"आपके हिसाब से तो पत्नी भी सौतेली हो सकती है."
"बिल्कुल! मैं भी तो इन्हें नैसर्गिक पत्नी प्रेम नहीं दे सकी. बस ड्यूटी बजाती रही. किसी और औरत के प्रेम से इन्हें परितृप्त ज़रूर कर रखा है. फिर भी हमने बच्चों की शादी करके अपनी गृहस्थी को आख़िरी मुकाम तक पहुंचाया. नाऊ यू केन अंडरस्टैंड द हिप्पोक्रेसी ऑफ द प्योरली भारतीय दंपति- बच्चों के नाम पर, समाज के नाम पर... अपने आपको बलि का बकरा बनाते हुए अपनी आत्महत्या करते हुए जी जाते हैं."
"क्यों चौंक गई?"
"क्यों? जब मां सौतेली ही सकती है, सौतेला बाप हो सकता है, भाई-बहन सौतेले हो सकते हैं, तो पति क्यों नहीं सौतेला हो सकता है?" वे खिलखिला पड़ीं और देर तक हंसती रहीं.
शादी के बाद की उदासी और बेतरतीबी फैली थी पूरी कोठी में. घर की मनहूसियत से घबराकर वे उसे लॉन में घसीट लाई थीं. लॉन का यह अंधेरे में डूबा कोना फिर भी भला लग रहा था.
वो लॉन के गहरे अंधेरे कोने में बैठे हुए भी बिजली की उस आख़िरी सीरीज को बरामदे में झूलती देखती रहीं, जिसे चौहान साहब ग़लती से उतरवाना भूल गए हैं या इसलिए वहां टंगी रहने दी है कि सड़क पर आ-जा रहे लोगों को पता लग सके कि इस घर में अभी-अभी शादी हुई है. वे जानती हैं, नीरा के पास उनकी हंसी का कोई जवाब नहीं है. नीरा चुपचाप कॉफी का सिप करते हुए उन्हें देखती रही. उनके मुंह से 'सौतेला पति' शब्द विवाह की नेहभरी भागदौड़ और व्यस्तता के बाद उसे बेहद अटपटा लग रहा है. उसने उन्हें चौहान साहब व उनके परिवार के रिश्तेदारों के उल्लास भरे चेहरों के बीच आंचल बांधे अपनी बेटी का कन्यादान करते देखा है, कैसे विश्वास कर ले उनकी इस बे-सिर-पैर की बेहूदी बात का?
अपनी बेटी के ब्याह का अवसर किसी भी स्त्री के लिए अपनी गृहस्थी की पराकाष्ठा होती है. एक तुमुलनाद होता है- अपने जीवनसाथी के साथ पूरा जीवन गरिमापूर्ण ढंग से निबाहने का. फिर वे क्यों बहक रही हैं? उनके भरपूर जीवन से तो कोई भी रश्क कर सकता है. बेटा अमेरिका में इंजीनियर है, आज ही की फ्लाइट से वापिस गया है. बेटी आई.ए.एस. है, प्रशिक्षण के दौरान ही उसने अपना मनपसंद साची चुन लिया था.
वे उसे फिर कोंचती हैं, "क्यों, तूने जवाब नहीं दिया मेरी बात सुनकर कि चौहान साहब मेरे सौतेले पति हैं?"
"तृष्णाजी, आप भी अजीब बात करती है? मैंने तो उन्हें कभी भी आपसे सौतेला व्यवहार करते या आपकी अवमानता करते नहीं देखा."
"यही तो तिलिस्म है इस पति-पत्नी के संबंध का. ऊपर से हर जोड़ा मुस्कुराता, खिलखिलाता लगता है. मिलने-जुलने वाले एक के बिना दूसरे को अधूरा सा महसूस करते हैं, लेकिन अंदर ही अंदर जाने कितने तरह के छोटे-मोटे कनेक्शन व विरोधाभास जुड़े होते हैं. तेरी साहित्यिक भाषा में कहें तो इतने ढेर सारे रिश्तों के संवेदनशील तंतु जुड़े होते हैं उन दोनों के बीच कि अंदर ही अंदर क्या घट रहा है, कोई जान भी नहीं पाता."
"लेकिन आप ऐसा क्यों कह रही हैं? मैं तो आपकी शादी से लेकर आपकी बेटी की शादी तक साथ रही हूं. मैंने तो कभी आहट नहीं सुनी किसी भी ऐसे तन्तु के टूटने की."
"हा... हा... 'मेन कनेक्शन' असली तन्तु जुड़ा ही कब था, जो तू उसके टूटने की आवाज़ सुन पाती, वैसे भी कोई लाख टोह ले इसके टूटने की आवाज़ कौन, कब सुन पाता है? तुम सब कितनी चमत्कृत थीं मेरी शादी से. तुझे याद है?" वे कुर्सी पर आगे खिसककर सिर को पीछे की तरफ़ टिका देती हैं.
"मैं व्यवसायी परिवार के इकलौते बेटे से ब्याही गई थी. जब हम देहरादून जा रहे थे तो तू भी स्टेशन पर छोड़ने गई थी. उस समय हम मध्यमवर्गीय लड़कियों के लिए फर्स्ट क्लास का कूपा कितनी बड़ी चीज़ होता था, है न." वे किन्हीं विचारों में खो गईं.
वे भूलना चाहती हैं कि वे किस तरह कूपे की बर्थ पर गहनों के बोझ से झुकी बैठी थीं. अंदर एक मीठी सिरहन से रोयां रोयां थरथरा रहा था. वे कनखियों से चौहान साहब को अपने व उनके रिश्तेदारों से विदा लेते देखती रही थीं.
गाड़ी के चलते ही जैसे ही चौहान साहब ने कूपे का दरवाज़ा बंद किया और अचानक ही अपने हाथों में उनका चेहरा भर लिया, तो एक अनबूझ नशे से उनका शरीर लहकने लगा था. होंठ किसी गर्म स्पर्श की कल्पना से कंपित हो उठे थे. आंखें नशीली हो अधमुंदी हो उठी थीं. चौहान साहब ने अपने होंठ उनके होंठों पर रखने की बजाय माथे पर रख दिए थे, "आप थक गई होंगी, सो जाइए... मैं कपड़े बदलने जा रहा हूं. आप भी कपड़े बदल लीजिए." उसके उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना वे अपना नाइट सूट एयर बैग में से निकालकर बाथरूम में कपड़े बदलने चले गए. वे सजी-धजी हतप्रभ थीं. उनकी रिश्ते की ननद ने उन्हें सजाते समय कितनी चुहल की थी.

"भाभी, आपके ठाठ हैं. हमारा हनीमून तो बंद कमरे में हो गया था. आप तो छुकछुक करती गाड़ी में हनीमून मनाओगी. हमारे भइया बड़े शौकीन मिजाज़ हैं. आपको इतना सजाऊंगी कि आपके चेहरे से उनकी नज़र ही न हट सके."
वे कूपे में नख से शिख तक अभिसारिका बनी प्रतीक्षा कर रही थीं और 'वे' उन्हें बिना नज़र भर देखे कपड़े बदलने चले गए थे और कपड़े बदलकर ऊपर की बर्थ पर सोने भी चले गए थे. वे काठ हुई नीचे की बर्थ पर बैठी रह गई थीं. वे उस दर्द को एक वाक्य में उड़ेलकर रख देती हैं.
"वह मेरे जीवन की 'हनीमून नाइट' नहीं थी, एक दुल्हन की ऊबाऊ व नीरस रात थी. ज़िंदगी की इसी नीरस शुरुआत से मैं घबरा गई थी."
"क्या जीजाजी के जीवन में कहीं कोई लड़की थी?" नीरा ने पूछा.
"हां, एक, दो, तीन नहीं, बल्कि पूरे आठ साल इनके संपर्क में रही थी. इनके हॉस्टल के पास वाले गर्ल्स हॉस्टल में रहती थी. लेकिन इनके माता पिता ने मुसलमान लड़की से शादी करने की अनुमति नहीं दी."
"लेकिन यह बात इतनी गंभीर तो नहीं थी. जीजाजी ने आपको हर तरह की आज़ादी दी, अपने घर की सत्ता सौंपी."
"तू क्या जाने एक स्त्री हृदय के लिए ये कितनी बड़ी बात थी, वह भी एक ऐसी लड़की के लिए जो हल्के-फुल्के फ्लर्ट में भी विश्वास नहीं करती थी. पूरी निष्ठा से शादी का इंतज़ार करती रही कि वह अपना तन-मन एक ही व्यक्ति को सौपेंगी."
वे क्या बताएं इसे. शादी से पहले छिप-छिप कर कोर्स की किताबों में वह जो उत्तेजक किताबें पढ़ती रही थीं, वैसा कुछ भी नहीं हुआ था. एक सुनियोजित योजना के तहत उन्होंने गाड़ी से उतर कर मसूरी के लिए टैक्सी ले ली थी. वे पीछे की सीट पर बैठ गई थीं. ड्राइवर किसी काम से गया हुआ था. वे टैक्सी के विपरीत तरफ़ मुंह फेरे पीछे हाथ बांधे खड़े थे.
उनकी टैक्सी से थोड़ी दूर पर एक टैक्सी खड़ी थी. उसमें
भी एक नई दुल्हन बैठी थी. उसका दूल्हा टैक्सी की खिड़की पर झुके-झुके ही उसके कान में पता नहीं क्या-क्या सरगोशियां कर रहा था. फिर उसने टैक्सी की खिड़की पर झुके-झुके दुल्हन के होंठ अपने होंठों में भर लिए. दुल्हन शरमा कर जल्दी से अपने को छुड़ाकर सीट की दूसरी तरफ खिसक गई. शर्म से उसका चेहरा गुलाबी हो गया था. इस घटना को देखकर उनका भी रक्त दौड़ने लगा था. लेकिन चौहान साहब थे कि टैक्सी की तरफ़ उल्टा मुंह किए हुए खड़े थे. उनकी बेरुखी, उनकी सपाट पीठ को देखकर उनके दिमाग़ में एक शक पनपा था कि कहीं ये किसी और से जुड़े हुए तो नहीं है?
वो अपनी रौ में बहती जाती हैं, "जानती है, अपने हनीमून ट्रिप में चौहान साहब हर रात किसी फ़िल्म शो में बैठ जाते या माल रोड पर मुझे साथ लिए भटकते रहते या फिर किसी ओपन थिएटर में गए रात तक मुझे बिठाए रखते. उन्हें कभी जल्दी नहीं रहती थी कि होटल में जाकर जल्दी से अपने कमरे में अपने को बंद कर लिया जाए."
"तृष्णा दी! प्लीज़! बस भी करिए।" नीरा बेहद सकुचा उठी.
"नहीं, आज तू मुझे बोल लेने दे."
वह उसके रोकने से रुकेंगी नहीं, नीरा यह समझ चुकी थी. इसलिए उसने पूछा, "आपको उनके संबंध की बात पता कैसे लगी?"
"वहीं मसूरी में. अपनी नई नवेली बीवी से इन्होंने घुमा-फिराकर कहना शुरू कर दिया था कि अगर मेरे जीवन में कोई और लडकी रही हो तो तुम्हें कैसा लगेगा? मैं भी कहती रही कि मैं जान दे दूंगी या उसकी जान ले लूंगी... तब मैं इसे मज़ाक ही समझ रही थी."
"जीजाजी ने अपने संबंध को मसूरी में ही स्वीकार कर लिया था?" आशंका से नीरा का दिल धड़क उठा. यदि ऐसा हुआ होगा तो किस तरह एक नई नवेली दुल्हन की कोमल पंखुड़ियां कुचल दी गई होगी.
"हां, यह बात पूरी तरह इन्होंने एक रेस्तरां में बताई थी. लस्सी का ग्लास मेरे मुंह से लगा था, लेकिन लस्सी गले में फंस गई थी. मैं जैसे सुन्न हो गई थी. हमारे संबंध बनने से पहले ही सुन्न हो जड़ हो गए थे. मैं रात भर होटल के बिस्तर पर बिलखती रही और ये समझाते रहे, "देखो, मैं जीवन का आरंभ ईमानदारी से करना चाहता हूं." लेकिन में तड़पती रही, काश! इस बात को छिपाकर मेरे साथ थोड़ा तो तरंगित होने का अभिनय करते. मेरे लिए अब एक दिन भी मसूरी में रहना दूभर हो रहा था. मैं अपनों के बीच पहुंच कर रोना चाहती थी. हम लोग वापस बाई एयर आए थे. मुझे आज भी याद है एयरड्रोम पर इनकी महिमा से मंडित हो तुम सब दबी-झुकी फूलों के गुच्छे लिए खड़ी थीं."
"लेकिन आप तो बेहद ख़ुश थीं व उछली-उछली फिर रही थी."
जो आदमी किसी स्त्री से इस कदर गहरे तक बिंधा है, उसके साथ रहना न रहना बराबर ही था. वे कुछ सोचते हुए बोली थीं, "लेकिन उसके बाद डबल गेम नहीं खेल सकते. यदि ऐसा करना चाहते हैं तो अभी तलाक़ ले लीजिए. अभी मैं बी.एड. करने के बहाने एक वर्ष मां के घर रह लूंगी."
"तुमसे तलाक़ लेना होता तो शादी क्यों करता?"
कभी न धुंधली पड़ने वाली इस पूरी घटना को एक वाक्य में पिरो नीरा के सामने उन्होंने कहा, "जानती है मैंने बी.एड. इसलिए किया था, क्योंकि चौहान साहब की यही मांग थी कि मैं उनसे अलग रहकर उन दोनों को भी अलग होने का समय दूं."

ये बहुत होशियारी से दोनों रिश्ते निबाहते रहे थे. प्रेयसी के पास जाकर उसके आंसू पोंछते रहे. मेरे पिता के घर आकर बर्फ़ नुमा पत्नी का अधिकार मेरी झोली में डालते रहे थे. मैं तुम लोगों को सफ़ाई देती रही थी कि मैं बी.एड. इसलिए कर रही हूं कि कभी ज़रूरत महसूस हो तो नौकरी कर लूं."
"लेकिन आपने जीजाजी को इतनी छूट कैसे दे दी? क्या आपको जलन नहीं होती थी?"
"जो कभी मेरा हुआ ही नहीं, जिसके लिए मेरे दिल में प्यार अंकुरित हुआ ही नहीं, उसके इस व्यवहार से क्या जलती? मुझे भी तो समय चाहिए था. उस लड़की पर भी तरस आया, जिससे उसने दिल का रिश्ता जोड़ा वह उसे नहीं मिला. उससे भी अधिक तरस आया अपने आप पर, जिससे मेरा दिल नहीं जुड़ा, वह मेरे पल्ले बंध गया."
"आप अलग भी हो सकती थीं?"
"एक मध्यमवर्गीय परिवार की तीन लड़कियों में बड़ी बेटी जो नौकरी भी नहीं करती थी, अलग होकर जाती कहां? ज़िंदगी को घिसटने के अलावा कर भी क्या सकती थी?"
"जीजाजी उससे अलग होकर आपके वफ़ादार तो रहे?"
"बिना दिल के आदमी की वफ़ादारी क्या और बेवफ़ाई क्या? सारी दुनिया व अपने परिवार के सामने शराफ़त का नकाब ओढ़े हुए रहने वाला आदमी मेरे से अकेले में दुश्मन की तरह व्यवहार करता. मुझे बेइज़्ज़त करने का कोई भी मौक़ा नहीं चूकता. इन्होंने सोचा था, मैं गरीब परिवार की लड़की हूं इसलिए वह मन मुताबिक़ मुझे दबा देंगे. मां-पिता भी ख़ुश रहेंगे और इनका प्रेम व्यापार भी आराम से चलता रहेगा, लेकिन मैंने उनके इस सपने को तहस-नहस कर दिया था."
"दी बस भी करिए!"
तृष्णा दी पूरी तरह बहक चुकी थीं.
"चौहान साहब की आंखों में मैंने आज तक कभी रोमांटिक शरारत नहीं देखी. चाहे मैंने कोई भी रंग पहना हो, कोई भी पोशाक पहनी हो, लेकिन इनकी सपाट आंखों में मेरे लिए कोई रंग नहीं लहका. ऐसे रेगिस्तान को मैं झेलती चली जा रही हूं, किसी बेजान मूर्ति के साथ घिसटती जा रही हूं."
ऐसा नहीं था कि चौहान साहब जड़ व भावनाशून्य व्यक्ति हैं, किन्तु जैसे ही उनकी कोख में विवेक आया था, जैसे मरुस्थल में भी चेतना हिलोरें लेने लगी थी. हर दिन वह स्वयं फ्रिज खोलकर देखते थे, फ्रिज में दूध, पनीर, मक्खन, फल सही मात्रा में है या नहीं व उदर में पल रहे उनके अंश तक वह सही मात्रा में पहुंच रहे हैं या नहीं.
एक दिन वे पलंग पर लेटी- चाइल्ड केयर की कोई किताब पढ़ रही थीं. चौहान साहब पास की कुर्सी पर अख़बार पढ़ रहे थे. अचानक रेडियो पर एक गीत की पंक्ति बज उठी, "थोड़ा हमारा, थोड़ा तुम्हारा आएगा फिर से बचपन हमारा..."
इन पंक्तियों से चौहान साहब का जैसे रोयां रोयां झूम उठा. वे अख़बार को मेज पर रख पुल्लक से भरे अपनी जगह से उठकर उनके उभरे हुए पेट पर हाथ फिराकर कान लगाकर उनके उदर में पल रहे अपने अंश की धड़कनें गिनने लगे व शरारती मुस्कान से उन्हें देखने लगे.
"पहली बार जब ये मेरे उदर से लगे अपने अंश के अस्तित्व को महसूस कर रहे थे, तब पहली बार मैंने उनके चेहरे पर शरारती मुस्कान देखी थी. लेकिन मैं जल उठी थी. ग़ुस्से में मैंने इन्हें परे धकेल दिया था. ये पुलक, ये मुस्कान कभी मेरे लिए इनके चेहरे पर क्यों नहीं छलकी?"
"लेकिन पिता तो आपके बच्चे के ही बनने वाले थे?"
"उससे क्या हुआ? मेरे अंदर की स्त्री के लिए ये सौतेले ही थे." उनकी आवाज़ कराह उठी.
"तृष्णा दी. बस!"
"बस कैसे करूं? आज तू मुझे मत रोक, बरसों निर्लिप्त भाव से इन्होंने पैसा कमाकर मेरे हाथ पर रखा है. बरसों निर्लिप्त भाव से मैंने घर चलाया है. हम दोनों ने बहुत अच्छी तरह से दुनियादारी निभाई है और रिश्तेदारी निभाई है. हमने शरीर की मांग को भी भोगा है."
"तो कमी कहां रह गई?"
"ये तू समझ नहीं सकती. कोई भी मेरी इस तकलीफ़ को नहीं समझ सकता. अपनी मांग पूरी होते ही हम एकदम से वही बन जाते हैं, एक पुरुष जो अपनी प्रेयसी को पा नहीं सका और एक ऐसी स्त्री जो किसी दूसरी स्त्री की जूठन को कभी अपना नहीं मान पाई."
नीरा हैरान थी सब सुनकर, "तृष्णाजी, आप दोनों पति-पत्नी का अभिनय तो दुनिया के सामने ख़ूब कर गए."
"पति-पत्नी तो हम सच में थे. हां प्रेमी-प्रेमिका कभी नहीं बन पाए, इसलिए सारी ज़िंदगी मैंने एक सपाट सूने मन से गुज़ार दी. ये अपने बिज़नेस के बहाने मुझसे दूर भागते रहे और मैंने भी समय गुज़ारने के लिए इंटरकॉलेज में नौकरी कर ली."
"हां, हम लोगों की नज़रें भी आप पर टिकी रहती थीं."
"उस सौंदर्य, उस अस्तित्व का इन्होंने अपमान किया है. कभी मुझे चाहने का अभिनय नहीं किया, वरना उसी के सहारे ज़िंदगी जीती चली जाती." उत्तेजना से तृष्णा दी हांफने लगीं. उनके शरीर पर चढ़ी कोमल मांसल पर्त भी बरथराने लगी.
नीरा की नज़र उनके माथे पर अंधेरे में भी चमकती सुनहरी व लाल बिंदी पर अटक जाती है. इस भरे-पूरे बंगले की स्वामिनी की बात पर विश्वास करना कितना कठिन लग रहा है. जीजाजी को भी उसने हमेशा संतुलित व्यवहार करते देखा है, "तृष्णा दी,
कहीं ऐसा तो नहीं है कि जब हमारे पास सब कुछ होता है तो हम दुखी होने का कोई न कोई कोना ढूंढ़ लेते हैं, कोई बहाना गढ़ लेते है."
"तू समझती है ये गढ़ा हुआ बहाना है?" उनकी आवाज़ अंधेरे को भी चीरकर रख देती है, "जिस तरह पत्नी बनना, मां बनना एक स्त्री की संपूर्णता है, उसी तरह प्रेमिका की तरह अपने चाहने वाले के प्रति अपने संपूर्ण नारीत्व के समर्पण का सुख भोगना भी नारी की एक तीसरी संपूर्णता है.
प्रेमी चाहे उसका पति ही क्यों न हो. एक स्त्री प्यार में एक पुरुष में अपने आपको विलय कर देती है. यह सुख में नहीं जानती, मेरा सुख मन का सुख कभी नहीं बन पाया. देह से गुज़रता हुआ रेत की तरह फिसलता चला गया."
"लेकिन मैंने तो संपूर्ण रूप से एक-दूसरे पर आसक्त पूर्णतः संतुष्ट पति-पत्नी आज तक नहीं देखें,"
"तू सही कह रही है, लेकिन हमारे बीच 'मेन कनेक्शन' ही नहीं बन पाया, बाकी बातें तो गौण हो जाती है. इतने अजीब दुख को झेलती रही हूं कि किसी से कह भी नहीं सकती. मेरा पूरा जीवन दुनिया की दुनियादारी निबाहते हुए बीता है. आज उम्र के इस ढलान पर भी मेरे अंदर एक अछूती कुंआरी छिपी बैठी है, जो उस प्रेम के लिए तरसती है जिससे कोई भी पुरुष प्रेमी अपने मन में सुकोमल प्रेम ज्योत जलाए नारी देह को समेटता है." सब्र के सारे बांध तोड़ वह सिसक उठती हैं.
वे स्वयं ही आंखें पोंछती हैं, "लोगों के बीच, समाज के हंगामों में बच्चों के साथ हम पति-पत्नी होते हैं. लेकिन जब हमारे बीच समाज का शोर-शराबा नहीं होता, बच्चे नहीं होते, सेक्स नहीं होता, तो हमारे बीच कुछ भी नहीं होता, हम बेहद अनजान व्यक्ति बन जाते है. हम इस एकांत से घबराकर बाहर आने के लिए छटपटाने लगते हैं. मैंने तुझे आज इसलिए ज़बरदस्ती रोक लिया. तूने देखा नहीं जैसे ही इन्हें पता लगा कि घर की आख़िरी मेहमान तू भी जा रही है तो अपना सूटकेस उठा स्वयं ही बिज़नेस टूर पर पहले निकल गए, क्योंकि ढेर से हंगामों के बाद ये अजनबीपन हमें ज़ोर से कोंचता है. अपने बीच की बरसों की चुप्पी हमें ज़हर लगती है."
"आपके हिसाब से तो पत्नी भी सौतेली हो सकती है."
"बिल्कुल! मैं भी तो इन्हें नैसर्गिक पत्नी प्रेम नहीं दे सकी. बस ड्यूटी बजाती रही. किसी और औरत के प्रेम से इन्हें परितृप्त ज़रूर कर रखा है. फिर भी हमने बच्चों की शादी करके अपनी गृहस्थी को आख़िरी मुकाम तक पहुंचाया. नाऊ यू केन अंडरस्टैंड द हिप्पोक्रेसी ऑफ द प्योरली भारतीय दंपति- बच्चों के नाम पर, समाज के नाम पर... अपने आपको बलि का बकरा बनाते हुए अपनी आत्महत्या करते हुए जी जाते हैं."
नीरा को लगता है कि तृष्णा दी भी किसी बुज़ुर्ग की तरह बोल रही हैं, "बदले में उन्हें कुछ नहीं मिलता? बच्चों की ख़ुशी, सामाजिक प्राणी होने की ख़ुशी, एक पारिवारिक आत्मीय सुरक्षा... हमारा समाज इसी आत्मीय 'हिप्पोक्रेसी' पर टिका हुआ है. 'इट्स माई लाइफ' की तर्ज पर जीने वाले देशों के बढ़ते हुए संबंध विच्छेदों के आंकड़ों की ख़बर तो आपको भी होगी."
"शायद तू ठीक कहती है..."
- श्रीमती नीलम कुलश्रेष्ठ
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