
"ऐसा तो मैंने कभी नहीं चाहा था. तुम मुझे छोड़कर कहीं नहीं जा सकते. अरे! आज इतने वर्षों बाद तो तुम्हें पाया है और तुम जाने की बात कर रहे हो? कर दिया मैंने तुम्हें माफ़... कर दिया तुम्हें अपने श्राप से मुक्त... पर मुझे छोड़कर मत जाओ रोहन. तुम नहीं जानते कि मैंने मन ही मन तुम्हारे लौटने का कितना इंतज़ार किया है."
''ड्रायवर गाड़ी रोको, सड़क पर कोई पड़ा है. हम उसे ऐसी हालत में छोड़कर आगे नहीं जा सकते.” मैंने ड्रायवर को रुकने के लिए कह तो दिया, पर साथ ही यह ख़याल भी आया कि क्या मुझे पास जाकर देखना चाहिए? कहीं कोई चोर-लुटेरा हुआ, जो नाटक करके इस तरह पड़ा हुआ हो तो मुसीबत में तो नहीं पड़ जाऊंगी? लेकिन मैं इतना क्यूं सोच रही हूं? मुझे तो अपना फ़र्ज़ निभाना ही चाहिए. आख़िर मैं एक समाज सेविका हूं. आज पता नहीं क्यों मन में ऐसी आशंका आ गई. ड्रायवर को साथ ले, पहुंच गई उस आदमी के पास. पर इतनी मद्धिम रोशनी में भी वो चेहरा कुछ पहचाना-सा लगा. एक पल में दिल हज़ार बार धड़क गया- ‘क्या ये तुम हो? हां, तुम्हीं तो हो.’ आज वर्षों बाद तुम्हें इस हाल में अपने सामने पाया, तो कहीं भी जीत का एहसास नहीं हुआ, बल्कि अथाह दुख के सागर में डूबती चली जा रही हूं. जब-जब अपनी क़ामयाबी पर नज़र डालती, तो यही लगता रहा कि काश! तुम्हें सामने पा जाऊं. व्यंग्य से, गुरूर से अपनी तिरछी मुस्कान तुम पर डालूं और तुम्हें तिलमिलाते हुए देखूं. तुम्हारी बर्बादी के क़िस्से तो बहुत सुने, पर अपनी व्यस्त और ख़ुशहाल ज़िंदगी से कुछ पल निकालकर तुमसे मिलने का मन कभी नहीं हुआ. बस, यही चाहा कि किसी दिन तुम्हीं अचानक सामने आ जाओ. और आज जब तुम सामने हो, तुम्हारा जिस्म मेरी आंखों के सामने बेजान-सा पड़ा है, तो तुम्हारी बेबसी पर मेरा दिल जार-जार रोए जा रहा है. समझ में नहीं आ रहा कि तुम्हें कहां ले जाऊं? मैं तो ये भी नहीं जानती कि तुम रहते कहां हो? सोचती हूं, तुम्हें अस्पताल ले जाना ही ठीक होगा. मैं वहां तुम्हें देख भी सकूंगी. पर आज भी जब तक तुम नहीं चाहोगे, मैं तुमसे नहीं मिलूंगी, क्योंकि ये वादा तो सालों पहले ही मैंने अपने आप से, अपने आत्मसम्मान से किया था. सो तुम्हें अस्पताल में पहुंचा कर चली आई. आज अतीत बरबस ही मुझे अपनी ओर खींच रहा है. ऐसा लग रहा है, मानो कल ही की बात हो. कोई भी पल ऐसा नहीं, जो व़क़्त के चलते धुंधला गया हो. मन कड़वाहट से भर गया. बहुत ही साधारण-से परिवार की इकलौती बेटी. देखने में भी साधारण, उस पर रंग भी गहरा मिला. सो न कभी ख़ुद को संवारने का मन हुआ, न ही आईने में कभी ख़ुद को निहारने का. बाबा को कभी-कभी कहते सुना करती, “क्या कमी है मेरी बच्ची में? एकदम मां पर गई है. वही तीखे नैन-ऩक़्श. चिड़िया है मेरे आंगन की. रौनक है इसी से. जिस दिन ससुराल जाएगी, सब सूना कर जाएगी.” सुनकर सौतेली मां तिलमिला जाती और अपने व्यंग्य-वाणों से मेरी आत्मा तक को लहूलुहान कर जाती. कहती, “ऐसी रंगत पाई है कि कितने भी अच्छे नैन-ऩक़्श हों, पर दिखाई दें तब न.” कभी-कभी सोचती हूं कि मेरी सगी मां होती तो शायद इसी रंगत में मुझे संवार देती अपने प्यार से, दुलार से. पर जब ऊपरवाले ने ही मेरे साथ अन्याय किया, मेरी मां को, मेरी सबसे अनमोल चीज़ को ही मुझसे छीन लिया तो इस चेहरे का रोना क्या रोऊं? फिर जैसे तक़दीर मुझ पर कुछ मेहरबान हुई, तुम्हारे घर से रिश्ते की बात चली. जो मध्यस्थ थे, वे पिताजी के पहचानवालों में से थे. तब दहेज के कारण शादियां नहीं रुकती थीं. सो असाध्य बीमारी से ग्रस्त तुम्हारी मां की सेवा के लिए ऊपरवाले ने मुझे ही चुना. तुम्हारे लिए यह शादी मां की सेवा के लिए किया गया एक समझौता था. सो तुमने मुझे देखना भी ज़रूरी नहीं समझा. उधर पिताजी के मित्र ने तुम्हारे घर में मां के सामने मेरी तारीफ़ों के पुल बांध दिए, “सुंदर है, सुशील है, गृहकार्य में निपुण है. और मध्यमवर्गीय परिवार से है, तो आपके घर में निभ जाएगी. अपने बबुआ के तेवर तो आप जानती ही हैं न. बस, वही सही रहेगी. उसका धैर्य ही बबुआ को बदल सकता है.” तुम्हारी मां की जैसे मन की मुराद पूरी हो गई. धन-दौलत इतनी कि उन्हें इसकी चाहत ही न रही. बस, अपने बेटे का घर बसाने और एक वारिस के लिए तड़प रही थीं. इधर मैं अपने भाग्य पर इतरा उठी. शादी में जब भी घूंघट से तुम्हें देखा, तो लगा ख़ुशी से कहीं दम ही न निकल जाए. लंबा क़द, बड़ी-बड़ी आंखें, काले-घने बाल, भरा-भरा चेहरा. तुम्हें पाकर तो मैं जीवन की सारी कमियों को भुला बैठी. नहीं जानती थी कि भविष्य मेरे लिए क्या छिपाए बैठा है. तुमने पहली रात जो मेरी सूरत देखी, तो कभी सीरत पर ध्यान ही नहीं दिया. तुम्हारी उन नफ़रतभरी निगाहों को नहीं भुला सकी कभी. दिल ने बहुत चाहा कि तुमसे विनती करूं, कहूं कि अपना लो मुझे! संवार दो अपने प्यार से मुझे, शायद मैं भी खिल उठूं. जैसे मुरझाए पौधे को पानी मिल जाए, तो उसका अंश-अंश जी उठता है, खिल उठता है. पर साहस ही नहीं जुटा सकी तुमसे कुछ कह पाने का. जो लंबे बाल अगर खुलकर संवर जाते, तो शायद घनी ज़ुल्फ़ बनकर तुम्हें अपने आप में कैद कर लेती, वो एक रस्सी की तरह अपने आप में गुंथे रहे, कभी खुलकर सांस भी नहीं ले पाए या मैंने ही नहीं लेने दिया. अपने आपसे इतनी नफ़रत हुई कि अपने अस्तित्व को ही भुला बैठी. कोई स्वाभिमान नहीं, कोई आत्मसम्मान नहीं. करती भी क्या! पति के कमरे में रहने को मिला, इसी को ख़ुशक़िस्मती मान बैठी. गाहे-बगाहे तुम्हारी जिस्मानी ज़रूरत तुम्हें मेरे क़रीब ले आती और फिर वही अंतहीन दूरियां. देखते-देखते आठ बरस गुज़र गए. इस बीच मैं पांच बेटियों की मां बनी. ये क़िस्मत का एक और मज़ाक था मेरे साथ कि बेटा पैदा न हो सका. इन आठ सालों में तुम्हारी मां की जी-तोड़ सेवा की, पर बेटा न होने से उस सेवा का फल आशीर्वाद न होकर उलाहना ही हुआ. सोचती थी, शायद मां ही ख़ुश होकर ऐसा आशीष दे डालें, जिससे उनका बेटा सदा के लिए मेरा हो जाए. पर जब ऊपरवाला ही मेरे नसीब में ख़ुशियां लिखना भूल गया, तो किसी और को मुझसे क्या हमदर्दी होती. एक दिन मां भी चल बसीं. मां की चिता जलने के साथ ही मेरे आशियाने में भी जैसे आग लग गई! तुम्हारी सारी ऐयाशियां धीरे-धीरे सामने आने लगीं. और एक दिन तुमने सारी शर्मोहया ताक पर रख दी. तुम अपनी प्रेमिका को मेरे घर तक ले आए. हां, ये मेरा ही तो घर है. मैंने ही आकर देखभाल की, इसे मकान से घर बनाया. अपने जीवन के आठ वर्ष इस घर को पूरी ईमानदारी से दिए और तुमने क्या किया? मेरे आने के बाद इस घर से ही किनारा कर लिया, धर्मशाला बना दिया! जब मर्ज़ी हुई आ गए, जब नहीं हुई बाहर ही रह गए. तुम नहीं जानते कि आज मुझ पर आसमान टूट पड़ा है. तुम्हारी प्रेमिका मेरे सामने खड़ी, मुझे मेरी हार का एहसास दिला रही है. उसकी ज़हरीली मुस्कान नस-नस में ज़हर छोड़ गई. पहली बार तुमसे बुरा-भला कहने का साहस बटोर लिया और आत्मा की गहराइयों से तुम्हें श्राप दे डाला. जबकि मैं भी ये जानती हूं कि श्राप जैसा कुछ भी आज के ज़माने में नहीं होता, फिर भी आवेग को नहीं रोक पाई. जो जी में आया, कहती चली गई. “कभी ख़ुश नहीं रहोगे! मुझ जैसी औरत का अपमान किया है तुमने. अरे इतनी नफ़रत थी तो क्यूं मेरे ज़िस्म को अपने गंदे हाथों से मैला किया? ये थी ही तुम्हारी सारी ज़रूरतें पूरी करने के लिए, तो फिर मेरा इस्तेमाल क्यूं किया? अरे प्यार नहीं दे सकते थे, तो कोई बात नहीं, पर इतना बड़ा अपमान तो न देते. तुम्हारी छोटी से छोटी ख़ुशी पूरी करने के लिए मरती रही हूं मैं. इस जिस्म को तुमने छुआ तो चंदन समझ बैठी ख़ुद को. हर तिरस्कार सहकर भी तुम्हारे लिए दुआ मांगी, पर अब और नहीं. “आज लग रहा है, जैसे थोड़ा-सा आत्मसम्मान बचा है अभी. आज से ज़िंदगी तुम्हारी मोहताज नहीं रहेगी. जीने के लिए जो भी करना पड़े, करूंगी, पर अब नहीं सहूंगी. “जाओ, आज से मैंने तुम्हें इस बंधन से मुक्त किया. पर इतना याद रखना कि आज से तुम पल-पल जिओगे, लेकिन हर पल मर-मर कर. तुम्हें ख़ुशी का एक पल भी नसीब नहीं होगा. “आज सच्चे दिल से चाहती हूं कि तुम्हारी ज़िंदगी नर्क से भी बदतर हो. चले जाओ और अब कभी मेरी आंखों के सामने मत आना. नफ़रत करती हूं मैं तुमसे. समझ लेना, इतने बरसों की सेवा और तपस्या के बदले ये घर मैंने तुमसे मांग लिया. अब कभी इस घर की तरफ़ रुख नहीं करना.” इतना सुनते ही उसके सामने तुमने मुझे बहुत जलील किया, मुझ पर हाथ तक उठाया. पर उसके बाद मेरे मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला. तुम चले गए और साथ ही मेरे अंदर भी सब कुछ टूटता चला गया. सोचते-सोचते सुबह हो गई, पता ही नहीं चला. पूरी ज़िंदगी एक रात में ही सिमट गई. आज तुम्हारी तबीयत थोड़ी ठीक है. तुमने डॉक्टर से पूछा कि कौन तुम्हें यहां लाया? जैसे ही डॉक्टर ने मुझे तुम्हारे सामने ला खड़ा किया, तुम्हें तो जैसे चैन मिल गया. ऐसा लगा, मानो तुम मुझे ही तलाश रहे थे. आज इतने वर्षों बाद तुम्हीं से लिपटकर रोने को जी चाह रहा है. नहीं जानती क्यूं?
बबिता शर्मा
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