाकर फेंक दी. महान ग्रंथ, जिन्हें रोज़ पूजती थी, फाड़ डालें. मन में रोज़ उसे बुरा-भला कहती. विक्षिप्त हुई, लेकिन कुछ समय के लिए… काश, पागल हो जाती… न चेतना रहती… न ज्ञान… न दुख. लेकिन जिसने पग-पग पर दुख झेलने हों, वह भला पागल कैसे होता, मैं भी न हुई.
इसी विक्षिप्तावस्था में प्यारी सी बहू रति को भी घर से निकाल दिया. मुझे अतुल की मौत की ज़िम्मेदार वही लगने लगी, क्योंकि उसने ही ज़िद करके कार ख़रीदवाई थी. सच है, जब बलवान पर वश नहीं चलता, तो निर्बल को ही सताया जाता है. पता नहीं वह दुख था या घृणा या वैमनस्य, निकाल दिया उसे घर से…
आज मैं पतझड़-लता सी उस घर से चिपटी हुई हूं, जिसमें न जान है, न ख़ुशबू, न ही सौंदर्य. उजड़ेपन की एक वितृष्णा है- एक अकुलाहट है. चंद सांसें ही सही… जीने के लिए घर चाहिए और खाना भी. आज खीझ होती है अपने आप पर कि मैंने ऐसा क्यों किया. उस निरीह रति की क्या ग़लती थी. क्या दोष था उस बेचारी का वह तो बहार सी इस घर में थी. मैंने ही उसे पतझड़ सा धकेल दिया. मैंने क्यों किया ऐसा… क्यों? क्या करूं अब… उसे बुला भी तो नहीं सकती… बुलाऊं भी तो किस अधिकार से… सारे अधिकार ही ख़त्म हो गए. अब न अधिकार ही रहे, न कर्तव्य ही.
क्या करूं… कितना चाहती थी वह मुझे… कभी भी कोई काम ऐसा न किया जिस पर उसे ग़ुस्सा करती. सर्दियों में शादी हुई थी अतुल की. काम की अधिकता और लापरवाही से मैं बीमार हो गई. तेज बुखार था. बदन दर्द से टूट रहा था. रह-रह कर मुंह से कराह निकल जाती थी. रति को लेने उसका भाई आया था. मैंने बहुत कहा था, "तुम जाओ, अतुल संभाल लेगा." लेकिन वह न मानी. ज़िद कर बैठी, "आपको इस हालत में छोड़कर कैसे जा सकती हूं? आपकी देखभाल करना मेरा फ़र्ज़ है. आपके ठीक होने पर चली जाऊंगी." मैं उसे देखती रह गई थी.
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सच कहूं तो धन्य हो गई थी मैं. क्या यह आजकल की ही लड़की है. समाज के हालात को देखकर बहुत डर रही थी, लेकिन अब डर नहीं, आत्मविश्वास बढ़ गया था. निश्चित हो गई थी मैं.
रति को कैसे भूल सकती हूं. वही तो मेरी अपनी थी… अपनी है. नहीं-नहीं, अगर अपनी होती, तो क्या पलट कर मेरा हाल नहीं पूछती? आख़िर इतना समय हो गया, क्या कभी उसे मेरी याद आई… क्या कभी सोचा कि मैं जी रही हूं या मर गई. अरे, अपने-अपने होते हैं, पराई जाई मेरी कैसे हो सकती है..?
भगवान ने जब अपना ही छीन लिया, तो मैं उसकी आस लगाए क्यों बैठी हूं, पर उसके बारे में न सोचूं, तो किसके बारे में सोचूं. पूजा-अर्चना से तो कोई वास्ता नहीं रहा. अब कहीं किसी के पास मेरा मन नहीं लगता. सबके हंसते-खेलते बच्चे देखकर टीस सी उठती है. नहीं चाहती कि किसी बच्चे को मेरी नज़र लगे. मेरी नज़र ही तो लग गई थी अतुल को… कितना प्यारा लग रहा था वह उस दिन… मेरी नज़र नहीं टिक रही थी. मैंने नज़र झुका ली थी. ईश्वर से उसके कल्याण के लिए दिल ही दिल में दुआ की थी.
मुझे चुप देखकर वह मुझे झिंझोड़ते हुए बोला था "बताओ न मां, मैं कैसा लग रहा?"
"बिल्कुल बेकार." मैंने हंसकर कहा.
"ऊं हूं… आपको तो मैं कभी अच्छा ही नहीं लगता." वह मुंह फुलाकर बोला.
"अरे, तू तो राजकुमार लग रहा है, मैंने तो नज़र न लग जाए इसलिए कहा था."
"मां, कहीं आपकी भी नज़र लग सकती है? जिसके रोम-रोम से आशीष निकलती हो, उसकी नज़र से तो भगवान भी घबरा जाए.
"चल हट, अब बातें न बना, जा जल्दी, देर हो जाएगी." मैंने प्यार से झिड़का था. वह जल्दी जल्दी सीढ़ियां उतर गया… कभी वापस न आने के लिए.
आख़िर खा गई मेरी नज़र उसे और दोष मढ़ दिया रति के सिर. अपनी ग़लती क्या सहज किसी ने मानी है. हमेशा बहाने ढूंढ़कर ग़लती का सेहरा दूसरे के सिर ही रखने की कोशिश की है. वही मैंने किया… मैं मां थी… सहन न कर सकी. क्या कोई सहन कर सकता? क्या करूं अब… कैसे बुलाऊं रति को… मुझे मेरी अंतरात्मा धिक्कार रही है. मैं अब किसी की परवाह नहीं करती. वह मुझे उल्टा-सीधा ही तो कहेगी. कहने दो, सब सुन लूंगी. जब ग़लती की है, तो सुननी ही पड़ेगी. यदि फिर भी वह मुझे अपना ले, तो मैं धन्य मानूंगी अपने आपको.
कहते हैं, जब किसी को दिल से याद करो, तो 'वह' भी इससे प्रभावित होता है. मैं रति को इतना याद करती हूं, क्या वह भी करती होगी? क्या पता करती हो. क्या पता न करती हो… अपने दुख में मैंने उसके दुख को समझा ही नहीं. उसे समझाने की बजाय उसके टूटे दिल पर पत्थर मार-मार कर कुचल दिया. उसे घर से निकाल दिया. इस घर में उसके पति की कितनी यादें बसी थीं. कितना प्यार था उसे इस घर से. कितनी तरह से सजाती-संवारती रहती थी वह घर को. हर महीने कुछ न कुछ ले आती थी. आज मैं उसे ले आती हूं. दरवाजा बंद करके जाने ही वाली थी कि टेलीफोन की घंटी बजी, ट्रिन… ट्रिन… ट्रिन…
"हैलो."
""हैलो मां, मैं रति बोल रही हूं."
“रति… बेटे… मेरी बच्ची, तुम…"
"हां मां मैं."
"कैसी है तू? आ जाना.. श."
“आती हूं मां…"
"कब?"
"अभी, बस एक घंटे में."
"सच!"
"हां मां,!सच में अभी आ रही हूं."
"हे ईश्वर…" न चाहते हुए भी उसका नाम निकल गया. अनायास हाथ जुड़ गए. मस्तक झुक गया… आंखें भर आईं. अस्त-व्यस्त पड़ा घर कुछ-कुछ ठीक किया. बरतन खड़काए, चूल्हा जलाया, कुछ बनाने की कोशिश की… क्या बना… पता नहीं आंखें बार-बार भर आतीं. रति का प्यारा चेहरा सामने आ जाता, कभी किसी रूप में, कभी किसी रूप में.
आहट हुई, मैं लगभग दौड़कर दरवाज़े पर पहुंची. रति के साथ एक युवक खड़ा था. प्यारा, सुंदर, भोला-सा, बिल्कुल अतुल जैसा.
मैं कुछ अचकचाई, फिर आगे बढ़ रति को गले से लगा लिया. सदियों से रुका बांध टूट पड़ा और हम दोनों ही उसमें बह चलें. गुबार सा निकला तो होश आया.
रति ने परिचय कराया, "मां, ये नमन हैं. अतुल की जगह ही काम करते हैं. आपसे मिलने की ज़िद कर रहे थे इसलिए…"
"बहुत अच्छा किया, तू इन्हें ले आई. मेरी तो आंखें जुड़ा गईं. लगता है जैसे अतुल ही आ गया हो."
नमन ने आगे बढ़कर पैरों को हाथ लगाया, तो अनायास ही उसे हृदय से लगा लिया. लगा जैसे प्यासे को शीतल झरना मिल गया हो.
"मेरे बच्चे, मेरे लाल… जुग जुग जिओ."
"मैं आशीर्वाद ही तो लेने आया हूं. मुझे पूर्ण विश्वास था कि आप निराश नहीं करेंगी."
"मैं तुम्हें क्या आशीष दे सकती हूं." निःश्वास भरकर मैंने कहा.
"आप हमें अपनाकर कृतार्थ कर सकती हैं."
मैंने कुछ आश्चर्य से देखा.
वह मेरी उलझन समझ गया. पास आकर, मेरी गोदी का सहारा लेकर बैठ गया और धीरे से बोला, "मां… मैं और रति विवाह करना चाहते हैं. यदि आपकी सहमति मिले तो…"
"नेकी और पूछ-पूछ… बेटा मेरे लिए इससे बढ़कर ख़ुशी की बात क्या होगी. हमेशा बेटे के माध्यम से बहू मिलती है. आज मुझे बहू के माध्यम से बेटा मिला है, धन्य है मेरी बहू… उसने मुझे अपराधबोध से बचा लिया." रति के झुके सिर पर हाथ रखा. चेहरा ऊपर उठाया… सुबह की धूप सा पावन… सुंदर… मोहक. नमन ने ढेर सारी बातें कीं. कुछ अपनी, कुछ मेरी, कुछ रति की. कुछ ही देर में वह इतना घुल-मिल गया कि लगा ही नहीं कि कल तक हम बेगाने थे.
नमन ने प्रस्ताव रखा, "चलो मां, आज बाहर खाना खाने चलें."
"नहीं, पहले मंदिर चलते हैं."
- कल्पना दुबे
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