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कहानी- वट पूजा (Short Story- Vat Puja)

लेकिन शंभवी अब भी अमोल की तरफ़ न देखकर सामनेवाले बरगद के पेड़ को ही देखे जा रही थी. वह जानती थी कि इस समय अमोल के चेहरे पर कुछ-कुछ याचना के भाव होंगे और विश्‍वास से दमकते जिस चेहरे ने आज तक उसे संबल दिया है, ‘चाहने’ की कमज़ोरी से ऊपर उठाकर उसे ‘देने’ के लायक बनाया है, आज उसी चेहरे पर वह ‘चाहने’ की कमज़ोरी नहीं देख पाएगी.

“हम इसीलिए तो दुखी नहीं रहते हैं, बल्कि टूटते जाते हैं, क्योंकि अपने बहुत ख़ास रिश्तों से हमें जो अपेक्षा होती है, वो पूरी नहीं हो पाती. मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि हमारे बीच अच्छी अंडरस्टैंडिंग है, हम एक-दूसरे को अच्छी तरह से समझते हैं, एक-दूसरे के सुख-दुख बांटते हैं, हमें एक-दूसरे पर भरोसा है, यही काफ़ी है. फिर अपने रिश्तों में बेकार उलझनें बढ़ाकर क्या फ़ायदा?
हर रिश्ते से कोई न कोई अपेक्षा होती है अमोल. रिश्ते का दूसरा नाम ही अपेक्षा है. जहां रिश्ता होता है, वहां न चाहते हुए भी अपेक्षा अपने आप ही रिश्तों को घेर कर खड़ी हो जाती है और इतनी तेज़ी से बढ़ती जाती है कि रिश्ते का दम ही घुट जाता है और हमारा भी. और एक दिन ख़ुद को बचाने के लिए हमें रिश्ता तोड़ देना पड़ता है. मैं नहीं चाहती कि हमारे बीच भी ऐसा कुछ हो.”
शंभवी ने अमोल की ओर न देखकर सामने लगे बरगद (वट) के विशालकाय पेड़ को देखते हुए कहा.
“मैं वादा करता हूं, अपने रिश्ते में तुमसे कभी कोई अपेक्षा नहीं रखूंगा. बस, एक सांत्वना चाहता हूं कि तुम...” आगे अमोल के शब्द कहीं खो गए, पर उसकी आंखें बराबर शंभवी के चेहरे पर टिकी थीं. लेकिन शंभवी अब भी अमोल की तरफ़ न देखकर सामनेवाले बरगद के पेड़ को ही देखे जा रही थी. वह जानती थी कि इस समय अमोल के चेहरे पर कुछ-कुछ याचना के भाव होंगे और विश्‍वास से दमकते जिस चेहरे ने आज तक उसे संबल दिया है, ‘चाहने’ की कमज़ोरी से ऊपर उठाकर उसे ‘देने’ के लायक बनाया है, आज उसी चेहरे पर वह ‘चाहने’ की कमज़ोरी नहीं देख पाएगी.
“हम इसीलिए तो दुखी नहीं रहते हैं, बल्कि टूटते जाते हैं, क्योंकि अपने बहुत ख़ास रिश्तों से हमें जो अपेक्षा होती है, वो पूरी नहीं हो पाती. मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि हमारे बीच अच्छी अंडरस्टैंडिंग है, हम एक-दूसरे को अच्छी तरह से समझते हैं, एक-दूसरे के सुख-दुख बांटते हैं, हमें एक-दूसरे पर भरोसा है, यही काफ़ी है. फिर अपने रिश्तों में बेकार उलझनें बढ़ाकर क्या फ़ायदा? हम उस स्टेज पर नहीं हैं, जहां अपने रिश्ते को कोई अंजाम दे पाएंगे. हम दोनों ही अपनी-अपनी धुरियों से बंधे हुए हैं, वहां से उखड़कर नई धुरी पर पांव जमा पाना मुश्किल होगा.” बरगद के पे़ड़ से नज़रें हटाकर अमोल के चेहरे पर उन्हें जमाते हुए शंभवी ने अपनी बात कही.
“मैं धुरियों से उखड़ने को नहीं कह रहा हूं, मगर कुछ देर के लिए हम एक-दूसरे का हाथ तो थाम ही सकते हैं ना. अपनी-अपनी धुरियों पर जमे रहने के लिए शायद कुछ सहारा, कुछ बल ही मिल जाएगा.” शंभवी के चेहरे का तनाव कुछ ढीला हुआ. “सहारा और बल तो आज भी है ही. हम दोनों एक-दूसरे के साथ से ख़ुश हैं, क्योंकि हमारे बीच कोई रिश्ता नहीं है. जिस दिन हम दोनों के बीच की भावनाओं को कोई नाम मिल जाएगा, हम एक रिश्ते में बंध जाएंगे और शुरू हो जाएगा एक-दूसरे से अपेक्षाओं का सिलसिला, जो आख़िर में घूमते हुए हमें इसी मोड़ पर छोड़ जाएगा, जहां आज हम अपने-अपने वर्तमान रिश्तों के साथ खड़े हैं. बेहतर होगा कि एक-दूसरे के प्रति जो हमारे मन में आज सम्मान है, उसे कोई भी नाम न दें.”
अमोल के चेहरे पर पलभर पहले जो कमज़ोरी के ‘कुछ चाहने’ के भाव आए थे, वे दूर हो गए और उसका चेहरा फिर विश्‍वास से चमकने लगा.
“तुम मुझे कितनी अच्छी तरह समझती हो शंभवी. मेरी पलभर की कमज़ोरी को भी तुमने कितने सहज तरी़के से दूर कर दिया.” अमोल ने शंभवी का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा. उस दिन अमोल के जाने के बाद भी देर तक शंभवी बगीचे की बेंच पर बैठकर बरगद के उस विशाल व म़ज़बूत पेड़ को देखती रही. बड़े घेरे में फैले हुए इस पेड़ की जड़ें चारों ओर से ज़मीन में उतरकर मुख्य तने को सहारा दे रही थीं. और अचानक शंभवी ने सोचा कि काश, रिश्ते भी बरगद के पेड़ की तरह होते- विशाल, मज़बूत, जिनकी जड़ें इतनी गहरी हों कि बड़ी से बड़ी आंधी भी उन्हें हिला न पाए और जो इतनी प्राणवायु पैदा करें कि उनमें बंधनेवालों का दम कभी भी न घुटे, बल्कि रिश्तों से पैदा हुई ऑक्सीजन उनमें हमेशा ऊर्जा और ताज़गी का संचार करती रहे. उन्हें छांव देती रहे, ताकि वे विपरीत परिस्थितियों में भी कुम्हलाएं नहीं.
परसों वट पूर्णिमा है, लेकिन शंभवी में कोई उत्साह नहीं है. वह ये सब ढोंग क्यों करे? किसके लिए? कोई तीज-त्योहार नहीं मनाती. जब रिश्ते में कुछ बचा ही नहीं है, तो फिर ये सब... और न चाहते हुए भी शंभवी के मुख से एक गहरी निश्‍वास निकल गई. उसके और अमर के रिश्ते की तो जड़ ही नहीं है. पता नहीं कब अपनी ज़मीन से उखड़कर उनका रिश्ता, उनके जीवन में अवांछित-सा औंधा पड़ा हुआ है, जिसे वह चाहकर भी न तो पुनः ज़मीन में रोप पा रही है और न ही उखाड़कर फेंक पा रही है. पता नहीं ज़मीन के किस अनछुए कोने में बिना जड़ और पत्तियों का उनका रिश्ता एक ठूंठ की तरह पड़ा हुआ है.
अमोल की अपने रिश्ते से ‘स्पेस’ की जो अपेक्षा थी, वो उसे कभी नहीं मिला. अमोल सांस लेने के लिए थोड़ा-सा स्पेस चाहता था. उसके लिए रिश्ते में थोड़ा स्पेस का होना बहुत ज़रूरी था. स्पेस मिलने पर वह रिश्तों को बेहतर ढंग से निभाने के बारे में सोच सकता था. अनन्या रिश्तों में स्पेस के महत्व को बिल्कुल भी नहीं समझती. वह हर समय अमोल के गले में अपने बांहों का घेरा डालकर उसे अपने साथ जकड़कर रखना चाहती है.
अमोल की हर सांस पर अनन्या की नज़र रहती है. वह सामनेवाले को अपने साथ कसकर बांधे रखने को ही रिश्ते की मज़बूती मानती है. वह समझती है कि रिश्ता तभी सफल व प्रगाढ़ होता है जब दोनों को एक-दूसरे की हर सांस की ख़बर हो, एक-दूसरे से कुछ भी छुपाने को वह बेवफ़ाई मानती है. अनन्या का ऐसा साथ ख़ुशनुमा न रहकर दमघोंटू हो गया है अमोल के लिए. हरदम वह अनन्या के पल्लू से बंधकर उसके पीछे-पीछे नहीं चल सकता. उसके क़दम अपना रास्ता नापना चाहते हैं. उसका अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व है, विचार है और उनके विकास के लिए उसे स्पेस चाहिए. उसे चाहिए एक ऐसा साथी, जो उसे पल्लू में बांधकर न चले, बल्कि साथ चले. स्वयं भी स्वतंत्र रहे और उसके क़दमों को भी स्वतंत्रता से चलने की अनुमति दे. अनन्या स्पेस के लिए अमोल की इस छटपटाहट को नहीं समझती. शंभवी स्पेस के महत्व को समझती है. तभी वह अमोल की छटपटाहट को भी समझ गई थी. वह अमोल को पूरा स्पेस देती है. वह अमोल को सुनती है, जब वह बताना चाहता है. वह कभी भी उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उसे किसी बात के लिए कुरेदती नहीं है. शंभवी के अपने रिश्ते को लेकर जो सपने थे, वे भी कहां पूरे हो पाए. अमोल और शंभवी दोनों ही तो रिश्तों में अपनी अपेक्षाओं के पूरे न हो पाने की वजह से दुखी थे. शंभवी को अपने रिश्ते में बहुत ज़्यादा स्पेस मिली है, इतनी ़ज़्यादा कि दोनों के बीच बहुत जगह खाली पड़ी है. और दूर-दूर तक फैली इस जगह में ढेर सारी इग्नोरेंस है. इतनी ज़्यादा कि शंभवी को अपने अस्तित्व के होने में ही संदेह होने लगता है. उसे लगता है कि अमर जहां खड़ा है, उस ओर से कोई भी डोर शंभवी तक नहीं पहुंचती है. बहुत ढूंढ़ने पर भी इस स्पेस में वह आज तक अपना रिश्ता खोज नहीं पाई है. बस, इस स्पेस में वह तिनका-तिनका बिखरती जा रही थी. अमर की ज़िंदगी में उसकी कोई जगह है भी या नहीं, वह आज तक समझ नहीं पाई. उसके साथ एक अजनबी की तरह रहती आ रही है. इस एहसास से खीझकर एक दिन शंभवी बिफर पड़ी थी. “आख़िर तुम चाहते क्या हो अमर? तुम्हारी ज़िंदगी में मेरी कोई अहमियत, कोई जगह है भी या नहीं? एक ही घर में रहते हुए तुम इस तरह से मुझे नज़रअंदाज़ करते हो, जैसे कि मैं यहां हूं ही नहीं. पति-पत्नी का रिश्ता स़िर्फ बिस्तर तक ही नहीं होता, उसके आगे भी बहुत कुछ होता है.”
अमर ने तब उसकी ओर ऐसे देखा था जैसे कि वह किसी दूसरी ही दुनिया से आई हो और दूसरी भाषा में बोल रही हो. फिर होंठों पर एक तिरछी हंसी लाकर बोला, “कब किस बात के लिए टोका है तुम्हें मैंने? कैसी अजीब बातें कर रही हो. किस दुनिया में रहती हो? मैं बच्चा नहीं हूं और न ही तुम छोटी बच्ची हो, जो किसी की उंगली पकड़कर चलते रहें. बी बोल्ड. अपने फैसले, अपनी लाइफ़ को ख़ुद हैंडल करना सीखो. मैं उस टिपिकल मैंटेलिटी वाला हसबेंड नहीं हूं, जो शाम को घर आते ही बीवी को दिनभर का पुराण सुनाने बैठ जाए. मैं जो तुम्हें बताना ज़रूरी समझूंगा, वही बताऊंगा.”
और शंभवी को बताने लायक ज़रूरी बातों में ‘शाम को खाना नहीं खाऊंगा’ और ‘आठ बजे तैयार रहना, फलाने के साथ डिनर पर जाना है’ के अलावा कुछ नहीं होता. रिश्ते के बीच का सहज वार्तालाप और पूछ-परख अमर को हमेशा ही बेवजह दख़लअंदाज़ी करना लगता और आख़िरकार शंभवी ने भी  बेवजह का दख़ल देना बंद कर दिया. अमर ऑफ़िस के अलावा कहां आता-जाता है, किससे मिलता-जुलता है, शंभवी को कोई ख़बर नहीं होती. कई बार अमर के बारे में उसे दूसरों से पता चलता है. तब वह ख़ुद को कितना पराया महसूस करने लगती है.
तब कितनी सोचनीय स्थिति हो जाती है उसकी, जब कोई अमर के बारे में कोई बात पूछता है और उसे पता ही नहीं होता. अमर के सारे फैसले अकेले के होते हैं, शायद शंभवी से पूछने या उसकी राय लेने की ज़रूरत महसूस ही नहीं हुई कभी. जब मकान तैयार हो गया, तब बेजान फ़र्नीचर और बाकी सामान के साथ ही उसे भी उठाकर नए मकान में श़िफ़्ट कर दिया गया.
अपने घर को तिनका-तिनका जोड़कर बनते देखने का, अपने शौक़ के अनुसार सजाने, घर से जुड़ने का उसका ख़्वाब चूर-चूर हो गया. तभी तो अमर का आलीशान मकान उसे अपना घर कभी नहीं लगा. अमर के व्यवहार ने शंभवी के रिश्ते में ही नहीं, मन में भी बहुत बड़ा खालीपन, एक शून्य पैदा कर दिया था और इसी शून्य में तैरते हुए एक दिन अचानक ही वह अमोल से जा टकराई. अमोल ने उसके व्यक्तित्व को, उसकी प्रतिभा को पहचाना. “अपने भावों को अपने अंदर घुटने मत दो. उन्हें शब्दों के रूप में बहने दो पन्नों पर, बाहर आने दो...” शंभवी ने लिखा और फिर लिखती ही गई. अमोल ने हर मोड़ पर दोस्त बनकर उसका साथ दिया. शंभवी के भावों को, उसके अंदर ही घुटते जाने से बचाता रहा. अपने अंदर की हताशा-निराशा से बाहर आने पर शंभवी के लिए अमर के व्यवहार को सहन करना थोड़ा आसान हो गया. शब्दों के साथ-साथ अमोल की दोस्ती ने उसके अंदर के खालीपन को काफ़ी हद तक भर दिया था. लेकिन अपने अंदर के खालीपन को भरने के लिए अमोल के साथ कोई रिश्ता बनाकर वह अनन्या के जीवन में कोई खालीपन पैदा नहीं करना चाहती. बरगद के पे़ड़ पर धूप उतरने लगी थी. लेकिन उसके नीचे अब भी कितनी ठंडी छांव थी. काश, उसके जीवन का सबसे ख़ास रिश्ता भी उसके जीवन को ऐसी ही ठंडी छांव, ऐसा सुकून दे पाता और एक गहरी सांस भरकर शंभवी घर लौट आई. पर पता नहीं क्यों शंभवी का मन बरगद के पेड़ की छांव तले ही छूट गया था. तपती धूप में झुलसते उसके मन और जीवन को भी तो किसी ऐसे ही बरगद के पेड़ की शीतल स्निग्ध छांव की ज़रूरत है. आज पलभर को अमोल के कमज़ोर पड़े मन ने शंभवी को अंदर तक आहत कर दिया. वह जानती थी कि अनन्या के दमघोंटू प्यार से त्रस्त होकर अमोल कुछ पलों के लिए उसके सामने भावनाओं में बह गया था. मन की गहराइयों से तो वह भी ऐसा कुछ नहीं चाहता है. लेकिन आज अमोल के मन में शंभवी के लिए पलभर की कमज़ोरी पैदा हो गई थी. कल को यदि अमर के साथ अपने रिश्ते के टूटने पर उसके भी मन में एक कमज़ोरी पैदा हो जाए तो? और यदि किसी दिन अमोल और शंभवी के कमज़ोरी के क्षण एक ही हो जाएं तो? अपने-अपने रिश्तों में दोनों जिस तरह घुटते जा रहे हैं, हो सकता है किसी दिन खुलकर सांस लेने के लिए एक-दूसरे के कंधों पर अपना सिर रख लें. आज तो वह अडिग थी, इसलिए अमोल की कमज़ोरी को उसने हावी नहीं होने दिया. लेकिन यदि वह किसी दिन अडिग न रह पाई तो...? अमर की उपेक्षा उसे अंदर तक तोड़ दे और वह ख़ुद भी अमोल के आगे बिखर जाए...
हम बाहर से तभी बिखरते हैं, जब अंदर से टूटे हुए हों. ऊपर से अपने आपको संपूर्ण रखने के लिए हमें अंदर से ख़ुद को मज़बूती से जोड़े रखना होगा, अपनी-अपनी धुरियों के साथ. इन धुरियों से ज़रा-सा भी पांव बाहर निकला तो ताउम्र अंधेरे निर्वात में तिनके की तरह उड़ते रहेंगे. स्टडी रूम में खड़ी शंभवी ने परदा एक ओर सरकाकर खिड़की खोल दी. ताज़ी हवा का एक झोंका आकर कमरे में पसर गया. इससे पहले कि अनन्या का प्रगाढ़ प्यार अमोल में कमज़ोरी के इन क्षणों का इज़ाफ़ा करता जाए और शंभवी भी फिर उसे संभाल न पाए, अमोल को सांस लेने और जीने के लिए एक स्पेस का मिलना बहुत ज़रूरी है. जब वह खुलकर सांस लेगा, तभी तो अनन्या के साथ अपने रिश्ते को भी ज़िंदा रख पाएगा. पागल है अनन्या! नहीं समझती कि इस तरह ज़बर्दस्ती अपने साथ बांधे रखकर किसी को भला अपना बनाया जा सकता है क्या? नहीं, इस तरह किसी भी रिश्ते को सफल नहीं बनाया जा सकता. रिश्ते और प्यार की सफलता तो तब है, जब सामनेवाले को पूरी तरह से मुक्त कर देने के बाद भी वह लौटकर आप ही के पास आ जाए. पर इस तरह से इतना बंधन में जकड़ने से तो वह अमोल के लौट आने के सारे रास्ते ही बंद कर देगी. अमोल अनन्या के पास लौट जाए, इसके लिए अनन्या को बंधन ढीले करने ही होंगे. अमोल को स्पेस देना ही होगा. शंभवी ने तय किया कल ही एडीटर से कहेगी कि अमोल को महीनेभर के लिए किसी आर्टिकल या स्टोरी पर काम करने के लिए शहर से दूर भेज दे, ऑफ़िशियल टीम के साथ.  
अमर की भाभी मनस्वी से शंभवी और अमर के बीच फैली उदासी छिपी न रह सकी. उन्होंने कई बार चाहा कि हस्तक्षेप करें, पर पति-पत्नी के बीच कहना उन्हें ठीक न लगा. लेकिन जब उन्होंने देखा कि दोनों के बीच दूरियां ब़ढ़ती ही जा रही हैं, तो उनसे रहा न गया. एक दिन अमर को उन्होंने आड़े हाथों ले ही लिया. “अमर, मेरी बात को ज़रा समझने की कोशिश करो. इस गुरूर में मत रहो कि तुम्हें शंभवी की ज़रूरत नहीं है या तुम्हें दूसरी कोई मिल जाएगी. शंभवी जितना स्पेस तुम्हें शायद ही कोई और लड़की दे पाएगी. उसने तुम्हारी इग्नोरेंस, तुम्हारे ईगो को बहुत बर्दाश्त किया है. अपने जीवन में उसकी अहमियत महसूस करने के बाद भी तुम अपने ईगो के कारण हर क़दम पर उसकी उपस्थिति को बुरी तरह नकारते रहे. उसने तुम्हें पूरा स्पेस दिया. लेकिन उसके एडजस्टमेंट को सराहने की बजाय तुमने उसके अस्तित्व को, उसके रिश्ते को ही एक शून्य बना डाला. इस शून्य में भटकते हुए अगर उसकी टूटी हुई डोरी कहीं और बंध गई तो शंभवी को दोष मत देना. अगर ऐसा कभी हुआ तो मैं शंभवी का ही साथ दूंगी. लेकिन ऐसा हो इसके पहले संभल जाओ.” मनस्वी ने तीखी नज़रों से अमर की ओर देखते हुए कठोर स्वर में कहा. “मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि आज अचानक आपको हो क्या गया है? मैं आज़ादी में विश्‍वास रखता हूं और उसे भी अपना मनचाहा करने से कभी रोका नहीं है मैंने. तब आख़िर शिकायत किस बात की है?” अमर भौंचक्का-सा होकर बोला. “शिकायत तो इसी बात को लेकर है कि तुम साथ चलने की बजाय अलग-अलग रास्तों पर चलने में विश्‍वास करते हो, जबकि तुम्हारी मंज़िल एक ही है. तुम उसके साथ शरीर शेयर कर सकते हो, तो मन शेयर करने में क्या प्रॉब्लम है?” मनस्वी ने बहुत कटु होकर पूछा. “तुम मन की पूरी आज़ादी, पूरा स्पेस चाहते हो तो तन का भी बंधन क्यों स्वीकार किया?” मनस्वी के प्रश्‍न पर अमर निरुत्तर रह गया. “परसों वट पूर्णिमा है. शंभवी को मार्केट ले जाकर उसे अपनी पसंद की साड़ी दिलाओ. यूं होंठ तिरछे करके हंसने की ज़रूरत नहीं है. ये रीति-रिवाज़, तीज-त्योहार रिश्तों को पास लाने के लिए ही बनाए गए हैं और हो सके तो अपने लिए भी शंभवी की पसंद से कुछ ले लेना. तुमको भी अच्छा लगेगा.” और पलभर को अमर के हाथ पर अपने हाथ का दबाव देकर मनस्वी अमर के केबिन से बाहर निकल गई. अब शंभवी को भी समझाना ज़रूरी है, यह सोच मनस्वी शंभवी से मिलने निकल पड़ी. “मैं जानती हूं बरगद की पूजा करने या भूखे रहने से कभी भी किसी आदमी की न तो जान बचाई जा सकती है और न ही उसकी उम्र को लंबा किया जा सकता है. लेकिन देखा जाए तो ये छोटी-छोटी बातें हमें एक-दूसरे से जोड़ने में कितनी अहम् भूमिका निभाती हैं. बरगद की पूजा करके तुम अमर की उम्र भले ही न बढ़ा पाओ, पर अपने और उसके रिश्ते को बरगद की तरह मज़बूत करने की पॉज़ीटिव सोच तो अपने अंदर विकसित कर ही सकती हो न. इन रीति-रिवाज़ों को निभाने के पीछे  मूल भावना बस यही होती है कि हम आपस में एक-दूसरे के प्रति जुड़ाव महसूस करते रहें.” मनस्वी ने चाय का एक लंबा घूंट भरते हुए कहा.
“अमर को अपने स्पेस के सिवा और किसी बात से कोई मतलब ही नहीं है भाभी. तो फिर मैं अपने भीतर उस रिश्ते के लिए पॉज़ीटिव सोच विकसित करके अपने आपको तकलीफ़ क्यों दूं?” शंभवी दर्दभरे स्वर में बोली. उसके कंधे पर हाथ रखते हुए मनस्वी ने प्यार से समझाया, “मैं तुम दोनों के बीच दख़लअंदाज़ी नहीं करना चाहती थी, इसलिए अब तक चुप रही, पर अब नहीं. वो स्पेस चाहता था तो तुमने भी उसे जोड़े रखने की कोई कोशिश नहीं की. अब मैं चाहती हूं, तुम उसे जोड़ो. बरगद की पूजा करते समय मैं चाहती हूं कि तुम उसकी मज़बूती और छांव की इच्छा पैदा करो. जहां इच्छाएं होती हैं, वहीं पर उन्हें पूरा करने के लिए मनुष्य प्रयत्न करता है.” और शंभवी की आंखों के सामने पार्क के कोने में लगा वो विशाल बरगद का पेड़ और उसकी सुकून भरी छांव तैर गई. तब शंभवी को महसूस हुआ कि सच में उसे भी इस छांव की कितनी ज़रूरत है. “आप पूजा करने कितने बजे जाएंगी? मैं आपके साथ ही चलूंगी.” शंभवी ने चाय का खाली कप टेबल पर रखते हुए मनस्वी से पूछा. और शाम को एडीटर महोदय से अमोल के बारे में निवेदन करके शंभवी अमर के साथ मार्केट चली गई. अपने लिए पीली रंग की  साड़ी लेने और अमर के लिए एक शर्ट ख़रीदने.
- अभिलाषा

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