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कहानी- सतरंगी परों वाली चिड़िया (Short Story- Satrangi Paro Wali Chidiya)

ब्याह पूर्व नौकरी का आनंद लिया. ब्याह उपरान्त परिवार का. बच्चों के साथ बचपन जिया, तो रिश्तों के साथ तीज-त्योहार. पति के साथ गृहस्थी की ज़िम्मेदारी साझा की, तो उनकी आमदनी से पूरे विश्‍व का भ्रमण. यदि मैं स्वयं कमाती, तो भी यही सब तो करती न या फिर समय के अभाव में सिर्फ़ रुपए ही कमा पाती और करियर के पीछे भागती रह जाती. मेरा जीवन व्यर्थ नहीं गया. सारी मधुर यादें सदैव मेरे साथ रहती हैं.

जब कभी अपने पुराने मित्रों से बात होती, कहीं न कहीं उसके मन में अजीब-सी कुंठा भर जाती. सभी सहेलियां अपनी नौकरियों में वर्ष दर वर्ष पदोन्नति पाकर ऊंचे ओहदे पर विराजमान थीं और वह स्वयं मात्र एक गृहस्थिन बन कर रह गयी थी. मायके जाती, तो आसपास के लोगों के सवाल उसे कचोटते, “क्या फ़ायदा इतना पढ़-लिखकर. जब नौकरी कंटीन्यू ही नहीं करनी थी, तो क्यों सीए की एक सीट बर्बाद की? फिर एमबीए भी किया. दिन-रात चक्करघिन्नी बनी नौकरी, पढ़ाई में लगी रही. न कोई सामाजिक मेल-मिलाप और न ही कोई सज-धज और अब फंस गयी गृहस्थी की चक्की में.”
बड़ी बहन से जब फोन पर बात होती, तो वह अक्सर अपनी व्यस्तता जताया करती. “क्या करूं नौकरी के चलते फुर्सत ही नहीं मिलती, तेरे तो आराम हैं. मजे से खाओ-पियो और सो जाओ. यहां तो ऐसा महसूस होता है जैसे बरसों से नींद ही पूरी नहीं हुई.”
वह मन ही मन सोचती, संयुक्त परिवार में रहती हूं. माना कि घर में काम के लिए सहायक लगे हैं, लेकिन आठ घंटा तो मैं भी रोज़ मशीन-सी खटती हूं. वह भी घर के हर सदस्य के बाहर आने-जाने के अनुसार, उनका रूटीन मेनटेन कर अपने बच्चों का ख़्याल रखते हुए, स्वयं को तो मानो भूल ही जाती हूं. मुंह अंधेरे जागकर सारा काम निबटाती हूं. घर-बाहर के सभी कार्यों की ज़िम्मेदारी भी उसी की है. महानगरों में कहां पुरुषों को समय मिलता है? और दिन में ज़रा आराम करने कमरे में जाओ, तो कभी होम डिलीवरी, कभी कुरियर तो कभी पोस्टमैन, कभी कोई मशीन की सर्विसिंग के लिए आकर घंटी बजा ही देता है. इन सबसे फारिग होते ही बच्चे के स्कूल से लौटकर आने का समय हो जाता है. कहने को मैं घर पर मौज से रहती हूं, पर मेरी व्यस्तता भी तो कम नहीं. फिर परिवार में सास-ससुर की हारी-बीमारी, देवर का ब्याह, रिश्तेदारों की आवाजाही सबकी ज़िम्मेदारी मुझ पर ही तो है. घरेलू महिला से सबकी उम्मीदें भी कुछ ज़्यादा ही होती हैं. कैसे बड़ी बहिन अपनी नौकरी का दम भरते हुए बहुत से पारिवारिक कार्यों एवं ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो जाती है और फिर भी स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने की होड़…
कई बार मन में नकारात्मक विचार आते, एक-दो दिन अनमनी-सी भी रहती और फिर स्वयं ही इन नकारात्मक विचारों को दिमाग से झटक कर अपने परिवार में व्यस्त हो जाती. करीब 15 वर्ष गृहस्थी की दौड़-धूप में ऐसे बीते कि बालों में सफेदी और चेहरे पर झाइयों ने कब अपना साम्राज्य जमाया, ख़बर ही न हुई. वह स्वयं के दैहिक आकर्षण से मुक्त परिवार की मजबूत नींव बनी, जहां जिसे आवश्यकता हो, हाज़िर हो जाती और हर ज़िम्मेदारी का बोझ अपने कंधों पर उठा लेती. भले ही हर माह बड़ी तनख्वाह से उसका बैंक अकाउंट न भरता और न ही अच्छी बहू का तमगा किसी ने दिया, फिर भी जब कभी स्वयं से सवाल करती कि वह कहां खड़ी है, तो एक आत्मविश्‍वास मन में जाग उठता कि मैंने अपनी पढ़ाई-लिखाई का पूरा इस्तेमाल किया. पढ़ने-लिखने को लेकर मेरा कभी यह उद्देश्य नहीं रहा कि मुझे हर हाल में सिर्फ नौकरी ही करनी है और फाइनेंशियली इंडीपेंडेंट होना है.
यदि ब्याह होते ही दुर्घटना के कारण ससुर जी की दिमागी हालत ख़राब न होती और वह उनकी सेवा-सुश्रुषा में अपने विवाह के शुरुआती वर्षों को न खपाती, तो शायद आज वह किसी बड़ी कंपनी में ऊंचे ओहदे पर होती, किन्तु क्या उसका अंतस ओहदे की ऊंची कुर्सी पर बैठकर उसे धिक्कार न देता? उस समय तो मानो उसके पति पर मुसीबतों के पहाड़ टूट पड़े थे. उनका बुझा-बुझा सा चेहरा देखकर मन द्रवित हो उठता था. और चेहरा तो बुझना ही था जब डॉक्टर्स भी जवाब दे दें कि आपके पिता शायद ही ठीक हो पाएं. देवर विदेश में रहता था और उसकी नयी नौकरी थी. उसने वहां से अपने प्रोजेक्ट को छोड़कर आने में असमर्थता जता दी थी. वही तो एकमात्र सहारा थी अपने पति एवं परिवार का, आजकल रिश्तेदार तो सिर्फ अस्पताल में विजिटिंग आवर्स में हाज़िरी लगाने आते हैं. पूरे चार माह कौन बॉम्बे हॉस्पिटल में आईसीयू के बाहर बेंच पर दिन भर बैठता और कौन दिन भर दफ्तर का काम निपटाकर रात को वहां सोता? सासू मां तो स्वयं ही ससुर जी की हालत देख कर बेहाल-सी हो गयी थीं. फिर अस्पताल से डिस्चार्ज के उपरान्त भी तो ससुर जी के शरीर का बायां भाग लकवाग्रस्त था. घर में एक सदस्य तो हर वक़्त ससुर की सेवा के लिए आवश्यक था. ऐसे में वह अपने नवजात बच्चे को सास या आया के भरोसे छोड़कर कैसे नौकरी करती भला?
मन ही मन सोचते हुए उसने स्वयं की पीठ ठोकी और धीमे से मुस्कुराई. ‘मुझे कोई शिकवा-गिला नहीं, उस समय मेरे परिवार को मेरी आवश्यकता थी और मैं ने अपनी ज़िम्मेदारी निभाई. मुझे स्वयं पर गर्व होना चाहिए.’

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आत्मविश्‍वास की चमक में चेहरे की झाइयां फीकी पड़ जातीं. बालों की सफेदी उसके पारिवारिक जीवन के तजुर्बे को बयान करती. कभी-कभार वह अपनी सहेलियों और रिश्तेदारों से बात करते समय ठठाकर हंसती और कहती, “आय हैव स्ट्रीक्स इन माय हेयर, लोग सलून में अच्छी कीमत देकर करवाते हैं, मेरे बालों में नैचुरल स्ट्रीक्स हैं.”
सोशल मीडिया पर मेमोरी में विदेश यात्रा की उसकी तस्वीरें जब कभी पॉपअप होतीं, वह बच्चों के साथ बिताए सुनहरे पल याद कर मुस्कुरा उठती. रिश्तेदार उसकी तस्वीरें देखकर कमेन्ट किया करते. उन पर भी नज़र पड़ ही जाती. ‘क्या मौज है पति के राज में? बहुत सुन्दर तस्वीरें. इसे कहते हैं जीना’ आदि. सच, कहां लौटकर आने वाले हैं ये दिन वापिस. बच्चे तो बड़े होकर अपने-अपने करियर को बनाने में व्यस्त हो गए हैं. अब मुझसे समय नहीं कटता. मन ही मन सोचते कई दिन बीत गए और तब एक दिन सफाई करते हुए उसकी पुरानी डायरी हाथ लगी, जिसके सुनहरे कवर की चमक धूमिल-सी पड़ गयी थी और उस पर ऑइल पेंट से उकेरे हुए मोर पंख के रंग भी थोड़े फीके से हो गए थे.
कुछ शायरी, कुछ कविताएं, कुछ रेखांकन… वह उन्हें देखकर धीमे से मुस्कुरा दी. उंगलियां उन पृष्ठों पर स्वतः ही घूम-घूम कर उन शब्दों को स्पर्श कर प्रफुल्लित हो उठीं.
कई दिनों बाद बड़ी बहिन का फोन आया, “आजकल कहां नदारद हो? कितने दिन हुए बात किए.”
“थोड़ी व्यस्तता थी.”
समय की सुइयां घड़ी के पूरे गोले का चक्कर लगातीं और पेंडुलम के आयाम के साथ तेज़ी से अपना सफ़र तय किया करतीं. घर का ज़रूरी काम निबटा कर वह लैपटॉप खोलकर बैठ जाती. उंगलियां की-पैड पर थिरकतीं, तो मानो सातों सुरों से उसकी मन वीणा झंकृत हो उठती.
कई दिनों के बाद बड़ी बहन का फोन आया. इधर-उधर की बातें करते रौ-रौ में बहन बोलती गयी, “क्या करती रहती है सारे दिन? अब तो बच्चे भी बड़े हो गए, सास-ससुर भी स्वर्ग सिधार गए, अब कहां व्यस्त रहती है? खाती और सोती रहती है क्या सारे दिन? क्या ठाठ हैं तेरे. अच्छा सुन, मैंने अपने बेटे का रिश्ता तय कर दिया है. तू ब्याह में आने की तैयारियां कर ले.”
उसने बधाई देते हुए ब्याह में शामिल होने के लिए हामी भर दी.
ब्याह में सजे-धजे रिश्तेदारों के बीच ऊंचे ओहदे पर कार्यरत बहन की सहेलियां जब मुंह खोलतीं, तो कहीं न कहीं उनके दफ्तर की बात ही निकलती. बहिन भी जब किसी से उसे मिलवाती तो… ‘यह… फलां पोस्ट पर हैं… भई ज़िंदगी भर बहुत मेहनत की है इन्होंने, तब आज इतने ऊंचे पद पर हैं.’
वहीं जब उसका परिचय करवाती, तो मुंह बनाकर कहती, ‘शी इज अ हाउस वाइफ.’
“अरे! दोनों बहनों में इतना फर्क?” बड़ी बहिन की एक सहेली ने टिप्पणी की तो मानो एक बार को उस पर घड़ों पानी पड़ गया.
पास-पड़ोस वाले भी ब्याह में उपस्थित थे. सो कहे बगैर रह न सके. “व्यर्थ जीवन खोया तूने तो, हम जैसे गृहस्थिन ही बनी रही. पर हम तो एक पीढ़ी पहले के हैं.”
उसने आत्मविश्‍वास को पुनः बटोरा और मन ही मन मुस्कुराई. फिर तपाक से बोली, “मैंने जीवन के हर रंग को जिया है, अपनी पढ़ाई-लिखाई की बदौलत ही पढ़ा-लिखा वर मिला, जो ईश्‍वर की कृपा से साधन संपन्न है, जिसने मुझे अपने निर्णय लेने की पूरी आज़ादी दी है, जिस समय मुझे मेरी आवश्यकता जहां महसूस हुई, मैंने अपनी उपस्थिति वहां रखी. मुझे कोई रंज नहीं कि मैंने नौकरी नहीं की. अपने जीवन को संवार दूसरों के जीवन में निखार लाना आता है मुझे. मैंने स्वयं के जीवन से रंग लेकर अपनों के जीवन में भरे हैं. ब्याह पूर्व नौकरी का आनंद लिया. ब्याह उपरान्त परिवार का. बच्चों के साथ बचपन जिया, तो रिश्तों के साथ तीज-त्योहार. पति के साथ गृहस्थी की ज़िम्मेदारी साझा की, तो उनकी आमदनी से पूरे विश्‍व का भ्रमण. यदि मैं स्वयं कमाती, तो भी यही सब तो करती न या फिर समय के अभाव में स़िर्फ रुपए ही कमा पाती और करियर के पीछे भागती रह जाती. मेरा जीवन व्यर्थ नहीं गया. सारी मधुर यादें सदैव मेरे साथ रहती हैं. और अब जब बच्चे बड़े हो गए हैं और अपने करियर को संवारने में लगे हैं, तो मैं ब्याह पूर्व की अपनी हॉबी में पुनः रंग भरने लगी हूं.”
“मतलब?” उसकी चचेरी बहन के चेहरे पर प्रश्‍नावाचक भाव थे.
“मतलब यह कि तुम्हें याद है, कॉलेज के समय एक नाटक लिखा था मैंने और मेरी कक्षा के छात्र-छात्राओं ने उसमें भाग लेकर वार्षिक उत्सव के समय उसका नाट्य मंचन किया था.”
“हां-हां याद आया.”
“बस उसी तरह अब कहानियां लिखने लगी हूं. कभी बच्चों के लिए तो कभी बड़ों के लिए. अक्सर अखबारों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. कई कहानियों के रेखांकन भी मैं स्वयं ही बना कर भेज देती हूं. वे भी उनके साथ प्रकाशित होते हैं.”
“अरे वाह! छुपी रुस्तम निकली तुम.” चचेरी बहिन ने प्रसन्नता जताई थी.
“यू आर रियली जीनियस. पढ़ाई में भी अच्छी और कलाकारी के साथ में लेखन भी.” चचेरी बहिन के चेहरे के आश्‍चर्य में डूबे भाव देखकर उसके चेहरे पर सुर्ख रंगत निखर आयी थी.
वह ब्याह से अपने शहर लौटकर आयी और अगले ही दिन किसी अख़बार के परिशिष्ट में उसकी कहानी प्रकाशित हुई.
उसकी अब तक करीब तीस कहानियां प्रकाशित हो चुकी थीं, लेकिन इस बार कुछ अलग ही उल्लास उसके मन में छाया था.
पूरे देश में के विभिन्न शहरों से प्रकाशित होने वाले इस अख़बार का परिशिष्ट देश भर में एक-सा रहता था.
उसकी चचेरी बहन ने सुबह होते ही उसे बधाई देते हुए कहा था, “अरे! आज तुम्हारी कहानी है परिशिष्ट में. इससे पहले तो कभी ध्यान ही न दिया, हमें वाटसैप की दुनिया से फुर्सत मिले तब न. लेकिन जब तुमने अपने बारे में बताया, तो आज सुबह-सुबह अख़बार के परिशिष्ट को देखे बगैर न रह सकी. कितनी अच्छी पारिवारिक कहानी लिखी है तुमने. सच में ऐसी कहानियां इंसान को नैतिक मूल्यों से जोड़े रखती हैं. मुझे गर्व है तुम पर. बस ऐसे ही लिखती रहो.”
उसके बाद चचेरी बहन ने उसकी कहानी का फोटो रिश्तेदारों के वाटसैप समूह में पोस्ट कर दिया था. फिर क्या था, बधाइयों की झड़ी और उसकी लेखनी को नयी पहचान मिली थी.
बड़ी बहिन का आज संदेश आया. “ताज्जुब होता है मुझे, कहां छिपा था तुम्हारा यह गुण?”
आज उसने प्रसन्न मन से अपनी बड़ी बहिन से अपना एक और सीक्रेट साझा किया था. “दीदी शीघ्र ही मेरी पहली पुस्तक प्रकाशित होकर आ रही है ‘सतरंगी परों वाली चिड़िया.” इतना कह उसने पुस्तक का कवर पेज बड़ी बहन से वाटसैप पर साझा किया.
बड़ी बहन ने इस राज को राज न रहने दिया और कवर पेज को उसके सभी रिश्तेदारों वाले समूह में पोस्ट कर दिया.
आश्‍चर्य के भाव वाले इमोजी की झड़ी समूह में लग गयी थी. अनगिनत प्रश्‍न समूह में उभर आये थे, ‘क्या? कब? कैसे?’
वह मुस्कुराई, “यह मेरा बचपन का शौक था. पहले नौकरी और विवाह उपरान्त परिवार में ऐसी रमी कि समय-समय पर जीवन में जो नये रंग आए, उन्हीं में स्वयं को रंग लिया. अब बच्चे बड़े होने पर समय मिलते ही अपना पुराना शौक सबसे चटख रंग लेकर उभर कर आया. मैंने जीवन के हर रंग को जिया, सातों रंगों बगैर कभी इन्द्रधनुष पूरा हुआ है भला? और यह है सबसे सुन्दर रंग, जो कभी पढ़ाई, कभी नौकरी, कभी परिवार की ज़िम्मेदारियों के चलते कहीं दबा-सा रह गया था. मैं आप सभी को अपने शहर आमंत्रित कर रही हूं पुस्तक लोकार्पण के कार्यक्रम में.”


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ब्याह से निपटकर रिश्तेदार घर लौटे ही थे कि पुनः सूटकेस तैयार होने लगे. पुस्तक विमोचन से पूर्व सभागार में सजी-धजी लेखक को देखकर सब आश्‍चर्यचकित थे. पुस्तक विमोचन के लिए अतिथि गण आ पहुंचे थे और ‘सतरंगी परों वाली चिड़िया’ पर चर्चा आरम्भ हो गयी थी. मेकअप में छुपी उसके चेहरे की झाइयां ऐसी छुपीं कि मानो कभी थी ही नहीं. और न जाने कितने राज, कितनी कथाएं, किस्से गालों पर लगे गुलाबी ब्लशर की तरह पुस्तक के पन्नों पर से उभर कर अन्य लेखकों तक पहुंच गए थे. करतल ध्वनि के साथ पतिदेव मंच पर आए और बोले, “पुस्तक का शीर्षक ही विवाहोपरांत मेरी पत्नी के जीवन का सार है. यह मेरे जीवन की चिड़िया है. जो भी रंग मैंने दिया, इसने अपने परों को उसी रंग में रंग लिया. कभी कोई शिकायत या शिकन इसके चेहरे पर न आयी.”
तालियों की गड़गड़ाहट से सभागार गूंज उठा था, बड़ी बहन को बार-बार अपने कहे शब्दों पर पछतावा-सा होने लगा. मन ही मन स्वयं को छोटा महसूस कर रही थी वह. आत्मग्लानि में उसके आंसू गालों पर ढुलक आए थे. जैसे ही कार्यक्रम समाप्त हुआ और छोटी बहिन मंच से नीचे उतरी, उसने छोटी को गले से लगा कर कहा, “हर एक पल का बहुत समझदारी से पूरा इस्तेमाल किया तुमने, तभी तो आज इस मुकाम पर हो. अब कभी पीछे लौट कर न देखना… बस बढ़ती जाना… सबसे चटख, सबसे नए रंग में परों को उड़ान देकर नीलगगन में इठलाना, इतराना.”

रोचिका अरुण शर्मा

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