
मंजू वर्मा
रात का सन्नाटा! सुमति के बिस्तर में उगे अन्य रातों जैसे असंख्य कांटे! मगर आज कुछ अधिक ही तीक्ष्ण! रूपाली के पापा की टिप्पणी रह-रहकर सुमति की चेतना में उतरकर कांटों को और भी धारदार बनाने लग जाती. अचानक पता नहीं उसे क्या सूझा कि बिस्तर से उतरकर चलती हुई सीधे उस कमरे की खिड़की के बाहर जा खड़ी हुई, जिस कमरे में दीपंकर सिन्हा सो रहे थे.
लगभग पच्चीस वर्षों का अंतराल कोई छोटा अंतराल तो होता नहीं! उस पहाड़ जैसे अंतराल ने कभी इजाज़त ही कहां दी थी सुमति को कि कभी उमंग-उत्साह के साथ दर्पण के सामने खड़ी हो सके. बस, इतनी भर इजाज़त दी थी कि जैसे-तैसे दर्पण के सामने खड़ी होकर अपने बाल संवार ले या यदा-कदा उसके सामने खड़ी होकर अपने अतीत की कुछ यादों को ताज़ा करके अपने सीने की टीस को फिर से महसूस कर ले. कुछ दिनों पूर्व तक तो जीने का एक मक़सद भी हुआ करता था उसके पास, सुदेश- उसका बेटा. लेकिन सुदेश की शादी के बाद से तो वह मक़सद भी एक तरह से छिन-सा गया था. पहले तो सुदेश अपनी हर ख़्वाहिश और ज़रूरत को मां के समक्ष ही ज़ाहिर किया करता था. मां से रूठना, मां की गोद में सिर रखकर लेटे रहना और मां की डांट-पुचकार बदस्तूर जारी रहते थे. मगर शादी के बाद तो सुमति का यह हक़ भी बहू रूपाली के पास हस्तांतरित हो गया था. हालांकि ऐसा नहीं कि शादी के बाद से सुदेश ने अपनी मां की सुध ही लेनी छोड़ दी थी, बल्कि अब तो वह और भी बेहतर ढंग से मां का ख़्याल रखने लगा था और रूपाली भी तो अपनी सास का ख़ास ख़्याल रखा करती थी. हमेशा इस बात का ध्यान रखती कि उन्हें किसी बात की असुविधा न होने पाए, पर ये सब सुमति के लिए जैसे-तैसे बाकी की उम्र गुज़ार लेने की औपचारिकता के अलावा कुछ नहीं था. लेकिन आज पता नहीं कैसे दर्पण ने ख़ुद से आमंत्रित कर दिया था सुमति को अपने सामने खड़े होने के लिए? जैसे कह रहा हो, ‘सुमति... रूपाली के पापा कुछ ग़लत थोड़े ही कर रहे थे? ज़रा ग़ौर से देख ख़ुद को... देख कि तू आज भी पच्चीस वर्ष पहलेवाली ही सुमति लग रही है या नहीं? आज भी तेरी आंखें, होंठ, बाल... एक-एक अंग, किसी को भी अपने सम्मोहन में बांध लेने की क्षमता रखते हैं या नहीं?’ ‘मगर उनका तो मेरे साथ हंसी-दिल्लगी का रिश्ता है. समधीजी हैं न, मज़ाक में ऐसा कह ही सकते हैं.’ ‘मगर जब वे तेरी तारीफ़ कर रहे थे, तब तेरे गाल सुर्ख़ क्यों हो उठे थे? शर्म से तेरी आंखें झुक क्यों गई थीं? और सीने की धड़कनें बेकाबू क्यों होने लगी थीं?’ दर्पण के सामने खड़े-खड़े अपने ही प्रतिबिंब से आंखें मिला पाना संभव नहीं हो पाया था. भागकर वह अपने बिस्तर पर लेट गई थी. उसकी स्वप्निल-सी हो आईं आंखें देर तक छत निहारती रह गई थीं. सुमति अपने अतीत में खो गई... तब वह सोलह की उम्र भी पार नहीं कर पाई थी, जब उसकी शादी हुई थी. उसके पति की उसके साथ दूसरी शादी थी. पहली पत्नी गुज़र चुकी थी. पत्नी के हमेशा रोगग्रस्त रहने से सुमति के पति कुलदीप वर्मा का जीवन पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो चुका था. सरकारी नौकरी में अच्छे पद पर रहने के बावजूद उनका रहन-सहन, पहनावा-ओढ़ावा सब कुछ बेतरतीब-सा हो गया था. पत्नी की जगह शराब को ही उन्होंने अपनी संगिनी मान लिया था. सुमति ने उन्हीं दिनों मैट्रिक पास किया था. आर्थिक कारणों से सुमति के पिता ने सुमति की आगे की पढ़ाई रुकवा दी थी. स़िर्फ आर्थिक कारणों से नहीं, बल्कि इसलिए भी कि अधिक पढ़ी-लिखी लड़की के लिए लड़का भी तो उससे बीस ही ढूंढ़ना होगा और वैसे लड़कों की क़ीमत भी तो जानते ही थे वे. सुमति के मामा कुलदीप वर्मा के दफ़्तर में ही काम करते थे और उनके अंतरंग भी थे. सुमति के लिए ज़िद-मनुहार करके कुलदीप वर्मा को राज़ी कर लिया उसके मामा ने, मगर तब लड़के की उम्र को लेकर सुमति के पिता भड़क उठे, लेकिन सुमति के मामा ने अपने तर्क से अपने जीजाजी को परास्त कर ही दिया और आख़िर बात पक्की हो गई. गुड़िया सरीखी मासूम तथा अबोध बच्ची सुमति ला बिठाई गई चालीस वर्षीय कुलदीप वर्मा के घर, लेकिन वो पति का ऐसे ख़्याल रखने लगी थी, जैसे कोई मां अपने बेटे का रखती है. यहां तक कि अपने स्नेह और प्यार से कुलदीप वर्मा के पूरे अस्तित्व पर छा चुकी शराब की लत को भी ऐसे उनके जीवन से निकाल फेंका था उसने, जैसे उसके पति का कभी शराब से कोई वास्ता ही न रहा हो. शादी की सालगिरह तक सुदेश नामक एक ख़ूबसूरत से तोह़फे से भी नवाज़ दिया था सुमति ने अपने पति को. मगर सुदेश अभी एक वर्ष का ही था कि उसके पिता की लंबे समय की शराब सेवन यात्रा ने आख़िर अपना रंग दिखा ही दिया, जो आंत के कैंसर के रूप में उभरकर सामने आ गया और जिसने एक दिन सुमति को सिंदूर और मंगलसूत्र से वंचित करके ही दम लिया. मात्र उन्नीस-बीस की उफ़ान खाती उम्र में ही एक मरघटी सन्नाटे ने सुमति को अपनी गिरफ़्त में ले लिया. एक सुराख तक नहीं छोड़ा उस सन्नाटे ने कि जिससे होकर कभी कोई बसंत का टुकड़ा या सावन की फुहार या फिर ठिठुरती ठंड भरी रात का कोई रूमानी एहसास तक प्रवेश कर सके उसके जीवन में. हां, उसके गुज़रे हुए बसंत ने इतना ज़रूर किया था कि चुपके से अपना एक टुकड़ा उसकी गोद में डाल दिया था- सुदेश. फिर तो अपनी पच्चीस की उम्र में ही सुदेश ने बैंक में अधिकारी बनकर मां को उसकी तपस्या का पारितोषिक भी दे दिया था और नौकरी लगने के कुछ ही दिनों बाद तो सुमति के जीवन में रूपाली भी आ गई थी- सुदेश की पत्नी बनकर- सुंदर, सुघड़ और सुशील बहू की कसौटी पर शत-प्रतिशत खरी उतरती हुई. सुदेश की शादी के सालभर बाद बहू ने सुमति को बताया कि उसके पापा आ रहे हैं. ऐसा नहीं कि रूपाली के पापा दीपंकर सिन्हा इसके पूर्व नहीं आए थे कभी. शादी की बातचीत के लिए तो आए ही थे और अपने व्यक्तित्व से ऐसे मोह लिया था उन्होंने सुमति को कि उसे यह मानना ही पड़ा था कि अगर पिता ऐसे हैं, तो बेटी भी संस्कारी होगी ही. लेकिन सुमति आज तक नहीं समझ पाई थी कि रूपाली के पापा के व्यक्तित्व और आंखों में आख़िर कौन-सी बात थी कि जब भी बातचीत करते हुए उसकी आंखें उनकी आंखों से टकरातीं, उसकी आंखों को झेंप कर झुक जाना पड़ता. साथ ही सीने की धड़कनें तेज़ होने लग जातीं. फिर जिस वक़्त से उसे यह पता चला कि रूपाली के पापा आनेवाले हैं, क्यों उसके मन से लेकर जिस्म के एक-एक अंग में प्रफुल्ल प्रवाह-सा तरंगित होने लगा था? आख़िर क्यों उनके स्वागत की तैयारी में वह कुछ इस तरह जुट गई थी कि सब कुछ भूलकर उनकी पसंद-नापसंद की जानकारी रूपाली से लेने लगी थी. और जिस रोज़ रूपाली के पापा आनेवाले थे, उस दिन तो सुमति के पैर जैसे ज़मीन पर पड़ ही नहीं रहे थे. घर की सफ़ाई से लेकर सजावट तक ख़ुद अपने हाथों से कर रही थी. फिर किचन में जाकर रूपाली से बोली, “ऐसा कर रूपाली, मटन का दो हिस्सा कर ले. एक हिस्से का तरीवाला बना देना और दूसरे का दोप्याज़ा... अच्छा रहने दे, दोप्याज़ा मैं ख़ुद बनाऊंगी. तेरे पापा पसंद करते हैं न!” रूपाली के पापा को सुदेश ख़ुद स्टेशन जाकर अपनी बाइक से ले आया था. मगर यह क्या, रूपाली के पापा के आगे सुमति की स़िर्फ करबद्धता की औपचारिकता, फिर सीधे अपने बेडरूम में- जैसे घर की कोई नई नवेली दुल्हन हो वो. इसके बाद बेडरूम से तभी बाहर निकली थी, जब खाने की टेबल पर रूपाली के पापा ने दिल्लगी भरे अंदाज़ में उलाहना दिया था, “यह क्या कि समधनजी खाने पर भी साथ न दें. भई हम इतने पराये तो नहीं.” लेकिन खाने के टेबल पर भी सुमति का संकोच पूर्ववत् ही बना रहा. उसकी गर्दन प्लेट पर झुकी हुई थी और वो निवाले कुतर रही थी बस. तभी रूपाली के पापा बोल पड़े थे, “दोप्याज़ा तुमने बनाया है रूपाली?” “नहीं तो! अम्माजी ने बनाया है. अच्छा बना है न?” “स़िर्फ अच्छा नहीं, बहुत अच्छा! अगर तेरी अम्माजी रोज़ ऐसा दोप्याज़ा खिलाने का वादा करें, तो मैं तो यहां से जाने का नाम ही न लूं.” तारीफ़ सुनकर हया की लाली उभर आई थी सुमति के गालों पर और आंखें झेंप से दोहरी हो उठी थीं. तभी सुदेश बोल पड़ा, “आप रहिए तो सही. देखिए, मां क्या-क्या खिलाती हैं आपको, क्यों मां?” सुमति फिर भी मौन ही रही थी. रूपाली के पापा फिर बोले, “यह तुम कह रहे हो न बेटे, जिन्हें बनाना है, वह तो कुछ कह ही नहीं रहीं. वैसे सुदेश, तुम्हारी मां तो तुम्हारी मां लगती ही नहीं हैं. तुम्हारी बड़ी बहन लगती हैं. क्यों रूपाली? हा हा हा...” सुमति तो जैसे लाजवंती ही हो उठी थी उनकी टिप्पणी पर, जैसे उनकी टिप्पणी, टिप्पणी न होकर उनका हाथ हो, जिसने स्पर्श करने की हिमाकत कर दी हो उसे. अपने थरथराते होंठों से रूपाली को बोलकर, “अच्छा रूपाली, मैं चलती हूं.” वह उठकर भागी थी वॉशबेसिन की ओर. फिर हाथ-मुंह धोकर सीधे अपने बेडरूम में ड्रेसिंग टेबल के आदमक़द दर्पण के सामने.
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