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कहानी- श्वेता (Short Story- Shweta)

"... आदेश, हमारा समाज इसकी आज्ञा कभी नहीं देगा. मां-पिता की आज्ञा के बिना किया गया यह कार्य अच्छा नहीं, बेशर्मी से भरा कहलाएगा. मैंने आज दिनभर में काफ़ी सोच लिया है. तुम्हारा प्रयास काफ़ी अच्छा रहा, किंतु दुख है तो इस बात का कि तुमने ये सब मुझे आज बताया. सारी कार्यवाही तुम अपने ही स्तर पर करते रहे..."

श्वेता के मन में इस समय ज़ोरों का तूफ़ान उठ रहा था. एक ऐसा तूफ़ान जिसके बारे में आज तक पिछले चार वर्षों में श्वेता ने कभी नहीं सोचा. तूफ़ान जो अपने आप में सैकड़ों प्रश्न समेटे हुए हलचल मचाए था श्वेता के भीतर. श्वेता चुपचाप उसके थपेड़े सहती, अपने आप से लड़ती जा रही थी.

"शवी भाभी, मैंने हिमांशु से बात कर ली है आपसे शादी करने के लिए. आप और हिमांशु शीघ्र ही शादी कर रहे हो." ये शब्द आज सुबह ही उसके बाइस वर्षीय देवर ने कहे थे. बिना उसकी मर्ज़ी जाने आदेश ने यह सब कैसे कर और कह दिया, श्वेता इसी तूफ़ान में उलझी थी.

आदेश श्वेता का प्यारा देवर है. जो अभी-अभी सब इंजीनियर का डिप्लोमा लेकर लौटा था जबलपुर से. आदेश शुरू से ही जबलपुर में पापा के साथ रहा था. पापा का जब तबादला हुआ, तब आदेश मुश्किल से (अभिषेक के अनुसार) बारह वर्ष का रहा होगा. उसके दो वर्ष बाद जब श्वेता और अभिषेक की शादी हुई तब प्रथम‌ बार देखा था श्वेता ने आदेश को.

जब पहली बार दुल्हन बनकर श्वेता घर पहुंची तो आदेश दूर खड़ा-खड़ा उसे घूरकर काफ़ी देर तक देखता रहा. फिर बाद में जितने दिन आदेश श्वेता के पास रहा, उसकी और आदेश की अच्छी मित्रता हो गई. अभिषेक के दफ़्तर से घर लौटने तक वे दोनों आपस में खटपट करते रहते. कभी आदेश उसे चिढ़ाता, कभी श्वेता उसे दुलारती.

हां, तब घर में एक सदस्य और भी या हिमांशु, शांत गम्भीर कविहृदय का स्वामी. हिमांशु अभिषेक और आदेश के बीच की कड़ी था. हिमांशु की और श्वेता की उम्र में लगभग दो वर्ष का अंतर रहा होगा. कभी कभार वह भी कुछ लिखता-पढ़ता मुस्कुरा दिया करता था श्वेता और आदेश की मीठी शरारतों पर.

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श्वेता ने हमेशा ही हिमांशु की आंखों में अपने लिए सम्मान पाया. अभिषेक और हिमांशु दोनों में ही गहरा लगाव था. दोनों को क्रिकेट पर घंटों बहस करना, राजनीति को अपने हिसाब से तोड़ना-मरोड़ना बड़ा अच्छा लगता था.

"भाभीजी, भैया कब आएंगे? वे कब आने की कह गए हैं." हमेशा ही यही शब्द सुना था हिमांशु के मुंह से श्वेता ने. और भाभीजी कुछ कहतीं तो उनके मुंह से 'जी' के सिवाय कुछ भी नहीं निकल पांता था.

श्वेता की सास बेहद सुलझे दिमाग़ की महिला थीं. अभिषेक की मौत के पहले माताजी पापा के पास जबलपुर में ही रहती थीं, किन्तु बाद में दुख बंटाने श्वेता और आदित्य के पास आ गईं. आदित्य श्वेता और अभिषेक की संतान था.

"मां, जल्दी से खाना लगा दो." स्कूल से लौटकर जूते के फीते खोलते आदित्य की आवाज़ ने शवी के अन्दर के तूफ़ान पर क्षण मात्र के लिए ब्रेक लगा दिए. आंखों में गीलापन और चेहरे को परेशानी में उलझा देखकर आदित्य ख़ुद ही शुवी के पास चला आया, "मां, क्या बात है. आप कुछ परेशान लग रही हो." आदित्य ने पूछा

"कछ नहीं बेटे." शुवी ने लम्बी सांस छोड़ते हुए भर्राए स्वर में जवाब दिया और चुपचाप खाना लगाने लगी. आदित्य को मासूम समझ कुछ सोचकर ख़ामोश हो गई. शवी अपने आप से लड़ती खाना लगाने में व्यस्त थी.

किंतु थोड़ी ही दूरी पर स्थिर दो आंखें आज अजीब सी हालत में शवी को देख रही थीं. वे आखें थी हिमांशु की.

हिमांशु जिसे आदेश ने एक नई राह पर मोड़ दिया था. ऐसी राह जिसके बारे में कभी उसने कल्पना नहीं की थी. कुछ दिनों पहले ही तो मां ने उसे अनेक रिश्तों के बारे में बताया था, किन्तु उसने अपनी शादी के बारे में मां को ख़ुद ही निर्णय लेने को कहा. हिमांशु के आर्ट्स कॉलेज में हिन्दी का लेक्चरर बनते ही अनेक रिश्ते आने शुरू हो गए थे. पापाजी और माताजी दोनों ही अब हिमांशु की शादी कर देने के इच्छुक थे. अभिषेक की ट्रक दुर्घटना में मृत्यु हो जाने के पश्चात् हिमांशु का शवी के प्रति सम्मान, उसकी देखभाल करना अत्यधिक बढ़ गया था, जिसे आज तक निभा रहा था हिमांशु. अभिषेक की मृत्यु के बाद हमउम्र हिमांशु को शवी को समझाने-बुझाने में काफ़ी मेहनत करनी पड़ी, किन्तु मां के आ जाने से और आदित्य की शरारतों के बीच समय बीतते-बीतते सब कछ सामान्य हो गया.

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हिमांशु के देखते-देखते शवी के आंसू समय ने थाम दिए. मां की सरलता, शवी के स्नेह और आदित्य की मीठी शरारतों में पता ही नहीं चला समय कब गुज़र गया.

शवी के जीवन के संबंध में अनेक सवाल अभी तक हिमांशु के मन में तैरते रहते थे, किन्तु कट्टर रूढ़िवादी परिवार एवं सामाजिक रीतियों के कारण वह ऐसा कोई प्रस्ताव माताजी और पिताजी के सामने नहीं रख पाया, किन्तु यह काम आदेश ने कर दिखाया...

आदेश जब पिछली बार अभिषेक की मृत्यु पर आया था. तब के आदेश ने भाई की मौत पर आंसू बहाने के अलावा कुछ नहीं किया और

आज. आज का आदेश कितना बदल चुका था. दो माह पूर्व लौटा आदेश जबलपुर में डिप्लोमा लेकर आया, तब उसके मन में भीतर ही भीतर एक क्रांति जन्म ले चुकी थी. शवी को पुनः दुल्हन बनाने की. उस शवी को जिसने उसे कभी गोद में खिलाया था. पिछले चार वर्षों में आदेश में असामान्य परिवर्तन हुआ था.

दो-चार दिन में ही मुरझाई हुई शवी, लैक्चररशिप सम्हालता हिमांशु, आदेश और आदित्य सभी अपनी दिनचयां में ढल गए. साधारण जीवन व्यतीत करती श्वेता को देखकर आदेश के भीतर की भावना और धधक उठी.

पांचवे ही दिन आदेश ने मां के सामने हिमांशु और शवी की शादी कराने की इच्छा व्यक्त कर दी. बिना हिमांशु और शवी की इच्छा जाने माताजी आदेश के मुंह से यह सुनकर दंग रह गईं. वे तुरन्त अपने आप को संभालती हुई आदेश से कठोर शब्दों में बोलीं, "यह तो ठीक है आदेश कि तुम एक अत्यधिक होशियार और स्मार्ट लड़के हो, किंतु इसका मतलब यह तो नहीं कि तुम जो जी चाहे सोचों और बोलते जाओ. क्या तुम भूल गए हो कि तुम से बड़े भी घर में हैं. तुम्हारे नहाने का पानी गर्म कर दिया है. जाओ जाकर नहा लो और ख़बरदार, जो इस तरह की बात दिमाग़ में लाए." मां का तीखा जवाब सुनकर आदेश उस दिन मां के सामने से हट गया यह बड़बड़ाते हुए कि बड़ों के पास फ़ुर्सत कहा कि इतना सोच सकें...

दूसरे दिन फिर हिम्मत जुटाकर आदेश ने वही प्रश्न मां के सामने दोहरा दिया. मां बिना कोई जवाब दिए रसोई में काम कर रही शवी के पास चली गईं. हिमांशु और शवी के बिना जाने यह अन्तर्द्वन्द मां और आदेश में चलता रहा. फिर एक दिन पापा की चिट्ठी भी आ गई, जिसमें स्पष्ट रूप में ना लिखा था. आदेश का यह प्रयास भी असफल जाता रहा. आदेश की यह विस्फोटक बातें सुनकर मां ने हिमांशु की शादी की कोशिश और भी तेज कर दीं.

और फिर वह दिन भी आ गया, जिस रोज़ आदेश की भभकती विचारधारा और हिमांशु की ख़ामोशी का टकराव हुआ. मां से लगातार

डांट-फटकार सुनने के बाद आदेश ने सीधे हिमांशु से बात कर लेना उचित समझा, "हिमांशु... शायद तुम सोच रहे होगे कि मैं तुम्हें रेस्तरां में बुलाकर क्या बात करना चाहता हूं." आदेश हिमांशु की ओर देखकर बोला.

"हिमांश, मैं जानता हूं कि तुम अत्यधिक समझदार व्यक्ति हो. पुराने रीति-रिवाजों के घर में पलकर बड़े ज़रूर हुए हो, किन्तु अच्छा क्या है यह तुम ख़ूब समझते हो, इसलिए मैं तुमसे यह बात करना चाहता हूं."

अब तक हिमांशु की समझ में कुछ भी नहीं आया था.

"आदेश, तुम क्या कहना चाहते हो?" उत्सुकता से घिरा हिमांशु बोला.

"हिमांशु, तुम शवी से शादी कर लो." आदेश ने एकदम कहा छनांक वेटर के हाथ से कांच का ग्लास टूट कर फ़र्श पर जा गिरा. हिमांशु आदेश की ओर देखता रह गया. उम्मीद से परे, उम्मीद से बढ़कर प्रश्न क्षण भर में हिमांशु के सामने शवी के अनेक रूप घूम गए.

"हो भइया..." आदेश स्नेहिल स्वर में बोला, "मैंने इसीलिए तम्हें यहां बलाया है. भइया, ज़रा सोचो. शवी ने चार साल बिना अभिषेक के कैसे बिताए होंगे. सोचो हिमांशु, आदित्य का आगे चलकर कौन सहारा होगा? यह तो ठीक है कि हम उन्हें जीवनभर कोई कमी नहीं होने देंगे, लेकिन हिमांशु, तुम शवी के जीवन की सबसे बड़ी कमी पूरी कर दो. तुम शवी से शादी कर लो. भाई, तुम शवी से शादी कर लो." आवेश में न जाने क्या-क्या कह गया आदेश हिमांशु से.

ख़ामोशी में काफ़ी समय जब हिमांशु और आदेश बाहर निकले, तो हिमांशु ने आदेश को कल जवाब देने का कहा.

देर रात तक आदेश ना जाने क्या-क्या सोचता रहा. सुबह जब उसकी नींद खुली, तो तब तक नौ बज चुके थे. नित्य कामों से निपटकर आदेश ने हिमांशु के बारे में मां से पूछा, तो मां ने उसे तीखी निगाहों से घूरते हुए बताया कि वह तो आज नौ बजे ही दफ़्तर निकल गया.

अपने कमरे में शर्ट पहनते हुए आदेश की नज़र टेबल पर पत्थर में दबे एक पत्र पर चली गई. आदेश ने झपटकर पत्र को उठाया. खोल कर देखा था, तो उसमें दो शब्द लिखे थे- बधाई तुम सफल हुए...

हिमांशु

पत्र पढ़कर आदेश ने ख़ुशी के मारे अपनी आंखें मूंद लीं.

आदेश और हिमांश ने उस रोज़ घर से बाहर रहकर बहुत सारी न जाने क्या-क्या बातें कीं. शाम को वे जब घर लौटे, तो मां की आंखें उन्हें घूर रही थीं. हिमांशु और आदेश दोनों अपने-अपने कमरों में चले गए.

सात दिन के पश्चात् आदेश ने हिमांशु से हर पहलू पर बात कर लेने के बाद अब श्वेता से बात कर लेना भी उचित समझा. आदेश ने शवी को सब कुछ कह देने के बाद यह भी बता दिया कि इस शादी के लिए माताजी और पिताजी दोनों ही तैयार नहीं.

शाम तक शवी के अन्दर का तूफ़ान अभिषेक और हिमांशु के बीच उमड़-घुमड़ कर ठहर चुका था. आदित्य के हाथों शवी ने आदेश को बुलवाया था. शवी मन ही मन कठोर निर्णय ले चुकी थी, एक समझदारी से भरा निर्णय.

"क्या सोचा, भाभीजी..." आते ही आदेश ने सवाल का अंगारा छोड़ दिया.

शवी काफ़ी देर तक अजीब-अजीब सी नज़रों से आदेश की ओर देखती रहीं, फिर बहुत सोच समझकर आदेश से बोली, "नहीं आदेश, नहीं. यह ठीक नहीं होगा. यह माना की अभि की मृत्यु के बाद मै़ बिल्कुल एकाकी हो गई हूं. मैने चार वर्षों का उमंगों भरा जीवन किस तरह जीया है. इसका शायद तुम अनुमान नहीं लगा पाओगे, किन्तु इसका मतलब यह तो नहीं कि मां-बाप से विद्रोह किया जाए. सामाजिक रीतियों को ठोकर मारी जाए. मैं भी पढ़ी-लिखी आधुनिक नारी हूं, मैं भी इन सब पुरानी बातों को नहीं मानती, किंतु लोग इसे कभी नहीं स्वीकारेंगे.

आदेश, हमारा समाज इसकी आज्ञा कभी नहीं देगा. मां-पिता की आज्ञा के बिना किया गया यह कार्य अच्छा नहीं, बेशर्मी से भरा कहलाएगा. मैंने आज दिनभर में काफ़ी सोच लिया है. तुम्हारा प्रयास काफ़ी अच्छा रहा, किंतु दुख है तो इस बात का कि तुमने ये सब मुझे आज बताया. सारी कार्यवाही तुम अपने ही स्तर पर करते रहे.

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आदेश. तुम इस बात को हमेशा के लिए भूल जाओ. हिमांशु को मैं समझा दूंगी. मुझे माताजी-पिताजी से विद्रोह नहीं करना है. जाओ आदेश, जाकर माताजी से माफ़ी मांगो. मेरी चिंता छोड़ दो. जहां तुम और हिमांशु जैसे देवता रहते हैं, वहां मुझे उम्रभर कोई तकलीफ़ नहीं हो सकती."

"नहीं बेटी, नहीं." दरवाज़े की ओट से निकलती मां ने भरे गले से कहा.

मां ने ओजस्वी स्वर में कहा, "शादी होगी, तो हिमांशु से ही, सिर्फ़ हिमांशु से. तुम वास्तव में महान हो बेटी. मैंने सब सुन लिया है. आदेश को तुम्हारे पास आता देखकर मैं पीछे-पीछे आई, लेकिन सबसे महान है तुम्हारा यह देवर, जिसने आज तुम्हारे उलझे जीवन को सरल बना दिया. मुझे हिमांशु ने उसी दिन सब बता दिया था, जिस दिन उसने उसे शादी के लिए राज़ी किया था." मां यह कहते कहते-कहते सजल हो गईं. उनका ममत्व छलक आया.

"मैने तुम्हारे पापा को बुलवा लिया है और मैं उन्हें भी मना लू़गी. तुम किसी बात की चिंता मत करना, तुम्हारा प्रयास सफल हो गया मेरे महान बेटे."

मां के मुंह से ये सत्य मुनकर आदेश की आंखों से आंसू टपक पड़े. दोनों मां के चरणों में झुक गए. बाहर छोटे से गार्डन में आदित्य घोड़े बने हिमांशु की पीठ पर घूम रहा था.

- पवन करण

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