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कहानी- उर्वरा (Short Story- Urvara)

विजया कठाले निबंधे

“... जीवन के अलग-अलग पायदानों पर हम बदलते रहते हैं. बस, हममें अपने हर वर्ज़न को स्वीकार करने का सामर्थ्य होना चाहिए. तुम्हारे जैसे ही बस कुछ कम सवाल मेरे मन में भी आए थे जब मैं समीर के समय गर्भवती थी...”

कहानियां बनाई या लिखी नहीं जा सकतीं, कहानियां तो बन जाती हैं और इन्हीं बनती-बिगड़ती कहानियों को जीवन कहा जाता है. अपनी ख़ुद की कहानी या जीवन से हम कुछ सीख पाएं या ना सीख पाएं, पर दूसरों की जीवन कथाएं हमें बहुत कुछ सिखा कर जाती हैं. शायद ऐसा इसलिए है, क्योंकि हम दूसरों की कहानियां ज़्यादा अच्छे से पढ़ पाते हैं. सुधा ऐसी ही अधपकी कहानी का हिस्सा है. अधपकी इसलिए, क्योंकि कहानियां पकने में समय लेती हैं. एक तरफ़ आज का तेज़ रफ़्तार जीवन है, जिसके अपने नियम-क़ानून हैं और दूसरी तरफ़ समय की धारा के इस वार का जीवन में ठहराव है, तो आइए जानते हैं हमारी सुधा किस तरफ़ खड़ी है.

सुबह-सुबह मुंबई में रहने वाली सुधा और समीर का घर किसी कारखाने से कम नहीं लगता, जहां मशीनी गति से सफ़ाई होती है, कपड़े धुलते हैं, नाश्ते व खाने के डिब्बे तैयार होते हैं. नौ बजे जब सुधा और समीर काम पर निकलते हैं, तो शायद यह खाली पड़ा घर भी आपाधापी से थक जाता होगा. घर चाहे थक जाए, दीवारें अलसा लें, पर सुधा और समीर वीकेंड अर्थात शनिवार-रविवार तक बीमार भी नहीं पड़ सकते. एक-दूसरे का हाल भी यह अपने-अपने दफ़्तर पहुंचने के बाद फोन पर लेते हैं.

घर का हर कोना इंटीरियर डिज़ाइनर ने बख़ूबी सजाया है. इस छोटे से फ्लैट में पेड़-पौधे भी बहुत हैं, जिनका ख़्याल रखने के लिए हर शनिवार माली भी आता है. वहीं पौधों वाली बालकनी में एक छोटा कोना है, जिसमें दो कुर्सियां और एक टेबल है. ये दोनों कुर्सियां अमूमन खाली ही पड़ी रहती हैं. इस घर में सब कुछ है, सिवाय वक़्त के.

सुधा एक आत्मनिर्भर युवती है. दिखने में औसत पर प्रभावशाली. पेशे से आर्किटेक्ट, अपने काम में कुशल... जब तक स्कूल-कॉलेज में थी गाती भी थी और बहुत अच्छी चित्रकार भी थी. पर जब से नौकरी लगी, तब से बस नपा-तुला जीवन ही जी रही है. अपने समय को घंटों, मिनटों और सेकेंडों में बांध लिया है. रचनात्मकता जोड़ना, घटाना, इंचेज़ और सेंटीमीटर में फंस कर रह गई. इस प्रवाह में वह कितनी तेज़ बह रही है, इसका उसे अंदाज़ तक नहीं है.

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सुधा और समीर का प्रेम विवाह पांच साल पहले हुआ था. प्रेम नामक मानवीय गुण का उपयोग आख़िरी बार उसने पांच साल पहले ही किया था. समीर भी एक फाइनेंशियल फर्म में बतौर सीए काम करता है. वह अक्सर अपने बिज़नेस टूर पर बाहर ही रहता है. दोनों का एक-दूसरे के जीवन में हस्तक्षेप ना के बराबर था.

ऐसे ही एक शनिवार जब समीर नहीं था, तब सुधा ने अपनी दो-चार सहेलियों को रात के खाने पर बुलाया. कुक ने खाना व स्टाटर्स सब तैयार कर दिए थे. तभी दरवाज़े की घंटी बजी. सुधा ने दरवाज़ा खोला, सामने सुधा की प्यारी सहेली पूजा थी.

“हेलो सुधा डियर, देख मैं क्या लाई हूं.” उसने एक वाइन की बोतल सुधा के हाथ में दे दी. पूजा बोली, “तेरी पसंदीदा वाइन... पूरे हफ़्ते की थकान उतर जाएगी.” सुधा अनमने ढंग से हंसी और बोतल हाथ में लेकर थैंक्यू कहा. पूजा ने कहा, “क्या हुआ तू ख़ुश नहीं है. कुछ और लाना चाहिए था क्या?” सुधा सोफे पर बेफ़िक्री से बैठते हुए बोली, “अरे नहीं... नहीं... मैं तो सोच रही थी कि थकान एक हफ़्ते की हो, तो उतर भी जाए, पर मुझे तो ऐसा लगता है मैं बरसों से थकी हुई हूं. कोई बड़ा बोझ है सिर पर. ना तो ढो पा रही हूं और ना ही उतार पा रही हूं.”

पूजा ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा, “क्या हुआ सुधा, मैं तो ऐसे ही मज़ाक कर रही थी. क्या तुम्हारे और समीर के बीच कुछ...” पूजा के हिचकिचाहट में पूछे गए सवाल को बीच में रोककर सुधा ने कहा, “अरे! नहीं... नहीं... वो तो बहुत अच्छा है. एक-दूसरे के साथ हम पूरे बन भी पाएं, इतना हम साथ में रहते ही नहीं हैं. कभी-कभी तो मुझे लगता है कि समीर बेचारा मेरे साथ फंस गया है. मैं और मेरे विचार बहुत जटिल हैं.” पूजा बोली, “सुधा मुझे लगता है हमें बात करनी चाहिए. बोल क्या सोच रही है.”

सुधा शायद कुछ बोलने हो वाली थी कि पूजा के फोन की घंटी बजी.

पूजा बोली, “सुधा एक मिनट दे. यह फोन उठाना पड़ेगा बॉस का है. पता नहीं छुट्टी के दिन भी क्या चाहता है मुझसे.”

इतना कहकर पूजा हड़बड़ी में बालकनी में चली गई. 15-20 मिनट के बाद जब वह बाहर आई, तब हॉल में सुषमा और प्रिया भी बैठे हुए थे.

धीरे-धीरे दावत शुरू हुई. बातें, खाना-पीना, एक-दो गेम भी खेले गए. इसी बीच सुषमा का फोन बजा. उसने फोन उठाया और अपने आठ महीने के बच्चे की आया से बात करने लगी. फोन रखकर सुषमा लौटी और बोली, “सॉरी यारों, दरअसल आया को बच्चे की नैपी और दूध की बॉटल नहीं मिल रही थी. बच्चे के बाद शरीर, जीवन सब बदल जाता है. पर सच कहूं मां बनने से बड़ा कोई सुख नहीं है...” सुषमा आगे बोल ही रही थी कि सुधा कुछ असहज होकर उठी और बोली, “चलो मैं खाना लगाती हूं, खाना खा लेते हैं.”

सबके जाने के बाद रात को सुधा बहुत परेशान थी. हर बार उसका मन करता कि किसी से बात करूं. अपने दिल की कशमकश बस किसी के सामने उड़ेल दूं. मन किसी बौराए मृग सा इधर-उधर दौड़ रहा था. पर बात किससे की जाए... समीर शहर में था नहीं. अपनी किसी दोस्त से वह बात करना नहीं चाहती थी.

मां को फोन लगाने को सोचती, तो लगता मां फिर वही, ‘बच्चा कर लो... बच्चा कर लो...’ का मंत्र जपना शुरू कर देगी. समीर की मां का ख़्याल भी उसके दिमाग़ में आया, जो बहुत ही समझदार और शांत स्वभाव की थीं. वे अक्सर अपनी समाज सेवा और घर के कामों में व्यस्त रहतीं. पर उनका और सुधा का ना अच्छा और ना ही बुरा कोई संबंध बन पाया था.

आख़िर में ख़ुद पर खिसियाते हुए अपने मन के भीतर की झुंझलाहट और बेचैनी लिए सुधा सोने चली गई. दूसरे दिन उठी, तो उसके भीतर के धधकते गुप्त ज्वालामुखी शांत हो चुके थे. कुछ ही देर में समीर भी लौट आया.

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नाश्ते के टेबल पर समीर ने कहा, “सुधा, मुझे एक महीने के लिए दिल्ली ऑफिस में काम करने के लिए कहा गया है. अगले हफ़्ते मैं एक महीने के लिए दिल्ली शिफ्ट हो जाऊंगा. मम्मी-पापा भी ख़ुश हो जाएंगे. दस दिनों में यहां पर भी एक चक्कर लगा लूंगा.” सुधा गहरी सोच में पड़ गई और बोली, “समीर एक महीना... मैं यहां क्या करूंगी?” समीर यह सुनते ही अपनी कुर्सी से उठा और सुधा के कंधों को पकड़कर बोला, “सुधा यह तुम्हें क्या हुआ है? तुम तो हमेशा अकेली ही रहती हो, अपना काम करो... ऑफिस जाओ... फ्रेंड्स को वीकेंड पर घर बुलाओ.”

सुधा उठकर समीर की ओर मुड़ी और बोली, “हां समीर, पहले मैं ये सब करती थी, पर अब नहीं हो रहा है. मैं कुछ तो मिस कर रही हूं. पता नहीं क्या है, पर कुछ छूट रहा है. कचोट रहा है...”

समीर ने हंसते हुए कहा, “यह क्या बच्चों जैसे बातें कर रही हो... तुम स्मार्ट हो सुधा.. तुम्हें हमेशा पता होता है, तुम्हें क्या चाहिए. और अब इसका कोई हल भी तो नहीं. मुझे तो जाना पड़ेगा ना. चलो आज ऑफिस में मुझे एक रिपार्ट देने जाना है, आकर बात करते हैं.”

समीर नहाने चला गया. सुधा वहीं टेबल पर अपने विचारों के साथ बैठी रही. सुधा सोच रही थी, ‘समीर सच ही कह रहा है. मैं ऐसी नहीं हूं. कुछ सोचने-समझने की ज़रूरत नहीं है. जो भी हमने अपने जीवन के बारे में सोच रखा है अच्छा है... पर फिर मैं इतनी खाली सी क्यों हूं? क्यों मैं अपने जीवन को समेट नहीं पा रही? क्या वाकई एक मां बनना...’ इतना सोचना था कि सुधा ने ख़ुद को डांटा, “बस... बस... ऐसा कुछ नहीं है... मैं भी क्या सोच रही हूं.”

इस बात को दो-तीन दिन बीत गए. एक शाम सुधा और समीर रात को खाने की टेबल पर बैठे थे. सुधा ने बात शुरू की, “समीर, मैंने अपने बॉस से अगले एक महीने के लिए वर्क फ्रॉम होम की परमिशन ले ली है. मैं भी तुम्हारे साथ दिल्ली आ रही हूं. मैं अपने मम्मी-पापा के साथ उनके घर पर रह लूंगी.”

यह सुनकर समीर ने कहा, “क्या बात है. यह तो तुम्हारा नया ही अवतार है. चलो ये भी अच्छा है, मुझे बार-बार मुंबई नहीं आना पड़ेगा.”

बस फिर क्या था दोनों अगले ही हफ़्ते अपने-अपने घर दिल्ली पहुंच गए. सुधा को पता नहीं था कि अब उसके जीवन का असली संग्राम शुरू होने वाला था. जिस मोती की तलाश में सुधा ने इतनी गहराई में गोता लगाया था, क्या वह उसे मिल पाएगा? दरअसल, वह अकेलेपन से घबराकर समीर के पीछे यहां तक नहीं आई थी, बात कुछ और ही थी. अब यहां से शायद सुधा की अधपकी कहानी नया मोड़ लेने वाली थी. दिल्ली पहुंचते ही समीर का उसके घर पर और सुधा का उसके घर पर अच्छा स्वागत हुआ. दोनों को अपना काम शुरू किए एक हफ़्ता हो गया था. समीर के घर पर उसकी मां बहुत ख़ुश थीं. रोज़ समीर की पसंद के पकवान बन रहे थे. समीर की मां बहुत सुलझी स्त्री थीं. वह शिक्षिका थीं. उन्होंने अपना जीवन बहुत सरल और ख़ुशहाल तरी़के से बिताया था. उनके जीवन में अपेक्षाओं की जटिलता कुछ कम ही थी. एक दोपहर वह अपने एनजीओ का कुछ काम कर रही थीं, तभी दरवाज़े की घंटी बजी. उन्होंने दरवाज़ा खोला, तो सामने सुधा थी.

अपने सामान के साथ कुछ तमतमाया सा चेहरा, शायद रो कर भी आ रही थी.

“क्या हुआ सुधा बेटा... तुम यहां पर कैसे?” समीर की मां ने पूछा. सुधा अंदर आते-आते बोल रही थी, “कुछ नहीं हुआ मां, क्या मैं यहां बिना कुछ हुए नहीं आ सकती... अगर आपको परेशानी है, तो मैं मुंबई वापस चली जाती हूं...” समीर की मां ने सुधा को पानी दिया. उसकी पीठ फेरते हुए कहा, “अरे, ऐसे कैसे मुंबई चली जाओगी. तुम्हारा अपना घर है ये. हक़ से रहो, मज़े करो बेटा... जाओ अपने कमरे में जाकर आराम करो. बाद में बात करेंगे.”

अभी सुधा कमरे में गई ही थी कि समीर की मां के फोन की घंटी बजी. फोन सुधा के मां का था. समीर की मां ने फोन उठाकर कहा, “नमस्ते उमा जी, कैसी हैं आप?” वहां से सुधा की मां ने कहा, “नमस्ते जी, क्या खाक ठीक रहूंगी मैं. सुधा आई होगी वहां, कुछ बताया उसने आपको? आजकल के बच्चे ज़रा कुछ बोल दो, तो हमें ही दुश्मन बना देते हैं. आप ही बताइए शादी को पांच साल हो गए हैं, क्या अब तक एक बच्चा नहीं हो जाना चाहिए था? अगर कुछ समस्या है, तो कम से कम वो तो बताए... पर बात ही नहीं करना चाहती. बच्चे की बात निकालो तो अस्त-व्यस्त हो जाती है. और आज तो हद ही हो गई. रोते-रोते घर छोड़कर ही चली गई.” इतना कहकर सुधा की मां भी रोने लगीं.

समीर की मां ने कहा, “आप चिंता ना करें, वो यहां आ गई है. मैं उससे बात करती हूं.”

सुधा जब उठकर रसोई में आई, तो समीर की मां चाय बना रही थीं. सुधा को देखकर वह बोलीं, “सुधा यह लो चाय. सोकर आ रही हो, या रो कर...”

सुधा आंखें चुराते हुए बोली, “मां सॉरी, आप ग़ुस्सा हो क्या? मैंने बहुत बदतमीज़ी से बात की आपसे...”

समीर की मां ने सुधा के पास बैठकर कहा, “हां ग़ुस्सा तो हूं... तुम मुंबई से मेरे लिए कुछ नहीं लाई.” इतना कहकर दोनों ही हंसने लगीं. समीर की मां बोलीं, “अच्छा सुधा बताओ, क्या खाओगी. आज खाने पर तुम और मैं ही हैं. पापा उनके क्लब में खाना खाएंगे और समीर दोस्तों के साथ. तुम्हें क्या पसंद है?”

सुधा ने कहा, “मां खिचड़ी ही बना दीजिए, बहुत दिन हो गए खाए.”

सुधा ने आगे बहुत सकुचाते हुए कहा, “मां, क्या मेरी मम्मी का फोन आया था आपको. उनसे कुछ बात हुई?”

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समीर की मां ने कहा, “हां.. मेरी बात हुई उनसे.” सुधा जैसे किसी बड़े उत्तर की अपेक्षा कर रही थी, उसने कहा, “मां, आप तो मेरी सास हैं. आपने कभी मुझसे क्यों नहीं पूछा कि हम बच्चे क्यों नहीं कर लेते. मैं मां क्यों नहीं बनती.” यह कहकर समीर की मां के गले लिपटकर फूट-फूटकर रोने लगी मानो सालों पुराना कोई दर्द बह रहा हो. समीर की मां धैर्य से सुधा का रुदन सुनती रहीं, फिर कहा, “क्या बात है सुधा..? क्या चाहती हो बोलो, मैं तुम्हारा साथ दूंगी.”

“मां वही तो नहीं पता... यह सब मुझे अंदर ही अंदर जला रहा है.. कुछ समय पहले तक सब ठीक था. मैं कभी भी बच्चा नहीं चाहती थी. मेरा दिल मेरे दिमाग़ का साथ दे रहा था. अब मेरे अंदर के युद्ध में मैं रोज़ एक नई मौत मर रही हूं. किसी के गर्भवती होने की ख़बर सुनती हूं तो अच्छा नहीं लगता. कोई अपने बच्चे के बारे में बात करता है, तो मन करता है वहां से भाग जाऊं. मन में ख़्याल आते हैं कि अगर मैं गर्भवती हो गई तो? मन में बच्चे की प्यारी हंसी गूंजती है, मां यह मैं नहीं हूं... मैं बहुत सुलझी हूं, मेरा करियर, मेरा शरीर मेरे लिए सब कुछ है. बच्चा झंझट है, इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी... अगर मैं उसे सबसे बेस्ट एजुकेशन ना दे पाई... अगर मैं मोटी-भद्दी हो गई तो... और अगर...” उसकी बात को बीच में काटते हुए समीर को मां ने कहा, “सुधा, इतने अगर-मगर के साथ जीवन में आगे नहीं बढ़ा जा सकता.”

“हम्म्मम!”

“तो तुम इतना दूर अपनी भावनाओं को वैलीडेट करने आई हो.”

“कैसी भावनाएं..?” सुधा ने कहा.

“सुधा तुम जानती हो तुम क्या हो. किसी और के मुंह से सुनना चाहती हो. बेटा वह भी तुम ही थी जो बच्चा नहीं चाहती थी और यह भी तुम ही हो जो आज परेशान हो. हम हमेशा एक जैसे थोड़े ही रहते हैं. जीवन के अलग-अलग पायदानों पर हम बदलते रहते हैं. बस, हममें अपने हर वर्ज़न को स्वीकार करने का सामर्थ्य होना चाहिए. तुम्हारे जैसे ही बस कुछ कम सवाल मेरे मन में भी आए थे जब मैं समीर के समय गर्भवती थी. मैं नहीं जानती मैं जो तुम्हें कहने वाली हूं, वह सबके लिए सही है या ग़लत, पर यह मेरा अनुभव है. जीवन बहुत सुंदर है और जब यह जीवन हमारे शरीर के भीतर पलता है, तो उससे बेहतर कुछ भी नहीं. जीवन अपना मार्ग ढूंढ़ ही लेता है. जो तुम्हें महसूस हो रहा है वह बहुत ही सहज है और स्वाभाविक है.”

“मां, बनना, परिवार बनाना, उसे सहेजना... यह एक स्त्री की स्वाभाविक प्रवृत्ति है. तुम क्या कहते हो नैचुरल इंस्टिंक्ट है. उससे घबराओ मत. भविष्य में आनेवाली चुनौतियों के बारे में इतना मत सोचो कि वर्तमान प्रताड़ित होने लगे. तुम्हें पता है सुधा जब मैं गर्भवती थी, तब मैं सबसे ज़्यादा साहसी और सुंदर महसूस करती थी. मां बनना आपके अंदर के साहस को बढ़ा देता है. और ज़िम्मेदारी के बारे में परेशान मत हो, मैं हूं, समीर है, तुम्हारी मां हैं और सबसे महत्वपूर्ण तुम हो... तुम सब कर लोगी, मुझे विश्‍वास है. और सबसे पहले इन सबका बोझ लेना बंद करो. किसी ने बंदूक नहीं तानी है.” इतना कहकर समीर की मां ने सुधा को गले लगाया और आगे कहा, “ओह! अब तो सुधा खिचड़ी बनने से रही. चलो बाहर जाकर खाना खाते हैं. कार तो चला लेती हो ना..?”

सुधा हंसते हुए बोली, “हां मां.”

सुधा अब कुछ हल्का महसूस कर रही थी. एक महीने बाद जब समीर-सुधा वापस जा रहे थे, तब सुधा समीर की मां के गले से लगकर बोली, “मां थैंक्स! अब मैं चाहती हूं कि मेरे पास भी ऐसा कोई हो, जो मेरी तरह बात करे. मैं जान गई हूं हम स्त्रियों को उर्वरा होने का वरदान मिला है, जिसमें बहुत शक्ति है. मुझे पता है अब मैं क्या चाहती हूं.” उस दिन सुधा समीर की मां से अपना उर्वरा होने का वरदान लेकर जा रही थी.

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