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कहानी- वो कहते हैं… (Short Story- Woh Kehte hain…)

रात को बच्चों को मिले गृह कार्यों में थोड़ी मदद की जाती है. फिर रात्रि देवी अपने आगोश में लेने को तत्पर हो जाती है. इसी तरह वक़्त अपने आप में पंख लगा कर ऐसे ही उड़ता जाता है, मैं उन्हें पकड़ने की लाख कोशिश करती हूं, पर वो तो निकल ही जाते हैं. ऐसे में वक़्त आगे निकल जाता है और मैं पीछे छूट जाती हूं और वो कहते हैं, "पूरे दिन तुम करती क्या हो?"

अब उनको कौन समझाए मेरे भी एक-एक पल कैसे चुपके-चुपके दबे पांव निकल जाते हैं और उन पलों के साथ-साथ मेरी व्यस्तता भरी सुबह से शाम कैसे गुज़र जाती है, पता ही नहीं चलता. पूरे दिन इन दो पैरों पर चक्करघिन्नी की तरह घूमते-घूमते जब गोधूलि बेला के बाद रात्रि देवी मुझे अपने आगोश में लेने के लिए तैयार रहती है, तब उस पल भी सुबह की रुपरेखा बनाते-बनाते मेरी पलकें कब बंद हो जाती है मुझे पता हीं नहीं चलता.
स्वर्णिम आभा के छिटकने से पहले, चिड़ियों के चहकने से पहले बिन घंटी मेरी आंखें ब्रह्म मुहूर्त में ऐसे खुलती है जैसे घड़ी की सुई अपनी रफ़्तार से बिन कहे, बिन सुने टिक-टिक कर घंटे बदलती है.
दिनकर देवता जब तक अपनी नारंगी आभा बिखेरने को तत्पर होते हैं, तब तक उन्हें पराजित करते हुए बड़े से घर के आंगन, बरामदे एवं पूरे घर में मैं झाड़ू लगाकर सफ़ाई से निवृत हो लेती हूं.
बच्चों के उठने से पहले स्नानघर में उनके कपड़े रखकर झट से रसोई में घुस जाती हूं. जब तक इधर सब्ज़ी पकाने की तैयारी होती है, उधर बच्चों को स्नान कर तैयार होने के लिए जगा देती हूं जैसे ही स्कूल ड्रेस पहनकर बच्चे तैयार होते हैं, फटाफट रोटियां बेलकर सबको निवाले बना-बना कर खिला देती हूं…
खाना खिलाते-खिलाते "मेरे मोजे कहांं है…" "मेरा रुमाल कहां है…" "मेरी फाइलें कहां हैं…" उस वक़्त उन्हें भी देखना होता है. उनकी सारी फ़रमाइशें पूरी करते हुए उनके टिफिन एवं बच्चों का टिफिन उन सबके बैग में भरते हुए उनको और बच्चों को रवाना करते ही रसोई के बचे काम निपटाती हूंं.
फिर सीढ़ियों के रास्ते पर रखें चिड़ियों के पिंजरे का पानी बदलती हूं और उनको दाना-पानी डालती हूं. एक चिड़िया थोड़ी कमजोर है, इसीलिए उसे बाकी चिड़िया बहुत परेशान करती हैं. जब तक वो छोटी और कमज़ोरवाली चिड़ियां दस दाने चुग न ले, थोड़ी देर उसकी पहरेदारी भी कर लेती हूं.
कुछ सीढ़ियां चढ़ने के बाद ठीक दरवाज़े के बगल में मेज पर रखी मछलीघर के पास से गुज़रते ही मछलियां दाना मांगने के लिए तैर -तैर कर मेरी ओर आने लगती हैं मानो उन्हें पता हो कि अबकी बारी मेरी है और मैं उनके भूख को समझते हुए जैसे ही उन्हें दाना डालती हूं, मछलियां ख़ुश होकर ऊपर-नीचे होकर दाना खाने लगतीं हैं. उस सुंदर दृश्य को देखकर मेरे कदम जैसे अनायास ही ठिठक जाते हैं.
चंद लम्हे उनके पास गुज़ारने के बाद ऊपरवाली छत की ओर बढ़ती हूं, जहां बहुत सारे गमले रखे हैं, जो मानो मेरे आने की बाट जोह रहे हो कि मेरा माली मेरी देखभाल करने के लिए आता ही होगा. उन गमलों में लगे फूलों और पौधों को पहले जी भर कर निहार लेती हूं, फिर उनमें पानी देकर नीचे आकर घर की साफ़-सफ़ाई में जुट जाती हूं.
स्नान-ध्यान कर वापस छत पर से भिन्न-भिन्न प्रकार के रंग-बिरंगे डलिया भरकर फूल लाकर पूजा की तैयारी में लगती हूं. फिर दरवाज़े के दाहिनी ओर रखे शम्मी पेड़ में मंत्र बोलते हुए जल डालती हूं-
शम्यते पापम् शमी शत्रुविनाशिनी।
अर्जुनस्य धनुर्धारी रामस्य प्रियदर्शिनी।।
करिष्यमाणयात्राया यथाकालम् सुखम् मया।
तत्रनिर्विघ्नकर्त्रीत्वं भव श्रीरामपूजिता ।।

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फिर ईशान कोण में रखे तुलसी के गमले में जल अर्पित करते हुए-
वृंदा वृंदावनी विश्वपूजिता विश्वपावनी।
पुष्पसारा नंदिनी च तुलसी कृष्णजीवनी ||माँ का वंदन करती हूंँ।

फिर साथ में लगे आंवले के वृक्ष में मां लक्ष्मी को याद करते हुए- "ऊं धात्र्यै नम:'' का मंत्र जाप करते हुए जल अर्पित करती हूं.
इसके बाद साथ में लगे केले के पेड़ में विष्णु भगवान को याद करते हुए- "ॐ बृहस्पते नम:" बोलते हुए जल चढ़ाती हूं.
फिर साक्षात उगे सूर्य देवता को भला कैसे भूल सकती हूं-
"एहि सूर्य! सहस्त्रांशो! तेजो राशे! जगत्पते!अनुकम्प्यं मां भक्त्या गृहाणार्घ्य दिवाकर!"
मंत्र का उच्चारण करते हुए जल अर्पित करती हूं एवं उनकी परिक्रमा करने के बाद पूजाघर का रूख लेती हूंं. जहां हमारे घर की मुखिया, हमारी शक्ति, हमारे सभी दुखों का सहारा, सभी ख़ुशियों के साक्षी मां दुर्गा के साथ-साथ अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां रखी हुई हैं.
उन सब की विधिवत पूजा-आरती करने के बाद प्रसाद खाते हुए पूजा समाप्त करती हूंं. नाश्ता करने के बाद दोपहर के लिए खाना बनाने की शुरूआत हो जाती है. इधर झरोखे पर जाकर बार-बार बच्चों के आने का इंतज़ार होता है. साथ ही मन ही मन सोचती रहती हूं कि पता नहीं साहबजी खाना खाए कि नहीं, ज़रा फोन लगाकर पूछ ही लेती हूं. जब खाना खा लिए होते हैं, तो इत्मीनान हो जाती है. नहीं खाते हैं तो, "खा लीजिए खाना ठंडा हो जाएगा." कहकर वापस अपने कामों में लग जाती हूं.
जैसे ही बच्चे वापस घर आते हैं बच्चों को खाना खिलाने के बाद, जो चंद पल खाली मिलते हैं उन बेहद ख़ूबसूरत पलों में मन के कुछ जज़्बातों को शब्दों, पंक्तियों में ढाल कर कविता, कहानी, आलेख या संस्मरण आदि का रूप गढ़कर उन्हें अपने उर से आजाद करती हूंं.
तब तक हो जाती है सुहानी शाम, वो शाम भी चाय-नाश्ते में निकल जाती है. कुछ बचे वक़्त का इस्तेमाल कभी दोस्तों से, कभी रिश्तेदारों से बातें करने में हो जाता है. तब तक बच्चे ट्यूशन से आ जाते हैं. उन्हें नाश्ता करवा कर रात के खाने की तैयारी में लगना होता है.
रात को बच्चों को मिले गृह कार्यों में थोड़ी मदद की जाती है. फिर रात्रि देवी अपने आगोश में लेने को तत्पर हो जाती है. इसी तरह वक़्त अपने आप में पंख लगा कर ऐसे ही उड़ता जाता है, मैं उन्हें पकड़ने की लाख कोशिश करती हूं, पर वो तो निकल ही जाते हैं. ऐसे में वक़्त आगे निकल जाता है और मैं पीछे छूट जाती हूं और वो कहते हैं, "पूरे दिन तुम करती क्या हो?"

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यह दिनचर्या तो लगभग सभी मध्यमवर्गीय परिवार की स्त्रियों का होता है. तक़रीबन हर मध्यमवर्गीय पतिदेव अपनी पत्नियों से कहते हैं, "तुम करती क्या हो?"
अब भला ऐसे में मैं उन्हें किन-किन वक़्तों का हिसाब और किन-किन कामों की गिनतियां गिनवाई जाए कि "मैं पूरे दिन करती क्या हूं…"

अर्चना भारती नागेंद्र

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