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लघुकथा- संताप (Short Story- Santap)

"पापा! वैसे तो सब पसंद हैं, लेकिन उर्मिला सबसे ज़्यादा..."  आशा के विपरीत जवाब आया. "उर्मिला? ऐसा क्यों?" मैं भी बीच में कूद पड़ी. "मांजी! लक्ष्मण तो कर्त्तव्य मार्ग पर बढ़ गए, पीछे रह गई वो. पति वियोग भी सहा, उसका दर्द भी कोई नहीं समझ पाया..." बोलते-बोलते वो फूट-फूटकर रो पड़ी.

" हैलो! बड़े दिनों बाद याद किया आपने हमें!.. बिल्कुल आएंगे, हां-हां सपरिवार आएंगे... नहीं, बेटा नहीं है यहां! वो तो शादी के कुछ ही दिनों बाद कश्मीर चला  गया था!.. नहीं बहू यहीं है, दरअसल फील्ड पोस्टिंग है ना, परिवार को साथ नहीं रख सकते. क्या करें! सेना में है, देश सेवा की बात है..."

बात करके ये मेरे पास आए, "कल शर्मा जी के पोते का जन्मदिन है, सबको बुलाया है. बहू से भी बोल देना."

"आप ही बोल दीजिए! जब से विनय गया है, बस मुंह बनाए बैठी रहती है. लगता ही नहीं, नई बहू है! ना सजना-संवरना, ना बात करना, वहीं कमरे में बस..." मैं ग़ुस्से में बड़बड़ाने लगी.

मुझे इशारे से चुप कराते हुए इन्होंने बहू को आवाज़ दी,

"सपना! आओ बेटा यहां, हम लोगों के पास भी बैठा करो!.. विनय बता रहा था तुम्हें पढ़ने का बहुत शौक है."

"जी पापा! बहुत अच्छा लगता है..." मीठी सी आवाज़ कानों में पड़ी.

मैंने उसे ध्यान से देखा, सुंदर चेहरा कांतिहीन था, एकदम मुरझाया हुआ.

"बहुत बढ़िया!.. रामायण भी पढ़ी होगी? कुछ सुनाओ... कौन सा प्रसंग, कौन सा पात्र सबसे ज़्यादा प्रभावित करता है तुम्हें?" ये उसको सहज करने के लिए बातें कर रहे थे, मुझे बहुत ग़ुस्सा आ रहा था.

"पापा! वैसे तो सब पसंद हैं, लेकिन उर्मिला सबसे ज़्यादा..."  आशा के विपरीत जवाब आया.

"उर्मिला? ऐसा क्यों?" मैं भी बीच में कूद पड़ी.

"मांजी! लक्ष्मण तो कर्त्तव्य मार्ग पर बढ़ गए, पीछे रह गई वो. पति वियोग भी सहा, उसका दर्द भी कोई नहीं समझ पाया..." बोलते-बोलते वो फूट-फूटकर रो पड़ी.

मेरे मन के एक कोने में कुछ सिकुड़ गया; स्त्री होकर भी मैं भी अपनी 'उर्मिला' का दर्द नहीं समझ पाई!

Lucky Rajiv
लकी राजीव

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Photo Courtesy: Freepik

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