सुनीता के पत्रों का सिलसिला चलता रहा, अब तो वे पत्र प्रेम भीगे रहने लगे. इससे नीता को ईर्ष्या होने लगी. हालांकि ऋषि इन बातों को सामान्य ढंग से ही लेते. अब वह उनकी हर गतिविधि, हर लेखनी पर अपनी संदेह की नज़र रखने लगी, तो ऋषि ने उसे समझाया कि एक लेखक के जीवन में इस तरह के वाकये होते ही रहते हैं. पर नीता पर तो संदेह का भूत सवार था.

खिड़की से आती हुई रोशनी से उसकी नींद टूट गई, उसने बिस्तर पर उठकर बैठते हुए एक अलसाई हुई अंगड़ाई ली. उसकी नज़र घड़ी की तरफ़ गई. सात बजने को थे. उसने सोचा, थोड़ा और सो लिया जाए, छुट्टी का दिन था, नहीं तो अब तक तो वह नहा चुकी होती. अधमुंदी पलकों से उसने स्वयं को बिस्तर पर ढीला छोड़ दिया. सप्ताह में यही एक दिन था, जो आराम के लिए तय था, लेकिन उसका यही दिन उसके लिए बड़ा कठिन भी था. अकेलेपन का एहसास बढ़ जाता था. पुराने घाव हरे हो जाते थे.
तभी घंटी की आवाज़ ने उसे चौंका दिया. उठकर दरवाज़ा खोला, देखा, रमिया थी. फिर आकर पलंग पर लेट गई. उसे याद हो आया, जब ऋषि साथ थे तो छुट्टी का दिन जैसे पंख लगाकर उड़ जाया करता था. दोनों सुबह देर तक सोते. फिर आराम से उठकर चाय बनाते, खाते-पीते, अख़बार पढ़ते फिर दोनों मिलकर खाना बनाते, साथ-साथ खाते, फिर सो जाते. दोपहर के बाद शॉपिंग के लिए निकलते. चाट खाते, फिर आइस्क्रीम और इवनिंग शो में पिक्चर, उसके बाद किसी अच्छे से होटल में डिनर, वापस आकर थकेहारे एक-दूसरे को बांहों में बेसुध सो जाते.
"बीबीजी चाय."
"..." उसकी तन्द्रा टूटी. रमिया चाय लिए खड़ी थी. उसने देखा, उसके दोनों हाथ तकिए को सीने से दबाए हुए थे. तकिए को एक तरफ़ रखकर उसने एक लंबी आह भरी. फिर उठकर मुंह धोया और चाय की चुस्कियां लेने लगी.
बाहर चहल-पहल शुरू हो गई थी. उसी ताल में रमिया की किचन में बर्तनों के साथ खट-पट भी जारी थी. उसने खिड़की के पास जाकर देखा. ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी. लगता था, तेज बारिश होनेवाली थी. बादलों की गड़गड़ाहट भी शुरू हो गई थी. काले-काले बादलों के बीच सूरज छिपता जा रहा था. अंधकार छाने लगा था. उसके भीतर भी तो ऐसा ही अंधकार फैला था. बारिश के समाप्त होते ही बादल छंट जाएंगे और सूरज अपनी रोशनी बिखेरता हुआ फिर से बीना ताने निकल पड़ेगा.
परन्तु उसके जीवन में फैले इस अंधकार को मिटाने के लिए रोशनी की एक भी किरण नहीं आएगी. बारिश की नन्हीं-नन्हीं बूंदें आकर उसे भिगोने लगीं, तो वह खिड़की के पास से हट गई.
रमिया उसके नहाने की जल्दी मचा दी. वह नहा ले तो नाश्ता कराकर, कपड़े आदि धोकर, भोजन बनाकर रमिया जल्दी घर चले जाना चाहती थी. दोपहर के बाद उसकी छुट्टी रहती.
थोड़ी देर जोरों से बरस कर पानी अब थम गया था. वह अपने बालों को संवार रही थी कि घंटी बजी. रमिया ने दरवाज़ा खोला, उसने देखा, शैल आई थी. उसे अच्छा लगा. चलो, कुछ देर को तो दिल को सुकून मिलेगा.
"क्या हो रहा है... भई, बड़े आराम से ख़ुद को सजाया जा रहा है. अरे, खुदा ने तुम्हें वैसे ही हसीन बनाया है, सजने की कोई ज़रूरत नहीं."
शैल हंसते हुए बोली तो वह भी हंस पड़ी. रमिया चाय बना लाई. दोनों चाय पीते हुए बतियाती रहीं. नीता और शैल दोनों अंतरंग सहेलियां थीं. दोनों एक ही कॉलेज में पढ़ाती थीं. शैल बिंदास स्वभाव की आधुनिक विचारों से ओतप्रोत थी, जबकि नीता भारतीय संस्कृति की मूरत थी. स्वभाव से गंभीर व भावुक.
शैल उसे समझाती, जो हुआ उसे भूल जाओ. नए सिरे से अपना जीवन शुरू करो.
परन्तु, क्या इतना आसान है सब कुछ भुला पाना! उन दिनों, उन रातों को, जो उसने व ऋषि ने एक साथ गुज़ारे थे. वे प्यार के सुनहरे पल, जो उसकी झोली से एकाएक फिसल कर गिर पड़े थे. शैल अक्सर उससे कहती, "अब वो ज़माना लद गया, जब पुरुष स्त्री को अपने पैर की जूती समझता था. आज नारी और पुरुष के अधिकार समान है. पुरुष जो मन में आए कर सकता है तो नारी क्यों नहीं?
पर, उसे यह सब अच्छा नहीं लगता था. वह तो अपनी पुरानी संस्कृति व रीति-रिवाजों पर ही विश्वास रखती थी.
"अरे भई, कहां खो गई तुम? चलो फटाफट तैयार हो जाओ, कुछ शॉपिंग कर आएं. आज कोई ज़िद नहीं चलेगी. आज मैं तुम्हें लेकर ही जाऊंगी." शैल ने कहा तो हार मान कर वह तैयार होने चली गई. रमिया ने आकर पूछा, "बीबीजी, खाने में क्या बनेगा?" बीच में ही शैल बोल पड़ी, "आज खाना हम बाहर ही खा लेंगे." उसने रमिया को छुट्टी दे दी तो रमिया ख़ुश होती हुई चली गई.
बारिश पूरी तरह से थम चुकी थी. शॉपिंग सेंटर जाकर थोड़ी-बहुत ख़रीदी की, फिर दोनों पार्क चली आई. वहां हल्का-फुल्का नाश्ता किया, कॉफी पी. अचानक जैसे शैल को कुछ याद आ गया. वह बोली, "पास ही दूर के रिश्ते के भाई रहते हैं. अब यहां तक आए तो चलो, उनका हालचाल भी पूछ आएं." उसने अचकचा कर हामी भरी.
वहां पहुंचे तो देखा, नितिन अधलेटा सा कुछ पढ़ रहा था. दोनों को आता देख वह चौक पड़ा, "आओ शैल, अचानक हमारी याद कैसे आ गई?"
"इधर से गुज़र रहे थे तो सोचा, चलो आज भाईसाहब से भी मिल लिया जाए. इनसे मिली, ये हैं हमारे कॉलेज की हिन्दी की लेक्चरर नीता."
आपस में नमस्कार आदि हुए, नितिन ने चाय-कॉफी के लिए कहा तो उन्हेंने मना किया. घड़ी की तराफ देखकर नितिन बोला, "अगर आप लोग फ्री हों तो पिक्चर ही देख लिया जाए."
शैल ख़ुशी से उछल पड़ी. उसकी ज़िद पर नीता को भी न चाहते हुए जाना पड़ा.
सिनेमा हॉल के पास के ही होटल में उन्होंने लंच लिया. फिर समय होते ही वे हॉल में आ गए. उसे नितिन के पास की जगह मिली. फिल्म शुरू हुई. अंधेरा होते ही उसे लगा. नितिन का हाथ उसके हाथ पर आ लगा है. उसे लगा शायद ग़लती से ऐसा हो गया हो, परन्तु फिर धीरे-धीर नितिन की हरकतें बढ़ने लगीं. पहले तो उसकी इच्छा हुई उठकर चली जाए, पर संकोचवश यह सोचकर बैठी रही कि शैल क्या कहेगी. इंटरवेल में उसने बहाना कर जगह बदल ली. उसका मन फिल्म में कतई न लगा.
घर पहुंचकर पर्स पलंग पर फेंकवर वह औंधे लेटते हुए फफक-फफक कर रो पड़ी. अकेली औरत की इस दुनिया में कोई कदर नहीं. वहशी मर्द, औरत को अकेली पाकर भेड़िये की तरह उसे दबोचना चाहते हैं. उसे ऋषि की बहुत याद आई. आज वे होते तो क्या इस तरह के हालात होते. ऋषि को छोड़ने में उसने जल्दबाज़ी की, ऋषि का नाम ज़ेहन में आते ही वह पिछली यादों में खो गई.
ऋषि बैंक में सर्विस करते थे. उनका निकट का कोई रिश्तेदार न था. उसे देखते ही ऋषि ने ब्याह के लिए हां कह दी थी. ऋषि उसे बहुत चाहते थे. वे बहुत अच्छी कहानियां लिखते, जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में व रेडियो पर आती रहती थीं. उसे काफ़ी ख़ुशी होती थी. अपने साहित्यप्रेमी व बुद्धिमान पति पर उसे गर्व भी था. धरि-धीरे ऋषि की कहानी के क्षेत्र में काफ़ी यश मिला. उनके नाम रोज़ काफ़ी फैन मेल आने लगे, विशेषकर सुनीता नाम की किसी लड़की के, ख़ुशबू भरे रंग-बिरंगे लिफ़ाफ़े में अक्सर पत्र आते. ऋषि सारे पत्र उसे पढ़ा देते. वह बड़ी ख़ुशी से पढ़ती. सुनीता का पत्र आने पर एक बार मज़ाक में बोल पड़ी, "देख लो, तुम्हारे अलावा भी हमारे कई दीवाने हैं." वे हंस पड़े. बाद में बोले, "कच्ची उम्र की कोई छात्रा है, जो उनकी कहानियों को पढ़कर भावुकतावश पत्र लिखती है." वैसे तो उन पत्रों में ख़ास बात न थी, पर हां, सम्बोधन व अंत प्यार भरा रहता. शुरू में उसे कुछ न लगा, पर एक बार उसने अपनी पड़ोसन मित्रा को यह बात बताई तो मित्रा ने उसके कान भरने शुरू कर दिए.
"देख लेना, भाईसाहब एक दिन भटक जाएंगे."
सुनीता के पत्रों का सिलसिला चलता रहा, अब तो वे पत्र प्रेम भीगे रहने लगे. इससे नीता को ईर्ष्या होने लगी. हालांकि ऋषि इन बातों को सामान्य ढंग से ही लेते. अब वह उनकी हर गतिविधि, हर लेखनी पर अपनी संदेह की नज़र रखने लगी, तो ऋषि ने उसे समझाया कि एक लेखक के जीवन में इस तरह के वाकये होते ही रहते हैं. पर नीता पर तो संदेह का भूत सवार था. अब उनमें दिन-ब-दिन अनबन बढ़ने लगी. पहले तो वे अलग सोने लगे, फिर बातचीत बंद.
इसी दौरान एक दिन हुए ज़ोरदार झगड़े में वह वहां से चली आई. कुछ दिनों बाद उसने सर्विस के लिए अप्लाई किया. हिन्दी में प्रथम श्रेणी में एम.ए. होने के कारण यहां उसे गर्ल्स कॉलेज में लेक्चरर की सर्विस मिल गई. इसके बाद वह यहीं पर बस गई. कुछ दिनों बाद ग़ुस्सा शांत होने पर उसे लगा, ऋषि लेने आएंगे. उधर ऋषि ने सोचा, वह ख़ुद आएगी. इसी उहापोह ने उनके संबंधों की दूरी और बढ़ा दी. दूसरे दिन जब वह कॉलेज जा रही थी तो पास के रेस्तरां में उसने देखा, ऋषि किसी जवान लड़की के साथ बैठकर चाय पीते हुए ठहाके लगा रहा है. उसने मुंह मोड़ लिया. फिर से मन ने विद्रोह शुरू किया. मर्द होते ही ऐसे हैं.
दो पीरियड जैसे-तैसे उसने समाप्त किए. फिर सिरदर्द होने लगा तो हाफ डे की छुट्टी लिखकर घर चली आई. रमिया से चाय बनाने को कहकर सिरदर्द की गोली लेकर पलंग पर सो गई. उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. कमरा जैसे घूमता हुआ नज़र आ रहा था.
तभी घंटी की आवाज़ ने उसे चौका दिया. फिर रमिया के किवाड़ खोलने की आवाज़ आई. रमिया आकर कह रही है, "कोई साहब आपसे मिलना चाह रहे है. बाहर से आए हैं."
वह मुश्किल से उठकर खड़ी हुई. धीमे क़दमों से चलकर ड्रॉइंगरूम में पहुंची तो अवाक् रह गई. देखा, ऋषि खड़े हैं.
पहले तो लगा, यह दौड़ कर उनसे लिपटी जाएगी. मुक्के मार-मारकर कहेंगी, कहां थे अब तक? क्यों तड़पाया मुझे इतना?
पर एकाएक सवेरे की रेस्तरां वाली घटना याद आते ही उसके कदम ठिठक गए, मुख के भाव बदल गए.
"कैसी हो नीतू? अब तक नाराज़ हो मुझसे?" ऋषि भावुक होकर कह रहे थे. लगता था, जैसे अभी रो पड़ेंगे. वह वैसे ही दरवाज़े पर खड़ी थी. मन का अहं उसे आगे नहीं बढ़ने दे रहा था. वह मन में अपने आप से कह रही थी, 'अब जाओ न उसी रेस्तरां वाली लड़की के पास. यहां क्यों आए हो?'
ऋषि आगे कह रहे थे, "तुम चली गई तो मेरा जीवन ही सूना हो गया. कितना ढूंढ़ा तुम्हे. अख़बारों में भी इस्तिहार दिए, पर तुम कहीं नहीं मिली. आज रिश्ते की बहन का दाख़िला कॉलेज में करवाने इस शहर में आया तो पता चला, तुम यहां लेक्चरर हो. कॉलेज से ही तुम्हारा पता लेकर दौड़ा चला आया. मेरे साथ चलो नीतू, तुम्हारे बिना मेरा जीवन अधूरा है. तुम्हें मेरा कहानी लिखना पसंद नहीं था न, अब मैंने लिखना बंद कर दिया है." कहते-कहते ऋषि रो पड़े.
वह लड़खड़ाती हुई दौड़ी-दौड़ी आई और ऋषि के पांव में गिर पड़ी. ऋषि ने उसे बांहों में भर लिया. वह आंसू भरी आंखों से ऋषि को देखते हुए रुंधे गले से बोल पड़ी, "मुझे माफ़ कर दो ऋषि, तुम्हें ख़ूब नाम कमाना है."
"पर तुम्हें पसंद..." ऋषि को बीच में ही रोकते हुए बोली वह, "चुप, अब कुछ नहीं कहोगे तुम. अब किसी सुनीता का पत्र आने पर मैं नाराज़ न होऊंगी."
दोनों ठहाके लगाकर हंस पड़े. बाहर जोरों से बारिश हो रही थी.
- भारती राजा