नीता वर्मा

उसने हालात से समझौता कर अपनी सांवली रंगत को अपनी कमज़ोरी ही मान लिया था और इसकी भरपाई उसने सबकी ग़ुलामी बजाकर की थी. एकमात्र ससुरजी ही थे, जो उसके गुणों की सराहना करते थे और उसे समझते थे, लेकिन उनके देहांत के साथ ही स्नेह का वह सेतु भी टूट गया. अब तो सासू मां भी नहीं रहीं, लेकिन दोनों ननदें यदा-कदा आकर उसके सांवलेपन का एहसास तो करा ही जाती हैं.
कविता अपने ख़्यालों में इस क़दर खो गई थी कि उसे यह आभास ही नहीं हुआ कि कब श्याम उसके पास आकर खड़े हो गए, ङ्गङ्घजल्दी से नाश्ता दे दो, मुझे ऑफ़िस के लिए देर हो रही है.फफ कविता सकपका गई. कुछ बोल न सकी. चुपचाप टेबल पर नाश्ता लगा दिया. श्याम नाश्ता करने के बाद बोले, "कविता, मैंने रूपा दीदी, सोना और श्वेता को फ़ोन कर दिया है, सब लोग शाम तक आ जाएंगे. रात के खाने में सबकी पसंद की एक-एक डिश बनवा देना. तुम्हें तो सबकी पसंद मालूम ही है." श्याम आदेश उछालकर ऑफ़िस चले गए. कविता मन ही मन सोचने लगी. बस, दूसरों की पसंद का ही तो ध्यान रखती आई है वह. अपनी पसंद तो वह इतने बरसों में भूल ही चुकी है. ख़ैर, आज वह अपना मूड नहीं ख़राब करेगी. फ़िलहाल, वह अपने बेटे श्लोक की पसंद का नाश्ता ख़ुद बनाएगी. दो साल विदेश में रहकर आया है श्लोक. मुंबई से बीटेक करने के बाद उसे लंदन में एमबीए करने का मौक़ा मिला, तो कलेजे पर पत्थर रखकर कविता ने उसे जाने की अनुमति दे दी थी. मन में हमेशा संशय के बादल घुमड़ते रहते थे. 'क्या पता, पढ़ाई पूरी करने के बाद श्लोक को वहां जॉब का ऑफ़र मिले, तो वह वहीं बसने का फैसला कर ले और फिर किसी विदेशी लड़की से शादी करके...?' बस, इसके आगे सोचने की हिम्मत नहीं कर पाती थी वह. उनके रिश्तेदार और जान-पहचान के लोग भी यदा-कदा इस तरह के शगू़फे छोड़कर कविता का दिल धड़काते रहते थे. अब इकलौते बेटे से ही तो उसकी सारी उम्मीदें जुड़ी थीं. वह भगवान से यही प्रार्थना करती रहती कि उसका श्लोक अपनी ज़मीन और अपने संस्कारों से हमेशा जुड़ा रहे. उसकी दुआ रंग लाई. उसके दिए संस्कारों की बदौलत ही श्लोक ने लंदन में मिल रहे जॉब को ठुकरा दिया और दिल्ली की एक मल्टीनेशनल कंपनी से मिले ऑफ़र को स्वीकार कर लिया. लंदन से वापस आते ही उसने वह कंपनी ज्वाइन कर ली. मात्र दो महीने ही तो हुए थे उसे वापस आए, लेकिन लड़कीवालों की लाइन लग गई. एक से एक लड़कियों के फ़ोटोग्राफ़ और बायोडाटा. अब शादी तो करनी ही थी उसकी, लेकिन निर्णय लेना कठिन हो गया था. वैसे भी कविता का निर्णय कोई मायने नहीं रखता था, इसीलिए तो श्याम ने अपनी दोनों बहनों और बेटी को बुलाया था. आज श्लोक की शनिवार की छुट्टी थी. वह शनिवार और रविवार को देर तक सोता रहता था. आज कविता उसके लिए उसकी पसंद के आलू परांठे बनानेवाली थी. सारी तैयारी करके उसने जाकर देखा, तो वह अभी सो रहा था. कविता लड़कियों के फ़ोटो लेकर बैठ गई और बड़ी हसरत से एक-एक फ़ोटो देखने लगी. उसे अच्छी तरह पता था कि फैसला लेना तो दूर की बात रही, दोनों ननदों के आने के बाद उसे तस्वीरें देखना भी नसीब नहीं होगा. अपनी सास और ननदों से मिली उपेक्षा का दंश तो वह ससुराल में पहले दिन से ही झेलती आई थी. यह तो एक इत्तेफ़ाक ही था कि उसके ससुर ने अपने दोस्त की सांवली-सलोनी पुत्री को अपने इकलौते बेटे के लिए पसंद कर लिया था. दरअसल, उन्होंने उसके रंग की बजाय उसके गुणों को देखा था, लेकिन उसका सांवला रंग उसके सारे गुणों पर भारी पड़ गया. श्याम तो अपने नाम के विपरीत थे. वे भी अपनी मां और बहनों की तरह बिल्कुल गोरे-चिट्टे थे और गोरे लड़के की सांवली पत्नी उन लोगों के गले नहीं उतर रही थी, पर यह भी सच है कि श्याम ने कभी उस पर कटाक्ष नहीं किया, लेकिन उनकी मां-बहनों ने जो ज़ख़्म कविता को दिए, वे उसका मरहम भी नहीं बन सके. वह तो कविता की क़िस्मत अच्छी थी कि दोनों बच्चे गोरे पैदा हुए. बेटे के जन्म के बाद वह अभी उसे मुग्ध भाव से निहार ही रही थी कि सोना की आवाज़ उसके कानों से टकराई, "थैंक गॉड कि यह भइया पर गया है, वरना हमारा खानदान ही काला हो जाता." कविता का हृदय छलनी होकर रह गया, फिर बेटी के जन्म के समय भी कुछ ऐसा ही सुनने को मिला. इस बार उसे आहत करनेवाली रूपा दीदी थीं, "चलो, अच्छा हुआ कि लड़की हमारे जैसी है, वरना कविता की तरह होती, तो इसका रिश्ता तय करने में श्याम के जूते घिस जाते." कविता ने सारा दर्द अंदर ही समेट लिया और अपने ख़ूबसूरत बच्चों की परवरिश में व्यस्त हो गई. उसने हालात से समझौता कर अपनी सांवली रंगत को अपनी कमज़ोरी ही मान लिया था और इसकी भरपाई उसने सबकी ग़ुलामी बजाकर की थी. एकमात्र ससुरजी ही थे, जो उसके गुणों की सराहना करते थे और उसे समझते थे, लेकिन उनके देहांत के साथ ही स्नेह का वह सेतु भी टूट गया. अब तो सासू मां भी नहीं रहीं, लेकिन दोनों ननदें यदा-कदा आकर उसके सांवलेपन का एहसास तो करा ही जाती हैं.
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