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कहानी- शौक (Short Story- Shauk)

"आई एम सॉरी मांजी! कल मैं आपकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पाई." राधिका ने उदास स्वर में कहा, तो शीतलजी मुस्कुराती हुई बोलीं, "मेरी उम्मीदों को छोड़ो, और अपने बारे में सोचो. मुझे अपनी बहू की दूसरों से तारीफ़ सुनने का कोई शौक नहीं है. लेकिन तुम्हारा गाना गाने का शौक जिस तरह से खो गया है वह मुझे खलता है!"

शीतलजी अपनी बहू राधिका के साथ पड़ोस में चल रहे संध्या-संगीत में गईं, तो मौजूद महिलाएं उनकी बहू राधिका से गाना गाने की फ़रमाइश करने लगीं. राधिका ने गाने के लिए ना-नुकुर की, तो शीतलजी बोलीं, "गा दो बहू! सधा हुआ गला है तुम्हारा, इसीलिए सब तुम्हें सुनना चाहते हैं."
"मांजी! दरअसल बहुत समय से गाने नहीं गाए, तो गाने का अभ्यास छूट सा गया है."
राधिका की इस बात को बहाना मान कर अन्य बुज़ुर्ग महिला बोलीं, "अब ज़्यादा नखरे न करो बहुरिया! पनवारी कभी पान बनाना भूलता है भला!"
सबके कहने पर  राधिका ने गला साफ़ करते हुए गाना गा, तो दिया, लेकिन शीतलजी अपनी बहू के इस तरह गाने से संतुष्ट नहीं हुईं. आज वाकई में राधिका के स्वर डगमगा गए थे, उसकी वह सधी हुई आवाज़ जैसे कहीं खो सी गई थी.
शीतलजी उदास मन से वहां से आ गईं. उस रोज़ तो वे राधिका से कुछ नहीं बोलीं, लेकिन दूसरी सुबह जब राधिका उठी तो वे उसे एक ग्लास गर्म पानी का देती हुई बोलीं, "यह लो पी लो और आज से रोज़ सुबह गर्म पानी पिया करो, इससे तुम्हारा गला साफ़ रहेगा."
 आश्चर्य से अपनी सास की ओर देखती हुई राधिका बोली, "मांजी, लेकिन मेरा गला तो एकदम ठीक है."
"नहीं! अगर ठीक होता, तो कल तुम्हारे स्वर लड़खड़ाते नहीं."

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"आई एम सॉरी मांजी! कल मैं आपकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पाई." राधिका ने उदास स्वर में कहा, तो शीतलजी मुस्कुराती हुई बोलीं, "मेरी उम्मीदों को छोड़ो, और अपने बारे में सोचो. मुझे अपनी बहू की दूसरों से तारीफ़ सुनने का कोई शौक नहीं है. लेकिन तुम्हारा गाना गाने का शौक जिस तरह से खो गया है वह मुझे खलता है!"
यह कहते हुए शीतलजी ने राधिका के कंधों पर हाथ रखा, तो शीतल उदास होकर बोली, "मांजी! हम महिलाओं के शौक का क्या है, एक उम्र के बाद तो उन्हें छोड़ना ही पड़ता है." 
"नहीं बहू! पहले की महिलाओं के छूटते होगें शौक, लेकिन अब की महिलाओं के शौक नहीं छूटने चाहिए. अब बहू-बेटियों के शौक छूटे, तो हम जैसी नई सोच वाली मांओं और सासू मांओं के होने का फ़ायदा ही क्या?"
 "मेरे होते हुए तुम अपना यह शौक नहीं छोड़ोगी. तुम! पहले अक्सर कुछ न कुछ गुनगुनाती रहती थी. जब मेरे बेटे से शादी करके हमारे यहा आई थीं, तब कितना मधुर और सधा हुआ गाती थी. पहले तो तुम अभ्यास भी किया क़रती थी, लेकिन अब घर-परिवार की सारी ज़िम्मेदारियों के बीच तुम सब भूल गई."


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"मांजी! अब यह सब भी तो ज़रूरी है न! वैसे भी ऐसे  शौक को पालकर क्या करूंगी मैं?" राधिका ने किचन की तरफ़ जाते हुए कहा, तो शीतलजी बोलीं, "तुझे पता है? मैं बहुत अच्छा नृत्य करती थी, लेकिन एक उम्र के बाद और अभ्यास के बिना सब खो गया. आज जब भी किसी को नाचते हुए देखती हूं, तो बहुत अफ़सोस होता है कि मेरी कला क्यों खो गई.
शौक व्यक्ति की आत्मा होते हैं. उन्हें जीवंत रखना अपनी आत्मा को जीवंत रखने जैसा है. राधिका, तुम मुझसे वादा करो कि मेरी तरह अपनी आत्मा को कभी नहीं मारोगी."
शीतलजी की बात सुनकर राधिका मुस्कुराती हुई उनके गले लग गई.

writer poorti vaibhav khare
पूर्ति खरे

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