“उसे तुम्हारे स्नेह की कोई कद्र नहीं है. पता नहीं क्यों तुमसे इतनी खिंची-खिंची रहती है. सबके साथ हंसती-बोलती, तो कितना अच्छा रहता. सुनील और मां भी मन ही मन तुम्हारा अपमान देखकर दुखी हो जाते हैं. मैंने कभी कुछ कहा नहीं, लेकिन मेरा अंदाज़ा है जया शायद सुनील के प्रति तुम्हारा लगाव सहन नहीं कर पाती है. जब तुम सोनू-सोनू करती हो, तो कभी जया का चेहरा देखा है उस समय?”
गहरी रात को भेदती ट्रेन अपनी पूरी रफ़्तार से भागी जा रही थी. खेत-खलिहान और वन-अरण्य सब अंधेरे में डूबकर पीछे छूटते जा रहे थे. कूपे की काफ़ी लाइट्स बंद हो चुकी थी, पर जया की आंखों में दूर-दूर तक नींद का नामोनिशान नहीं था. रह रहकर उसका कलेजा मुंह को आ जाता. मन में यही आ रहा था, काश! कुछ ऐसा हो जाता, जो उसे बनारस न जाना पड़ता. हमेशा बनारस जाने के ख़्याल से ही उसके पूरे शरीर में ईर्ष्या की इतनी तेज़ लहर उठती कि उसका तन-मन जला जाती. उसने देखा सामने की बर्थ पर सुनील सो चुके थे. नीचे दोनों बच्चे शाश्वत और सिद्धि भी सो चुके थे.
इस बार दीवाली पर उसे बनारस अपनी जेठानी दूर्वा के यहां जाना पड़ रहा था. उसकी सास वसुधा बीमार थीं. उनकी इच्छा थी कि दीवाली इस बार दोनों भाई बनारस में एक साथ मनाएं. सुनील तो मां की इच्छा पर जाने के लिए तुरंत तैयार हो गया था, लेकिन जया ने सुनते ही शाश्वत और सिद्धि की पढ़ाई का बहाना ढूंढ़ने की कोशिश की थी, लेकिन सुनील ने सख़्ती से कह दिया था, “मां के कहने पर हम हर हालत में बनारस जाएंगे. बच्चों की दीवाली की छुट्टियां तो हैं ही.”
जया न जाने का और कोई बहाना सोच नहीं पाई थी. दस वर्षीय शाश्वत और आठ वर्षीय सिद्धि तो एक साथ चहक कर बोले थे, “हां मम्मी, ताईजी के यहां जाना है. बहुत अच्छी हैं ताईजी.” सुनकर आगबबूला हो गई थी जया.
“ठीक है तुम जाओ. मेरा मन नहीं है.”
सुनील को ग़ुस्सा आ गया था, “तुम्हें चलना है तो चलो. मैं बच्चों को ले जाऊंगा. बैठी रहना अकेले घर में.”
सुनील का ग़ुस्सा देखकर जया ने बुझे मन से अपनी तैयारी की थी और अब न चाहते हुए भी विगत स्वयं को बार-बार दोहराने लगा था.
उसके विवाह के समय अनिल और सुनील एक साथ ही बनारस में रहते थे. जया को याद है जब उसने गृहप्रवेश किया था, चारों तरफ़ दूर्वा, दूर्वा की पुकार थी. पहले उसने इसे सामान्य रूप से लेने की कोशिश की, लेकिन जैसे-जैसे दिन बीतते रहे उसके दिल में दूर्वा के प्रति ईर्ष्या ने ऐसी जगह बनाई कि आज भी इतने सालों बाद वह भावना उसी जगह ठहर गई थी.
उसे याद है सुनील ने उसे कहा था, “जया, भाभी ने इस घर के हर सदस्य के लिए बहुत किया है. उनका दिल कभी न दुखाना. पिताजी के अंतिम समय में जितनी सेवा की है भाभी ने, कोई नहीं भुला पाएगा कभी.” वसुधा भी हर बात में दूर्वा से सलाह लेती थीं. दूर्वा ने जया को भी बहुत स्नेह दिया, लेकिन सुनील के मुंह से दूर्वा की तारीफ़ सुन वह नारी सुलभ ईर्ष्या से भर उठती. सुनील जब भी जया के लिए कुछ लाता, दूर्वा के लिए भी ज़रूर कुछ होता. दूर्वा की हर बात में जया को दिखावा लगने लगा, वह सोचने लगी इस औरत ने सबको अपनी मीठी बातों में फंसा रखा है.
वह दूर्वा से बहुत कटती चली गई. छुट्टी के दिन दूर्वा सब बच्चों के सिर में तेल लगाने बैठ जाती तो सुनील को भी आवाज देती, “सोनू, तुम भी आ जाओ.”
जया जल जाती. एक बार तो सुनील से कहा भी, “तुम क्या बच्चे हो जो उनसे तेल लगवाने बैठ जाते हो.”
सुनील हंसता, “और क्या, उनके लिए तो अभी भी बच्चा ही हूं.”
जया ने कहा था, “तुम्हारे बालों में तेल मैं भी लगा सकती हूं, मुझे क्यों नहीं कहते इतना ही शौक है तो.”
“यह भी कोई बात है, अगली बार तुम लगा देना.”
जया का मायका लखनऊ में था. ये सारी बातें उसने अपनी मम्मी को बताईं थी, तो उन्होंने उसे दूर्वा से दूर रहने की ही सलाह दी.
जया को ट्रेन में अपनी बर्थ पर करवटें बदलते हुए याद आ रहा था. एक बार सुनील को तेज़ बुख़ार था, उसे हॉस्पिटल में एडमिट करना पड़ा था. सबके बार-बार कहने पर भी दूर्वा ने न रात को आराम किया न दिन में. बस घर और हॉस्पिटल के चक्कर ही काटती रही थी दूर्वा. जया के मन में अब तक तो सिर्फ़ ईर्ष्या थी, लेकिन अब उसकी बेचैनी और तड़प देखकर जया के मन में जो शक उभर आया उसे वह अब तक निकाल नहीं पाई थी. जब उसने अपनी मम्मी को सुनील की बीमारी में दूर्वा की बेचैनी बताई, तो उन्होंने झट से कहा था, “देवर से इतना लगाव? कोई बात तो ज़रूर है. ऐसे थोड़े ही कोई किसी के लिए इतना परेशान होता है.”
और फिर जया ने दूर्वा से इतनी दूरी रखनी शुरू कर दी कि सुनील ने चुपचाप दिल्ली ट्रांसफर करवाने में ही सबकी भलाई समझी थी. दिल्ली जाने के बाद सुनील ही बनारस आता रहा था. जया इन दो सालों में एक बार भी नहीं आई थी. जया को लेकर सबने एक चुप्पी ओढ़ ली थी और अब वसुधा बीमार थीं और न चाहते हुए भी वह बनारस जा रही थी.
बनारस पहुंचकर शाश्वत और सिद्धि तो वसुधा और दूर्वा से चिपट गए. दूर्वा के दोनों बेटे वेदांत और दिव्यांशु सुनील को देखकर चाचा-चाचा करते चहक उठे. जया सबसे अलग-थलग खड़ी थी. दूर्वा ने उसे गले लगाते हुए कहा, “यहां से जाकर तुम तो सबको भूल गई जया.” जया कुछ बोली नहीं. जया को छोड़कर सब एक-दूसरे से मिलकर ख़ुश थे. वसुधा दिल की मरीज थीं. इस समय वह अपनी बीमारी भूलकर बच्चों को गले लगाए बैठी थीं. अनिल हंसा, “देखा सुनील, इस समय मां बीमार लग रही हैं?”
सुनील हंसा, “भाभी की देखरेख में मां बीमार रह भी नहीं सकती ज़्यादा दिन.” कहकर सबको अपने लाए उपहार देने लगा. फिर सब नहा-धोकर फ्री हुए तो दूर्वा ने कहा, “सब आ जाओ नाश्ता करने. मैं गरम-गरम बना रही हूं. सोनू, जया सब आ जाओ.” सुलग उठी जया, घर में सुनील को सोनू कोई नहीं कहता है. इसे पता नहीं क्या पड़ी है इतना प्यार दिखाने की और अनिल भैया, क्या इन्हें भी बुरा नहीं लगता दूर्वा का सोनू-सोनू करना.
अपनी पसंद का नाश्ता देखकर सुनील हंस पड़ा, “वाह भाभी, मटर की कचौरी और आलू की सब्ज़ी! आप कभी नहीं भूलती मेरी पसंद.” जया को बहुत गंभीर देखकर वसुधा ने कहा, “क्या बात है जया, तबीयत तो ठीक है?”
“कुछ नहीं मां, सफ़र की थकान है. ट्रेन में भी रातभर नींद नहीं आई.” दूर्वा ने स्नेह भरे स्वर से कहा, “तुम नाश्ता करके आराम कर लो जया, थोड़ा सो लोगी तो ठीक लगेगा.”
नाश्ता करके चारों बच्चे मस्ती करने लगे. वसुधा बेटों के साथ बातों में व्यस्त हो गई. जया अनिच्छा से दूर्वा का किचन में हाथ बंटाने लगी, लेकिन दूर्वा ने उसे ज़बरदस्ती आराम करने भेज दिया. दूर्वा का मन जया से बहुत सी बातें करने का होता, लेकिन जया का रुखा-सूखा रवैय्या देखकर वह मन ही मन आहत रहती. दूर्वा ने इतने सालों में जया से अच्छे संबंध रखने की अपनी तरफ़ से बहुत कोशिश की थी, लेकिन जया की बेरुखी का कारण वह कभी समझ नहीं पाई. अब सब जया का स्वभाव ऐसा ही समझकर चुप रहते थे. दूर्वा अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी और उसके माता-पिता भी अब इस दुनिया में नहीं थे.
अगले दिन दीवाली थी. शाम को सुनील ने जया से कहा, “जाओ भाभी के साथ मार्केट जाकर देख लो क्या-क्या लाना है. बच्चों को हम लोग देख लेंगे.” अनिल ने भी अकेले में दूर्वा से कहा, “जाओ, सुनील, जया और बच्चों के लिए जया की पसंद से ही कुछ ख़रीद लेना.”
दोनों बाज़ार चली गईं, रास्ते में दूर्वा ने पूछा, “जया, दशाश्वमेध घाट चलोगी? तुम्हें वहां अच्छा लगता है न?”
“नहीं भाभी, अभी मन नहीं है.”
“चलो आई हो, तो विश्वनाथ मंदिर में दर्शन कर लेते हैं.”
“नहीं भाभी, फिर कभी.” दूर्वा चुप हो गई. हमेशा जया में छोटी बहन ढूंढ़ने की कोशिश अधूरी ही रह जाती थी. जया के साथ हंसने-बोलने का बहुत मन था, लेकिन जया की ख़ामोशी देखकर बस शॉपिंग करना शुरू किया. जया की पसंद से सुनील और बच्चों के लिए कपड़े ख़रीद लिए तो दूर्वा ने कहा, “अब अपने लिए एक साड़ी भी ले लो.”
“भाभी, रहने दो. मन नहीं है.”
दूर्वा के बहुत कहने पर भी जया ने अपने लिए कुछ नहीं लिया. दोनों घर लौट आई तो वसुधा ने कहा,
“दूर्वा, जया की साड़ी कहां है?”
“मां, बहुत कहा पर उसने नहीं ली, कहा मन नहीं है.”
वसुधा को बुरा लगा, “इसमें मन की क्या बात है? त्योहार है, अगर बड़े दिलवा रहे हैं, तो उसे तो ख़ुश होना चाहिए. पता नहीं उसके दिमाग़ में क्या चलता रहता है.”
“अभी तो ये लोग दो-तीन दिन यहां हैं. बाद में दिलवा दूंगी. मां, आप परेशान न हों.”
वसुधा जानती थीं जया के दिल में दूर्वा के लिए ज़रा भी प्यार और सम्मान नहीं है, लेकिन कुछ बोलने पर बात और न बढ़ जाए इसलिए चुप रहती थीं.
दीवाली का पूजन पूरे घर ने, जया को छोड़कर ख़ुशी-ख़ुशी किया. सुनील तो वेदांत और दिव्यांशु के साथ उनकी उम्र का ही बन जाता था. उसने बच्चों के साथ बहुत मस्ती की. सुनील अनिल से सात साल छोटा था. सुनील ने बच्चों के साथ मिलकर बहुत पटाखे छुड़ाए. जया अलग एक रूम में बैठी रही. वह मन ही मन वापस जाने का समय गिन रही थी. दूर्वा की उपस्थिति भी वह अपने आसपास सहन नहीं कर पाती थी. शक की एक भावना ने उसके मन पर ऐसा पर्दा डाल रखा था जहां से दूर्वा का स्नेह, अपनापन उसके दिल को छू भी नहीं पाता था. डिनर सबने साथ किया, सुनील दूर्वा के बनाए पकवानों की तारीफ़ जी खोलकर करता रहा.
बच्चे सब एक रूम में सो गए. सुनील-जया का बेडरूप तो आज भी वैसा ही था जो पहली मंजिल पर था. वसुधा और अनिल के बेडरूम नीचे ही थे. सुनील सो चुका था, लेकिन जया को नींद नहीं आ रही थी. उसे तेज़ सिरदर्द महसूस होने लगा. फर्स्टएड बॉक्स नीचे किचन में ही था, उसी में कोई सिरदर्द की दवाई होगी, यह सोचकर वह धीरे-धीरे उठकर नीचे किचन तक जाने लगी. दूर्वा के बेडरूम के दरवाज़े से हल्की रोशनी बाहर आ रही थी. रात के दो बजे थे. अंदर से अनिल और दूर्वा की आवाज़ें आ रही थीं. साथ ही साथ दूर्वा की सिसकियां भी कानों में पड़ी, तो जया ने धीरे से दरवाज़े पर कान लगा दिए.
अनिल गंभीर स्वर में दूर्वा को कह रहा था, “उसे तुम्हारे स्नेह की कोई कद्र नहीं है. पता नहीं क्यों तुमसे इतनी खिंची-खिंची रहती है. सबके साथ हंसती-बोलती, तो कितना अच्छा रहता. सुनील और मां भी मन ही मन तुम्हारा अपमान देखकर दुखी हो जाते हैं. मैंने कभी कुछ कहा नहीं, लेकिन मेरा अंदाज़ा है जया शायद सुनील के प्रति तुम्हारा लगाव सहन नहीं कर पाती है. जब तुम सोनू-सोनू करती हो, तो कभी जया का चेहरा देखा है उस समय?”
दूर्वा की सिसकियों में बंधी आवाज़ गूंजी, “जब हमारी शादी हुई थी मां ने मुझे एक ही बात कही थी, सुनील को अपना बेटा समझना, कभी उससे नाराज़ मत होना. वो कोई ग़लती भी करे, तो उसे माफ़ कर देना. तुम्हारे स्नेह से दोनों भाइयों में भी प्यार बना रहेगा और वो दिन और आज का दिन, मैंने हमेशा अपने आप को तीन बेटों की मां समझा है और मुझे इस बारे में किसी को कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है.”
बाहर खड़ी जया को अपने ऊपर बहुत शर्म आई. उसे आत्मग्लानि हुई. वह इतने सालों से क्या सोच रही है और दूर्वा के दिल में सुनील के लिए अपने बेटे जैसा स्नेह है. यह क्या किया उसने, कैसे माफ़ी मांगे वह. दूर्वा के निश्छल, निर्मल व पावन स्नेह के प्रति उसका मन श्रद्धा से भर उठा. उसने हमेशा दूर्वा का दिल दुखाया है, सोचती हुई वह चुपचाप अपने बेड पर जाकर लेट गई. दवाई लेना भी वह भूल चुकी थी. पछतावा उसकी आंखों से आंसुओं के रूप में बह निकला. पूरी रात उसे अपना एक-एक व्यवहार याद आता रहा. नहीं, अभी भी वह सब संभाल सकती है. बेकार के शक में पड़कर वह इन रिश्तों के बीच पनपती छोटी-छोटी ख़ुशियों को क्यों अनदेखा करती रही, जो इंसान को सच्चा सुख देती हैं.
सुबह उसने सबसे पहले बिस्तर छोड़ दिया. दूर्वा जब फ्रेश होकर किचन में पहुंची तो हैरान हो गई, जया उसके लिए चाय बना रही थी. दूर्वा ने कहा, “जया, इतनी जल्दी उठ गई? ठीक से सोई नहीं?” जया ने हंसते हुए कहा, “बस, आपकी चाय बनाने का मन हो गया भाभी.” दूर्वा हैरान सी जया का मुंह देखने लगी. जया ने कहा, “आज आप आराम करेंगी, नाश्ता मैं बना रही हूं.” फिर कुछ सोचकर हंसते हुए बोली, “नहीं, आप ही कुछ बनाना अपने सोनू की पसंद का. मेरे हाथ का तो वहां रोज़ ही खाते हैं. मैं बाकी काम कर लेती हूं.” कहकर जया उसके हाथ में चाय का कप देकर किचन से निकल गई. उसका मन हल्का हो गया था. दिल और दिमाग़ पर छाई धुंध दूर्वा के स्नेह से छंट गई थी. आज सुबह के सूरज की चमकती किरणों ने उसके दिल के हर कोने को चमका दिया था. अभिभूत हो गई थी दूर्वा, कुछ न समझ आने वाले अंदाज़ में वह जया को जाते देखती रही.
- पूनम अहमद
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