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कहानी- सैटरडे नाइट (Short Story- Saturday Night)

डॉ. गौरव यादव

जल्द ही एक चेहरा शॉल में लिपटा हुआ मेरे क़रीब आता नज़र आया. मैंने हाथ बढ़ाकर उसे अपने पास खींच लिया था. उसकी सांसें उखड़ी हुई थीं जैसे वो भागते हुए यहां तक आई हो. धड़कनें थोड़ी बेक़ाबू हो रही थीं शायद डर की वजह से या फिर पहली बार मेरी बांहों में आने की वजह से. मैंने उसे सीने से लगा रखा था.

अपना काम ख़त्म करके मैं 6 बजे के आसपास घर के लिए निकल पड़ा था. सर्दियों के दिन थे, लिहाज़ा शाम जल्द ही ढल चुकी थी. आज शनिवार था और बाकी हर शनिवार की तरह आज भी मैंने घर जाने से पहले खाना बाहर से पैक करा लिया था. ये मेरा सालों से चला आ रहा रूटीन था या यूं कहूं तो शनिवार मेरा चीट डे हुआ करता था. जल्द ही मैं अपने चौथी मंजिल के फ्लैट पर था. घर आते ही मैंने खाना गर्म किया और फिर डिनर के बाद बिस्तर पर था.
रात क़रीब एक बजे ठंड और घुटन के साथ नींद खुली थी. ओढ़ा हुआ कंबल नीचे गिर चुका था. मैंने फ़र्श से उठाकर कंबल शरीर पर लपेटते हुए एक बार फिर सोने की कोशिश की. इस मर्तबा नींद आंखों से गायब थी. कई मिनटों के प्रयास के बावजूद जब नींद नहीं आई, तो सिगरेट का पैकेट हाथ में थामे मैं बालकनी में निकल आया था.
दिसंबर की ठंड ने मेरा स्वागत पूरे उत्साह से किया. सारे बदन में सिहरन दौड़ गई थी ऐसे जैसे किसी ने कई रातों के बासी पानी की एक बूंद मेरी रीढ़ में ऊपर से नीचे तक बहा दी हो. मैंने कंबल एक बार फिर शरीर के चारों ओर घुमाते हुए अच्छे से लपेटा और बालकनी की रेलिंग से सटकर खड़ा हो गया. कोहरे की एक परत सामने पार्क के पेड़ों के ऊपर फैली हुई थी. मैंने सिगरेट जलाई और धुएं को कोहरे की चादर के साथ घोल दिया.
कुछ देर यूं ही खड़ा मैं अपनी सिगरेट का लुत्फ़ उठाता रहा और फिर जेब से मोबाइल निकाल तस्वीरें देखने लगा था. किसी ने ऑफिस के व्हाट्सऐप ग्रुप में पुरानी तस्वीरें पोस्ट की थीं. एक तस्वीर में प्रिया भी थी. ये उन दिनों की तस्वीर थी, जब मैंने और प्रिया ने नया-नया ऑफिस ज्वॉइन किया था.
मैं बालकनी में रखी कुर्सी पर बैठ गया. मेरी उंगली में फंसी सिगरेट मेरी ज़िंदगी की तरह धीरे-धीरे सुलग रही थी. हवा अचानक तेज़ हो जाती, सिगरेट की आग उस हवा में बढ़ जाती और फिर हवा के कम होते ही सिगरेट धीरे-धीरे सुलगने लगती.
मैं एक बार फिर प्रिया की यादों में खोने लगा था. मेरे उतारे हुए कपड़ों में आज भी प्रिया की ख़ुशबू महसूस की जा सकती थी. मैंने न जाने कितने इत्र लगाकर देखे हैं, लेकिन सब पर प्रिया की महक भारी पड़ जाती है.
आज से तीन साल पहले मैं और प्रिया अलग हो गए थे, लेकिन मेरे घर के हर हिस्से में उसकी मौजूदगी आज भी थी. लिविंग रूम में रखा सोफा, जो उत्तरी दीवार के साथ चिपका हुआ है कभी पूर्वी दीवार से लगा रहता था. वो प्रिया ही थी जिसने कहा था कि सोफे को उत्तरी दीवार से सटा कर रखो, पूर्वी दीवार को खाली रहने दो, अच्छा लगता है. खिड़कियों पर जो आसमानी रंग के पर्दे लगे हैं, ये कभी मैरून हुआ करते थे. प्रिया ने ही उन मैरून पर्दों को हटाकर ये आसमानी पर्दे लगाए थे और कहा था, “पर्दे हमेशा हल्के रंग के होने चाहिए. इससे कमरे और जीवन दोनों में रोशनी आती रहती है.” मुझे बोतल से पानी पीते देख उसने कई बार झगड़ा किया था, “अकेले रहने का मतलब बिखर कर रहना नहीं होता, पानी हमेशा ग्लास में लेकर पिया करो.”

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उसकी दी हुई नसीहतों को अपनाने में मुझे समय लगा था, लेकिन मैंने सब बदल लिया था. पानी ग्लास से पीना सीख लिया, तौलिया रस्सी में टांगना सीख लिया. बस जो एक चीज़ नहीं सीख सका, वो उसके बगैर रहना.
मैं और प्रिया पहली बार भोपाल ऑफिस में मिले थे. हम दोनों ही इंटर्न के तौर पर आए थे. हम दोनों की ट्रेनिंग साथ-साथ चली थी. ऑफिस में सबके साथ मिलकर हम भी लंच करते. हम रोज़ ऑफिस में ही मिलते और हमारी जान-पहचान ऑफिस तक ही सीमित थी. ट्रेनी ग्रुप में और भी कई लड़के-लड़कियां थे. हम सबका एक ग्रुप बन गया था. जल्द ही वो ग्रुप बाहर मिलने लगा, पार्टी करने लगा, मूवी जाने लगा. मैं और प्रिया भी बस उस ग्रुप का एक हिस्सा होने की वजह से साथ होते. मूवी जाने पर कोई किसी के भी साथ बैठ जाता.
वक़्त के साथ सब बदलता है और वही हुआ भी. मैं और प्रिया बदल गए. अब हम सिर्फ़ दोस्त नहीं रहे थे. मुझे उसका साथ अच्छा लगने लगा था. मैं उसके लिए थिएटर में अपने बगलवाली सीट बचाकर रखने की कोशिश करता. लंच में भी हम अगल-बगल बैठने की कोशिश करते. उसका हाथ छू जाने से मुझे कुछ महसूस होता. हमारे प्यार की पहचान हमसे पहले हमारे ग्रुप को हो गई थी. मैंने तो आज तक महसूस नहीं किया था कि ये प्यार है, लेकिन सबको लगने लगा था कि ये ही प्यार है. ग्रुप के सब लोग हमें साथ देख मुस्कुराते, हूटिंग करते, हम दोनों को अच्छा लगता, लेकिन दोनों ने ही अब तक इसे प्यार नहीं माना था. फिर मैंने एक दिन प्रिया से कहा, “प्रिया, क्या तुम्हें कभी प्यार हुआ है?”
“यार ये बात तो मुझे भी तुमसे करनी थी. जाने क्यों ये सब कहते हैं कि मुझे किसी से प्यार है.”
“अच्छा और किससे, ये भी तो कहते होंगे?”
“सबको तो लगता है कि मैं तुमसे प्यार करती हूं, जबकि मुझे ऐसा नहीं लगता. मैं तो तुम्हें सिर्फ़ अपना अच्छा दोस्त मानती हूं. वैसे तुम्हें मुझसे प्यार है क्या?”
“शायद?”
“शायद या कंफर्म?”
“कंफर्म, ये प्यार ही है.”
“तो फिर शायद क्यों कहा?”
“लगा कहीं तुम नाराज़ न हो जाओ.”
“बुद्धू मैं क्यूं नाराज़ होऊंगी, मुझे भी तो तुमसे प्यार है.”
और इस तरी़के से हम दोनों ने अपने प्यार का इज़हार किया था.
धीरे-धीरे प्रिया मेरे घर आने लगी थी. पहली बार जब वो मेरे फ्लैट पर आई, तो उसने हर चीज़ में कोई न कोई कमी निकाली थी. जल्द ही वो मेरे फ्लैट को सही करने में लग गई थी.
प्रिया को मेरी सिगरेट पीने की आदत बिल्कुल पसंद नहीं थी. इस एक आदत के सिवाए मैंने प्रिया की कही हर बात मान ली थी. प्रिया की सबसे अच्छी बात ये थी कि वो मुझे किसी बात के लिए फोर्स नहीं करती थी और उसकी यही बात मुझे हर चीज़
करने को मजबूर कर देती. वो कोई बात मुझसे कहती. अगर मैं मान लेता तो ठीक, नहीं तो वो दोबारा उस बात के लिए न कहती. और उसकी यही आदत उसकी सबसे बड़ी ताक़त थी. हालांकि कभी-कभार इस बात के लिए मैं खीझ भी जाता. कैसे कोई एक बार मना कर देने पर आसानी से बात मान सकता था. उसे झगड़ा करना चाहिए. उसे कहना चाहिए कि नहीं तुम्हें ऐसा करना ही होगा. मैं तो अगर किसी बात के लिए मना किया जाए, तो और भी ज़्यादा उस चीज़ के लिए तड़प उठता हूं.
प्रिया भोपाल से क़रीब 70 किलोमीटर दूर एक गांव से थी. वो शनिवार को अक्सर घर चली जाया करती और फिर रविवार को देर शाम वापस आ जाया करती.
ऐसा ही ठंड का महीना था. शनिवार को अपना काम ख़त्म करके प्रिया ने घर जाने का तय किया था. उसे मैं ही बस स्टॉप छोड़कर आया था और उसने दो घंटे बाद फोन करके बताया था कि वो घर पहुंच चुकी है.

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हम दोनों अक्सर फोन पर बातें करते हुए डिनर किया करते थे. उस रात भी उसने अपने रूम में खाने के सामने बैठ मुझे अपना टिफिन खोलने कहा था. मैंने टिफिन खोला और देखते ही कहा था.
“यार आज तो बहुत बोरिंग खाना आया है. मुझे नहीं खाना. मुझसे ये लौकी नहीं खाई जाएगी.”
“अरे, पर थोड़ा-सा तो खा लो.” उसने मेरी बात सुनकर जवाब दिया था.
“नहीं, मुझे कुछ भी नहीं खाना. ऐसे ही सो जाऊंगा.”
“अच्छा देखो अगर तुम खाना खा लेते हो, तो फिर मैं तुम्हें किस करूंगी.”
“नहीं चाहिए, ये फोन पर किस कर करके थक गया हूं मैं.”
“सोच लो, क्योंकि आज मैं फोनवाला नहीं सच वाला किस करने कह रही हूं.”
“चलो छोड़ो, मैंने ही तुम्हें आज बस स्टॉप पर ड्रॉप किया है… और इतना तो जानता हूं कि मुझे किस करने तुम 70 किलोमीटर नहीं आनेवाली.”
“हां तो तुम तो आ सकते हो न.” और उसकी बात सुनकर मैं कुछ देर के लिए ख़ामोश रह गया था.
“क्या हुआ?” मेरे चुप रहने पर उसने सवाल किया था.
“तुम सच कह रही हो, ऐसा हो सकता है?”
“हां, बिल्कुल हो सकता है. तुम तो जानते हो मैं एक बार कोई बात कह देती हूं, तो दोबारा नहीं कहती.”
“अच्छा ठीक है. मैं खाना खा रहा हूं और फिर हमारी किस पक्की.”
“जल्दी से खाना खाओ, लेकिन याद रखना ये सिर्फ़ आज रात तक के लिए वैलिड है.”
उसे लगा उसके ऐसा कहने से मैं खाना तो खा लूंगा, लेकिन उससे मिलने नहीं जाऊंगा. मैंने खाना खाया और बाइक लेकर उसके गांव के लिए निकल पड़ा. दो घंटे बाद मैं उसके गांव और फिर उसके घर के बाहर था. मैंने उसे कॉल किया.
“ये जो बड़े नीले रंग का गेटवाला घर है, जिसके बाहर एक हैंडपंप है और शायद तुम्हारे पापा का नाम मिस्टर शिवकुमार
शुक्ला लिखा है… यही घर है न तुम्हारा?” मैंने उसके फोन उठाने पर पूछा था.
“हां, लेकिन तुम्हें ये हैंडपंप कैसे पता और पापा का नाम गेट पर है, वो कैसे?”
“तुमने ही तो बताया था कि गवर्नमेंट स्कूल के बगल में जो नीले गेटवाला घर है, वो तुम्हारा है, तो बस पहचान गया.”
“एक मिनट तुम मेरे घर के बाहर हो?”
“हां किस भी तो लेनी थी.”
“हे भगवान! सक्षम, तुम पागल हो क्या… इस ठंड में यहां इतनी दूर आ गए. अच्छा तुम गेट के सामने मत रहना. पापा बाहर के कमरे में हैं तुम्हें देख लेंगे. तुम स्कूल के अंदर जाओ. मैं वहीं आती हूं.” उसने मेरी बात सुनकर घबराते हुए कहा था.
“ओके, जल्दी आओ.” कहकर मैंने फोन काट दिया और स्कूल के गेट के अंदर चला गया. स्कूल में अंधेरा था. बाइक खड़ी करके मैं उसका इंतज़ार करने लगा.


जल्द ही एक चेहरा शॉल में लिपटा हुआ मेरे क़रीब आता नज़र आया. मैंने हाथ बढ़ाकर उसे अपने पास खींच लिया था. उसकी सांसें उखड़ी हुई थीं जैसे वो भागते हुए यहां तक आई हो. धड़कनें थोड़ी बेक़ाबू हो रही थीं. शायद डर की वजह से या फिर पहली बार मेरी बांहों में आने की वजह से. मैंने उसे सीने से लगा रखा था.
“सक्षम, पागल हो. इस ठंड में यहां इतनी दूर आ गए, मैंने तो मज़ाक में कहा था.”
“तुम कोई बात कहो और मैं मना कर दूं.” मैंने अपने ठंडे हाथों को उसके गालों पर रखते हुए जवाब दिया.
“तुम्हारे हाथ तो बिल्कुल पानी हो गए हैं.” कहते हुए उसने अपना शॉल खोला और मुझे उसमें लपेट लिया. हम नज़दीक ही सीढ़ियों पर बैठ गए.
“खाना सच में खा लिया था न?” उसने मेरी हथेलियां अपने हाथ में लेकर रगड़ते हुए पूछा.
“हां, तुमसे कभी झूठ नहीं कहा.”
“पर इतना दूर आने की क्या ज़रूरत थी. अभी कुछ देर पहले ही तो मैं तुमसे मिलकर आई थी न और कल वापस आ ही जानेवाली थी.”
“तुमसे मिलने का मन हुआ तो आ गया.”
“लेकिन पांच मिनट की मुलाक़ात के लिए चार घंटे का सफ़र… कहां की समझदारी हुई.”
“तुम्हारे साथ गुज़ारे पांच मिनट की क़ीमत अकेले गुज़ारे चार घंटों से कहीं ज्यादा होती है.”
“पूरे पागल हो तुम. आई एम सॉरी मैं तुम्हें घर नहीं ले जा सकती. ये गांव है. यहां लोग ये सब समझ नहीं पाएंगे और न ही ज्यादा देर रुक सकूंगी.”
“इट्स ओके, मैं बस तुमसे मिलने आया था, मिल लिया. अब वापस जाना है. रुकने के इरादे से थोड़ी आया था.”
“थैंक यू, सक्षम.”
“चलो अब मै जाता हूं. तुम भी घर जाओ. और हां कल शाम मैं तुम्हारा बस स्टॉप पर इंतज़ार करूंगा. कहते हुए मैं वापस जाने को खड़ा हो गया था. मैंने उसे बाय कहा और जाने के लिए चल पड़ा.
“सक्षम.” उसने मुझे आवाज़ दी.
“हां?”
“तुम जिस वजह से यहां तक आए थे, उसके बारे में तो कुछ कहा ही नहीं तुमने.”
“एक्चुअली मैं यहां किस के लिए नहीं आया था. मुझे तो बस तुम्हें देखने का मन हुआ था.”
“जानती हूं, लेकिन मैं अपने वादे की पक्की हूं और मैंने वादा किया था कि अगर तुमने खाना खा लिया, तो मैं तुम्हें किस करूंगी.” कहते हुए उसने अपने हाथ मेरी गर्दन में लपेट दिए. मैंने कुछ कहा नहीं और उसने मेरे होंठों पर अपने होंठ रख दिए थे. ऐसी ही सिहरन उस रात भी मुझे महसूस हुई थी. जल्द ही वो मुझसे अलग हुई और, “आराम से जाना…” कहकर वापस चली गई.
रात एक बजे तक मैं अपने फ्लैट वापस लौट आया था. अगले दिन शाम प्रिया वापस आ गई. मैं उसे रिसीव करने बस स्टैंड पहुंच गया था. उजाले में हमारी आंखें मिलीं और वो मुझे देखते ही शरमा गई थी. उस दिन के बाद हमारा रिश्ता और भी गहरा हो गया था. मैं जल्द से जल्द प्रिया से शादी करना चाहता था.
प्रिया अक्सर मेरे फ्लैट आया करती थी. वो सब अपने मन से करती. उसे अपने पार्टनर के तौर पर देखना मुझे अच्छा लगता.
हालांकि शादीवाली बात मैंने उससे अभी तक नहीं कही थी. मैंने घर पर बताने के बाद प्रिया से बात करने का सोचा था.
एक दोपहर जब मैं ऑफिस में था, घर से फोन आया. पापा ने कहा कि ताऊजी की तबीयत ज़्यादा ख़राब है. मैंने तुरंत ही ऑफिस से छुट्टी ली और घर के लिए निकल गया था. मैं तीन दिन तक सबके साथ हॉस्पिटल में रहा और फिर ताऊजी की तबीयत ठीक होते ही वो घर आ गए थे. मुझे भोपाल से आए हुए अब तक पांच दिन बीत चुके थे, लेकिन प्रिया के बारे में किसी को भी बता पाने का मौक़ा नहीं मिला था. जल्द सोमवार आ गया था.
सोमवार सुबह छह बजे ही मैं भोपाल वापस लौट आया था और दस बजते-बजते ऑफिस में था. प्रिया से मेरी बात इन दिनों में ज़्यादा नहीं हो पाई थी. मुझे उसे देखने की बेताबी थी. मैं ऑफिस पहुंचा, तो देखा सब प्रिया को किसी बात के लिए बधाई दे रहे थे और इसके पहले कि मैं उससे वजह पूछता, हम सबको बॉस ने अंदर बुला लिया था. बॉस के कमरे से हम सब अपने-अपने डेस्क पर चले गए. प्रिया मुझसे दूर बैठा करती थी. अब मुझे उससे बात करने का मौक़ा सीधे लंच में ही मिलनेवाला था.

मैंने अपने बगल में बैठी कलीग मैरी से पूछा कि कुछ देर पहले सब प्रिया को बधाई क्यों दे रहे थे. उसने कहा, “क्यों तुम्हें नहीं पता?”
“नहीं, मुझे तो कुछ नहीं पता.”
“सच में उसने तुम्हें कुछ नहीं बताया?”
“हां भई, झूठ क्यों बोलूंगा, बताओ न क्या बात है?”
“प्रिया की शादी तय हो गई है. उसी के लिए हम सब उसे बधाई दे रहे थे. हमें लगा कि उसने तुम्हें बताया ही होगा.”
“शादी? प्रिया की, लेकिन किससे?”
“ये तो मुझे नहीं पता, तुम उसी से पूछो.” यह सुनकर मैं बेचैन हो उठा था. प्रिया की शादी तय हो गई है… ये क्या कह रही थी वो. प्रिया तो मुझसे प्यार करती थी, फिर शादी किसी और से कैसे. मैं तुरंत ही प्रिया के पास आया.
“प्रिया बाहर आओ.”
“क्या हुआ, सक्षम?”
“बाहर आओ, मुझे तुमसे कुछ बात करनी है.”
“तो लंच में करें अभी बॉस देखेंगे, तो नाराज़ हो जाएंगे.”
“नहीं, मुझे अभी बात करनी है. तुम बाहर आओ.”
वहां से हम दोनों बाहर आ गए. मैंने उससे पूछा, “सब ऐसा क्यों कह रहे हैं कि तुम्हारी शादी फिक्स हो गई है.”
“क्योंकि ऐसा ही है. मेरी शादी वाकई में तय हो गई है.”
“तुम्हें पता है तुम क्या कह रही हो? तुम मुझसे प्यार करती हो, तो शादी किसी और से?”
“हां, तो तुम मुझसे शादी करोगे, ऐसा तुमने कभी कहा भी तो नहीं. और प्यार तो आजकल लोग न जाने कितनों से करते हैं, लेकिन शादी सब किसी और से ही करते हैं न. इसमें नया क्या है. वैसे भी मैंने शादी के लिए तुमसे कभी नहीं कहा. और जहां तक मुझे याद है तुमने भी ऐसा कुछ वादा नहीं किया था. अब प्लीज़ ये मत कहना कि तुमने सोच रखा था इस बारे में, लेकिन बता नहीं पाए.”
“प्रिया, हम प्यार करते हैं. इतने महीनों से साथ हैं. सारा ऑफिस हमारे बारे में जानता है.”
“तो इसमें क्या, हम अच्छे दोस्त हैं. वैसे भी ऑफिस में सबको सबके बारे में पता है. उससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता और प्लीज़ ये आशिक़ टाइप फिल्मी बातें मत करो.”
“दोस्त किस नहीं करते प्रिया.”
“तुम अब तक उस किस में अटके हुए हो, वो कोई बड़ी बात नहीं है. तुमने भी मेरे सिवा पहले किसी को किस किया होगा, दैट्स नॉट अ बिग डील और अगर तुम मुझसे पहले कहते, तो ज़रूर मैं तुमसे शादी कर लेती. लेकिन अब मेरी शादी कहीं और तय हो गई है और उसे कैंसिल कर पाना आसान नहीं है. मैं एक गांव से हूं, वहां लोग ये सब नहीं समझ सकेंगे.”
“इट्स ओके प्रिया, मैं समझता हूं. एक और बात, प्लीज़ हमेशा गांव के लोगों को बदनाम मत किया करो. मैं गांव की और भी कई लड़कियों को जानता हूं, वो इस तरी़के की नहीं हैं, सो प्लीज़. ख़ैर शादी मुबारक हो.” कहकर मैं वहां से चला आया. अगले महीने प्रिया की शादी हो गई और वो दूसरे शहर चली गई.
मैं अब तक आख़िरी बार प्रिया से मिलनेवाले पलों के ख़्यालों में खोया हुआ था, तब मेरे हाथ में जल रही सिगरेट ख़त्म होकर मेरी उंगलियों से छू गई थी. उसके छूते ही मैं होश में आया था.
ठंड बढ़ गई थी.

मैंने ख़त्म हुई सिगरेट को पैरों के नीचे मसल दिया और कुर्सी से उठ गया. कई रातों की तरह एक बार फिर प्रिया को याद करके मेरी बेचैनी कम हो गई थी. मैंने बालकनी का दरवाज़ा बंद किया और अपनी शनिवार की नींद के लिए लौट आया था.

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