कहानी- यक्ष का ग्यारहवां प्रश्न (Short Story- Yaksh Ka Gyarhva Prashan)
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लगता है, यक्ष को अभी एक और प्रश्न यानी ग्यारहवां प्रश्न पूछना बाकी रह गया है. “विधाता ने तो स्त्री-पुरुष को एक-दूसरे का पूरक, दो आधार स्तंभ के रूप में बनाया था, जिनके मिलने से ही सृष्टि प्रवाहमान है अनादि काल से. फिर स्त्री, पुरुष की आश्रिता कैसे बन गई? अपनी अस्मिता त्याग उसी की बताई राह पर चलने को बाध्य क्यों हो गई?”
व्यक्ति के सामाजिक और पारिवारिक चेहरे में कुछ अंतर होना तो स्वाभाविक ही है. घर में हम सब अपने असली रूप में ही रहते हैं, पर क्या यह अंतर इतना भी हो सकता है कि किसी व्यक्ति का सार्वजनिक मुखौटा उतरा देख हम उसे पहचान ही न पाएं? आपको लगता है कि आप अपने घनिष्ट मित्र को, भाई बंधु को अच्छी तरह जानते हैं, पर संभव है कि असलियत सामने आने पर विश्वास ही न कर पाएं.
यूं विश्वास न कर पानेवाली तो और भी अनेक बातें होती हैं. प्रशांत की मृत्यु ही क्या विश्वास कर लेनेवाली बात थी? शनिवार की पूरी शाम हमने साथ बिताई थी. रात दस बजे तक हम साथ थे और रविवार की सुबह मैं श्मशान घाट खड़ा था- उसे अंतिम विदा देने.
प्रशांत मेरा घनिष्ट मित्र था. हम दोनों ने इंजीनियरिंग एक ही कॉलेज से की थी. कुछ समय वह विदेश लगा आया. लेकिन लौट कर सौभाग्यवश उसी कंपनी में उसे नौकरी मिली, जिसमें मैं कार्यरत था और कंपनी द्वारा निर्धारित एक ही कॉलोनी में हम रहने भी लगे. छात्र जीवन में जो महज मेरा एक सहपाठी था, अजनबी शहर में संग रहने से वह मेरा परम मित्र बन गया. ब्रिज खेलने का शौक़ हम दोनों को और भी क़रीब ले आया. हर शनिवार की शाम हम क्लब में दो अन्य साथियों के साथ ब्रिज खेला करते.
उस शनिवार भी हम इतना एकाग्र होकर खेल रहे थे कि समय का ध्यान ही नहीं रहा. आम ताश के खेलों से बहुत भिन्न होता है यह खेल. अच्छी-ख़ासी दिमाग़ी कसरत करा देता है. रात दस बजे मुझे ध्यान आया कि पत्नी प्रतीक्षा में बैठी होगी, तो मैं तुरंत लौट आया, पर प्रशांत अभी और खेलने के मूड में था. भोजन करके मैं तुरंत सोने चला गया. थका हुआ तो था ही, लेटते ही गहरी नींद में सो गया. रात दो बजे जब फ़ोन की घंटी बजी तब भी मेरी नींद नहीं खुली. पत्नी ने ही एक हाथ से फ़ोन पकड़े झकझोर कर मुझे जगाया और फ़ोन पर बात करती रही. क्लब से लौटते हुए प्रशांत का एक्सीडेंट हो गया था और उसे हॉस्पिटल ले जाया जा चुका था. हम दोनों तुरंत हास्पिटल भागे, पर तब तक सब समाप्त हो चुका था. अख़बारों में तो ऐसी ख़बरें छपती ही रहती हैं, पर मेरे किसी अपने के साथ भी ऐसा हो सकता है, विश्वास नहीं हो रहा था. किन्तु रात के अंधेरे में जो बात दुःस्वप्न मात्र लग रही थी, सुबह के उजाले में वह एक भयानक सच्चाई बनकर खड़ी थी. प्रशांत हमेशा के लिए हमें छोड़कर जा चुका था.
प्रशांत अपनी सेहत के प्रति बहुत सजग रहता था. नियमित एक्सरसाइज़, सुबह जॉगिंग, भोजन में भी सतर्कता बरतता था. वह प्रायः ही मेरी मस्तमौला जीवनशैली का मज़ाक उड़ाता, मुझे नसीहतें देता रहता. आकर्षक व्यक्तित्व और चुस्त क़द-काठी के कारण वह मुझसे पांच-सात वर्ष कम ही दिखता, जबकि इंजीनियरिंग में हम एक ही बैच में थे.
प्रशांत ने अपना जीवन अपनी शर्तों पर जिया था. उसके पापा का कपड़े का छोटा-सा बिज़नेस था. यदि उनकी चली होती, तो प्रशांत जीवनभर पटरे पर बैठा मीटर-दो मीटर के हिसाब से कपड़ा ही मापता रहता और किसी घरेलू लड़की से विवाह कर जीवन बिता देता. उसकी बहनों ने तो क्या, बड़े भाई ने भी अधिक पढ़ाई नहीं की. प्रशांत घर में सबसे छोटा था. उसने विद्रोह कर स्कूल शिक्षा तो पूरी की ही, इंजीनियर भी बन गया. शिक्षा के साथ वह उच्चवर्गीय रहन-सहन व तौर-तरी़के भी सीख गया और अकेले अपनी राह बनाते रहने से काफ़ी चालाक भी हो गया.
अपने लिए पत्नी का चयन भी उसने परिवारवालों की पसंद पर न छोड़ स्वयं ही करने की ठानी. रेशमा से उसकी पहली मुलाक़ात किसी संबंधी के विवाह में हुई थी. प्रशांत तो क्या कोई भी रेशमा से प्रभावित हुए बिना न रहता. ख़ूबसूरत तो वह थी ही, शिक्षित और शालीन भी थी. प्रशांत ने उसके बारे में पूछताछ की, पता मालूम किया और रिश्ते की एक बहन को साथ लेकर उनके घर जा पहुंचा रेशमा का हाथ मांगने. मम्मी-पापा को बीमार व अशक्त बताकर उनकी अनुपस्थिति को बड़ी सफ़ाई से तर्कसंगत कर दिया. रेशमा के मम्मी-पापा को उसमें ऐसी कोई कमी नज़र नहीं आई कि मना कर देते. इसे प्रेम-विवाह तो नहीं कह सकते, पर प्रशांत ने अपने मन की पा ली थी.
मित्र प्रशांत की सराहना करते. उसके भाग्य से ईर्ष्या करते. उसके पास वह सब कुछ था, जिसकी एक पुरुष कामना कर सकता है और उसने ये सब अपने ही बलबूते प्राप्त किया था. पर शाश्वत सच तो यह है कि मनुष्य अपने परिवार से विद्रोह कर सकता है, अपनी परिस्थितियों को पछाड़ सफलता पा सकता है, किन्तु मृत्यु के आगे वह बेबस है.
और आज इसी कठोर सच्चाई से हमारा सामना हुआ था और हम लाचार खड़े आंसू बहा रहे थे. मित्र, रिश्तेदार, बच्चे, बड़े- सब.
महाभारत की गाथा में यक्ष ने युधिष्ठिर से दस प्रश्न पूछे थे. उनमें से एक था, “सृष्टि का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?”
और धर्मराज युधिष्ठिर ने उत्तर दिया था, “मृत्यु को अवश्यंभावी जानते हुए भी हम यूं जीते हैं जैसे कि हम अमर हों.”
सच ही तो है कि मृत्यु के सत्य को नकार कर जीते हैं हम. जीवन की अनेक योजनाओं में उसका कहीं नाम नहीं होता. एक अनचाहे अतिथि की तरह ही उसे स्वीकार करते हैं हम, क्योंकि करना ही पड़ता है. प्रशांत की मृत्यु को महीना हो चुका था. मित्रों व रिश्तेदारों की संवेदनाएं सब चुक गई थीं. मृत्यु पश्चात् की क़ानूनी कार्यवाही, ऑफ़िस संबंधी काग़ज़ात, इन सब की ज़िम्मेदारी मैंने ले रखी थी. प्रशांत से मेरा जितना क़रीबी रिश्ता था, उस अनुपात में मैं रेशमा को कम ही जान पाया था और इसका मुख्य कारण था प्रशांत का उसे बहुत कम अपने साथ कहीं लेकर जाना, हमारे घर भी नहीं. प्रशांत स्वयं गप्पबाज़ी का बहुत शौक़ीन था और ऑफ़िस से लौटते हुए अनेक बार किसी न किसी के घर बैठ जाता. एक ही ऑफ़िस में होने के कारण सभी तो परिचित थे उसके. मेरी पत्नी भी ख़ुशमिजाज़ और बातूनी है. दोनों देर तक बैठे बतियाते रहते, पर जैसे ही रेशमा को साथ लाने की बात होती तो कभी बच्चों की पढ़ाई, होमवर्क के नाम से तो कभी उनकी बीमारी के बहाने वह टाल ही जाता. उसके घर पहुंच जाने पर भी उसकी कोशिश यही रहती कि रेशमा रसोई में ही बनी रहे. कभी गरम-गरम पकौड़ों की फ़रमाइश तो कभी चाय फिर से बना लाने की. मित्र अक्सर छेड़ते, “सुंदर पत्नी है तभी घर में छुपाकर रखते हो.” पर निश्चय ही उसे यह मज़ाक पसंद नहीं आता था.
पर इस कारण रेशमा का कोई सामाजिक दायरा नहीं बन पाया था. प्रशांत की मित्र पत्नियों से संबंध सूत्र प्रशांत के ही नाते थे, जो उसके हटते ही ख़त्म हो गए थे. सच तो यह है कि रेशमा के आसपास का सब कुछ टूटने-बिखरने लगा था. ऑफ़िस की गाड़ी जा चुकी थी. फ़ोन कटनेवाला था. महीनेभर के भीतर ही उसे घर भी खाली कर देना था. अपने दो बच्चों के साथ वह बेघर हो जानेवाली थी और यह सूचना मुझे ही जाकर उसे देनी थी. बहुत बोझिल मन से उस दिन मैं वहां गया था.
पर जितनी चिंता मुझे यह बात सोचकर हो रही थी, उतनी चिंतित वह नहीं लग रही थी. चेहरा उदास ज़रूर था, पर टूटकर बिखर जानेवाले हालात नहीं. मुझे लगा रेशमा बड़ी हिम्मती है. मैंने जब घर खाली करने की बात शुरू की, तो उसने बड़े धैर्यपूर्वक बताया कि उसने अपना सामान समेटना भी शुरू कर दिया है. भविष्य के बारे में उसने अपनी योजना बताई.
कुछ स्त्रियां ऐसी होती हैं, जो आपमें बहन के समान भावना जगाती हैं- स्नेहमयी बहन-सी. कुछ ऐसा ही था रेशमा का भी व्यक्तित्व. उससे खुलकर बात करने का आज यह मेरा पहला अवसर था और मुझे लगा मैं उसके बारे में बहुत कम जानता हूं, जैसे- मैं नहीं जानता था कि रेशमा के मम्मी-पापा ज़िंदा हैं और पास ही के शहर में अकेले रहते हैं. रेशमा उनकी इकलौती संतान है, अतः रेशमा ने बच्चों के साथ वहीं जाकर रहने का निर्णय ले रखा था. वृद्धावस्था में उन्हें भी सहारे की ज़रूरत थी और साथ रहने से सभी एक-दूसरे का सहारा बन जाएंगे. एक और बात जो मुझे पता चली, वह यह कि शादी से पहले उसे कॉलेज में व्याख्याता की नौकरी मिल चुकी थी, जो शादी तय हो जाने पर उसे छोड़नी पड़ी. किन्तु दर्शनशास्त्र में एमए, पीएचडी होने से उसे आज भी नौकरी मिल सकती है.
कभी मेरे प्रश्न के उत्तर में और कभी स्वयं बताकर रेशमा अपनी आपबीती सुना रही थी और एक-एक करके प्रशांत के चेहरे से परतें उतर रही थीं.
रेशमा से विवाह तो हो गया प्रशांत का, पर उसमें ज़बरदस्त हीनभावना थी, जिसे छुपाने के लिए वह घर में हर समय उग्र रूप धारण किए रहता. पहली हीनभावना उसे अपने अशिक्षित परिवार को लेकर थी. हालांकि रेशमा ने तो उन्हें सहर्ष अपना लिया था. वे लोग अनपढ़ ज़रूर थे, पर सरल व स्नेही स्वभाव के थे. रेशमा को उनसे कोई शिकायत नहीं थी. दूसरी हीनभावना प्रशांत को अपने नाटे क़द और साधारण रूप-रंग को लेकर थी. पर रेशमा को तो इस बात से कोई आपत्ति नहीं थी. पहली मुलाक़ात में और कुछ दिखे या नहीं रंग-शक्ल तो सामने ही होती है और रेशमा ने अपने मम्मी-पापा के निर्णय को पूरी तरह शिरोधार्य कर लिया था. अपनी हीनभावना से ग्रस्त प्रशांत पत्नी को हर समय नीचा दिखाने का प्रयत्न करता. उसे कम अक्ल और फूहड़ साबित करने में अपनी सारी शक्ति लगा देता. अव्वल तो उसे अपने साथ कम ही लेकर जाता, लेकिन ले जाना आवश्यक होता और रेशमा थोड़ा सज-संवर लेती, तो उसे तंग करने से भी बाज़ न आता. इससे रेशमा का कहीं जाने का सारा उत्साह ही ठंडा पड़ जाता. मित्रों के संग ख़ुशमिजाज़ और ज़िंदादिल प्रशांत पत्नी से हर समय क्रोधित और चिड़चिड़े स्वर में ही बात करता. रेशमा को उससे साधारण-सी बात करते हुए भी डर लगता. जानती थी कि या तो उत्तर मिलेगा नहीं अथवा डपट दी जाएगी. यह भी नहीं कह सकते कि उसका स्वभाव ही ऐसा था. मित्र पत्नियों के सम्मुख तो वह सौम्यता की प्रतिमूर्ति बना रहता था.
अपनी हीनभावना को छुपाने के लिए ही वह बेवजह रौब झाड़ता. उसे लगता पति होने के कारण उसके असीमित अधिकार हैं. बाहर एकदम सभ्य और मैत्रीपूर्ण बर्ताव करनेवाला घर की चारदीवारी में घुसते ही तानाशाह का रूप धारण कर लेता, जहां उसके हर आदेश का पालन होना ही चाहिए. रेशमा को अपने मम्मी-पापा के घर जाने की मनाही थी, पर तब उसे बहुत दुख हुआ, जब प्रशांत ने उसे उसके गंभीर रूप से बीमार पापा से भी मिलने नहीं जाने दिया.
रेशमा को पढ़ाने का शौक़ था और उसे उसी स्कूल में नौकरी मिल भी रही थी, जिसमें उसके दोनों बच्चे पढ़ते थे. साथ ही आना-जाना हो जाता और बच्चों के लिए आया रखने की ज़रूरत भी न पड़ती, पर प्रशांत नहीं माना और कोई कारण भी नहीं दिया, “मैंने कह दिया नहीं तो मतलब नहीं.” यही उसका फ़रमान था.
यूं आकाश में ऊंची उड़ान भर सकने का हौसला रखनेवाली चिड़िया पिंजरे में कैद होकर रह गई, जहां वह नियमपूर्वक भोजन तो पा जाती थी, पर अपनी सब आकांक्षाओं के पंख कतर कर.
प्रशांत ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया था, “यहां तुम्हारी इच्छा कभी पूरी नहीं होगी. जैसा मैं चाहूं, वैसे ही रहना होगा. इस घर में रहने की यही शर्त है.” दो बच्चों की मां बन चुकी रेशमा ने चुप रहकर यह शर्त भी स्वीकार कर ली थी. प्रशांत ने और कोई वादा निभाया हो या नहीं, पर यह वादा अंत तक निभाया था.
“स्त्री समझौता करती है, तो इसलिए नहीं कि वह कमज़ोर होती है, बल्कि इसलिए कि वह स्वयं से पहले अपने बच्चों का हित सोचती है. अपने अहम् को दबाकर परिवार की प्रतिष्ठा बनाए रखने का सोचती है. अब मैं अपने बच्चों की परवरिश अपने ही बल पर करूंगी. तब भी कर सकती थी, पर तब मेरे बच्चे टूटे-बिखरे घर में पलते. मेरे मम्मी-पापा को हर परिचित के आगे मेरे संबंध-विच्छेद के कारणों का ब्यौरा देना पड़ता. हमारा पुरुष प्रधान समाज तो तब भी मुझमें ही दोष ढूंढ़ने का प्रयत्न करता.”
कहकर रेशमा ने अपनी कहानी समाप्त की और मैं सोच में पड़ गया.
‘आज का पुरुष सभ्य और शिक्षित होकर भी अपनी पत्नी को सम्मानपूर्वक जीवन जीने के हक़ से क्यों वंचित रखता है? चंद अपवादों को छोड़ आज भी अनेक घरों में पत्नी का स्थान दोयम दर्जे का ही है. उसे पति की इच्छा के अनुसार, उसी की सुख-सुविधा के हिसाब से जीना होता है. पुरुष होकर पैदा होने का इतना दंभ! किस समाज ने बनाए यह नियम?
इन प्रश्नों का उत्तर न उस दिन मेरे पास था और न आज ही है.
लगता है, यक्ष को अभी एक और प्रश्न यानी ग्यारहवां प्रश्न पूछना बाकी रह गया है.
“विधाता ने तो स्त्री-पुरुष को एक-दूसरे का पूरक, दो आधार स्तंभ के रूप में बनाया था, जिनके मिलने से ही सृष्टि प्रवाहमान है अनादि काल से. फिर स्त्री, पुरुष की आश्रिता कैसे बन गई? अपनी अस्मिता त्याग उसी की बताई राह पर चलने को बाध्य क्यों हो गई?”
उत्तर दो युधिष्ठिर.
उषा वधवा
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