“मैं तुम्हारी तरह मज़बूत नहीं हूं वागेश, शायद तभी सुधाकर की सोच के साथ तालमेल नहीं बैठा पा रही हूं. उसके साथ संगति का कोई भी छोर पकड़ना मेरे लिए मुमकिन नहीं हो पा रहा है. आख़िर क्यों तुम मेरी ज़िंदगी से दूर चले गए थे और चले ही गए थे, तो वापस क्यों लौटे? कम से कम मैं तुम्हारी यादों के साथ ही जी लेती. अब जब तुम मेरे सामने हो तो सुधाकर को अपनाना और मुश्किल हो गया है मेरे लिए.” मेरी बेबसी, मेरा दर्द आंखों में नमी बन झलकने लगा.
ज़िंदगी की दशा और दिशा तय कर पाना अगर हमारे ही हाथ में होता, तो हम गोल-गोल चक्कर लगाते हुए वापस उसी जगह न पहुंच जाते, जहां से हमने चलना शुरू किया था. हमारे प्रयास चाहे कितने ही ईमानदार क्यों न हों, पर फिर भी कभी-कभी बहुत गहरी चोट लग ही जाती है. दर्द का सागर मन के हर कोने में बहने लगता है और हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि आख़िर चूक कहां हुई. फिर शुरू होता है दोषारोपण, विश्लेषण और अपनी खामियों को तलाशने का सिलसिला. लेकिन तमाम कोशिशों, विश्लेषणों व विचारों के ताने-बाने से घिरे हम यह नहीं समझ पाते कि नियति ने ऐसी डोर लटका रखी है, जिससे कभी बंधकर तो कभी उसे पकड़कर हम चलने को बाध्य होते हैं.
ऐसा एक वर्ग है, जो नियति को नहीं मानता, केवल प्रयासों को ही महत्व देता है, पर ऐसे वर्ग के लोगों ने क्या कभी इस बात पर गौर किया कि ज़िंदगीभर प्रयास करने के बावजूद वे लक्ष्य तक क्यों नहीं पहुंच पाते हैं और कोई बिना किसी संघर्ष के भी सब कुछ पा लेता है, वह भी जिसकी उसने कभी आशा तक नहीं की थी?
खैर चाहे जो हो, अपने और वागेश के रिश्ते को मैं नियति की ही बंद पोटली से निकला हुआ मानती हूं. दशा और दिशा तय करने की लाख कोशिशों के बावजूद तुम बंद मुट्ठी से फिसलती रेत की मानिंद मेरी ज़िंदगी से निकल गए थे और फिर न जाने कैसे मैं गोल-गोल चक्कर काटते हुए तुम्हारे पास फिर से पहुंच गई थी.
क्या है तुम्हारा और मेरा रिश्ता? प्यार, स्नेह, दोस्ती या फिर इन सबसे कहीं ऊपर… एक-दूसरे को समझने की इच्छा और उन भावनाओं का आदर करना. इस रिश्ते को मैं नाम देना ज़रूरी नहीं समझती, क्योंकि नाम भर देने से ही कंपैटिबिलिटी का तंतु नहीं जुड़ जाता है. समाज में रिश्ते पर मोहर लगाने से ही विश्वास और संबल के सेतु नहीं जुड़ जाते हैं.
रिश्ते मन के होते हैं…
रिश्ते विश्वास की ठोस ज़मीन पर उगे उन अंकुर की तरह होते हैं, जो प्यार और एहसास के खाद और पानी से पोषित व पल्लवित होते हैं. पर सुधाकर के मामले में न जाने कहां सब चूक-सा जाता है. एक दिन फिर सुधाकर से बहस हो गई.
“तुम्हारी प्रॉब्लम क्या है? क्या तुम मेरी किसी भी बात का जवाब सही ढंग से नहीं दे सकते? कुछ कहो तो फौरन बात काट देते हो. न बात सुनने का सब्र है, न समझने का.”
“हां, नहीं है. क्या करोगी? तुम्हारा तो हर सवाल ही ग़लत होता है, तो क्या खाक जवाब दूं. बड़ी इंटलेक्चुअल बनती हो, कुछ डिग्रियां क्या हासिल कर लीं, अपने को बहुत ग्रेट मानने लगी हो.”
“प्लीज़ सुधाकर, इस तरह बात करने का क्या मतलब है? तुम्हारी बीवी हूं, कोई…”
“यही तो ट्रेजेडी है लाइफ़ की कि तुम मेरी बीवी हो. सारे दिन आरती उतारूं या आपकी सेवा में खड़ा रहूं. मुझसे ऐसी उम्मीद कभी मत रखना. वैसे भी एक औरत हो और औरत से जिस तरह से व्यवहार करना चाहिए, करता हूं, बस.” माथे पर त्यौरियां और ग़ुस्से से लाल होती आंखों से अंगारे बरसाता सुधाकर फुफकारता रहा.
“डिस्गस्टिंग, न जाने कौन-सी सामंतवादी सोच के बीज तुम्हारे अंदर रोपे गए हैं, जो तुम अपनी संकीर्ण सोच के दायरों से बाहर आ ही नहीं पाते हो. तुम ख़ुद भी तो शिक्षित हो, पर हर समय मेरी पढ़ाई और पद को लेकर ताना क्यों मारते रहते हो?”
“मैं ऐसा ही हूं और तुम्हारे लिए अपने को बदलने से रहा. चार पैसे क्या ज़्यादा कमाती हो, दिमाग़ ही ख़राब रहता है.” अब तक सुधाकर तीन पैग चढ़ा चुका था.
“लेकिन मैंने तो कभी इस बात के लिए तुमसे कोई शिकायत नहीं की और न ही इस बात का ताना मारा कि तुम मुझसे कम कमाते हो. इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है कि कौन कितना कमाता है. महत्वपूर्ण तो यह है कि हम अच्छी ज़िंदगी जी रहे हैं.” सुधाकर ने न जाने क्यों अपने मन में हीनभावना पाल रखी थी.
“चुप हो जा, वरना मेरा हाथ उठ जाएगा.” मुझे लग रहा था कि अगर कुछ देर और मैं सुधाकर के सामने खड़ी रही तो मेरे शरीर पर अनगिनत कांटे उग आएंगे. मैंने अपने कमरे में आकर दरवाज़ा बंद कर लिया. फिर से मन दुखी हो उठा. वर्षों हो गए हैं, हम दोनों को अलग-अलग सोते हुए. शायद सुधाकर से बात करना ही मेरी सबसे बड़ी ग़लती है, जो संवादहीनता उनके बीच कायम है, उसे तोड़ने की नाहक ही कोशिश करती हूं मैं.
हालांकि इस तरह की बहस कोई पहली बार नहीं हो रही थी, फिर भी हर बार मैं इसी आशा से सुधाकर को समझाने की कोशिश करती हूं कि शायद इस बार तो मैं उसे उसकी रूढ़िवादी सोच और कड़वाहट के जंगलों से बाहर निकाल लाऊंगी. मन में विरोधाभास दस्तक देने लगे थे. अगर
तुम्हारा और मेरा रिश्ता नियति की झिर्रियों को चीरती रोशनी में खिला है, तो क्या सुधाकर और मेरा रिश्ता भी उसी नियति ने सींचा है? पर शायद अंधेरों की परत उस पर चढ़ाकर… तभी तो हम दोनों के बीच कंपैटिबिलिटी नाम मात्र को भी नहीं है. शादी के पंद्रह सालों बाद भी नहीं और शायद यही सबसे बड़ी वजह रही होगी, जो मेरे अंदर आज तक सुधाकर के प्यार का अंश नहीं आ सका है.
प्यार… लेकिन हम दोनों के बीच प्यार का पौधा खिला ही कहां था? कभी एक संगति बन ही नहीं पाई. इस पूरी सृष्टि में संगति ही वह सच है, जो मानव हो या जीव-जंतु या फिर पेड़-पौधे, उन्हें एक लय देती है. संगति न हो तो भूमि बंजर रह जाती है, कलियां फूल नहीं बन पातीं, पेड़ ठूंठ से खड़े अपनी ही नुकीली टहनियों के दर्द को सहने के लिए बाध्य होते हैं. संगीत में अगर प्रत्येक वाद्य-यंत्र, सुर-ताल, लय में संगति न हो, तो मधुर स्वर में गाया गीत भी कानों को चुभने लगता है. जल-तरंग का बजना संगति ही तो है… जब प्रकृति में संगति का इतना महत्व है, तो मानव इससे किस तरह अछूता रहकर रिश्तों को एहसासात के साथ जी सकता है?
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"ज़्यादा सोचा मत करो नंदिता. कभी-कभी कुछ चीज़ें व़क़्त पर छोड़ दी जाएं, तो भी समाधान निकल आते हैं. हो सकता है, सुधाकर को भी एक दिन अपनी भूल का एहसास हो जाए और तुम्हारे प्रति उसके मन में वही पुराने एहसास जाग जाएं.” वागेश हमेशा की तरह उस दिन भी मुझे समझा रहा था. वागेश की आंखों में झांका था मैंने. कितनी सच्चाई है, कोई छल नहीं. कितनी सहजता से वह मेरे मन के भावों को पढ़ मेरी पीड़ा को बांटने की कोशिश करता है. जब भी मैं उसके साथ होती हूं, तो मुझे लगता है कि मैं एक घने, मज़बूत बरगद के साये में बैठी हूं- निश्चिंत, सुरक्षित और बहुत ख़ुश.
“तुम्हें लगता है कि ऐसा हो सकता है? सुधाकर एकदम रफ़-टफ़ है, उसे तराशने का प्रयास करते-करते मैं थक चुकी हूं. अगर तुम्हारा साथ न होता, तो अब तक तो मैं किसी वीराने में गुम हो गई होती. सुधाकर और मेरे बीच कंपैटिबिलिटी कभी डेवलप हो ही नहीं सकती है. अच्छा, मुझे एक बात का मतलब समझाओ?” मैंने पार्क की सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते पूछा. पैर में साड़ी उलझने के कारण मैं लड़खड़ा गई कि तभी वागेश की मज़बूत बांहों ने मुझे थाम लिया.
“केयरफुल नंदिता. संभलो, हर समय मैं नहीं हो सकता तुम्हारे पास, तुम्हें संभालने के लिए.” उसकी मुस्कुराहट उसकी आंखों को छूती मुझे सिहरा गई थी.
“यही वह बात है जिसके आगे-पीछे मैं अक्सर गोल-गोल घूमती रहती हूं.” बैंंच पर बैठते हुए मैंने अपने चप्पल उतार ठंडी घास पर पांव रख दिए. नर्म-मुलायम घास का स्पर्श बहुत अच्छा लग रहा था, मानो बंद सीप खुल गई हो.
“जिसके साथ कंपैटिबिलिटी होती है, उसका साथ हमेशा के लिए क्यों नहीं मिलता? नियति हमेशा ग़लत आदमी को ही हमारे लिए क्यों चुनती है, जैसे सुधाकर को मेरे लिए और पल्लवी को तुम्हारे लिए? नदी के दो किनारे, जो अपने बीच के विस्तार को समेट कभी एक नहीं हो सकते.”
“पर हमें फिर भी उस विस्तार को समेट निरंतर उनके पास जाने की कोशिश करनी होगी नंदिता. मेरा पल्लवी से और तुम्हारा सुधाकर से विवाह हुआ है, इस सच को हम नकार नहीं सकते हैं. वे दोनों जैसे हैं, उन्हें हमें उसी तरह स्वीकार करना होगा. उन्हें बदलने की कोशिश करना मूर्खता है. बेहतर होगा कि हम उनके अनुसार स्वयं को ढाल लें, वरना सारी ज़िंदगी कुढ़तेे, खीझते और बहस में ही गुज़र जाएगी. मुझे अब तकलीफ़ नहीं होती, क्योंकि पल्लवी के अहम् के आगे मैंने हथियार डाल दिए हैं. उसे अपने पापा के पैसों का घमंड है और उसकी नज़रों में उसके मायकेवालों के आगे मेरी हैसियत कुछ नहीं है. लेकिन इसमें मैं कुछ नहीं कर सकता. यह बात तो उन्हें शादी करते समय सोचनी चाहिए थी, पर अब इन स्थितियों को बदला नहीं जा सकता. हमेशा दुखी रहने और नियति को कोसने से तो अच्छा होगा कि हम चीज़ों को उसी रूप में स्वीकार कर लें, जैसी वे हैं. तुम ऐसा करोगी तभी खुलकर सांस ले पाओगी नंदिता.”
“लेकिन क्या यह समझौता करने जैसा नहीं हुआ? समझौते में ख़ुशी व प्यार कहां होता है वागेश?”
“समझौते हम कहां नहीं करते नंदिता? अपने ऑफ़िस से लेकर सड़क, बाज़ार, बस, ट्रेन, यहां तक कि अपने पड़ोसियों, रिश्तेदारों और मित्रों के संग. हर जगह, हर मोड़ पर तो हम समझौता करने को तैयार रहते हैं, वह भी सहर्ष. फिर उस रिश्ते में समझौता करने में कैसी तकलीफ़, जिसे जीवनभर जीना है. अन्य कोई विकल्प हो तो…” वागेश ने अपनी बात अधूरी ही छोड़ दी. शायद वह मुझे और पसोपेश में नहीं डालना चाहता था.
“मैं तुम्हारी तरह मज़बूत नहीं हूं वागेश, शायद तभी सुधाकर की सोच के साथ तालमेल नहीं बैठा पा रही हूं. उसके साथ संगति का कोई भी छोर पकड़ना मेरे लिए मुमकिन नहीं हो पा रहा है. आख़िर क्यों तुम मेरी ज़िंदगी से दूर चले गए थे और चले ही गए थे, तो वापस क्यों लौटे? कम से कम मैं तुम्हारी यादों के साथ ही जी लेती. अब जब तुम मेरे सामने हो तो सुधाकर को अपनाना और मुश्किल हो गया है मेरे लिए.” मेरी बेबसी, मेरा दर्द आंखों में नमी बन झलकने लगा.
“तुम चाहती हो, तो मैं हमेशा के लिए तुम्हारी ज़िंदगी से दूर चला जाता हूं…”
“इस बार तुम गए न तो इस हारी और टूटी नंदिता की जगह उसकी मौत की ही ख़बर सुनोगे. ”
“ख़बरदार जो बकवास की, एक चपत लगाऊंगा, तो होश ठिकाने आ जाएंगे. हम दोनों कहीं भी रहें, हमेशा साथ रहेंगे. हमें तो एक-दूसरे को विश्वास का वह आधार देना है, जिससे हमारे वैवाहिक जीवन की नींव खोखली न हो. अगर थोड़ा रोमांटिक अंदाज़ में कहूं तो हम दोनों के सुर-ताल मिलकर ही तो लय को ठीक रखने में मदद करते हैं.” वागेश के होंठों पर धुली चांदनी-सी हंसी खिल गई.
“पर…”
“पर-वर कुछ नहीं, इस बात का हमेशा ख़्याल रखना कि जब किसी के सुर बिगड़े होते हैं, तो उन्हें ठीक करने के लिए ऐसे इंसान की मदद ली जाती है, जिसकी लय सही हो. सुधाकर को तुम्हें ही संभालना होगा, अन्यथा वह और बेसुरा हो गया तो आसपास वालों को अपनी खिड़कियां-दरवाज़े बंद करने पड़ेंगे.”
हंसी आ गई मुझे वागेश की बात सुनकर. अब मुझे समझ आ रहा था कि क्यों मैं गोल-गोल चक्कर काटते हुए एक बार फिर से उसके पास पहुंच गई थी.
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