बेटे की ममता, मोहमाया से उबरने में थोड़ा व़़क्त तो लगना था, लेकिन अब उनका अपना संसार अलग था, अपनी विरासत में वे अब पूर्णतया मुक्त थीं. अपने एकान्त का उपयोग अपने तरी़के से कर सकने में स्वतंत्र थीं. वे देर तक स्पंदनहीन-सी जड़ बनी बैठी रहीं.
ऋषिराज ऑफ़िस से लौटा तो वह प्रत्यंचा-सी तनी खड़ी थी, ‘‘आज फैसला हो ही जाना चाहिए. मांजी छोटी-बड़ी प्रत्येक बात में हस्तक्षेप क्यों करती हैं? यह मुझे बिल्कुल नहीं पसंद.’’ ऋषिराज जूते के फीते खोलने की बजाय पत्नी का मुख देखकर उसकी भाव-भंगिमाएं पढ़ने लगा, ‘‘हुआ क्या?’’ उसे पता है, कुछ न कुछ होता ही है. इस घर में जब-तब महाभारत का मंचन, सजीव-साकार किया जाता है. कोई नयी बात नहीं, अब तो उसे आदत-सी पड़ गई है. बचपन से देखता आया है, दादी का तेज़ स्वभाव, मां से बिल्कुल मेल न खाता था. जब कभी मुस्कुराकर कह भी देता पत्नी श्रेया से, ‘‘तुम यदि दादी की बहू होतीं, तब समझ में आता तुम्हें.’’ तो प्रत्युत्तर में श्रेया उसे रोषपूर्वक देखती. बचपन में वह दर्शक था और अब निर्णायक, लेकिन समस्या का समाधान उसे कभी न मिला. वह अक्सर ही ग़लत निर्णायक साबित होता. अतएव उसे मौन रहना अधिक प्रिय था. घर में छोटी-छोटी बातों को लेकर होती कलहों को अनुभव कर वह सदैव बेचैन हो जाता. कभी-कभी वह सोचता यह सास-बहू का मुद्दा भी सत्ता के खेल का छोटा रूप है. एक पक्ष सत्ता में तो दूसरा स्वंयमेव विपक्ष में जाकर टक्कर लेने के लिए खड़ा हो जाता है. आज का मुद्दा फिर वही पक्ष-विपक्ष की छींटाकशी, तनातनी होगा. वह बैठा कपाल लगाता रहा कि कब, क्या कहना उचित होगा. पत्नी श्रेया सामने ही उद्विग्न खड़ी थी, ‘‘देखो जी, जो भी हो, मैं अब और बर्दाश्त नहीं कर सकती’’. ‘‘लेकिन मुझे बात तो पता चले.’’ वह अब भी धैर्य रखे हुए था. ‘‘होना क्या है? मेरी सहेलियों का फ़ोन आता है, तो जाकर झट से पैरेलल लाइन का रिसीवर उठा कान से लगा लेती हैं. क्या ज़रूरत है उन्हें दूसरों की बातें सुनने की? मेरी सहेलियां आती हैं, तो भीतर से आकर उनके सामने जम जाती हैं. अपने ज़माने की बातें करती हैं. अरे! ये बैठें न चुपचाप अपने कमरे में. क्या ज़रूरत है हर मामले में टांग अड़ाने की.’’ अब तक ऋषिराज बात सुनते हुए जूते उतारकर सो़फे के नीचे सरका चुका था. ऐसे मौक़ों पर ऋषिराज के लिए घर में रहना दूभर हो जाता. दोनों के बीच वह ऐसे पिसता जैसे चक्की के दो पाटों के बीच गेहूं. कभी बादल गड़गड़ाते, तो कभी बरस कर ही दम लेते. वह झटपट पानी पीकर, कपड़े बदलकर लेट गया. आज उसे भरी दोपहरी में ऑफ़िस के काम से टेजरी जाना पड़ गया. दो सौ फ़ीट ऊंचाईवाली किले की सड़क के दूसरे छोर पर स्थित टेजरी ऑफ़िस जाते-जाते उसका माथा तपने लगा था. धरती धू-धू करके जल रही थी. राजा के ज़माने की सड़क के दोनों ओर खड़ी खजूर वृक्षों की कतारें. हवा की सांय-सांय सनसनाती लू में बदल चुकी थी. लौटते हुए उसे लगा कि कनपटियां धधक रही हैं और आंखों में तीतापन भर गया है. फिर भी बॉस ने उसे छोड़ा नहीं. अर्जेंट मीटिंग के सारे आंकड़े तैयार करके शाम ढले कहीं घर आ पाया. और अब यहां... कहां जाए, जहां दो घड़ी सुकून मिल सके. सिर दुख रहा था. माहौल में अभी भी तपन और गर्मी शेष थी. शायद आज मैक्सिमम टेम्प्रेचर हो रहा है शहर का, तभी उसकी मां निर्मला आयीं. उसने सोचा, ज़रूर बहू की बातें सुनकर मेरे आगे सफ़ाई पेश करनेवाली होंगी और यही हुआ भी, ‘‘ऋषि, सुन ली तुमने, बहू की मिथ्या रोष भरी बातें. मैं तो समझी थी, कंची का टंक काल होगा. लंबी घंटी सुनकर ही मैंने फ़ोन उठाया, वरना मुझे उसकी सहेलियों से हुई बातचीत सुनकर क्या करना?’’ बेटे को मौन पड़े देख वे कहते-कहते चौंकी, ‘‘ऐसे क्यों पड़े हो? क्या हुआ? तबियत ठीक नहीं क्या?" उन्होंने अपनी स्नेह सिक्त हथेली उसके माथे पर रख दी. ऋषिराज को लगा जैसे वह बर्फ़ीली वादियों की अनिर्वचनीय सुख-शांति एवं ठंडक में जा पहुंचा हो. ‘‘यह क्या, तुझे तो बुखार है, माथा बुरी तरह तप रहा है. बहू, ओ बहू.’’ श्रेया के कान मां-बेटे की बातचीत पर ही केन्द्रित थे. वह झट दौड़ी आई, ‘‘क्या हो गया?’’ ‘‘होना क्या है? लगता है, ऋषि को लू लगी है. तुम ठंडी पट्टियां रखो, मैं देखती हूं और क्या उपचार करना चाहिए.’’ ‘‘अब उपचार क्या करेंगी. छोड़िए ये टोटके, मैं डॉक्टर को फ़ोन करती हूं.’’ तनाव के कारण श्रेया सामान्य शिष्टाचार भी भूल गयी. ‘‘फ़ोन भी कर दे, लेकिन तब तक तो देशी उपचार से कुछ आराम आ ही जाएगा.’’ व्यथित हृदय निर्मला ने बहू को तसल्ली दे समझाना चाहा, लेकिन उपेक्षित व्यवहार पा वे ख़ामोशी से जाकर रसोई में कुछ खटर-पटर करने लगीं. शीघ्र ही वे एक थाली में चना की भाजी बर्फीले ठंडे पानी में भिगो लाईं ‘‘बेटा, ज़रा हाथ-पैर दिखा-लू उतार दूंगी, तो अभी ताप कम हो जाएगा.’’ ‘‘रहने भी दीजिए, मैं कर लूंगी.’’ व्यंग्य से होंठ टेढ़े करती हुई श्रेया के बढ़े हुए हाथों ने थाली पकड़ ली. यह देख वे स्वयं को न रोक सकीं. नाराज़गी से मन ही मन बुदबुदातीं, मगर प्रकटत: मौन. ... यही तो सीखा है आजकल की लड़कियों ने. विवाह हुआ नहीं कि मैं और मेरा पति- ये नहीं सोचतीं कि पति भी किसी परिवार की आंखों का तारा होता है. किसी का भाई, बेटा होता है. उसके भी कोई माता-पिता, बहन-भाई, रिश्ते-नाते होते हैं, जिनका उनसे आत्मीय स्नेह होता है. रिश्तों में पलती स्नेह डोर को तोड़ने से किसी को आज तक कुछ भी नहीं प्राप्त हुआ. सिवाय अकेलेपन के. अपनों का स्नेह-प्यार ही इंसान के लिए संजीवनी बूटी बनता है. यह संजीवनी शक्ति से ओत-प्रोत रहती है, वरना ईर्ष्या, द्वेष, बैर, उपेक्षा से सदैव व्यक्ति का विकास कुंठित ही होता है. प्यार के भी अलग-अलग रूप होते हैं. भला पत्नी के प्यार की, मां की ममता से क्या बराबरी. दोनों में कैसा मुक़ाबला? मां तो सदा नि:स्वार्थ स्नेह लुटाती है. मैंने सोचा था कि मेरी बहू, बहू नहीं मेरी बेटी होगी. एक बेटी ससुराल भेजी, तो दूसरी मेरे घर आई. लेकिन लाख प्रयास करने के पश्चात् भी इसने मुझे मां नहीं माना. यह तो पति की मां को एक प्रतिद्वंदी की दृष्टि से देखती-परखती रही. पच्चीस साल तक अपने बेटे को केन्द्र मानकर परिधि बनकर घूमती मां को-एक बिंदु मात्र बनाकर दूर अनंत में छिटक देना चाहती है. आह! कितनी कष्टप्रद स्थिति है यह. पति की मृत्यु उपरांत जिस बेटे का मुख देख कर जीती रही, उसी की पत्नी से बार-बार उपेक्षा पाना, निरादर किया जाना, मेरे स्वाभिमान को किस गहराई तक लहूलुहान करता है, किससे कहूं. घर की बात बाहर कह नहीं सकती, जगहंसाई होती है, और मन की मन में पी जाऊं तो कब तक? मैं अपने बच्चों की ख़ुशियों में शामिल होना चाहती हूं. कष्टों का निवारण करने में सहायक बनना चाहती हूं. लेकिन श्रेया अपने एकान्त में मुझे बाधा मानती है. ख़ुशियों के बीच मेरी उपस्थिति उसे सहन नहीं होती. हे ईश्वर! इन्हें और मुझे सद्बुद्धि देना. मेरे लिए राह निकालना, ताकि ये ख़ुश रह सकें... अपनी निश्पाप स्थिति पर लंबी विवेचना करती वे ख़ामोशी की चादर ओढ़ अपने कमरे में बैठी रहीं. उनका कमरा क्या था, कबाड़खाने में एक चरमर करता, चूलें हिलाता उनकी सास के ज़माने का तख्त. विरासत में मिले पुराने पुश्तैनी, शहर के मध्य गलियों में बने मकान में कुल तीन कमरे और रसोई थे. आगे के कमरे में मेहमान कक्ष, दूसरा बहू-बेटे के लिए और तीसरे कमरे में वे स्वयं. उसी में रखा रहता टूटा-फूटा, अच्छा-बेकार सामान वगैरह. आगे दोनों कमरे कूलरयुक्त थे, पीछे का कमरा सामान से ठुंसा भट्टी की तरह सुलगता रहता. जब पंखे की तपती हवा सहन न होती, तो वे अकेली ही छत पर सोने चली जातीं. पिछवाड़े के बाड़े के आम और महुआ के डोलते पत्ते, उनकी सर-सर की आवाज़ें, निविड़ अंधकार और एकांत में अजीब भयावह समां उत्पन्न कर देते. उनकी हालत इधर कुआं उधर खाईं जैसी हो जाती. सदा से अकेले सोने में घबरानेवाली निर्मला के लिए यह संकट की घड़ी बन जाती. जो कमरा उनका है, वह पहले सासू मां का हुआ करता था और यही तख़्त पीठ सीधी करने का स्थान. जब श्रेया ऋषि की पत्नी बनकर आयी, तो आकर उसने उनके बड़े से हवादार कमरे को अपना शयनकक्ष बना लिया. कारण उसके साथ आया डबल बेड कहीं और आ ही नहीं पाता था. वो देर तक बैठी पुरानी यादों से अपना दिल बहलाने का प्रयास करती रहीं, किन्तु बेटे के तपते शरीर का ख़याल उन्हें बार-बार बेचैन कर रहा था. वे ज्योंही उठीं, तख्त की हिलती पट्टियों के बीच उनकी हथेली की त्वचा अनायास ही जा चिमटी और उनके कंठ से चीख निकल गई ‘‘उई मां! अरे मर गई रे!’’ किसी तरह उन्होंने हथेली को तख़्त की कैंची पकड़ से मुक्त किया और रसोई की ओर चल दीं. ज़रा देर बाद ही वे अपनी तकलीफ़ भूलकर, पुन: बेटे के कमरे के बाहर जा खड़ी हुईं, ‘‘बेटी श्रेया, ये शिकंजी ले जा, ऋषि को पिला दे. कुछ आराम आया कि नहीं?’’ हाथ में बर्तन पकड़े सास को खड़ी देख श्रेया का माथा भन्ना आया. उसने आग्नेय दृष्टि से सास की ओर देखा और बुदबुदायी, ‘‘कैसी बेशर्म हैं, पति-पत्नी को ज़रा देर बीमारी में भी एक साथ रहकर चैन नहीं लेने देतीं.’’ ‘‘बहू, तुमने मुझसे कुछ कहा क्या?’’ ‘‘जी नहीं, भला मैं क्या कह सकती हूं’’ श्रेया के स्वर कटु एवं तल्खी से भरे थे. यह देख ऋषिराज ने आंख के इशारे से पत्नी को कहा, ‘‘शांत रहो न, वे मां हैं, तबियत की चिंता नहीं करेंगी, तो उनका मन कैसे मानेगा.’’ ‘‘हां, आप तो बस मुझे ही शांति का पाठ पढ़ाते रहिए. यह नहीं कि अपनी मां को भी कुछ शिष्टाचार सिखा दें. उन्हें कहिए कि यदि फुर्सत रहती है, तो एकान्त का उपयोग भगवद् भजन में करें.’’ दरवाज़े के बाहर निर्मला के क़दम जड़ हो गए. बहू के तिक्त स्वर, बेटे का मौन देखकर वे हतप्रभ रह गइ थीं. वे धीरे-धीरे सीढ़ी चढ़कर छत पर जा बैठीं. आंखों के सामने अतीत उभरने लगा- ब्याह के शुरूआती समय में उनके स्वयं के स्वरों में भी यही विद्रोह गूंजता था. एक बार मां के आगे उन्होंने यही रोष प्रकट कर दिया था. मां से जो उन्हें शिक्षा मिली थी, उसे वे अभी तक अपने मन में गांठ बांधकर रखे हुए थीं. कंची के विवाह पर वही सीख उन्होंने उसे आशीर्वाद के रूप में थमा दी थी. ‘‘सब रिश्तों में प्यारा रिश्ता होता है मां का और मुझे आशा है कि जो प्यार-आदर, मान-सम्मान तूने मुझे दिया है, अब उसी की अधिकारिणी तेरे पति की मां होगी. जब तू स्वयं मां बनेगी, तो तेरी संतान इसी ऋण को तुझे वापस लौटा देगी, सूद समेत. अतएव अपनी सासू मां को पूज्यनीय मानकर सदा उनकी आज्ञा का पालन करना.’’ लेकिन शायद अब उन्हें ज़िंदगी की किताब के कुछ दूसरे पाठ पढ़ने होंगे. एक शाम ऋषिराज लौटा, तो मुस्कुराती हुई श्रेया पास आ बैठी, ‘‘सुनो जी, क्यों न हम अपने न्यू कॉलोनीवाले प्लॉट पर घर बना लें’ अच्छा सुंदर-सा, जिसमें एक लॉन हो.’’ उस दिन वह अपनी बहन के घर गयी थी. ‘‘हां, सपना तो अच्छा है, पर काफ़ी महंगा है.’’ ‘‘तुम्हारे यहां औरों ने भी तो बनाया है. जैसे वर्मा साहब ने और लोन लेकर दत्तात्रेय का तो काफ़ी बड़ा मकान बना है.’’ ‘‘लेकिन हमें क्या ज़रूरत है लोन लेने की, बेकार में सिर पर कर्ज़ा चढ़ेगा. हमारे पास अच्छा-भला पुश्तैनी घर है.’’ ‘‘जी नहीं, यह विरासत में मिला सदियों पुराना मकान रहने लायक तो क्या, बेचने लायक भी नहीं. न फ़र्श में मार्बल, न रोशनदान-सिंक, न वॉशबेसिन. मेरी दादी का घर देखा तो है, कितना अच्छा है. है न?’’ ‘‘वह तो ठीक है, लेकिन फॉर्मेलिटीज़ पूरी करने में काफ़ी व़़क्त लग सकता है.’’ ऋषिराज ने कुछ सोचते हुए पत्नी को आश्वासन दिया था. ‘‘कोशिश में लग जाइए बस. अब तो यहां रहना दूभर है. मेरा तो दम घुटता है इन तंग गलियों की बदबू में. कल को अपना बेटा शैवाल बड़ा होगा, तो यहां स्कूल बस भी नहीं आ सकती, न ही उसको अच्छी संगत मिल सकेगी." निर्मला की ज़ुबान की नोक पर आते-आते रह गया कि ऋषिराज भी इन्हीं तंग गलियों के मकान में, इसी माहौल में पढ़-लिख कर अच्छा-खासा ओहदा पाया है, तो तुम्हारा बेटा कोई अलग है. मगर उन्होंने प्लॉट के काग़ज़ों पर चुपचाप हस्ताक्षर कर दिए, ताकि ऋषि को लोन मिल सके. व़़क्त के साथ-साथ कॉलोनी के प्लाट पर दो कमरे, रसोई, हॉल, आंगन सहित श्रेया के स्वप्नों का घर खड़ा हो गया. गृहप्रवेश के पश्चात जब सामान ढोया जाने लगा, तो श्रेया ने छांट-छांटकर अपना सामान भिजवा दिया और बेटे शैवाल की उंगली थामकर जाने के लिए तैयार हो गई. ‘‘श्रेया, ज़रा इधर तो आना’’ ऋषिराज ने मां का सामान इधर-उधर यूं ही पड़े देख टोका, ‘‘ये तख़्त और अम्मा का सामान तो यहीं यह गया. तुमने देखा नहीं.’’ ‘‘बात ये है कि नये घर में पुरानी विरासत मैं ले जाना नहीं चाहती. नये घर में तो हर चीज़ नयी ही होनी चाहिए. कोई बात नहीं, हम घर के साथ-साथ यह फालतू सामान भी बेच देंगे.’’ श्रेया ने तब हिचकते हुए धीमे स्वर में कहा, ‘‘मां तो हमारे साथ जा नहीं रहीं, इसलिए ये सामान वे प्रयोग कर लेंगी.’’ ‘‘मां नहीं जा रहीं? क्यों नहीं जा रहीं? ऐसा कैसे संभव है, उन्हें अकेले छोड़कर हम कैसे जा सकते हैं?’’ ऋषिराज पत्नी की बात सुनकर अप्रसन्नता पूर्वक भीतर जाने लगा, ‘‘मां, मां, श्रेया से तुमने कुछ कहा?’’ तभी स्वाभिमानी निर्मला आते हुए बोल पड़ीं, ‘‘इस घर, इस विरासत के साथ मैं यहीं रहूंगी. मुझे अपनी विरासत की यादों में रची-बसी मधुर स्मृतियां बहुत प्यारी हैं बेटा. मैं इन्हें बेचूंगी नहीं. शायद इसी फैसले में हम सबकी ख़ुशी है, भलाई है. जाओ, मेरा आशीष तुम्हारे साथ है." ‘‘नहीं मां, तुम यहां अकेली कैसे रहोगी? किसके सहारे बुढ़ापे के दिन काटोगी? कौन तुम्हारा ख़याल रखेगा? तुम तो अकेली सोने से भी डरती हो.’’ ‘‘तुम चिंता न करो, व़़क्त के साथ-साथ इंसान बदल जाते हैं. फिर अब तो अकेले सोने की आदत भी पड़ गई है. रही बुढ़ापे की बात, तो वह इतनी जल्दी नहीं आनेवाला. अभी तो मुझे शैवाल का ब्याह देखना है. तुमने जैसा अपना नया संसार बसाया है, वैसा ही संसार उसे भी बसाते हुए देखना है. अभी नहीं मरनेवाली मैं.’’ कुछ रुककर वे विद्रूप-सी मुस्कुरायीं, ‘‘न मैं यहां अकेली हूं, न बेसहारा. सुख-दुख में तसल्ली देनेवाली, मन के संताप पर अपनी सहानुभूति का फाहा रखनेवाली मेरी सखी-सहेलियां, पड़ोसिनें हैं यहां. फिर तुम कौन-सा दूर जा रहे हो. इसी शहर में तो हो. जब मन करे आ जाया करना.’’ कहते-कहते उन्होंने स्वयं को सामान्य बना लिया था. मन में उमड़ती भावनाओं पर काबू कर लिया था. ऐसे में ऋषिराज विह्वल हो उठा, ‘‘मुझसे नाराज़ हो मां.’’ भर्राए कंठ से बोला, ‘‘तुम्हीं ने बसाई मेरी गृहस्थी, वरना मैं और तुम तो सुखी-संपन्न ही थे. बताओ न... क्या बात है?’’ ‘‘नहीं रे, मैं तुझसे नाराज़ कैसे हो सकती हूं. जैसे शैवाल तेरे जिगर का टुकड़ा है, वैसे ही तू भी मेरी आंखों का तारा है. लेकिन मेरा ये फैसला हम सब के हित में ही है.’’ अपनी आंखों के छलकते अश्रु उन्होंने किसी तरह छुपाए और मुड़कर भीतर जाने लगीं. तभी ऋषि के साथ-साथ शैवाल ने भी उनका हाथ पकड़ लिया और चरण स्पर्श किए, तो वे ठंडी उसांस भरकर भर्राई आवाज़ से बोलीं, ‘‘ख़ुश रहो, भगवान तुम्हें हर सुख दे.’’ बात को ख़त्म कर वे एक झटके से अंदर चली गईं. अंदर जाकर वे देर तक आंसू बहाती रहीं. निर्मला अपने लाडले को परेशान नहीं देख सकती थीं, उनका मन चाहा कि हृदय पर रखी वज्रशिला को हटाकर हंसती-मुस्कुराती अपने बेटे के सजे-संवरे घर में चली जाए और प्रसन्नतापूर्वक रहे. पोते की प्यारी-प्यारी बातें, ऋषि की गृहस्थ ज़िंदगी में आते सुखद क्षणों का आनन्द ले. परन्तु फिर उन्हें याद आ गया बेटे का उनके और श्रेया के बीच पिसना. वह कभी नहीं चाहती थीं कि विवाद की स्थिति उत्पन्न हो और जब भी काम से लौटे, तो थके-हारे बेटे के ऊपर किसी अन्य चिंता का बोझ पड़े. लेकिन न चाहते हुए भी वही सब होता था. घर की कलह में ऋषि पिसता रहा और वह सम्मान की अधिकारिणी कभी न बन सकीं. अतएव हृदय पर पत्थर रखकर उन्होंने यह निर्णय लिया था, जो व्यवहारिकता की दृष्टि से उन्हें उचित लगा और आहत स्वाभिमान की रक्षा हेतु बेहतर भी. बेटे की ममता, मोहमाया से उबरने में थोड़ा व़़क्त तो लगना था, लेकिन अब उनका अपना संसार अलग था, अपनी विरासत में वे अब पूर्णतया मुक्त थीं. अपने एकान्त का उपयोग अपने तरी़के से कर सकने में स्वतंत्र थीं. वे देर तक स्पंदनहीन-सी जड़ बनी बैठी रहीं. फिर आहिस्ता से उठकर अपना बक्सा खोलकर स्वर्गीय पति की लिखी डायरी निकाल ली, जिसे उन्होंने बड़े जतन से सहेज रखा था. गुज़रे लम्हों के दर्द को पीते हुए उन्होंने डायरी पढ़नी प्रारम्भ की- पृष्ठ-दर-पृष्ठ. एक जगह वे रुक गईं, लिखा था- ज़िंदगी ख़त्म तो नहीं होती, दो-चार लम्हों पे अभी गुज़रेंगे कई वाक्ये, तब ख़त्म होगा ये दौर... एक अज्ञात प्रेरणा से उन्हें अनायास ही याद आया जवानी के दिनों में जब उन्हें घर से ही फुर्सत न थी, काम ही काम था, उस पर भी दूसरों की मदद करने में उन्हें बेहद ख़ुशी मिलती थी. फिर वे और अधिक व्याप्त होती चली गईं. आज ज़िंदगी के इस पड़ाव पर उन्हें अपने करने हेतु इस अधूरे कार्य की याद आईं. उन्होंने तय किया कि वे समाज सेवा करेंगी. बीमारों, लाचारों, दीन-दुखियों को उनकी सहायता की निश्चित ही आवश्यकता होगी. वे अकेली बेकार नहीं हैं और अभी उनकी विरासत दूसरों के काम आ सकती है.- शोभा मधुसूदन
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