Close

कहानी- विंडो शॉपिंग (Short Story- Window Shopping)

“विंडो शॉपिंग बुरी चीज़ नहीं है मां. क्योंकि वहां हम जिन चीज़ों को देखते हैं, वे सभी निर्जीव चीज़ें हैं. हम उन्हें पसंद करें या न करें, ख़रीदें या न ख़रीदें, इससे उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. लेकिन विवाह योग्य लड़की सजीव है. आपकी और मेरी तरह वह भी सोचती है, समझती है, उसमें भी भावनाओं और संवेदनाओं का संप्रेषण होता है. और मैं किसी की भी संवेदनाओं से खिलवाड़ नहीं कर सकता. वे सभी अच्छी हैं, योग्य हैं. उनकी और उनके माता-पिता की आंखों में जब उम्मीद की किरण देखता हूं, तो अपने आप से घृणा होने लगती है. क्यूं मैं उनकी भावनाओं और उम्मीदों से खेल रहा हूं? शायद मैं ही अभी तक उनके योग्य नहीं बन पाया हूं.”

“अंकल, यहां आसपास कोई शॉपिंग कॉम्पलेक्स, मॉल वगैरह हैं? आज छुट्टी है, तो सोच रही हूं थोड़ा घूम आऊं.” नाश्ता करती रिया ने प्रश्‍न उछाला, तो महेशजी एकबारगी तो चौंके, फिर सोच में पड़ गए. उन्हें और माया को तो शॉपिंग पर गए एक अरसा हो गया था. महीने का किराने का बंधा बंधाया सामान लड़का घर पहुंचा देता था. साग, भाजी आदि मायाजी कॉलोनी में नित्य आनेवाले ठेलेवाले से ख़रीद लेती थीं. चूंकि ज़्यादा कहीं आना-जाना होता नहीं था, इसलिए नए कपड़े बनवाने की, तो उन्हें कम ही ज़रूरत पड़ती थी.
“कुछ कपड़े वगैरह ख़रीदने हैं क्या बेटी?” महेशजी ने थोड़ा आइडिया लेना चाहा.
“नहीं अंकल, बस ऐसे ही थोड़ी विंडो शॉपिंग हो जाएगी. आप भी चलिए आंटी?” रिया ने प्रस्ताव रखा.
विंडो शॉपिंग शब्द सुनते ही महेशजी के साथ ही मायाजी भी एकबारगी तो चौंक उठी थीं. पर फिर दोनों संभल गए थे. दोनों के चेहरों पर अनायास ही उम्मीद की एक नई किरण चमक उठी थी मानो किसी अभियान के लिए मुस्तैद हो रहे हों. पर ऊपर से दोनों ने ही सहज बने रहने का प्रयास किया.
“नहीं बेटी तुम हो आओ. मैं तो अब पाठ करूंगी. फिर रसोई भी देखनी है, वरना तुम तो जानती ही हो ये आजकल की बाइयां कैसा काम करती हैं?”
“तब तक तुम्हारी आंटी के पसंदीदा सीरियल का वक़्त हो जाएगा.” महेशजी ने चुटकी ली.
“हूं… यह गिनाना कभी नहीं भूलते तुम्हारे अंकल. लो बेटी, यह एक परांठा तो लो.”
“बस आंटी, वैसे ही बहुत खा लिया. आपकी कुकिंग इतनी अच्छी है कि रोज़ खुराक से ज़्यादा ही हो जाता है. लौटने के वक़्त तक तो जाने कितना वज़न बढ़ जाएगा? मेरे रवाना होने से पहले मुझे एक-दो डिश ज़रूर सिखा दीजिएगा.”
“अरे धत्! चार दिन में कोई वज़न बढ़ता है? फिर तुम लोगों के खाने-पीने के ये ही तो दिन हैं. मैं तो अमन से भी यही कहती हूं… तुम्हें मैं ढोकला और पूरनपोली अवश्य सिखा दूंगी. अमन को भी ये दोनों चीज़ें बहुत पसंद हैं.” मायाजी यकायक ख़ूब उत्साहित हो उठी थीं. महेशजी उनकी मनःस्थिति बख़ूबी समझ रहे थे, इसलिए आंखों ही आंखों में उन्होंने श्रीमतीजी को शांत हो जाने का संकेत किया. मायाजी उनका संकेत समझ गई. तुरंत अपनी भावनाओं को काबू में करते हुए वे टेबल समेटने लगी.
रिया को मॉल में उतारकर महेशजी ने गाड़ी अपनी दुकान की ओर मोड़ ली. लेकिन उनकी सोच अभी भी उसी दिशा में दौड़ रही थी. रिया की विंडो शॉपिंग ने पति-पत्नी के ज़ेहन में अमन की अभी की स्वदेश यात्रा की याद ताज़ा कर दी थी.
अमन, उनकी इकलौती संतान इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर एमबीए करने हेतु विदेश गया, तो मानो वहीं बस गया. डिग्री पूरी होते ही उसे वहां एक अच्छी नौकरी का प्रस्ताव मिल गया. तो उसने माता-पिता से एक-दो वर्ष वहीं नौकरी करने की अनुमति चाही. एकबारगी तो दोनों को लगा बेटा कहीं हमेशा के लिए हाथ से न निकल जाए. लेकिन अमन ने विश्‍वास दिलाया कि उसका ऐसा कोई इरादा नहीं है. कुछ पैसे कमाकर वह स्वदेश लौटकर अपना व्यवसाय आरंभ करना चाहता है. सुनकर महेशजी को अच्छा लगा था. आख़िर व्यवसायी पिता का ख़ून है. पिता की साड़ियों की दुकान भले ही न संभाले पर करेगा तो अपना ही व्यवसाय ना… उनके लिए इतना ही बहुत है. वक़्त के साथ अनुभव के थपेड़ों ने दोनों पति-पत्नी को काफ़ी व्यावहारिक बना दिया था. वे समय के साथ स्वयं को बदल लेने में विश्‍वास करने लगे थे.
अमन की विदेश में नौकरी लग गई है, यह ख़बर लगते ही उसके लिए रिश्ते आने आरंभ हो गए थे. और अब जब यह ख़बर फैली कि वह महीने भर के लिए स्वदेश आ रहा है और इस दौरान उसका ब्याह पक्का कर दिए जाने या ब्याह ही कर दिए जाने की उम्मीद है, तब तो रिश्तों की बाढ़-सी आ गई थी. लड़कियों के बायोडाटा और फोटो के ढेर लग गए थे, जिन्हें सहेजने के लिए मायाजी ने अपनी पूजा-पाठ और टीवी सीरियल के वक़्त में से कटौती करके बमुश्किल अतिरिक्त समय निकाला था. उन्होंने इन सबको एक फाइल के रूप में सहेज लिया था और दिन में कम से कम दो बार इसका गहन और सूक्ष्म विश्‍लेषण करने बैठ जाती थीं. महेशजी घर में होते, तो वे बड़े उत्साह से उन्हें भी इस प्रक्रिया में शामिल कर लेतीं.
“यह देखिए, इसके नैननक्श कितने अच्छे हैं! बिल्कुल श्रीदेवी जैसा कद और वैसी ही शक्ल-सूरत. रंग में ज़रूर अपने अमन से उन्नीस है, पर जोड़ी जम ही जाएगी… यह वाली देखो. इसका रंग तो एकदम दूध जैसा है न, अपने अमन से भी गोरी… पर नाक थोड़ी चौड़ी है. अब यह देखो, यह बायोडाटा कम, ब्यूरोक्रेट्स की सूची ज़्यादा नज़र आती है. भाई आईएएस, बहन आरपीएस, ख़ुद प्रोबेशनरी ऑफ़िसर… आप देखना, अमन को यही लड़की पसंद आएगी. वाक़ई उसकी टक्कर की है न? क्या आप तो कुछ बताते ही नहीं… कुछ तो राय दीजिए न?” इतनी देर से गुपचुप बैठे पति की चुप्पी मायाजी को खल जाती और वह उन्हें झिंझोड़ डालती.
“अब क्या कहूं, आपका इतना उत्साह देखकर डर-सा जाता हूं. कहीं अमन ने पहले से ही कोई लड़की पसंद कर रखी हो तो…”
मायाजी एक पल को तो सन्नाटे में आ गई थीं. तस्वीर के इस पहलू की ओर तो उनका ध्यान ही नहीं गया था. फिर तुरंत उन्होंने ख़ुद को संभाला.
“तो क्या हुआ? वो भी ठीक है. बेटे की पसंद मेरी पसंद. घर में बहू तो आ ही जाएगी, पर फिर मैं अमन को विदेश नहीं लौटने दूंगी.”
“जो मन आए, वो करना. अभी उसे आ तो जाने दो. अभी से इतने ख़्याली पुलाव पका रही हो… अब आप फिर से किस सोच में डूब गईं?”
“हं… वो जी, मैं सोचने लगी थी यदि सचमुच अमन ने कोई लड़की पसंद कर ली होगी, तो मैं शक्कू बुआ, रज्जो मौसी आदि को क्या जवाब दूंगी?” मायाजी के चेहरे पर चिंता की लकीरें उभर आई थीं.
“इसीलिए कहता हूं थोड़ा सब्र रखो. एक बार उसे आ जाने दो. आमने-सामने बैठकर बात कर लेते हैं. शादी-ब्याह के मामलों में जल्दबाज़ी ठीक नहीं. आख़िर उसकी पूरी ज़िंदगी का सवाल है.”
मायाजी को बात समझ आ गई थी और इसके साथ ही उनके उत्साह को एक ब्रेक-सा लग गया था.
अमन के स्वागत की तैयारियां अभी भी जारी थीं, पर महेशजी महसूस कर रहे थे कि उन तैयारियों का रंग कुछ फीका-सा पड़ गया है. इसके हेतु वे स्वयं हैं, यह सोचकर एक पल को वे दुखी हो जाते, पर मायाजी को बाद में कोई आघात न लगे, यह सोचकर उन्हें पत्नी को आगाह करना ग़लत नहीं लगता.
आख़िर वह चिरप्रतीक्षित दिन भी आ ही गया. अमन के आते ही नाते-रिश्तेदारों का हुजूम-सा उमड़ पड़ा. महेशजी और मायाजी की ख़ुशी का पारावार न था. इससे पूर्व कि मायाजी उसे अपने इरादों से अवगत कराए कानपुर वाली मौसीजी ने अपनी भतीजी का गुणगान आरंभ कर दिया. शक्कू बुआ अपने देवर की बेटी की डिग्रियां गिनाने लगीं, तो नोएडा वाले चाचाजी अमन पर ब्याह करके ही लौटने का दबाव बनाने लगे. अमन इस चौतरफा वार से हक्का-बक्का रह गया. एकांत में मौक़ा मिला, तो वह मां-पापा के सामने फूट पड़ा.
“मैंने आप लोगों को बताया तो था कि मैं एक-दो साल में इंडिया लौटकर यहीं व्यवस्थित हो जाऊंगा. फिर यह सब क्या है?”
“बेटा, नौकरी-व्यवसाय सब चलता रहता है. समय रहते घर-गृहस्थी बसाना भी उतना ही ज़रूरी है. फिर इन सबको हमने थोड़े ही न आमंत्रित किया है. ये तो सब आप ही लड़की दिखाने के इरादे से आ गए हैं. सभी को अब तक यह कहकर टालते आ रहे थे कि अमन आएगा तब देखेंगे. इसलिए सभी तेरे आने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे.”
“पर…”
अमन के चेहरे पर ग़ुस्से और परेशानी के भाव देख महेशजी ने बात संभालनी चाही.
“यदि तुम्हें वहां कोई लड़की पसंद आ गई है, तो बता दे. हम उसी से तेरी शादी कर देंगे. इन सबको मैं संभाल लूंगा, तू चिंता मत कर.”
“ऐसी कोई बात ही नहीं है पापा. दरअसल, मैं अभी गृहस्थी बसाने के लिए मानसिक रूप से तैयार ही नहीं हूं. इसलिए मुझे यह सब बड़ा अजीब लग रहा है.”
“लेकिन बेटा, अब इन रिश्तेदारों को ना कहते हमें कितना अजीब लगेगा. ज़रा कल्पना करके देखो. जब तुम यहां नहीं होते, तो ये सब ही तो हमारा सहारा होते हैं. देर-सवेर, आधी रात कभी भी एक फोन करते ही मदद को तुरंत हाज़िर हो जाते हैं. अब इन्हें साफ़ इंकार करूंगी, तो समझेंगे जवान बेटे के आते की बुढ़िया रंग बदलने लगी है. बेटा, मेरी ख़ातिर एक बार लड़कियों को देख तो ले… फिर आगे मामला संभाल लेंगे. सब लोग कब से तेरे आने की राह ताक रहे हैं, अब उन्हें इस तरह टका-सा जवाब देना भला अच्छा लगेगा?” मां ने बेटे के सम्मुख झोली फैला दी, तो अमन के लिए बोलने को कुछ भी शेष नहीं रहा.
घरवालों में हुई गुफ़्तगू का मेहमानों को कुछ सुराग तो लगना ही था. दिल्ली वाली ननद बोल ही पड़ी, “भाभी, हम लोग अब चलेंगे. चीनू की पढ़ाई का नुक़सान हो रहा है. आजकल इनके स्कूलों में सतत मूल्यांकन प्रक्रिया आरंभ कर दी गई है. बच्चे को पता ही नहीं चलता और टीचर उसकी सारी गतिविधियों पर नज़र रखते हुए उसका सतत मूल्यांकन करती रहती है.”
“अरे वाह, यह तो अच्छा है. बच्चों पर परीक्षा का हौवा नहीं रहता होगा.” मायाजी ने भी मन के अपराधबोध से उबरने के लिए वार्तालाप में सहजता से हिस्सा लेना आरंभ कर दिया.
“हां, उस लिहाज़ से ठीक भी है. पर अब बच्चे को हर वक़्त तैयार रहना होगा और ज़्यादा छुट्टियां भी नहीं करनी होगी.”
मायाजी उनका मंतव्य समझ रही थीं. अमन को चीनू के संग बातों में लगा, उन्होंने ननद के संग लड़की देखने का कार्यक्रम निश्‍चित कर लिया. जैसी कि उम्मीद थी देखने-दिखाने का कार्यक्रम बेहद औपचारिक रहा. अमन पूरे वक़्त असहज महसूस करता रहा.
घर लौटकर मायाजी ने उससे ज़्यादा पूछताछ करना या दबाव बनाना उचित नहीं समझा. पर यह कहकर आगे के कार्यक्रम की भूमिका अवश्य बनाती रहीं कि अभी कुछ और देख ले, तभी तो बेचारा निर्णय कर पाएगा. इस तरह एक और कन्या देखने का कार्यक्रम भी संपन्न हुआ. शीघ्र प्रत्युत्तर का आश्‍वासन पाकर मेहमान धीरे-धीरे विदा होने लगे.
लेकिन जब मायाजी ने तीसरी लड़की देखने जाने का प्रस्ताव रखा, तो अमन के सब्र का बांध टूट गया.
“बस मां, अब और तमाशा नहीं. मैं यह विंडो शॉपिंग का नाटक अब और नहीं खेल सकता.”
“विंडो शॉपिंग?” मायाजी का आश्‍चर्यमिश्रित स्वर उभरा था.
“हां विंडो शॉपिंग. जब मुझे अभी शादी ही नहीं करनी, तो इस तरह लड़कियों को देखना विंडो शॉपिंग ही तो हुआ.”
“लेकिन इसमें बुराई क्या है? विंडो शॉपिंग कोई बुरी चीज़ तो है नहीं?” मायाजी अभी भी हार मानने को तैयार नहीं थी.
“विंडो शॉपिंग बुरी चीज़ नहीं है मां. क्योंकि वहां हम जिन चीज़ों को देखते हैं, वे सभी निर्जीव चीज़ें हैं. हम उन्हें पसंद करें या न करें, ख़रीदें या न ख़रीदें, इससे उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. लेकिन विवाह योग्य लड़की सजीव है. आपकी और मेरी तरह वह भी सोचती है, समझती है, उसमें भी भावनाओं और संवेदनाओं का संप्रेषण होता है. और मैं किसी की भी संवेदनाओं से खिलवाड़ नहीं कर सकता. वे सभी अच्छी हैं, योग्य हैं. उनकी और उनके माता-पिता की आंखों में जब उम्मीद की किरण देखता हूं, तो अपने आप से घृणा होने लगती है. क्यूं मैं उनकी भावनाओं और उम्मीदों से खेल रहा हूं? शायद मैं ही अभी तक उनके योग्य नहीं बन पाया हूं.”
“लेकिन बेटा जब तक हम कुछ को देखेंगे नहीं, सर्वाधिक उपयुक्त का चयन कैसे कर पाएगें? अभी नहीं तो कुछ समय बाद तो हमें इस प्रक्रिया से गुज़रना ही होगा न?.. मैं तो सोच रही थी शायद उपयुक्त पात्र देख तेरा मन बदल जाए, बस इसीलिए…” मायाजी के स्वर में फिर से अपराधबोध का दर्द उभर आया. पर इस बार यह अपराधबोध अमन के प्रति था. मां-बेटे बहस में इतना तल्लीन थे कि उन्हें महेशजी के घर में आ जाने का भी पता नहीं चला. पापा को झल्लाया-सा देख अमन ने परेशानी का कारण जानना चाहा.
“अरे वही पसंद-नापसंद का झमेला. जब भी चार औरतें इकट्ठी होकर साड़ी लेने आती हैं, साड़ी लें न लें, मुझे सिरदर्द का तोहफ़ा ज़रूर दे जाती हैं. पचास साड़ियां खुलवा लेंगी. एक भी पसंद नहीं करेंगी. फिर एक ऐसी साड़ी की डिमांड रखेंगी, जिसका रंग अमुक साड़ी जैसा हो, फेब्रिक अमुक साड़ी जैसा, वर्क अमुक जैसा और क़ीमत अमुक से ज़्यादा नहीं. अब बताओ वैसी साड़ी कहां से ईजाद करूं? ख़ैर दुकान की परेशानी छोड़ो, यह बताओ तुम लोगों में क्या बहस हो रही थी?”
“मां, आपने अभी पापा द्वारा कही बात पर गौर किया? क्या आपको नहीं लगता कि लड़की के मामले में हमारी यानी कि वरपक्ष की मांग भी बहुत कुछ मनपसंद साड़ी जैसी ही है. रंग अमुक जैसा, नैन-नक्श अमुक जैसे, खानदान ऐसा, शिक्षा वैसी, आर्थिक स्थिति… जब परफेक्ट साड़ी बनाना संभव नहीं है, तो कोई परफेक्ट लड़की कैसे बना सकता है?”
“फिर? फिर तू ही बता क्या करें? क्यूं जी, ऐसे तो मेरा अमन क्या कुंआरा ही रह जाएगा?” मायाजी ने मासूमियत से पूछा, तो अमन के चेहरे पर मुस्कुराहट उभर आई.
“नहीं मां, इतनी चिंता जैसी भी कोई बात नहीं है… वैसे मेरे दिमाग़ में चीनू वाली सतत मूल्यांकन प्रक्रिया घूम रही है. मेरे ख़्याल से दोनों ही पक्षों को विवाह योग्य युवक-युवतियों का गुपचुप सतत मूल्यांकन करते रहना चाहिए और पसंदीदा पात्र मिल जाने पर बिना हिचकिचाहट के प्रस्ताव रख देना चाहिए. इसमें किसी भी तरह का अहं आड़े नहीं आने देना चाहिए. इससे संभवतः किसी की संवेदनाएं भी आहत नहीं होगीं और बेहतर जीवनसाथी का चयन संभव हो पाएगा.”
“मुझे तुम्हारा सुझाव पसंद आया बेटे. यह मूल्यांकन प्रक्रिया तुम भी ज़ारी रखना और हम भी. उपयुक्त पात्र मिलते ही एक-दूसरे को सूचित करेंगे, ताकि आगे कदम उठाया जा सके.”
अमन चला गया. उसके जाने से उपजा खालीपन किसी भी तरह भरने का नाम ही नहीं ले रहा था. इसी दौरान महेशजी के दोस्त की बेटी रिया किसी प्रशिक्षण के सिलसिले में उनके पास एक सप्ताह रहने आ गई. आज विंडो शॉपिंग का प्रसंग छिड़ते ही दोनों के कान खड़े हो गए और उन्होंने ऑपरेशन सतत मूल्यांकन के लिए कमर कस ली. मायाजी को अपन आसपास का खालीपन भरता नज़र आने लगा.

- संगीता माथुर

अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES

Photo Courtesy: Freepik


अभी सबस्क्राइब करें मेरी सहेली का एक साल का डिजिटल एडिशन सिर्फ़ ₹399 और पाएं ₹500 का कलरएसेंस कॉस्मेटिक्स का गिफ्ट वाउचर.

Share this article