शरीर से नहीं, पर मन से हार-टूट जाने पर इच्छाएं भी ख़त्म हो गई हैं. जर्जर मन है, कभी ताड़ सा रहा मेरा अहं भी अंधेरे में साथ छोड़ रही परछाई सा कहीं विलुप्त हो चुका है. बची रही है तो सिर्फ़ स्नेह पाने की जीजीविषा, संरक्षण पाने, जीवन जीते रहने की अदम्य उत्कट इच्छा कि मृत्यु मुझसे दूर रहे. इसी स्वार्थ के चलते पड़ी-पड़ी अब इस जीवन संध्या में मैं सिर्फ़ तुम्हें याद करती रहती हूं.

ठंड़ी अंधेरी काली चादर में से चंचल रवि रश्मियों ने ज़रा-सा मुखड़ा बाहर निकालकर झांका और वे बिस्तर छोड़कर लॉन में निकल आए. गर्मी, बारिश हो या ठिठुरन भरी रातें, यह उनका नित्य प्रातः का नियम था.
वे भोर होते ही हरे-भरे लॉन में टहलने लगते तथा चिड़ियों की चहचहाहट के बीच वहीं सुबह की चाय पीते. आज भी ज्यों ही वे सामने पड़ी कुर्सी पर आकर बैठे, टेकराम ने गरमा-गरम चाय का प्याला उन्हें थमा दिया. उनके सिवा घर में सिर्फ़ एक यही दूसरा प्राणी था.
आगे नाथ, न पीछे पगहा, कुछ ऊंचा सुनता था, अतः तेज़ स्वरों में बोलता भी था. यह सोचकर कि शायद सामनेवाला भी ऊंचा सुनता होगा, वे उसे कितना कुछ भी कह लेते, मगर वह उनके श्रीफल मन के सख्त रूक्ष खोल में छिपे कोमल, मिठास व सरसता का आस्वाद ले चुका था, अतएव बुरा तो मानता ही नहीं था और काम के मामले में भी पूरा चाक-चौबंद, चुस्त-दुरुस्त. सच पूछिए तो उनकी गृहस्थी इसी टेकराम के भरोसे सुचारू रूप से चल रही थी.
अब तक गेट के आसपास खड़े प्रहरी से लंबे अशोक वृक्षों की फुनगी पर सुनहरी किरणें आकर बैठ गई थीं और पक्षी कलकल करते उनके साथ छुपा-छुपी खेलते आनंदमय थे. प्रकृति के संग भृगुनाथ न जाने क्यों एक अजीब सा सुकून महसूस करते थे. तभी ध्यान भंग किया टेकराम ने, "साहब, कल यह ख़त आया है बैरंग, पता नहीं किसने भेजा है? आपके ही नाम है."
उसके मन में हैरत के साथ-साथ उत्सुकता भी थी. आज न जाने कितने बरस हो गए, न कोई उन्हें ख़त लिखता था, न ही वे कभी किसी को लिखते, फिर आज यह अचानक? उन्होंने लिफ़ाफ़ा उल्टा-पुल्टा, सादे-से काग़ज़ को मोड़कर स्वयं बनाया गया हस्तलिपि अनचीन्ही सी. समय की परतों के नीचे दबी हुई यादों में एक परछाई सा आकार, ऐसा ही लिफ़ाफ़ा एक लंबे अंतराल पूर्व भी आया था. अचानक ध्यान पड़ा तो वे आश्चर्य से भर उठे.

कांपते हाथों से उन्होंने गले में लटका चश्मा चढ़ाया और पढ़ने लगे. दाईं ओर लिखा था प्रतिष्ठा में, श्रीयुत भृगुनाथ वर्मा, पढ़कर वे सोच में पड़ गए. क्या समझें इस पत्र के आने से, भीतर क्या है इसमें ख़ुशियां या ग़म? कैसी होगी इसकी इबारत? ये ज़िंदगी भी बड़ी बेदर्द, ज़ालिम और कर्कशा है. कुछ दिन और सुकून से गुज़र जाते तो वह भी नहीं देखा जाता इससे. आज तक तो वैसे ही तेज़ नश्तर चलाकर परत-दर-परत टुकड़े करती रही ज़िंदगी.
वसंत की बयार दूर खड़ी खिलखिलाती रही, मगर वे उसकी सुवास अंश मात्र भी न पा सके. मन हुआ पत्र के टुकड़े टुकड़े करके कूड़ेदान में फेंक दें. अब जब इतना लंबा समय काट ही लिया अकेले ही तो फिर यह पत्र किसलिए? एक भंवर मानो मन को मथने लगा. कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया? लिफ़ाफ़ा खोलने के लिए तत्पर उंगलियां थम गईं. मन के कोने से कहीं एक आवाज़ उठी, 'भृगुनाथ, देखो तो सही, क्या लिखा है? जो भी हो. उसने तुम्हारे संग अग्नि के सात फेरे लिए थे और संग जीने-मरने की क़सम खाई थी. न निभा सकी साथ तो क्या? तुम्हारे दिल की गहराइयों में तो उसकी चाहत लम्हे भर के लिए उठी ही थी. भले ही यह चाहत गहरी नफ़रत में बदल गई और जीवन ऐसे ही बिताने का निश्चय भी कर लिया.'
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थमी उंगलियों ने सावधानी के साथ एक ओर से पत्र खोला, तह किया हुआ पुराना सा पीला काग़ज़ सामने था, लिखा था-
प्राणनाथ,
आज जब ज़िंदगी के आख़िरी पड़ाव पर खड़ी हूं, जर्जर जीर्ण-शीर्ण काया और दुखी मन लिए, अंधेरों के बीच अकेली हूं, तो तुम्हें आवाज़ देते हुए एक संकोच तो हो ही रहा है, साथ ही भय भी कि कहीं तुम भी मेरी प्रार्थना स्वीकार न करो तो? पता नहीं कैसा बर्ताव करोगे तुम इस पत्र के साथ? यदि मेरी अंतरात्मा से निकली पश्चाताप की इस शब्द नदी की धारा तुम तक जा पहुंचे! तुम इसे पढ़कर मुझे मेरी भूलों के लिए माफ़ कर सको, तो शायद मेरे हृदय का बोझ कम हो जाए.
क्या कहूं आज अपनी. मैं इस घर के कोने में कबाड़ की तरह पड़ी कभी-कभी दिनभर भूखी-प्यासी और कई-कई दिनों तक इंसान की शक्ल देखने को तरसती-घुटती हूं. इस घर में अवांछित तत्व की भांति मेरा वजूद बना हुआ है. एक समय था, जब इस घर की इकलौती बड़ी बेटी होने के नाते सारे घर में मेरी हुकूमत चलती थी. माता-पिता मेरे ऊपर स्नेह की रिमझिम बारिश किया करते थे, उसी स्नेह का ग़लत-फ़ायदा उठाकर मैं बेहद बिगड़ेल, नकचढ़ी और ज़िद्दी बन गई थी. क्या भूलूं और क्या याद करूं?
जब मैं समझदार हो बचपन की दहलीज लांघ यौवन की ओर पदार्पण करने लगी, तब मेरे अधिकारों को बांटने, मेरे स्नेह का भागीदार, मेरा खिलौना जैसा भइया, इस दुनिया में आया. मेरी ख़ुशियों का पारावार न था. नन्हा था भी इतना ही प्यारा. उसके लाड़-चाव में मैं शिक्षा को भी विस्मृत कर बैठती. माता-पिता की डांट खाना मुझे मंज़ूर था. वह खेल-खेल में पुस्तकों के पन्ने फाड़ देता, खेलते-खेलते ऊंघ कर गोद में ही सो जाता, पेन, पेंसिल, कम्पास अपने नए-नए जमे दांतों से चबा डालता और मैं उसकी बाल लीलाओं पर बलिहारी हो जाती.
फिर दिन बीते, मेरी शादी हुई. विदाई के वक़्त मैंने भइया को अपने संग ही बैठा लिया और साथ ले गई. ननद-ननदोई के साथ-साथ अनेक रिश्तेदार हंसी-ठिठोली करने लगे, "लगता है दुल्हन के साथ साला भी दहेज में आया है." मैंने सुना तो पैंठकर रह गई. तुम्हारे प्यार की मात्र दो ही शबनमी सुहानी रातें मेरे हिस्से में आई थीं कि तीसरे दिन वह कांड हो गया. ससुराल पक्ष के किसी रिश्तेदार का उजड्ड बेटा मेरे भइया से उलझ गया. दोनों में जमकर मारा-मारी हुई थी. भइया के सिर से खून बहे जा रहा था. मैं तो बस भइया का लाल चमकीला रक्त बहता देख पागल सी हो गई थी.

आज मुझे याद आता है कि मैंने सारे घर में कैसे हंगामा खड़ा कर दिया था. घूंघट उलट समस्त मान-मर्यादाएं त्याग मैं आंगन में निकल आई. स्वभाव में तो मेरे तीखापन और तुनकमिज़ाजी थी ही. जो कहना था, वह तो कहा ही, जो नहीं कहना था वह भी कह डाला.
तब तुम मुझे कलाई से घसीटते अंदर कमरे में लिवा ले गए. जब प्यार मनुहार से न मानी तो तुमने डांट से भी मुझे शांत करना चाहा, मगर मैं भाई का हाथ पकड़ बिना फेरा डाले ही पीहर चली आई. इस तरह मुझे आया देख सब बेहद परेशान हो उठे. पिता ने मुझे ऊंच-नीच समझाना चाहा, मगर मैंने एक न सुनी और निर्णय सुना दिया. "दोबारा उस घर में कदम न रखूंगी, जिस घर में जंगली बनैले जानवर जैसे लोग बसते हैं. ऐसी कठोरता, हृदयहीनता से पेश आया जाता है, वहां से कोई संबंध नहीं मेरा."
पिताजी ने मुझे ससुराल में निभाने के अनेक पाठ पढ़ाने चाहे, मगर मां का लाड़-प्यार आड़े आता रहा. तब पिताजी भी नियति के आगे सिर झुकाकर हार मानकर बैठ गए. वैसे भी वह मां द्वारा किए गए निर्णय में, हस्तक्षेप नहीं करते थे, नतीज़ा यह हुआ कि अब मैं स्वतंत्र थी, निरंकुश व निश्चित भी. आत्मनिर्भर तो मैं पहले भी थी. वापस नौकरी करने लगी..."
मृगुनाथ तन्मयता से आड़ी-तिरछी लिपी पढ़े जा रहे थे, जो शायद धुंधली आंखों एवं बिना चश्मे से लिखी गई थी कि टेकराम ने हस्तक्षेप किया, "साहब, चाय तो एकदम पानी हो गई है, दूसरी लाऊं?"
"अं.. हं...अं...अं ऽऽ" भृगुनाथ की तल्लीनता भंग हुई. वे स्मृतियों की बैसाखियों के सहारे अतीत के अंधेरे तहखाने में सीढ़ी-दर-सीढ़ी उतरते जा पहुंचे थे. जब उनकी देहरी लांघ दुल्हन बनी देवी आई थी. फिर वह हादसा, पार्वती का वापस जाना और उनके कोमल रेशमी स्वप्नों का तार-तार होना. अचानक ही एक हूक सी उठी. दिल एक बार ज़ोर से धड़क उठा. जब सारी उम्र तपता रेगिस्तान बनकर गुज़र गई, तो अब आख़िरी दिनों हरियाली मिल जाना. वे दिल के अंदर एक अजब सी हलचल व उलझन दोनों ही महसूस कर रहे थे. काश! यह पत्र तुमने पहले लिखा होता. वे आंखें मूंदे कल्पना में बातें कर रहे थे पार्वती देवी से, कि द्वार पर आहट हुई. एक मरियल सी बुढ़िया अपने हड्डी जैसे हाथों को फैलाकर हमेशा की भांति भीख मांग रही थी. श्वेत केश, तांबई रंग, किंतु असंख्य झुर्रियों भरा चेहरा, निस्तेज आंखों से वह उन्हें ही निहार रही थी. बड़ी आशा से बोली, "बाबूजी, तुम्हारे बाल-बच्चे जीएं, मालकिन सदा सुहागन रहे, कछु खावे के वास्ते मिल जाए दाता... ओ बाबूजी." यह बुढ़िया सप्ताह में एक दिन ज़रूर चली आती, मगर भृगुनाथ उसकी आवाज़ सुनते ही खीज पड़ते, "टेकराम, भगाओ इसे." यदि स्वयं सामने होते तो ऐसी फटकार लगाते कि बुढ़िया कांपती, घबराकर रह जाती. फिर मंथर कदमों से लाठी टेकती अगले द्वार पर जा आवाज़ देने लगती. मगर आज न जाने क्या हुआ? चाय का प्याला हटाता टेकराम भी अचंभित रह गया जब भृगुनाथ ने अपेक्षाकृत कोमल स्वरों में कहा, "जाओ, दे दो बेचारी को कुछ खाना-कपड़ा."
हाथ में पत्र थामे. वे अपने शयनकक्ष की ओर चल दिए. अचानक ही एक ख़्याल उनके मस्तिष्क में विद्युत धारा सा चौंका. कैसी होगी अब पार्वती? बुढ़िया का ख़्याल, पार्वती की तस्वीर, सब गड़मड़ होने लगे और वे मंद-मंद मुस्कुराने लगे. अपने इस बेढंगे ख़्याल पर, सिर झटककर वे पलंग के बगल में पड़ी आराम कुर्सी पर जा बैठे, और आगे का पत्र पढ़ने लगे-
... दिन बीते, भाई का विवाह हुआ, भाभी लोक लिहाज वश या कि मां के सिखाने समझाने पर, मान-सम्मान देने लगी. भाई के दो बेटे हुए तो छोटे को मैंने अपना अघोषित पुत्र बना लिया और सहज नाम रखा. अब जहां बड़े हिमांशु की परवरिश पर भाई पूरा ध्यान देते, वहीं सहज मुझ पर ही पूर्ण रूपेण निर्भर था. तुमने दो-एक बार पत्र लिखा आने के लिए, एक बार तुम्हारे पिता भी आए लेने, पर मेरे इनकार पर फिर किसी ने सुध भी न ली. कैसे कहूं, ग़लती तो मैंने की ही थी, पर तुमने भी अपने अधिकार का प्रयोग नहीं किया. मैंने बाद में सुना था कि तुमने फिर दूसरा ब्याह नहीं रचाया. मेरे सानिध्य की कड़वाहट तुम्हारे अंदर यों घुल गई थी कि जिसके कारण तुम पूरी स्त्री जाति से नफ़रत करने लगे थे.
अब जबकि उम्र गुज़र गई है, मैं समझ सकती हूं कि मैंने पत्नी की गरिमा पाकर भी सहनशीलता, आपसी समझ एवं समझौते करने की प्रवृत्ति के अभाव के कारण पत्नी की गरिमा का पालन न कर सकी. अहं का त्याग और 'हम' का जज़्बा शायद मुझमें था ही नहीं और पति-पत्नी के रिश्ते के लिए ये ही बातें ज़रूरी होती हैं. मैंने तो ज़रा-सी बात भी नज़रअंदाज़ न की, अपनी नादानी में
स्वयं के पैर पर कुल्हाड़ी मार बैठी. अहं मेरे अंदर इतना बलवान था कि किसी के आगे झुकने की बात तो मैं तब सोच भी नहीं पाई. लेकिन आज मुझे ये सब लिखते व स्वीकारते हुए कोई संकोच नहीं.
क्या-क्या लिखूं, अतीत की एक-एक बातें मेरी आंखों के सामने सजीव हो उठी हैं. तब तो मैं भाभी की ग़लतियां, लापरवाहियां और जाने-अनजाने की गई अपने लिए उपेक्षाओं का लेखा-जोखा बढ़ा-चढ़ाकर करती और मां व भइया से उसे प्रताडित करवाती, डांट-फटकार, व्यंग्य-बाणों का पारितोषिक दिलवाती. कुछ दिन वह रोती-धोती, फिर शांत हो जाती. तब पुनः वही सब दोहराव. दरअसल, मैं चाहती तो थी कि भइया की गृहस्थी में ही सुख तलाश लूं अपने लिए, मगर होता इसके उलट. एक अजीब सी ईर्ष्या से सुलगकर मैं अपनी सारी कुंठा भाभी पर निकाल बैठती. मां, भाई, भतीजे तो मेरे ही थे न. फिर पिता नहीं रहे तो मां मेरी प्रबल पक्षधर बन गईं, क्योंकि उनका आर्थिक, शारीरिक, सामाजिक संबल में ही थी. अब सारी स्थिति समझ में आती है, मानो अब तक के जीवन को आईने में देख रही होऊं. मगर ये बिम्ब तो स्मृति मात्र है- बीते समय को कभी कोई लौटा पाया है? जो बीत गया, सो बीत गया.
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भइया का बड़ा बेटा हिमांशु इंजीनियरिंग पास करके ज्यों ही नौकरी में आया, उसका विवाह भी
कर दिया गया, मगर जो प्यार मैंने सहज को दिया,
हिमांशु को उसका अंश भी न दिया. मैंने तो सहज
पर ही अपनी ममता के ख़ज़ाने लुटाए. एक मां की
तरह ही मैंने उसकी सारी ज़िम्मेदारी-ख़र्चे वहन किए, सुविधाएं दीं. फिर भी न जाने कब? कैसे? किस तरह वह अपनी मां की ही ओर हो गया, मैं जान भी न सकी. मैंने तो उसके प्रबंधन में स्नातकोत्तर हो, नौकरी में आते ही, अपनी सखी की बेटी को छोटी बहू के रूप में चुन लिया एवं सारी जमा पूंजी ख़र्च करके उसके मकान व गहने-कपड़े दिला दिए.
सोचती थी बूढ़ापा तो बेटों के साथ ही काट लूंगी. मगर हिमांशु तो अपनी मां को सिर आंखों पर बिठा कर साथ ले गया और मुझे झूठे मुंह भी न पूछा. और सहज! वह तो पत्नी के आते ही सब कुछ भूल गया. वह दिन को रात कहे, तो रात कहने लगा. अचंभित मैं सोचती हूं, क्या है यह प्यार का जज़्बा, अच्छे-भले इंसान को बदलकर रख देता है. अब मैं तो अनाड़ी ही रही न. बहू ऐसी कि जैसे अभी भी सखी पुत्री हो. बात-बात में आंखें तरेरना, धमकी देना, उपेक्षा तो हर क़दम पर, ऐसी बोली बोलती है, जो हज़ारों-हज़ार बिच्छू के डंक एक साथ ही चुभोने का आभास दे. उसने आते ही अपनी सास की निरीह स्थिति, मेरे लिए घरवालों की तरफ़दारी, सहज के लिए मेरा सॉफ्ट कॉर्नर, मेरा भूला-बिसरा अतीत, सब कुछ पलक झपकते ही एक चतुर जासूस की भांति पकड़ लिया.
वह मेरी दुखती रगों को खोजने के उपरांत, समय-समय पर उन्हें दबाना, दुखाना एवं तड़काना नहीं भूलती. सहज के मन से मुझे पूरी तरह निकाल, स्वयं उसके मन मंदिर की साम्राज्ञी बन बैठी. यह स्थिति मेरे लिए अत्यंत त्रासदी, कष्टकारी, बेहद मर्मांतक है. फिर भी जीना तो है ही.
घर की नौकरानी मेरे इस ऊपरी निर्जन एकांत कमरे में पड़ी, मुझ उपेक्षिता के लिए सुबह-शाम दो-चार रोटी-दाल पटक जाती है. कभी-कभी तो भोजन क्या पानी के लिए भी तरस जाती हूं. शरीर से नहीं, पर मन से हार-टूट जाने पर, इच्छाएं भी ख़त्म हो गई हैं. जर्जर मन है कभी ताड़ सा रहा मेरा अहं भी अंधेरे में साथ छोड़ रही परछाई सा कहीं विलुप्त हो चुका है. बची रही है तो सिर्फ़ स्नेह पाने की जीजीविषा, संरक्षण पाने, जीवन जीते रहने की अदम्य उत्कट इच्छा कि मृत्यु मुझसे दूर रहे. इसी स्वार्थ के चलते पड़ी-पड़ी अब इस जीवन संध्या में मैं सिर्फ़ तुम्हें याद करती रहती हूं. तुम साथ होते, अपनी मेरी औलाद होती तो मैं शायद सुखी होती. निःसंदेह ही मेरी संतान मुझे यों उपेक्षित व अपमानित न होने देती. आज मुझे तुम पल-पल याद आते हो. काश। एक बार तुम्हारे दर्शन कर पाती, अपनी भूलों के लिए तुमसे क्षमादान मांग पाती. तुम शायद मुझे स्वार्थी कहोगे, मगर यह मेरे दिल की पुकार है। आओगे न!
तुम्हारी ही,
पार्वती
पत्र समाप्ति के साथ ही उनकी आंखों से दो बूंदें टपकी. उन्होंने गला साफ़ कर टेकराम को आवाज़ दी, "मैं ज़रा जाऊंगा, तुम तैयारी कर दो." तुरंत टेकराम अचकचाया और पूछ बैठा, "साहब, कहां जा रहे हैं?"
"वहीं, पार्वती को लेने, अभी भी देर नहीं हुई है."
- शोभा मधुसूदन

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