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कहानी- बस एक पल (Story- Bas Ek Pal)

‘‘अतुल, तुम परवाह बहुत करते हो, उनकी भी जिनकी नहीं करनी चाहिए. दूसरों का सहारा लेकर तुम ख़ुद को बचाना चाहते हो. जानते हो ऐसे लोगों को क्या कहते हैं- कायर, बुज़दिल!’’ तुम्हारी बेबाक़ बात सुनकर मैं तिलमिलाते हुए कहता था, ‘‘ऐसा कुछ नहीं है. मैं कायर नहीं हूं.’’ पर आज… आज मैं स्वीकार कर सकता हूं सिया कि वह तिलमिलाहट इसलिए नहीं होती थी कि तुम ग़लत थीं, बल्कि इसलिए थी, क्योंकि मुझमें इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि मैं इस सच को स्वीकार कर सकूं!

घर में दो ही इंसान हों और उनमें भी अबोला की स्थिति हो तो घर कितना भयावह लगने लगता है, ये बात अब मेरी समझ में आ रही है. पिछले एक सप्ताह से ऐसा ही सन्नाटा पसरा है मेरे और मेरी बेटी रितु के बीच. रितु मुझे जान से प्यारी है, पर मैं उसकी हर ज़िद तो पूरी नहीं कर सकता न! उसकी मां आज ज़िंदा होती तो शायद हमारे बीच स्थिति कुछ बेहतर होती. पांच साल हो गए, पर आज भी उसकी कमी महसूस होती है- मुझे भी और रितु को भी. शायद मैं ही रितु के लिए उसकी मां की जगह नहीं ले पा रहा था. पर फिर सोचता हूं कि आख़िर ऐसा क्या चाह लिया है रितु ने, जो मैं इतना सोच रहा हूं? बस, यही न कि वह अपनी पसंद के लड़के निशांत से शादी करना चाहती है. सांवले रंग, आकर्षक व्यक्तित्व और बच्चों-सी मुस्कानवाला निशांत- एक बड़ी कम्पनी में सी.ए. है.
जब निशांत मुझसे रितु की बात करने आया था, तो मुझे अचानक ही रितु की पसंद पर गर्व हो आया था. निशांत में वे सारे गुण थे, जिनकी ख़्वाहिश हर माता-पिता अपनी बेटी के वर के लिए करते हैं. सब कुछ ठीक था. मैं इस रिश्ते के लिए लगभग मान गया था और मैंने रितु से निशांत के माता-पिता से मिलाने को कहा. तभी रितु ने मुझे बताया कि निशांत की मां डॉक्टर हैं और निशांत उनकी गोद ली हुई संतान ह़ै. निशांत को उन्होंने शादी से पहले गोद लिया था. रितु की बात सुनकर मैं घबरा गया. जाने कौन-सा धर्म, कैसे संस्कार हों लड़के के? बिनब्याही मां का गोद लिया लड़का? मैं मान भी जाऊं, तो समाज और परिवारवाले क्या कहेंगे? मैंने कई बार रितु को समझाने की कोशिश की, लेकिन उसने साफ़ कह दिया, ‘‘पापा, मैं शादी करूंगी तो सिर्फ निशांत से और किसी से नहीं! मैं उससे बहुत प्यार करती हूं पापा, और आख़िर आप क्यों इंकार कर रहे हैं इस रिश्ते से…? क्योंकि वह गोद ली हुई संतान हैं? या इस डर से कि समाज क्या कहेगा?’’ न जाने कहां से आ गई थी इतनी हिम्मत उसमें! शायद प्यार से… या अपना प्यार खो देने के भय से! पर मैं क्यों नहीं जगा पाया था इतनी हिम्मत अपने अंदर, एक लड़का होकर भी.
ठीक ही कहती थी सिया, ‘‘अतुल, तुम परवाह बहुत करते हो, उनकी भी जिनकी नहीं करनी चाहिए. दूसरों का सहारा लेकर तुम ख़ुद को बचाना चाहते हो. जानते हो ऐसे लोगों को क्या कहते हैं- कायर, बुज़दिल!’’ तुम्हारी बेबाक़ बात सुनकर मैं तिलमिलाते हुए कहता था, ‘‘ऐसा कुछ नहीं है. मैं कायर नहीं हूं.’’ पर आज… आज मैं स्वीकार कर सकता हूं सिया कि वह तिलमिलाहट इसलिए नहीं होती थी कि तुम ग़लत थीं, बल्कि इसलिए थी, क्योंकि मुझमें इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि मैं इस सच को स्वीकार कर सकूं!
जिस दिन तुम्हें पहली बार देखा था कॉलोनी के बच्चों के साथ बारिश की रिमझिम फुहारों में भीगते हुए, शायद उसी दिन से मैं तुमसे प्यार करने लगा था.
मैं बस तुम्हें देखे ही जा रहा था. कितनी सुंदर लग रही थीं तुम! लंबे काले बाल, सफ़ेद सूट, कजरारी काली आंखें और बच्चों-सी तुम्हारी खिलखिलाती हंसी…! जीवन के 55 वसंत देख लेने के बाद भी आज तक मैं उस दृश्य को एक पल के लिए भी नहीं भूल पाया हूं सिया!
बाद में मुझे पता चला कि तुम लोग मेरे घर के बगल वाले मकान में ही रहने आए हो. तुमने उसी कॉलेज के प्रथम वर्ष में दाख़िला लिया था, जिसमें मैं पढ़ता था और हमारा विषय भी एक ही था. तुम बीएससी कर रही थीं और मैं एमएससी बगल में घर होने के कारण हमारे परिवारों में अच्छी मित्रता हो गई थी और तुम्हारा मेरे घर आना-जाना होने लगा था. एक दिन जब तुम्हारी मां ने मुझे तुम्हें पढ़ाने के लिए कहा तो मुझे लगा, मानो मेरे मन की मुराद पूरी हो गई हो और मैं तुम्हें पढ़ाने के लिए तुम्हारे घर आने लगा. जब कुछ समझाते हुए मैं तुम्हें अपलक अपनी ओर देखता पाता, तो बस बोलना भूल कर तुम्हारी ओर ही देखता रह जाता. तुम कितना खीझ जातीं और चिढ़कर कहतीं, ‘‘क्या अतुल, आप बोलते-बोलते कहां खो जाते हो?’’ मैं कैसे बताता तुम्हें कि मेरे ख़्यालों में तो बसनेवाली सिर्फ तुम हो सिया. और देखते-देखते पूरा साल बीत गया. पढ़ाई के साथ-साथ मैं नौकरी की तलाश में भटकने लगा. कई परीक्षाएं देने के बाद भी नाकामयाबी ही हाथ लग रही थी.
एक दिन मैं यूं ही अपनी छत पर उदास बैठा था कि तभी तुम वहां आ गईं और बोलीं, ‘‘आंटी ने बताया कि आप कुछ परेशान हैं. क्या हुआ जिस इंटरव्यू के लिए गए थे, वह नौकरी नहीं मिली क्या?’’
मैंने बुझे स्वर में कहा, ‘‘हां और अब लगता है कि कभी मिलेगी भी नहीं!’’
‘‘कैसी बातें कर रहे हैं आप? इतनी जल्दी हिम्मत मत हारिए, मैं हूं न आपके साथ! और पता है, मेरा मन कहता है कि बहुत जल्दी ही आपको बहुत अच्छी नौकरी मिलनेवाली है.’’
उस पल न जाने कैसे मुझमें हिम्मत आ गई कि मैंने तुम्हारा हाथ थामकर अपने प्यार का इज़हार कर दिया और तुमने भी पलकें झुकाकर मेरे हाथों में अपना हाथ रखकर मेरा प्यार स्वीकार कर लिया. कितना ख़ुश था मैं कि तुम मेरी हो गई हो. तुम्हारे आने से अचानक मेरे जीवन में सब कुछ अच्छा-ही-अच्छा होने लगा था.

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कुछ ही दिनों के बाद मुझे बहुत अच्छी नौकरी भी मिल गई. कितने हसीन दिन थे वे. न कोई सोच थी, न कोई चिंता. बस, प्यार ही प्यार बिखरा था हमारे आसपास. तुम जैसा सुंदर और समझदार साथी पाकर मैं बहुत ख़ुश था. देखते-देखते कब दो साल बीत गए, पता ही न चला. कितने वादे थे इन दो सालों के. सब कुछ ठीक ही चल रहा था, फिर अचानक एक दिन जब तुमने मुझे बताया कि घर में तुम्हारी शादी की बात चल रही है और कुछ लोग तुम्हें देखने आनेवाले हैं, तो मुझे लगा मानो किसी ने मुझे अचानक सपनों के आकाश से हक़ीक़त के धरातल पर लाकर पटक दिया हो.
मैं कांप उठा था, जब तुमने मेरे सीने पर सिर रखकर रोते हुए कहा था, ‘‘अतुल, इससे पहले कि मेरी शादी कहीं और तय कर दी जाए, अपना लो मुझे! मैं तुम्हारे बिना जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकती. अगर तुम्हें खो दिया तो मैं ख़ुद को भी खो दूंगी. जो करना है अभी करना है, कहीं ऐसा न हो कि बहुत देर हो जाए!’’
मैंने तुम्हें तो किसी तरह समझा दिया था, पर मैं ख़ुद बहुत डर गया था कि कैसे बात करूंगा पिताजी से! बचपन से ही मैं उनसे बहुत डरता था, कोई बात करता भी तो मां को बीच में रखकर. मां तुम्हें पसंद तो करती थीं, पर इस बार वह मेरी मदद करेंगी, इसमें ज़रा संदेह था और ठीक उसी समय आई थी पूना की एक कंपनी में दिए इंटरव्यू में मेरे सिलेक्शन की ख़बर… पूना की नौकरी मुझे मिल गई है. बहुत हिम्मत जुटा कर जब ये बात मैंने सिया को बताई तो उसने ज़ोर से मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा था, ‘‘नहीं अतुल, नहीं… तुम इस तरह मुझे बीच में छोड़कर नहीं जा सकते! कुछ करो अतुल- अपने लिए, हमारे प्यार के लिए!’’ मैंने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘ठीक है, एक काम करते हैं, मुझे परसों शाम को पूना के लिए निकलना है, उससे पहले आकर मैं तुम्हारे पापा से बात करूंगा. यदि वे मान गए, तो मेरे पापा को भी मना लेंगे!’’ इस पर तुमने कहा था, ‘‘अतुल आना ज़रूर, मैं इंतज़ार करूंगी तुम्हारा… मेरा विश्‍वास मत तोड़ना, वरना मैं जीवनभर किसी पर दोबारा भरोसा नहीं कर पाऊंगी!’’
तुम्हारे इन शब्दों ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया था. मैं बहुत हिम्मत जुटाता रहा, तुम्हारे घर आने के लिए, पर न आ सका! कायर था न, इसलिए बुज़दिलों की तरह तुमसे मिले बिना ही पूना चला गया! कई बार सोचता रहा था कि तुमने कैसे सहा होगा इस आघात को, मेरे पलायन को! क्या कभी माफ़ कर सकी होगी तुम मुझे? और फिर एक अरसे तक मैं घर नहीं आया था. डरता था, तुम्हारा सामना करने से!
और जब 6-7 माह बाद मैं घर लौटा तो पाया कि तुम्हारे घर में ताला पड़ा है. बाद में मां ने बताया कि तुम लोग यह घर और यह शहर छोड़कर चले गए हो. तुम्हारे पापा का ट्रांसफ़र हो गया था. तुम लोग कहां गए, उन्हें कुछ मालूम न था. मैं तड़पकर रह गया था तुम्हारे इस तरह चले जाने से, जिसका कारण कहीं-न-कहीं मैं ही था.
एक दिन मेरे दोस्त मनीष ने मुझसे पूछा था, ‘‘क्या तुम उसे ढूंढ़ने की भी कोशिश नहीं करोगे?’’ उसके सवाल पर मैंने नज़रें झुका ली थीं, क्योंकि मैं जानता था कि तुम्हारे मिल जाने पर भी मैं तुम्हें पाने की हिम्मत नहीं जुटा सकता था.
व़क़्त गुज़रा और मेरी शादी हो गई, पर तुम्हारी यादें मेरे मन से न मिट सकीं. हां, वक़्त की गर्द ने उन्हें कुछ धुंधला ज़रूर कर दिया था.
मैं बस सोचता ही रह गया कि काश, एक बार तुमसे मिल पाता तो कहता कि सिया मुझे माफ़ कर दो! मैं सचमुच कायर था, जो कुछ न कर सका- न अपने प्यार के लिए, न तुम्हारे विश्‍वास के लिए! पर शायद मेरी कायरता की यही सज़ा थी कि मैं जीवनभर इस पश्‍चाताप की आग में जलता रहूं और तुम मुझे कभी न मिलो.
मुझे अपने विचारों को वहीं रोकना पड़ा, क्योंकि रितु ने आकर कहा कि निशांत की मां आई हैं मुझसे मिलने. मैं बाहर गया तो देखा कि हल्के धानी रंग की साड़ी में लिपटी एक गौरवमयी महिला खड़ी हैं, मैंने कहा, ‘‘जी कहिए…’’ मेरी आवाज़ सुन कर वह मेरी ओर मुड़ी, उसे देखते ही मैं चौंक पड़ा, ‘‘सियाऽऽ…!’’

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वह भी मुझे देख कर स्तब्ध थी, ‘‘अतुल तुम…?’’ वह इंसान, जिसे मैं बरसों से तलाश रहा था, वह आज अचानक इस तरह मेरे सामने आ खड़ी होगी, मैंने सपने में भी इसकी कल्पना नहीं की थी! मैं अब तक यक़ीन नहीं कर पा रहा था कि सिया… मेरी अपनी सिया… मेरे सामने खड़ी है! कितना कुछ कहना चाहता था उससे, पर न ज़ुबान साथ दे रही थी, न मन!
मैंने अचरज से कहा, ‘‘सिया, तुम हो निशांत की मां…?’’
वह दृढ़ स्वर में बोली, ‘‘हां… मैं ही हूं निशांत की मां..!’’ मैंने मुस्कुराने की नाकाम कोशिश करते हुए कहा, ‘‘लगती तो नहीं हो. बिल्कुल भी नहीं बदली हो तुम! बस, ये चश्मा लग गया है.’’
वह ठहरे हुए स्वर में बोली, ‘‘हां… ठीक कहते हो, मैं आज भी वैसी ही हूं, जैसा तुम मुझे छोड़कर भाग गए थे…! आज भी उतनी ही हतप्रभ- क्या और कैसे हो गया ये सब…?’’
मैंने दबे स्वर में पूछा, ‘‘माफ़ नहीं कर सकी न मुझे आज तक…? तुम तो जानती थी न कि मैं मजबूर था सिया!’’
वह तड़पकर बोली, ‘‘बिल्कुल ठीक कहते हो. नहीं माफ़ कर सकी मैं तुम्हें आज तक…! और न शायद कर सकूंगी. तुम्हें कोई हक़ नहीं था अतुल किसी की भावनाओं से खेलने का. नहीं माफ़ कर सकी तुम्हें, क्योंकि तुम्हारी कायरता की सज़ा मैंने भोगी है अतुल…! तुम्हारे चले जाने के बाद भी मैं तुम्हारा इंतज़ार करती रही थी, इस आस पर कि तुम्हें जब भी मेरे प्यार की गहराई का एहसास होगा, तुम लौट आओगे मेरे पास… वो शहर छोड़ने के आख़िरी पल तक मैं तुम्हें तलाशती रही. तुमसे मिलने, तुमसे बात करने की कोशिश करती रही, पर सब व्यर्थ था… फिर भी दिल को कहीं-न-कहीं ये भरोसा था कि तुम मुझे यूं छल नहीं सकते. यक़ीन था मुझे कि एक दिन तुम आओगे और कहोगे, ‘बस, बहुत हो गया सिया, बहुत धोखा दे लिया ख़ुद को… सच तो यह है कि मैं नहीं रह सकता तुम्हारे बिना… और बस एक पल में सब ठीक हो जाएगा…’’
अपनी आवाज़ में उतर आई नमी को संभालकर सिया ने कहा, ‘‘…इसी उम्मीद के सहारे जाने से पहले तुम्हारे दोस्त मनीष को अपना पता दे गई थी, पर उससे कहा था कि पता तुम्हें तभी दे जब तुम मांगो, जब तुम ख़ुद मुझे तलाशो, वरना नहीं! पर तुमने न मुझे तलाशा, न उससे मेरे बारे में पूछा…! मैं बार-बार उससे तुम्हारे बारे में पूछती- ‘क्या वह मुझे याद करता है? क्या मुझे तलाशता है? क्या मेरी ज़रूरत महसूस करता है?’ पर मेरे हर सवाल का जवाब उसकी चुप्पी ही होती थी. उसने मुझे कितना समझाना चाहा कि मैं भूल जाऊं तुम्हें… पर मैं जाने किस चमत्कार के घटित होने का इंतज़ार कर रही थी. मुझे लगता था कि तुम ज़्यादा दिन मुझसे अलग न रह सकोगे और मुझे ढूंढ़ते हुए आ जाओगे एक दिन और ले जाओगे अपने साथ… फिर एक दिन उसने बताया कि तुम्हारी शादी हो गई है… उस दिन दिल के किसी कोने में जलता उम्मीद का आख़िरी दीया भी बुझ गया था..!’’
इतना कहकर वह ख़ामोश हो गई. फिर जैसे ख़ुद से ही सवाल करती हुई बोली, ‘‘लाख सिर पटकूं, पर एक सवाल का जवाब नहीं मिलता कि तुम भी मुझसे प्यार करते थे, फिर तुम्हारे पलायन की… हमारे अलगाव की वजह क्या थी? क्या कमी थी मुझमें, जो इस तरह बीच रास्ते मुझे छोड़कर भाग गए तुम…?’’
मैंने सिर झुकाकर कहा, ‘‘डरता था सिया… डरता था मम्मी-पापा के इंकार से… डरता था कि उन्होंने इंकार कर दिया, तो मैं तुम्हें खो दूंगा…!’’ मेरी बात सुनकर सिया बहुत ज़ोर से हंसी, पर उसकी वह हंसी जैसे मेरे कानों में पिघला शीशा उड़ेल गई थी.
वह बोली, ‘‘तो क्या इसके बाद भी तुम मुझे पा सके अतुल…? यह क्यों नहीं कहते कि तुम मुझे पाना ही नहीं चाहते थे. तुम्हें कभी प्यार था ही नहीं मुझसे… तुम डरते थे अपने मम्मी-पापा के सामने अपनी छवि के धूमिल हो जाने से… मैं ही पागल थी, जो उन्मुक्त पवन को अपनी बांहों में थामने की कोशिश कर रही थी. बस, यही बात हर पल तड़पाती है मुझे कि तुमने एक बार भी मुझे पाने की कोशिश नहीं की. लड़ने से पहले ही हार मान ली तुमने… मैं तुम्हें माफ़ नहीं कर सकती…!’’
सिया की बात सुन अतुल ने बुझे स्वर में कहा, ‘‘तुम जो चाहे कह सकती हो सिया, आज सारे अधिकार हैं तुम्हारे पास… पर हर इंसान के जीवन में कुछ ऐसे पल आते हैं, जिनमें वह बहुत कमज़ोर पड़ जाता है और बस एक पल ऐसा ही था वो, जिसमें मैंने तुमसे दूर जाने का निर्णय ले लिया था. यह तो बाद में समझ में आया कि उस एक कमज़ोर पल के निर्णय ने कितनी तबाही मचा दी थी.’’

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‘‘बस एक पल…! तुम्हारे लिए वह एक पल का निर्णय रहा होगा अतुल, पर उस एक पल ने मेरा पूरा जीवन तहस-नहस करके रख दिया था. तुम्हारे उस एक पल की सज़ा मैंने अपना जीवन देकर काटी है अतुल… पूरा जीवन…’’ सिया ने अतुल को लगभग झकझोरते हुए कहा.
‘‘तुम्हारे साथ जो किया था मैंने, उसकी सज़ा मुझे भी मिली है सिया. अपने शादीशुदा जीवन में एक पल के लिए भी वह ख़ुशी अनुभव नहीं कर पाया, जो मैंने तुम्हारे साथ चाही थी. तुम्हारी कमी को मेरा मन एक पल को भी भुला नहीं पाया था. मैं कायर था जितना यह सच है, उतना सच यह भी है कि मैंने तुमसे बहुत प्यार किया था सिया और तुमसे किए उस छल के कारण, मेरी आत्मा सदा ही मुझे कचोटती रही है. एक पल भी सुकून का नहीं पाया मैंने तुमसे अलग होकर सिया…’’
अतुल की आवाज़ कहीं दूर से आती लगी, ‘‘जब तक तुम मेरे साथ, मेरे पास थी मैंने तुम्हारी कद्र नहीं की. पर तुम्हारे जाने के बाद समझा कि तुम मेरे जीवन का कितना बड़ा सहारा बन चुकी थी. तुम बिन मैं स्वयं को बहुत असहाय और अधूरा महसूस कर रहा था. न जाने कितनी बार मैंने ईश्‍वर से दुआ मांगी कि एक बार, बस एक बार मुझे सिया से मिला दो, फिर मैं उसे कहीं जाने न दूंगा! पर मैं इतना कमज़ोर इंसान था कि एक बार तुम्हें ढूंढ़ने की हिम्मत भी नहीं जुटा सका… जानता हूं कि ये सारी बातें, मेरे अपराध को या तुम्हारी तकलीफ़ को किसी तरह कम न कर सकेंगी, पर फिर भी… जो तकलीफ़ें तुमने सही हैं, उसकी तुलना में मेरी तकलीफ़ें कुछ भी नहीं…’’
कुछ पलों के बाद, वहां पसर आए सन्नाटे को तोड़ते हुए सिया ने कहा, ‘‘मैं जानती थी और जानती हूं कि तुम आज भी उतने ही कायर और भीरु हो जितने तब थे, वरना अपनी बेटी की ख़ुशियों का गला यूं न घोंटते! क्यों ऐतराज़ है तुम्हें इस शादी से? सिर्फ इसलिए न, क्योंकि मैंने उसे गोद लिया है? पर मैं ही हूं उसकी मां भी और पिता भी! मैंने तो ऐसे पुरुष भी देखे हैं, जो अपनी कायरता को मजबूरी का नाम देने से नहीं चूकते!’’
‘‘निशांत कौन है सिया…?’’ अतुल ने ठहरे हुए स्वर में पूछा.
कुछ पलों की ख़ामोशी के बाद सिया ने कहा, ‘‘तुम्हारे चले जाने के बाद मैं भरोसा खो चुकी थी ख़ुद पर से और दूसरों पर से भी. तुमसे प्यार करने की, तुम पर विश्‍वास करने की बहुत बड़ी सज़ा मिली थी मुझे. अब किसी और पर भरोसा करने की न तो मुझमें ताक़त बची थी और न ही इच्छा… घरवाले कह-कह कर हार गए कि शादी कर लो. पर मेरे मन में किसी भी रिश्ते के प्रति जो नाराज़गी और डर की भावना आ गई थी, उसने मुझे फिर किसी रिश्ते में बंधने नहीं दिया… फिर मैंने एमबीबीएस किया और डॉक्टर बन मरीज़ों की सेवा को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया. निशांत का जन्म मेरे ही हाथों हुआ था. उसे जन्म देते ही उसकी मां चल बसी और उसके पिता का पहले ही देहांत हो चुका था. मैं उसकी ममता के बंधन में बंध गई और इसे अपना लिया. बस, यही है मेरी और मेरे बेटे निशांत की कहानी! और रही संस्कारों की बात तो इतना कह देना काफ़ी होगा कि वह कायर या भीरु नहीं है. उसने जिस लड़की से प्यार किया, उसका हाथ मांगने वह ख़ुद आया था उसके पिता के पास…!’’
इतना कुछ सुनने के बाद भी अतुल के मन से शंका का बीज गया नहीं था, ‘‘और वह ख़ुशनसीब कौन है, जिसके नाम का सिंदूर है तुम्हारी मांग में सिया…?’’
उसने हंसकर अतुल की ओर देखा और व्यंग्यात्मक स्वर में बोली, ‘‘तब निशांत 5 वर्ष का था और मैं अपने जीवन के 32 वसंत पार कर चुकी थी. ठीक ऐसे ही समय आए थे मेरे जीवन में डॉ. विवेक… जिन्होंने यंत्र मानवी बन चुके इस शरीर में फिर से नारी सुलभ संवेदनाएं जगाईं. मेरे होंठों को फिर से मुस्कुराना सिखाया और मशीन बनकर रह गए मेरे हृदय को फिर से नई ताल पर धड़कना सिखाया… जिन्हें मैं हर कमी के साथ स्वीकार थी, जिन्हें मेरा निशांत स्वीकार था… आज मैं सिर्फ उन्हीं की वजह से सफल हूं और ख़ुश भी…!’’
अतुल ने एक लंबी सांस लेकर कहा, ‘‘और मैं… मैं जीवन के उस मोड़ पर, जब एक साथी की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है, उदास और तन्हा खड़ा हूं… तुम्हें जो दुख दिए मैंने, उनकी सज़ा तो मिलनी ही थी मुझे… पर अब मैं फिर से वही ग़लती दोहराने की भूल नहीं करूंगा. जो मैंने 25 बरस पहले की थी. शायद इसी से मेरे पाप का कुछ प्रायश्‍चित हो सके…’’ इतना कह अतुल ने दोनों हाथ जोड़कर सिया से कहा, ‘‘हो सके तो मुझे माफ़ कर दो सिया और मेरी बेटी को अपने बेटे के लिए स्वीकार कर लो… मैं नहीं चाहता कि मेरी ग़लतियों की सज़ा मेरी बेटी भी भुगते… उसे स्वीकार कर लो सिया… उसे स्वीकार कर लो…!’’
अतुल की आंखों से छलक आए आंसुओं का मान रखते हुए सिया ने रितु को बुलाकर कहा, ‘‘अपने पापा को संभालो बेटा, ये तो तुम्हारे इस घर से चले जाने के ख़्याल से अभी से रोने लगे हैं…! इनसे कहो कि कुछ आंसू तुम्हारी विदाई के वक़्त के लिए भी बचाकर रखें…’’ सिया की बात सुनकर अतुल और रितु दोनों के चेहरों पर राहत भरी मुस्कान तैर गई.

- कृतिका केशरी

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