आज बगल में रह रही नेहा बड़ी परेशान थी. उसे गृहिणी शब्द कचोटता है. वह बाहर की दुनिया में कुछ करना चाहती है और यही सोच-सोचकर वह तनाव में रहने लगी है. मैं उसे अक्सर समझाती रहती हूं कि अगर स्त्रियों में कुछ करने की चाह है, तो यह तो बहुत अच्छी बात है, पर इस बात के लिए तनाव क्यों?
आजकल मन न जाने क्यों बुझा-बुझा सा रहने लगा था. पति कुंतल की म़ज़ाकिया बातें भी मुझे हंसाने में कामयाब नहीं हो पा रही थीं. बच्चों की छोटी-छोटी शरारतों पर मैं न जाने क्यों खीज सी उठती? मेरा बदला हुआ व्यवहार देखकर कुंतल अक्सर मुझसे पूछते, “अंजलि! क्या बात है, तुम आजकल इतनी उखड़ी-उखड़ी क्यों रहती हो?”
मैं क्या कहती? इस बात का सही उत्तर शायद मेरे ख़ुद के पास भी नहीं था या मेरे अनमने मन की जो एक वज़ह थी, उसे मैं स्वीकार ही नहीं कर पा रही थी. दरअसल, मैं बचपन से ही अपने लिए बड़े-बड़े, सुनहरे, सतरंगी ख़्वाब देखा करती थी. मगर बड़े होते-होते वे सारे ख़्वाब एक रंगीन तितली की तरह हवा में कहीं गुम हो गए. यह बात मुझे खटकती तो बहुत पहले से थी. पर आजकल अपनी हमउम्र पड़ोसन सोनल, जो मेरी सहेली भी बन चुकी थी, की बातें मुझे ज़्यादा परेशान कर रही थीं.
जैसे कल शाम ही उसने मुझसे कहा था, “इतनी होशियार और स्मार्ट होकर भी तुम दिनभर घर में ही रहती हो, सिंपल सी हाउसवाइफ बनकर. अंजलि, आज के ज़माने में स़िर्फ हाउसवाइफ बनकर कौन रहता है?” सच ही तो कहती है सोनल. एक टिपिकल हाउसवाइफ ही तो बनकर रह गई हूं मैं. कुंतल की पत्नी और रोहित-मोहित की मॉम, बस इतनी सी ही तो पहचान है मेरी.
यही सब सोचते हुए सुबह के ढेर सारे कामों के बीच मैं ऑफिस जाते कुंतल का लंच बॉक्स उन्हें देते हुए बाय कहने लगी, तो कुंतल ने अपने होंठों का एक मीठा सा स्पर्श मेरे दाएं गाल पर देतेे हुए कहा, “अपनी मां को कॉल कर लेना. तुम्हारी मां ही तुम्हारा मूड ठीक कर सकती हैं. फिर तुम्हारे अच्छे मूड के साथ शाम को मिलता हूं. ओके बाय!” कहते हुए कुंतल ऑफिस चले गए.
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सच! मेरी मां, मां कम और सहेली ज़्यादा थीं. मेरे मन की दुविधा को वे फोन पर भी समझ जाती थीं. तभी तो मैं हर छोटी-बड़ी बात पर मां से बात कर लेती थी.
आज भी मैंने मां से बात करके मन को हल्का करने की सोची, लेकिन पूरे दिन की व्यस्तता के चलते मैं उन्हें फोन ही नहीं कर पाई. मन की बेचैनी आज बहुत बढ़ रही थी, पर दिनभर की भागदौड़ के बीच अब तक रात के ग्यारह बज चुके थे. मां अब सो गई होंगी, कल फोन कर लूंगी… यही सोचकर मैं भी सो गई.
सुबह चार बजे पलंग के बगल वाली टेबल पर रखा मेरा मोबाइल घनघनाया. देर रात और अलसुबह आए फोन बहुत सारा भय, बहुत सारी शंकाएं लिए होते हैं. हल्की नींद में मैंने फोन की स्क्रीन देखी, तो पापा कॉलिंग… देखकर मैंने घबराकर कॉल रिसीव किया “हेलो पापा… क्या बात है? सब ठीक तो है न!”
पापा फोन पर स़िर्फ दो शब्द, “तुम्हारी मां… तुम्हारी मां…” दोहराते हुए फफक पड़े. तभी हमारे पड़ोसी दुबे अंकल ने उनसे फोन लेकर मेरे मन की बुरी शंकाओं को यह कहकर पुख्ता कर दिया, “कमला भाभी, अब नहीं रही बिटिया!”
“मां चली गईं..!” मेरे कांपते होंठों पर यह शब्द ठहर से गए. कुंतल जल्द से जल्द लैपटॉप पर बैंगलुरू से उरई जाने की संभवाना तलाशने लगे. हम सूचना मिलने के दूसरे दिन उरई पहुंच पाए.
अब तक मां जा चुकी थीं. मुझसे आख़िरी बार मिलने के लिए मां नहीं रुकी थीं. कितना अजीब है न! जब व्यक्ति किसी लंबी यात्रा पर जाता है, तो अपने आसपास के लोगों से मिलकर, उनसे कहकर जाता है. बिल्कुल वैसे ही जैसे मां वैष्णो देवी और केदारनाथ की यात्रा पर जाने से पहले मुझसे फोन पर घंटों बात करके गई थीं. पर अब जब वे कभी न ख़त्म होनेवाली अंतहीन यात्रा पर जा रही थीं, तब वे मुझसे बिना कुछ कहे ही चली गई थीं. आज पहली बार इस वास्तविकता का अनुभव हुआ कि जीवन कितना अनिश्चित है.
मृत्यु जब हमें लेकर जाती है, तब शायद हम उतने भयभीत नहीं होते, जितना हम अपने किसी बेहद क़रीबी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर होते हैं.
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मृत्यु के बाद केवल व्यक्ति की देह राख कर आत्मा जाती है, बाकी वह पूरा का पूरा व्यक्ति यहीं तो रह जाता है. ईश्वर का केवल व्यक्ति की देह मिट्टी करके उसकी आत्मा को ले जाना ठीक नहीं है. ईश्वर को उस व्यक्ति की वस्तुएं, उसकी स्मृतियां सब साथ ले जानी चाहिए या फिर उन्हें भी देह की तरह राख कर देने की कोई जुगत बतानी चाहिए.
आज मेरा पूरा पीहर दुख के अपार सागर में डूबा था. केवल घर के सदस्य ही नहीं रो रहे थे, बल्कि घर की एक-एक चीज़ भी जैसे ज़ोर-ज़ोर से विलाप कर रही थी. आंगन की तुलसी उदास थी. घर के मंदिर में बैठे मां के ठाकुरजी उदास थे. मां की जाप करनेवाली माला मंदिर के पासवाली खूंटी पर लटकी उनकी उंगलियों का स्पर्श न पाकर उदास थी.
वे दिन बहुत बुरे, बहुत नीरस थे.
देखते-देखते मां को गए तेरह दिन पूरे हो चुके थे. उनकी तेरहवीं के बाद पापा का मेरे भाई मनीष के साथ अमेरिका जाना तय हुआ.
दरअसल, मां-पापा उरई में हमारे बड़े से पुराने मकान में ही रहते थे. भाई मनीष अमेरिका में जॉब करता था और वह
बार-बार मां-पापा को अमेरिका साथ ले जाने की ज़िद भी करता था. पर उन्हें उरई में रहना ही पसंद था. कोई न कोई बहाना बनाकर वे हर बार अमेरिका जाने से मना कर देते थे. पर अब पापा के पास कोई बहाना नहीं था, कोई विकल्प नहीं था. सारे बहाने, सारे विकल्प मां अपने साथ जो ले गई थीं.
बड़ी मुश्किल से मैंने और भाई ने पापा को अमेरिका जाने के लिए मना लिया था. पापा के ज़रूरी सामानों की पैकिंग करते हुए पापा के साथ मां का भी कोई न कोई ज़रूरी सामान मिल जाता, तो हम तीनों की आंखें एक साथ नम हो जाती थीं.
मां का ज़्यादातर सामान हमने दान करने के लिए निकाला और उनकी बहुत थोड़ी स्मृतियों को समेट कर मैंने अपने पास रख लिया. उरई का मकान किराए पर देकर पापा और मनीष अमेरिका चले गए और मैं वापस बैंगलुरू आ गई.
मां के जाने की उदासी को दूर होने में वक़्त तो लगना ही था. ‘मां अब नहीं हैं’ जीवन के इस कटु सत्य को स्वीकार कर आगे तो बढ़ना ही था. एक बार फिर मैं रोज़मर्रा के कामों में व्यस्त हो गई.
पहले मन जब भी उदास होता, तो मैं मां को फोन कर लेती. मेरी आवाज़ सुनकर मां तुरंत मेरी मनोदशा समझते हुए कहतीं, “अंजू, क्या बात है आज तेरी आवाज़ में उदासी सी क्यों है?” और जब मैं ख़ुश
होती, तो वे कहतीं, “अंजू! आज बड़ा चहक रही है?”
मगर अब क्या करूं? कौन समझ पाएगा मेरी मनःस्थिति को? मां की तरह अपने बच्चों का मन कौन समझ पाता है भला! कोई भी तो नहीं. यह सोचते हुए मुझे उरई से लाए मां के सामानों की याद आई और उनके सामान को, उनकी स्मृतियों को छूकर देखने लगी. उनकी कॉटन की कलफ़ लगी साड़ियां, कुछ बनारसी, तो कुछ सिल्क की साड़ियां, लाल-हरी चूड़ियां… कितना कुछ था उस कार्टून में और साथ ही उनकी पसंदीदा कुछ किताबें, जिनमें उपन्यास, कुछ कहानी संग्रह और साथ ही एक भूरी जिल्दवाली डायरी.
“डायरी!..” मैंने डायरी शब्द को बुदबुदाते हुए उसे खोला तो डायरी के पहले पेज पर मां की सुंदर लिखावट में ‘मेरी सीक्रेट डायरी’ लिखा पाया.
“मां डायरी लिखती थीं, पर कब?” मैंने ख़ुद से सवाल करते हुए धीरे-धीरे उसे पलटना शुरू किया, तो पहले पन्ने पर लिखा पाया.
तारीख़-12 दिसबंर 2003
अंजू के ब्याह को आज तीन महीने पूरे हुए. बेटा मनीष अब अमेरिका चला गया है. आज उरई में बड़ी तेज़ सर्दी है. आज मुझे अंजू और मनीष की बड़ी याद आ रही है. अगर वे दोनों पास होते, तो ऐसे मौसम में वे मुझसे तिल-गुड़ की चिक्की बनवाने की ज़िद करते. पर कोई बात नहीं, अंजू के पापा और अपने लिए चिक्की बना लेती हूं. जीवन के हर पल का मज़ा लेना चाहिए. बच्चे नहीं तो हम दोनों ही सर्दियां मनाते हैं.
इनकी पत्नी,
कमला
मैंने मुस्कुराते हुए मां की डायरी का अगला पेज खोला.
तारीख़- 3 मार्च, 2004
आज मेरा मन ख़ूब सज-संवरकर अंजू के पापा के साथ कहीं बाहर घूमने जाने का है. इसलिए मैंने उन्हें खजुराहो चलने के लिए मना लिया. अभी सर्द मौसम अलविदा कह चुका है और ग्रीष्म ऋतु अभी थोड़ी दूर है. यह खजुराहो घूमने के लिए सबसे आदर्श समय है. एक घुमक्कड़ी,
कमला
यह सब मां ने लिखा था. मां कितनी मोहक बातें लिखती थीं. मैं अगला पेज पलटने ही वाली थी कि मेरे दोनों बेटे रोहित-मोहित स्कूल से आ गए. डायरी को जस का तस रखते हुए मैं उनके साथ व्यस्त हो गई. शाम होने पर हम अक्सर अपनी सोसाइटी के पार्क में जाते थे. वहीं बच्चे खेलते-कूदते थे और हम बड़े दो-चार गप्पें मार लेते थे.
आज बातचीत का मुद्दा था- आत्मनिर्भर औरतें. वहां मौजूद सभी महिलाएं अपनी-अपनी बात रख रही थीं. हमारी सोसाइटी की ज़्यादातर महिलाएं कामकाजी थीं. जो नहीं थीं, वे अपना कुछ काम शुरू करने का सोच रही थीं.
“आज की महिला बस घर-गृहस्थी में व्यस्त नहीं रह सकती.” मेरी पड़ोसन सोनल ने तल्ख़ अंदाज़ में लगभग मुझे सुनाने के लिए ही कहा, तो सभी उसकी बात का समर्थन करने लगीं. पर तभी हमारे साथ खड़ी निशा, जो आजकल अपने छह माह के बच्चे के लिए अपना जॉब छोड़ चुकी थी, बोली, “सोनल, बात तो तुम्हारी सही है, पर घर-परिवार भी तो ज़रूरी है. हम जब घर-गृहस्थी के जॉब में होते हैं न, तब भी हम बहुत बड़े जॉब में ही होते हैं.”
“घर-गृहस्थी का जॉब भी भला कोई जॉब है? अब अंजलि को ही देख लो, कितनी होशियार है, पर इसने अपने आपको घर-परिवार, नाते-रिश्तों में जकड़ लिया. ये ज़िंदगी भी कोई ज़िंदगी है भला! रोटी, कपड़ा, साफ़-सफ़ाई, इसका ख़्याल रखो, उसका ख़्याल.”
सोनल की इस बात से मन फिर विचलित हो गया. उसे बिना कोई जवाब दिए मैं घर तो आ गई, पर घर के काम मुझे अब शूल से चुभने लगे. मन हुआ कि यह सब छोड़कर दुनिया को अपना असली रूप देखा दूं. सोनल जैसे लोगों को मुंह तोड़ ज़वाब दूं.
वैसे सच ही तो कहती है सोनल! आज की कोई महिला घर बैठकर स़िर्फ घर-गृहस्थी ही नहीं संभालतीं, बल्कि वह बाहर निकलकर अपना करियर भी बनाती है, अपने सपनों को पूरा करती है…
ऐसे तमाम विचारों के बीच मन बहुत ज़्यादा अशांत हो चला था. मैं घर के कामों को बोझ समझने लगी. घर-परिवार की ज़िम्मेदारियां अब मुझे चुभने लगी थीं. अगले ही दिन अनमना सा मन लिए मैंने अपने मी टाइम में यानी रोहित-मोहित के स्कूल और कुंतल के ऑफिस जाने के बाद मां की डायरी को खोला.
तारीख़- 2 अक्टूबर, 2015
आज बगल में रह रही नेहा बड़ी परेशान थी. उसे गृहिणी शब्द कचोटता है. वह बाहर की दुनिया में कुछ करना चाहती है और यही सोच-सोचकर वह तनाव में रहने लगी है. मैं उसे अक्सर समझाती रहती हूं कि अगर स्त्रियों में कुछ करने की चाह है, तो यह तो बहुत अच्छी बात है, पर इस बात के लिए तनाव क्यों?
इसी तरह गली के पहले मकान में रह रही सरला की बहू है. वह भी हमेशा अपनी महत्वाकांक्षाओं के चलते अपनी सात माह की बेटी को कोसती रहती है. मुझे समझ में नहीं आता कि स्त्रियों की यह कैसी महत्वाकांक्षाएं हैं? क्यों आज की स्त्रियां सफल होने के चक्कर में सुकून त्याग रही हैं. मुझे नहीं पता कि उन्हें क्या सिद्ध करना है?
ज्ञानी,
कमला
मैं मुस्कुराई और ख़ुद को हल्का महसूस करती हुई डायरी के सबसे आख़िरी पन्ने को पढ़ने लगी…
तारीख़- 28 अक्टूबर 2023
आज मन बहुत हल्का है, जैसे कोई यात्रा पूरी होने को है. बेटी अंजू से यूं तो हर तीसरे दिन बात होती है, पर आज उसके लिए अपनी इस सीक्रेट डायरी में कुछ लिखने का मन है.
आजकल की स्त्रियां सफल तो बहुत हैं, पर आत्मसंतुष्टि से पूरी तरह खाली हैं. वे न जाने क्या खोज रही हैं.
बेटा, जीवन में सपने ज़रूर देखना, मगर सपनों को जीवन पर हावी मत होने देना, क्योंकि जीवन केवल सपना नहीं है. तुम्हारे पास जो है, उसकी क़ीमत समझना. मुझे पता है कि तुम एक बहुत ही महत्वाकांक्षी लड़की रही हो, पर आजकल तुम कुछ न कर पाने पर छटपटा रही हो.
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लेकिन तुम जो कर रही हो न, वह काम भी ख़ुद में बहुत बड़ा है. हाउसवाइफ होना दुनिया का सबसे बड़ा काम है. तुम चाहो तो अपने लिए बाहर की दुनिया में भी जगह बनाना, पर ख़ुद को तनाव में रखकर नहीं. किसी के लिए ख़ुद को सिद्ध करने के लिए नहीं. जो करना अपने लिए करना, अपने सुकून के लिए करना.
तुम्हारी मां,
कमला
28 अक्टूबर इसी रात तो मां चल बसी थीं. मां ने अपने जाने से पहले मेरे लिए यह पन्ना लिखा था. मैं हैरान थी कि इतनी दूर गई मां ने मेरे सारे सवालों का जवाब लिखकर मुझे भेज दिया था.
उनकी पूरी डायरी में ज़िंदादिली से भरी बातें लिखी थीं. हाथ भर चूड़ी पहननेवाली मेरी मां, हर काम में होशियार थीं. उनकी सबसे बड़ी कला यह थी कि वे हर परिस्थिति में ख़ुद को ख़ुश रखना जानती थीं.
सच हम आज की महिलाएं ख़ुद को साबित करने के चक्कर में यह भूल जाते हैं कि हमारे लिए आज भी सबसे बड़ी चीज़ हमारा सुकून है. मां की डायरी ने आज मुझे आत्मसंतुष्टि से भर दिया था. अब मैं जैसी भी थी, जो थी, ख़ुद को ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार थी.
हर मां ने मेरी मां की तरह कोई सीक्रेट डायरी लिखी हो, यह ज़रूरी तो नहीं. लेकिन अगर हर मां एक डायरी लिखती, तो वह शायद कुछ ऐसा ही लिखती… सोचते हुए मैंने अपने मन की सभी दुविधाओं को हवा में उड़ाते हुए ख़ुद से कहा, “मैं जो हूं बहुत महत्वपूर्ण हूं और मुझे इस बात का गर्व है.”
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